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मंगलवार, 17 अगस्त 2010

सांसदों की वेतन वृद्धि : कितना उचित?

                          सांसदों के वेतन और भत्ते में वृद्धि - एक अहम् मुद्दा जिसे संसद में फिलहाल टाल दिया गया है. बाकी मुद्दे पीछे हैं, कोई एक मत नहीं हो पाटा  है. बहिर्गमन, निष्कासन और बहुत सारे कार्य होते हैं , जिससे हमारी संसद सिर्फ देश में ही नहीं विदेश में भी चर्चित हो जाती है. यह एक  ऐसा मुद्दा है जिस पर पूरी संसद एकमत है. आखिर ऐसा क्यों? न पक्ष और न विपक्ष का कोई असहयोग क्योंकि इससे सभी लाभान्वित होने वाले हैं. तब देश के सारे मुद्दे एक किनारे हो जाते हैं. चोर चोर मौसेरे भाई.
                     
                           उन्हें रहना, फ़ोन, बिजली यात्रा सभी सुविधाएँ मुफ्त प्राप्त होती हैं. उनका वेतन और दैनिक भत्ता  इतना होता है कि उनके लिए कम तो नहीं कहा जाएगा. इस पर भी कल ये दलील पेश की गयी कि -- क्या वाकई सांसदों के वेतन और भत्ते इतने काम हैं की  उनको अपने सार्वजनिक जीवन और जन संपर्क के कार्यों में पूरा  नहीं पड़ पाता है.  
'सांसदों से ईमानदारी की अपेक्षा करना जितना जरूरी है, उतना ही व्यवहारिक बातों पर ध्यान देना भी. जिस तरह से मंहगाई बढ़ रही है, उसमें सांसदों के वेतन भत्ते बढ़ाना बिल्कुल जायज है.'     
                            ये सांसद कितने प्रतिशत एक बार चुनाव जीतने के बाद अपने चुनाव क्षेत्र में जाते हैं. इनको संसद सत्र के अतिरिक्त कभी भी समय नहीं होता है. संसद में प्रश्न पूछने के लिए उन्हें अपने ही क्षेत्र से घूस चाहिए तब वे संसद में मुद्दे उठाएंगे क्योंकि उनका खर्च पूरा नहीं पड़ रहा है. कोई सांसद राज्य सभा में चुनाव के लिए अपने मत की  कीमत १ करोड़ रुपये लगाता  है और कोई ५० हजार. ये कमाई के अतिरिक्त साधन हैं जो कि उनको एक सांसद होने के नाते प्राप्त हैं. 
                      अगर उनके इतर खर्चों पर निगाह डालें तो पता चलता है कि ये कुछ विधायक और सांसद जब तक दो चार हत्याकांड में वांछित  न हों उनका दबदबा कम ही रहता है और इस दबदबे के लिए कई कई गुर्गों को पालने का खर्चा भी तो होता है.  उसको भी शामिल किया जाना चाहिए .
                       कभी इन सांसदों ने सोचा है कि अपने क्षेत्र कि समस्याओं  पर भी इसमें से कुछ खर्च कर दिया जाय. सांसद निधि से वे क्या करवाते हैं? दो मीटर सड़क बनवा दी और एक बड़ा सा पत्थर प्रमाण के लिए लगवा दिया गया चाहे उससे जुड़ी सड़क पानी और कीचड से भरी ही क्यों न पड़ी हो? इसके लिए भी उनके चमचों को पहुँच होती है. नहीं तो ये सांसद आम आदमी कि समस्याओं से दो चार कब होते हैं? हाँ ये जरूर सुनने को मिल जाता है कि इस बार आप हमें जिताइये  हम आपकी ये सड़क पक्की करवा देंगे और नाली पानी की  व्यवस्था जरूर सही करवा देंगे और फिर सब चमचों का राज. 
                       इस जगह एक ऐसे सांसद का उल्लेख मैं जरूरी समझती हूँ जो कि इटावा के जसवंत नगर  क्षेत्र से सांसद थे . अपने कार्यों और  जन सेवा के बल पर सांसद बने. अपना सम्पुर्ण जीवन सेवा कार्य में लगाया . अपने परिवार के लिए इतना भी नहीं कर पाए कि उनके बाद पत्नी को कार्य न करना पड़े. उनकी पत्नी आज भी कपड़ों पर  प्रेस करके अपना जीवन यापन कर रही हैं. (दैनिक जागरण में प्रकाशित खबर के आधार पर.) 
                       कभी इन्होने ये सोचा है कि ६०-७० कि उम्र में काम करके पेट पालने वाले पुरुषों और महिलाओं के लिए ऐसे कार्य संचालित करवा सकें के वे घर में बैठ कर खाना खा सकें. इस उम्र में दूसरों के घर में जाकर काम करने की सामर्थ्य न होने पर भी वे मजबूर हैं. इस उम्र के बुजुर्ग रिक्शा खींच कर अपना और पत्नी का पेट पाल रहे हैं. उनका कोई वेतन नहीं होता और कोई भी भत्ता नहीं होता. अगर रिक्शा नहीं चलाएंगे तो रोती  नहीं खा सकेंगे .
                          ये हमारे जन प्रतिनिधि हैं और सिर्फ अपना और अपना ही हित सोचते हैं जिन्हें अपने वेतन और भत्तों की चिंता है आम इंसां की नहीं.

27 टिप्‍पणियां:

  1. इन बेशर्मों को अब भ्रष्टाचार से कड़ोरपति और लखपति बनकर पेट नहीं भर रहा अब ये अरबपति बनना चाहते हैं | इनकी जरूरत और जिम्मेवारी सिर्फ इस देश और इस देश की जनता को लूटने से है ,ये जनता के पैसों को तो अपने बाप का मॉल समझते हैं लेकिन जनता के प्रति इनकी कोई जिम्मेवारी कहीं भी नहीं दिखती है | शर्मनाक है इनकी करतूत ...

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  2. ये तो नहीं बदलेंगे, अब इस समाज को कुछ सोचना पड़ेगा. क्रांति एक सामाजिक मौन क्रांति जो विचारों की हो अणि है. चुनाव को अब उदासीनता से नहीं बल्कि अपनी अपेक्षाओं के अनुरुप रूप देना होगा.

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  3. हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तान क्या होगा .

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  4. रॆखा जी अब आप केसी है, आप के बच्चे के ई मेल से पता चला था कि कोई दुर्घटना घटी थी आप के संग, आशा करता हुं अब सब ठीक होगा.बाकी मै शिखा जी की बात से सहमत हुं

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  5. अब हमें जाग कर इन उल्लुओं के लिए आवाज उठा कर लोगों को जगाना होगा और तब्दीली का प्रयास करना होगा. बहुत नहीं तो कुछ ही सुधार जाएँ तो हमारी मेहनत सफल हो जाय.

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  6. अगर सचमुच में आप सब देश का विकास चाहते हैं तो जन को हटवा कर, जन प्रतिनिधि बनवायें, रातों रात और दिनों दिन देश को प्रगति पथ पर आरूढ़ पायें।

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  7. रेखा जी
    बिलकुल सही ऐतराज है जन प्रतिनिधि बनते है जिनका जनता के दुःख दर्दो से कोई वास्ता नहीं क्या सत्ता पाकर इतना मदमस्त हो जाता है आज का आदमी ?
    हम भी आपके साथ है |

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  8. अविनाश जी,
    आपने बिल्कुल सही कहा है, हम अपने स्तर से ही इस बात को उठा सकते हैं. हमारा प्रबुद्ध वर्ग ही मतदान के प्रति उदासीन रहता है, काम से काम अपने विचारों से तो लोगों की सोच बदल सकते हैं. अगर इससे कुछ लोग ही बदले तो उनसे मिलकर कुछ और बदलेंगे. आने वाले समय में कुछ तोसुधार होगा.

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  9. शिखा ने तो कह ही दिया.

    आप तो अपनी तबीयत का हाल बतायें.

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  10. विचारणीय लेख ...पर बस विचार कर ही रह जाना पड़ता है ..

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  11. जो आपने यहां कहा है उससे असहमति नहीं है। पर मुझे लगता है कि हमें बात वही उठाना चाहिए जिस पर हम सचमुच में कुछ प्रभाव डाल सकें। अन्‍यथा वह एक नारेबाजी बनकर ही रह जाती है। हर शाख पर उल्‍लू बैठा है आखिरकार यह भी एक तरह की नारेबाजी ही है। हमारे हाथ में ब्‍लागिंग एक हथियार की तरह है,उसका उपयोग इस तरह से करें कि वह प्रभावी हो।

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  12. शिखा जी से सहमत. लेकिन जहा तक मुझे पता है , उत्तर प्रदेश में जसवंत नगर नाम से कोई संसद की सीट नहीं है.

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  13. प्रश्‍न वेतन का नहीं निष्‍ठा का है। 80 हजार क्‍या एक लाख भी दे दे जनता। इससे बहुत अतर नहीं पड़ता। अंतर पड़ता है लाट साहबी प्रवृत्ति से। एक सांसद को संसद की कार्यवाही में भाग लेने के लिये भत्‍ता क्‍यूँ, जब सारा देश अंधेरे में सो रहा हो तो सॉंसद को कितनी बिजली मुफ़्त दी जाये, दूरभाष पर व्‍यय की कितनी अनुमति दी जाये, हवाई यात्रा, रेल यात्रा वगैरह वगैरह किस सीमा तक?
    घोटालों में आकंठ डूबे सॉंसदों के मामलों में अंतिम निर्णय नहीं हो पाते हैं तो क्‍यों?
    सॉंसद और विधायक स्‍वयं के नीति नियंता बने अपनी पेंशन भी तय कर लेते हैं। बहुत कुछ है जो सोचने और करने के लिये है।
    प्रश्‍न निष्‍ठा और प्रतिबद्धता के हैं, वेतन वगैरह तो मरियत बातें हैं जिनको अनावश्‍यक भुनाया जा रहा है मीडिया द्वारा।
    अगर वास्‍तव में कुछ करना है तो मनसा वाचा कर्मणा दिशा बदलनी जरूरी है, इस तरह निकम्‍मे मीडिया द्वारा उछाले गये मुद्दों को तूल देने से कुछ नहीं होगा।

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  14. आपकी पोस्‍ट में कई प्रश्‍न हैं। सवाल वेतन का कभी नहीं होता और ना ही सुविधाओं का। आज एक कम्‍पनी का उच्‍च अधिकारी लाखों रूपया वेतन पाता है। आपने यह भी लिखा कि एक सांसद अच्‍छे हैं और शेष अपने क्षेत्रों में जाते ही नहीं। यह सत्‍य नहीं है। एक बार अध्‍ययन कीजिए इनके काम का, किसी एक भी सांसद को अपनी पसन्‍द से चुन लीजिए और उसके साथ सारा दिन रहिए, आपको पता लगेगा कि वह सारा दिन कितना काम करता है जनता के लिए। देश में इतना भ्रष्‍टाचार बढ़ता जा रहा है इसकारण संसद सदस्‍यों को वेतन नहीं बढ़ना चाहिए यह मुद्दा होना चाहिए। देश की जनता गरीबी में जीती है इसलिए इन्‍हें भी उनका प्रतिनिधि होने के कारण गरीबी में ही रहना चाहिए, यह मुद्दा होना चाहिए। सभी को उल्‍लू बताकर या बेइमान बताकर देश नहीं चलने वाला है। राजनेता भी हमारे समाज से ही निकले हैं, यदि ये बेईमान हैं तो सारा समाज बेईमान हैं इस जिम्‍मेदारी से कोई नहीं बच सकता। यदि सभी को एक ही लाठी से हांक दिया जाएगा तो कोई भी ईमानदार व्‍यक्ति राजनेता नहीं बनना चाहेगा और फिर तो पप्‍पू यादव जैसों का ही प्रवेश होगा। मेरी बात अन्‍यथा लगी हो तो क्षमा चाहती हूँ लेकिन अपने विचार व्‍यक्‍त करने के लिए हम सभी स्‍वतंत्र हैं।

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  15. इन्हे तनखा 1,50,000 रुपए दी जानी चाहिए
    क्योंकि हमारे देश के सांसद बहुत गरीब हैं।
    गरीब आदमी तो एक समय खाकर बच्चे पाल लेगा
    लेकिन इन्हे तो पेट भरने के लिए
    3-3 हजार प्रश्न करने के लेने पड़ते हैं।
    डूब मरने की बात है,संसद की गरिमा गिरा रहे हैं।
    पहले इनकी गरीबी दूर करो।

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  16. Di!! main bhi Ajeet jee ki baato se sahmat hoon.......sansado ka vetan badhna ek alag mudda hai usko ham iss tarah se nahi dekh sakte ki wo janpratinidhi hai ya ghoosh kha rha hai to usko vetan hi na mile.....aak ke din me Group 'A' officers jeetna paate hain, us se upar paane ke to haktaar wo jarur hain........

    haan alag baat hai ki inhe apne kaam ke prati nyay bhi karna hoga....

    waise sach puchho to ham jaise bhi kahan pure 8 ghante kaam karte hain.......lekin fir bhi vetan prapt karte hain, aur jayda paane k liye barabar hamara Association ladta rahta hai.......:)

    to jarurat bas itni hai ki log apne karya ke prati uttardayee bane..........thats all!!

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  17. आज ही लिमटी खरे जी के रोजनामचा में पढ़ा कि देश में जनसेवा का व्यापार करते करते उत्तर प्रदेश के सांसद अक्षय प्रताप सिंह की संपत्ति 2004 में 21 लाख के पांच साल बाद 1841 फीसदी बढ़ गई। राजस्थान के सचिन पायलट की संपत्ति इन पांच सालों में 1746 फीसदी तो एमपी के चंद्र प्रताप सिंह की 1466 फीसदी। केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की संपत्ति में पांच सालो में 431 फीसदी तो कांग्रेस की नजर में देश के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी की संपत्ति में 414 फीसदी का ईजाफा दर्ज हुआ है। बिना किसी विशेष योग्यता के, अगर जनसेवा नामक इस व्यापार में संपत्ति इस कदर बढ़ती है तो निश्चित तौर पर देश का हर नागरिक इस तरह की "जनसेवा" करना ही चाहेगा ।
    इन नेताओ के मुंह खून लग गया है. लल्लू यादव का कहना है कि सांसद का वेतन लिपिक से भी कम है. कोई उसे ये पूछे की सांसद की योग्यता तो चपरासी से भी कम है फिर. वो ये क्यों नहीं कहता की इस देश में जितनी सुविधा नेताओ को है उतनी पुरे विश्व में कही नहीं है. कोई ऐसा बिल क्यों नहीं लाते के देश की पुलिस लोगो की सुरक्षा को प्राथमिकता देगी, नेताओ को न तो वेतन मिलेगा और न ही किसी प्रकार की कोई सुविधाएँ, क्योंकि ये राजनीति में समाज सेवा करने के लिए आये है और सेवा करने पर मूल्य नहीं चुकाया जाता.

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  18. "इन बेशर्मों को अब भ्रष्टाचार से कड़ोरपति और लखपति बनकर पेट नहीं भर रहा अब ये अरबपति बनना चाहते हैं "

    Jhaa sahaab ke ye shabd mere bhee maan leejiye !

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  19. आशीष ,

    मैंने तुम्हारी बात से इंकार इसलिए नहीं कर सकती हूँ क्योंकि मुझे भी वह स्थान ठीक से याद नहीं है. लेकिन ये सच है कि ये खबर सच है और सचित्र प्रकाशित हुई थी. आज ये पेपर मेरे पास नहीं है और न ही मैं उसे खोजने की स्थिति में हूँ, लेकिन ये खबर सही है कि इसी क्षेत्र से वो सांसद रहे थे और उनकी पत्नी इस तरह से गुजरा कर रही हैं. अगर पेपर मिला तो scan करके जरूर लगाऊँगी.

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  20. अजित जी,
    इस राजनीति में मुद्दे तो बहुत सारे हैं और हम हर एक को उठा कर नारेबाजी करके हल नहीं पा सकते हैं. सारे सांसद एक जैसे नहीं है लेकिन अधिकतर ऐसे ही हैं. जो चुने जाते हैं अधिकतर निम्न वर्ग से मत पाते हैं और उनको बदले में कुछ न कुछ नजराना दे दिया जाता है. हम अपनी उदासीनता के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं. जो लोकतंत्र का स्वरूप ban चुका है क्या सारा समाज इसके लिए जिम्मेदार नहीं है? ईमानदारी और बेईमानी दोनों ही समाज कि नजर में छिपी नहीं रहती हैं. चाहे सांसद हो या आम आदमी. जो वर्ग सोच सकता है और दूसरों को इस वास्तविकता से अवगत करा सकता है वो तटस्थ बना रहता है. उसका कहना है कि हम इस चुनाव का बहिष्कार कर रहे हैं लेकिन क्या उनके मत का गलत प्रयोग नहीं किया जाएगा. मैं तो सिर्फ आई आई टी में देख कर बता सकती हूँ, वहाँ के कई प्रोफेसर मत देने नहीं जाते जबकि पोलिंग स्टेशन मात्र १ किलोमीटर के अन्दर होते हैं. किस लिए नहीं जाते हैं क्योंकि वे सारी सुविधाओं का उपयोग कर रहे हैं. न बिजली कि समस्या , न पानी कि न आवास की और न ही पैसे की. फिर क्या सारा चुनाव उनके लिए होता है जो रोटी कपड़ा और मकान के लिए संघर्ष कर रहे हैं. बहुत सारे मुद्दे हैं और उनके लिए जागरूकता जरूरी है. इसके लिए सबको कुछ न कुछ तो सोचना और करना ही पड़ेगा.
    मैंने इतने सालों में चुनाव के अलावा किसी सांसद को अपने इलाके में आते नहीं देखा, वे आम लोगों कि समस्याओं से अवगत क्या होंगे? पर कुछ तो सोचना ही पड़ेगा, कितना सफल होंगे नहीं जानती लेकिन प्रयास तो किया ही जाना चाहिए.

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  21. आदरणीय रेखा जी, उस पेपर में गलत लिखा होगा, क्योकि जसवंत नगर संसदीय क्षेत्र नहीं है. वो एक विधान सभा क्षेत्र है . अब या तो वो सांसद नहीं होगे विधायक होगे.

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  22. तिलक राज जी,

    ये सही है कि मीडिया कुछ चीजों को अनावश्यक टूल देती है लेकिन ये मुद्दे उनकी नियत और निष्ठां से ही जुड़े हैं. जैसे हमको उनको चुनने का अधिकार दिया जाता है वैसे हमें उनसे संतुष्ट न होने पर बुलाने का अधिकार भी मांगना होगा. उनकी सुविधाएँ और वेतन में परिवर्तन उनकी मर्जी के अनुसार नहीं बल्कि उसमें भी जनमत कि भागीदारी होनी चाहिए. मनसा वाचा और कर्मणा वाले जन सेवक अब शेष नहीं हैं. वे अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी स्थान विशेष से निकलने में नहीं चूकते हैं. 'आप लोगों ने इस क्षेत्र से हमें प्रतिनिधि नहीं दिया है तो हम आपको सुविधाएँ क्यों दें?' ये शब्द हैं उ. प्र. के एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री के.
    एक मुख्यमंत्री पूरे प्रदेश का जबावदेह होता है और इस तरह के वक्तव्य से आप क्या कह सकते हैं? सुविधाएँ उन्हें ही मिलेंगी जिसकी सरकार है यदि क्षेत्र विशेष से उसे जिताया है तो. इसके आगे कुछ भी कहना बेकार है. वैसे मुख्यमंत्री जैसे पड़ पर आसीन व्यक्ति को अपनी वाचा पर भी नियंत्रण रखनाचाहिए.

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  23. asheesh,

    ye bhi sambhav hai, main isa bat se inkar nahin kar sakati. mere dimag men usi samay kuchh likhane ki bat uthee thee lekin isa kabil nahin thee aur phir paper hi miss ho gaya.

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  24. ये हमारे जन प्रतिनिधि हैं और सिर्फ अपना और अपना ही हित सोचते हैं जिन्हें अपने वेतन और भत्तों की चिंता है आम इंसां की नहीं....आम इन्सान की ये चिंता करने लगें तो फिर इनका 'खास-पन' कैसे दिखेगा...सामयिक व सशक्त पोस्ट.
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    'शब्द सृजन की ओर' में 'साहित्य की अनुपम दीप शिखा : अमृता प्रीतम" (आज जन्म-तिथि पर)

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ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.