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गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

अपने घर में दें प्रमाण!

           अं अः  ( मैं राष्ट्र भाषा हूँ)

जिस घर में हम रहते हैं, जिस घर में हम पैदा हुए और जिस घर की पहचान हमसे बनी हो - वही घर कहे  कि  मैं इस बात का प्रमाण पेश करूँ कि मैं इस घर की ही सदस्य हूँ.  इससे अधिक लज्जाजनक बात और क्या हो सकती है? ये कहने वालों के लिए डूब मरने वाली बात है. ऐसी घटना हो भी हमारे घर में ही सकती है. हाँ मैं अपने ही देश की बात कर रही हूँ.
                हिंदी ब्लॉग्गिंग के लिए नए नए आयाम खोज रहे हैं और हमारे माननीय हमें लज्जित कर रहे हैं.
हिंदी राष्ट्र भाषा है, इसके लिए हमारी हिंदी एक अदालत से हार कर दूसरी अदालत का दरवाजा खटखटा रही है क्योंकि इस अदालत को यह नहीं मालूम है कि हिंदी को संविधान में  किस धारा में राष्ट्र भाषा घोषित किया गया है .
                   एक खबर के अनुसार - गुजरात उच्च  न्यायलय  में हराने के बाद हिंदी राष्ट्र भाषा का स्थान पाने के लिए सर्वोच्च न्यायलय की शरण में पहुंची है. देश का संविधान लागू हुए ६० वर्ष हो चुके हैं लेकिन देश कि राष्ट्र भाषा क्या हो? अभी तक निश्चित नहीं हो सका है. संविधान के अनुच्छेद ३४३-४४  में हिंदी को 'देश की राजभाषा ' घोषित करता हो लेकिन गुजरात उच्च न्यायलय ने कहा कि 'ऐसा कोई प्रावधान या आदेश रिकार्ड में मौजूद नहीं है, जिसमें हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा घोषित किया  गया हो. '
              गुजरात उच्च न्यायलय ने गत १३ जनवरी को अपने एक फैसले में कहा, 'सामान्यतः भारत में ज्यादातर लोगों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा कि तरह स्वीकारा है, बहुत से लोग हिंदी बोलते हैं और  देवनागरी में लिखते हैं लेकिन रिकार्ड पर ऐसा कोई आदेश या प्रावधान मौजूद नहीं है, जिसमें हिंदी को देश की राष्ट्र भाषा घोषित किया गया हो.'
                     संविधान बन गया और व्याख्या भी हो गयी , किन्तु अभी तक ये स्पष्ट नहीं हो पाया है कि हिंदी का क्या स्थान है? हिंदी भाषी पूरे भारत में सर्वाधिक लोग हैं और जो नहीं भी हैं वे हिंदी को पूरी तरह से बोल और समझ सकते हैं. अभी तक हम अंग्रेजी के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाए हैं. कितना अपमान जनक लगता है कि और देशों के प्रतिनिधि अपनी भाषा में ही स्वयं को प्रस्तुत करते हैं और हम अपने को अंग्रेजी में . ऐसा नहीं  है कि उनको अंग्रेजी नहीं आती बल्कि इसलिए कि देश कि गरिमा अपनी भाषा, वेशभूषा और संस्कृति में होती है. जब हमारे जन प्रतिनिधि अपनी बात हिंदी में नहीं प्रस्तुत  कर सकते हैं तो  वे हमारे प्रतिनिधित्व की बात क्यों करते हैं? जब हम अपने देश के प्रतिनिधियों को विदेशी सम्मेलनों में बोलते हुए सुनते हैं तो बहुत अपमान जनक लगता है. हमारी अपनी पहचान क्या है? यही कि हम अपनी पहचान के लिए अदालत के दरवाजे खटखटा रहे हैं. एक आवाज उठानी चाहिए कि संविधान के अनुच्छेदों का पुनरीक्षण किया जाय और उनके बारे में विभिन्न साधनों के द्वारा समस्त नागरिकों को अवगत कराया जाय. जिससे कि न्यायलय ऐसे निर्णय देने से पहले विचार करे कि इसका विरोध सिर्फ कोई संविधानविद ही न करे अपितु एक आम नागरिक उस पर ऊँगली उठा कर बता सके कि संविधान में क्या लिखा है और कहाँ लिखा है?
                      समस्त ब्लोग्गेर्स से प्रार्थना है कि इस विषय को अपने स्तर पर तो हम उठा ही सकते हैं. इस बारे में अपने विचारों से अवगत कराएँ.

5 टिप्‍पणियां:

  1. निश्चित ही बहुत अफसोसजनक है और इस हेतु एक विशाल अभियान चलाने की आवश्यक्ता है. आपने सही मुद्दा उठाया है.

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  2. बिलकुल सही मुद्दा उठाया है,रेखा दी...,,आपका कहना बिलकुल सही है...."संविधान बन गया और व्याख्या भी हो गयी , किन्तु अभी तक ये स्पष्ट नहीं हो पाया है कि हिंदी का क्या स्थान है? "
    और इसी अस्पष्टता की वजह से विरोध के स्वर इतने मुखर हो रहें हैं....दक्षिण के राज्यों की बात तो छोड़ दें,गुजरात और महाराष्ट्र भी हिंदी को राष्ट्रभाषा मानने को तैयार नहीं....
    प्रारम्भ से ही राजनेताओं की तुष्टिकरण की नीति ही हिंदी की वर्तमान दशा के लिए जिम्मेवार है

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  3. हमारे नेताओ का किया धरा है सब.. वैसे अभे भी इस बात पर दन्गे हो जायेगे.. लाखो लोग मारे जायेगे.. इतने लोगो की कुर्बानी देने से अच्छा है कि हिन्दी आफ़िशियल लैन्गवेज ही बनी रहे..

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  4. पंकज जी,
    हमारे स्वतन्त्र भारत में सबसे अधिक कोई चीज अब तक होती रही है वह है दंगे. इन दंगों ने ही तो सारा देश का प्रारूप बिगाड़ कर रख दिया है. हमारे संविधान पर पूरा देश चल रहा है फिर उसकी व्याख्या के बारे में सबकोपता होना चाहिए. जब की हमारी अदालतें ही इस बात से वाकिफ नहीं है.

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  5. रश्मि, समीर जी,

    ये बड़ा ही आवश्यक मुद्दा है, जब हम अपने घर में ही उचित स्थान नहीं दे पा रहे हैं तो फिर विश्व के पटल पर क्या स्वरूप रखें? सारे राज्य संविधान से जो उनके हित की बात है उसके लिए संविधान की दुहाई देते हैं और जिन पर उनकी सहमति नहीं है उनको अपनाना ही नहीं चाहते हैं. वास्तव में जरूरत इस बात की है की स्वस्थ मानसिकता वाले युवा वर्ग को अब राजनीति में आकर इसको स्वरूप को नए आयाम देने होंगे. जहाँ जिसकी जो गरिमा है उसको वह स्थान प्रदान किया जाए.
    हिंदी से ही भारतीय की पहचान है. इसके लिए सदप्रयास हों तो सबसे अच्छा है.

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