जहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़ियाँ करती हैं बसेरा ..............
इस सोने की चिड़िया वाले देश में अब इंसान माटी के मोल बिक रहे हैं. मध्य प्रदेश में ९ आदिवासी ने ५० हजार में खुद को बेच दिया . कभी सोचा है किसी ने क्यों?
पेट की आग ऐसी होती है कि कभी अपने और कभी बच्चों के पेट की आग शांत करने के लिए - माँ खुद को बेचती है और कभी बाप अपने ही बच्चों को बेच देता है. नाबालिग लड़की किसी बूढ़े के हाथ बेच दी जाती ताकि बाकी बच्चों के लिए वे रोटी जुटा सके. ये गरीबी उनकी नियति है और हमारे देशमें विश्व के पटल पर बड़े बड़े कीर्तिमान स्थापित किये जा रहे हैं. हमारे सांसद अक्सर विदेश यात्राओं का सुख उठाते रहते हैं और लाखों रुपये खर्च करते रहते हैं. क्या किसी को अपने ही क्षेत्र की इस बात का ज्ञान नहीं है कि लोग क्यों बिक रहे हैं? और जो खरीदेगा वह उनके लिए कालीन बिछा कर नहीं बैठा है कि तुम आओ और सो जाओ. खून की बूँद तक निचोड़ लेते हैं तब मुहैया होती है रोटियां. कितने बच्चे किसी हलवाई की दुकान के आगे या पीछे खड़े होते हैं कि खाने वाला दोने फेंके और वे उसे उठ कर चाट लें और कुछ तो पेट की आग शांत होगी. ऐसा भूखा और नंगा है हमारा देश - हम इस सत्यता से मुंह क्यों चुराना चाहते हैं? वे जो गद्दी लिए बैठे हैं, उनकी आँख का चश्मा उतर चुका है .
उन्हें न देश में पानी की त्राहि त्राहि नजर आती है और नहीं बिजली की कमी से बंद होते रोजगार के अवसर. कितने श्रमिक सडकों पर आ चुके हैं. किसी प्रदेश में इन रोजमर्रा की जरूरतों से अधिक जरूरी पार्कों और मूर्तियों की जरूरत है. एक गैर जिम्मेदार सरकार जिस पर निजाम की तरह कोई अंकुश नहीं है. अपने हाथ हम पहले ही कटवा चुके हैं और काटने वाले अब उसमें सुधार के इच्छुक भी नहीं है क्योंकि वे सब हैं एक ही थैली के चट्टे -बट्टे. देश की राजधानी में बैठे सांसदों को अपने वेतन और भत्तों में तीन गुनी बढ़त चाहिए क्योंकि उनका खर्च नहीं चल पा रहा है. अरे इन लोगों से पूछो कि जो खुद को बेचकर परिवार पालने जा रहे हैं और एक तुम हो तुम्हारा पेट सिर्फ पैसों से ही भरता है और उसमें भी कम नजर आता है.
इतनी बड़ी संसद में कौन सा सांसद ऐसा है जिसने कभी कहा हो की हमारे वेतन और भत्तों के कुछ प्रतिशत देश की दशा सुधारने में लगा दिया जाय. उनके वेतन और भत्तों की फेहरिस्त देख ली जाए तो लगता है कि ये धंधा अच्छा है, साम दाम दंड भेद बस एक बार संसद में पहुँच जाओ फिर तो सात पीढ़ियों के पौ बारह. कुछ तो वहाँ सिर्फ पार्टी के नमूने बने बैठे रहते हैं और कभी कभी मतदान में संख्या बढ़ाने के लिए ही होते हैं. जिस देश को चूस कर खाने के लिए इतने सारे विधायक और सांसद होंगे वहाँ इंसान खुद को बेचेगा नहीं तो क्या इन जैसों की भूख कभी शांत होगी? कभी नहीं, इनके पास कोई विकास का प्रश्न नहीं होता है ? बस संसद में बैठ कर हंगामा करने के लिए सत्र बुलाये जाते हैं .
इस सोने की चिड़िया देश में कुछ नौकरशाह और सांसद ही करोड़ों की संपत्ति के मालिक होते हैं. वर्ना आम आदमी तो देश की जनगणना के लिए है और रात दिन मेहनत करके दो जून की रोटी कमाने के लिए है. ये सरकार में बैठे हुए लोग - करों के नाम पर रिक्शे वाले, छोटी दुकान वाले, पालिश वाले , सब्जी वाले सब से तो सेवाकर उगाही कर रहे हैं. ये बेचारे सारे दिन के बाद शाम को नमक रोटी ही खा लें बहुत है क्योंकि देश की बढती मंहगाई ने इन्हें पहले से ही भूखे मारने की ठान रखी है. उन्हें कुछ देने के बजाय उनकी कमाई से छीन लेने के लिए क़ानून बनाये जाते हैं और जिन्हें लाखों में मिल रहे हैं - वे बेचारे और लाखों की जुगाड़ में भूखें हैं पता नहीं कितनों की रोटी छीन कर ये खायेंगे तब इनका पेट भरेगा. ये सोने की चिड़िया वाला देश अपने ही नौनिहालों को भूखा मरता देख कर रो रहा है क्योंकि सोने की चिड़िया तो खाई नहीं जा सकती और खाने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं है.
वे बिक रहे हैंं और हम खरीदार हैं
बिकाऊ तो हम भी हैं
लेकिन हमारी कीमत करोड़ों की होती है
ये बेईमानो! भारत माँ अपनी किस्मत रोती है.
ऐसे लालों से तो वो निपूती ही होती.
दूसरे के लालों को अपना कह कर
मुस्कराते चेहरे को देख
चैन से सोती तो होती.
चैन से सोती तो होती.
लाखों शहीद देख कर
अपने बलिदान की दुर्दशा
सोचा न था कि उनकी क़ुरबानी को
तुम इस तरह से भुनाओगे.
देश को ही तुम बेच कर खा जाओगे.
pathetic
जवाब देंहटाएंअपनी तनख्वाह तो ये क्या देंगे, इनकी तो एक सुविधा भी बन्द करने पर जब विचार किया जाने लगता है, तो यही सांसद बवाल मचा देते हैं. अपने ही देश को घुन की तरह खोखला कर रहे है ये.
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा , यही तो जंग छेदनी है कि जिनसे वसूल कर रहे हैं उन्हें भी जीने दो .
जवाब देंहटाएंएक कड़वे सच को बताता आपका ये लेख मन को द्रवित कर गया....
जवाब देंहटाएंangrez to chale gaye..ab humare apne hume loot rahe hain..
जवाब देंहटाएंkadwa or sharmnaak sach hai ye.
जवाब देंहटाएंकडुवा यथार्थ यही है.
जवाब देंहटाएंवैसे भी क्योंकि सोने की चिड़िया तो खाई नहीं जा सकती-खाई जा भी सकती होती मगर वो तो कब की उड़ कर उन लोगों की तिजोरियों में जा बैठी है.
वाकई हालात दुखद और अफसोसजनक हो चले हैं.
जागरुकता के लिए ऐसे लेखन की जरुरत है.
@समीर जी,
जवाब देंहटाएंहम कलम चलाने वाले क्रांति कि बात कर सकते हैं लेकिन हम ही जब एक मत हों. हमें समस्याएं कम दिखाई देती हैं और कि आलोचना और फजीहत करने के तरीके बहुत सारे आते हैं. मेरी तो यही दुआ है कि हम लिखें तो कुछ ऐसा कि लगे हम इस समाज में जी रहे हैं और हमारा हर वर्ग और स्तर से सरोकार है.
बिलकुल कड़वा सच बयाँ करता हुआ आलेख...अफ़सोस तो बहुत होता है...हमारा ही देश कभी सोने की चिड़िया कहलाता था..पर आज उसके खेत उसके ही मिटटी में पली चिड़ियाएँ चुग रही हैं...और बाकी सब बेबस हैं..
जवाब देंहटाएंसच कुछ करना चाहिए...कलम चलाने वाले सिर्फ बातें ही करते हैं...ये ठीक नहीं कार्यरूप में इसे परिणत करने की जरूरत है
आज जब भारत को यहां टी वी पर देखते है तो हमे झूठ बोलना पडता है इन गोरो के सामने, आज इस देश की हालत इन कमीने नेताओ के कारण ही हुयी है, क्या नही हमारे देश मै सब कुछ पेदा होता है होन हार लोग भी है, लेकिन...यह नेता एक गंदा धब्बा है जिन्होने उस सोने की चिडियां को केद कर लिया है, बहुत अच्छा लगा आप का यह लेख.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद