बुधवार, 1 सितंबर 2010
मी लोर्ड ! हम भूखे मर जायेंगे .
हमारी न्याय प्रक्रिया बहुत ही सुस्त है और इससे मुक्त होने के लिए कई प्रयास किये गए और इस दिशा में गुहार जारी भी है लेकिन इसका परिणाम नहीं निकाल पाता है. कभी ये कि हमारे पास जजों की संख्या कम है और लंबित मुकदमें अधिक है तो कार्य कैसे चलेगा? कुछ हमारे न्याय प्रणाली के रास्ते इतने उबड़ खाबड़ हैं कि उन्हें पार करने में वादी की जिन्दगी ही ख़त्म हो जाती है या फिर वह न्याय की आशा में दौड़ते दौड़ते पंगु हो जाता है. ये पंगुता पैसे से, स्वास्थ्य से, और शक्ति सभी से देखी जा सकती है.
इस दिशा में एक विसंगति ये देखने को मिली जो कि अपने आप में एक मिसाल ही है. आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में सिविल न्यायलय में पिछले दिनों एक न्यायाधीश जे. वी. वी. सत्यनारायण मूर्ति ने एक दिन में रिकार्ड १११ मामले निबटाये . उनके कार्य कि गति को देख कर वकीलों के एक वर्ग ने उनसे इस गति से कार्य न करने का आग्रह किया क्योंकि वकीलों को प्रति पेशी १०० से लेकर २०० रुपये फीस मिलती है. सालों चलने वाले मुकदमे उनकी स्थायी आमदनी का साधन है. न्यायाधीश ने उनकी इस दलील के बाद कहा कि वे आपराधिक दंड संहिता के अनुरुप काम कर रहे हैं और उन पर कोई भी सवाल नहीं उठा सकता है. वकीलों के मेहनताने की खातिर वादियों को कष्ट झेलने के लिए विवश नहीं किया जा सकता है.
न्यायमूति ने अपने साढ़े तीन महीने के कार्य काल में ५०० मामले निपटाए है. और अभी १००० मामले उनकी अदालत में लंबित है. पूरे देश में लगभग ३ करोड़ मामले लंबित हैं,.
यदि सभी नहीं तो सिर्फ कुछ प्रतिशत न्यायमूर्ति भी न्यायमूर्ति सत्यनारायण मूर्ति का अनुकरण करें तो इस बोझ को बहुत जल्दी काम किया जा सकता है.
हम न्याय प्रक्रिया के सुस्त होने पर किसको दोष देते हैं? हाँ इतना जरूर है कि वकीलों की इस भूमिका को कभी सोचा नहीं था. क्या सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए वकील ये घिनौनी मानसिकता हैं रखते हैं ( इसमें सभी वकीलों को शामिल नहीं किया जा रहा है, खासतौर पर वे जो इस सोच के नहीं हैं.) वर्षों तक वादियों को लटका कर भटकते रहने के लिए मजबूर करना तो किसी भी कार्य की धर्मिता में नहीं आता है. वकील को फीस लेने का अधिकार होता है लेकिन सिर्फ पेशी पर तारीख बढवा देने पर या न्यायमूर्ति के अनुपस्थित होने पर भी अपनी फीस वसूल करना उचित है क्या? लेकिन ये होता है. गाँव से आने वाला वादी कभी कभी मीलों पैदल चलकर शहर तक आता है और अपने खाने के लिए नमक रोटी और हरी मिर्च और प्याज एक पोटली में बाँध कर लाता है लेकिन अपनी जेब में वकील की पूरी फीस के रुपये जरूर लाता है. इन तारीखों का सिलसिला वर्षों तक ख़त्म नहीं होता है और वादी इसी तरह हर पेशी पर फीस देकर चले जाते हैं. घर बिक जाते हैं, खेत बिक जाते हैं और घर के जेवर तक बिक जाते हैं और उन्हें न्याय नहीं मिल पाता है. कितने इन वकीलों की नीति के शिकार जेल में सड़ते रहते हैं और उनके पैरोकार भी चल बसते हैं
ऐसे न्याय में जिसमें न्याय न हो रहा हो, इसको हम क्या कहेंगे? इन वकीलों को अपने भूखे मरने की बहुत चिंता है लेकिन उन परिवारों की चिंता नहीं होती , जो इस मुकदमेंबाजी के चक्कर में बर्बाद हो रहे हैं यहाँ तक कि ये बिलम्ब उनकी बलि भी ले लेता है. इसके लिए क्या करना होगा? इसके लिए हमारी क्या नैतिक जिम्मेदारी है? इसको कैसे ख़त्म किया जाय? हमें भी अपने विचार प्रस्तुत करने चाहिए.
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एकदम सही लिखा है अपने , मै तो भुक्तभोगी भी रहा हूँ वकील की ऐसी हरकतों का , न्याय प्रक्रिया में तेजी आज की जरुरत है , वो कहते है ना justice delayed is justice denied .
जवाब देंहटाएंकाश ऐसे दो चार जज और हों तो कुछ बेड़ा पार लगे ..
जवाब देंहटाएंजागरूक करने वाला लेख ..
shasan pranali jab bhrasht hai to nyaik pranali kaise bachegi.logon main jaagrookta laane ka achha prayas hai.janta to har jagah thagi jaati hai kyoki nakkar khane maiin tooti kiawaaaj kaun sune.sab apne swarth main jute hain kaash ese judge desh jyada se jyadah paida kare jisse aam aadmi ko jaldi nyay mile....veena parmar
जवाब देंहटाएंआप से सहमत है जी, मेरा वास्ता तो कभी नही पडा लेकिन लोगो से सुना है कि ऎसा ही होता है, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंRekha ji ! tabhi to kahte hain ki kanoon andha hai :)
जवाब देंहटाएंऐसे जजों के कार्य का सराहना की जाय,उनकी केस निबटने की प्र्काक्रिया का ज्यादा से ज्यादा प्रचार हो |वकीलों को दरपेशी की बजाय केस के आधार पर मेहनताना मिले |केस की अवधि तय की जाय |
जवाब देंहटाएंतो कुछ असर हो सकता है |अपने म् भूखे रहने की चिंता में लोगो के तमाम जीवन से खेलना तो वकील का पेशा नहीं होता?इसी लम्बी प्रक्रिया और वकीलों के रवैये को देखकर अक्सर यही तो कहा जाता है \भगवान कभी कोर्ट कचहरी के चक्कर न लगवाये |
जागरूकता का संदेश देता आलेख |
संपूर्ण न्यायप्रक्रिया में बदलाव की जरुरत है.
जवाब देंहटाएंवीना,
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद तुमने यहाँ तक पहुँचने का प्रयास किया. मुझे पढ़ा और उसको जांचा.
जगरूकता बढाने वाला आलेख।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
हिन्दी भारत की आत्मा ही नहीं, धड़कन भी है। यह भारत के व्यापक भू-भाग में फैली शिष्ट और साहित्यिक भषा है।
अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंन्यायाधीश जे. वी. वी. सत्यनारायण मूर्ति जैसे न्यायाधीशों को इस देश का कानून मंत्री बनाया जाना चाहिए क्योकि ऐसे व्यक्ति ही इस देश की न्याय पालिका को सत्य और न्याय की असल परिभाषा सिखा सकते हैं ,रही वकीलों की बात तो ऐसे वकील जो कानून की पढाई पढ़कर सत्य और न्याय को मारकर जीने का साधन जुटाना चाहते हैं के लाइसेंस रद्द कर दिए जाने चाहिए | कास ऐसा हो पाता क्योकि हमारे देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को तो इस देश की व्यवस्था सुधारने में कोई लगाव है ही नहीं ...अगर होता तो इन लोगों द्वारा ऐसे उच्च नैतिक दायित्वों को निभाने वाले जजों को इनके द्वारा तुरंत सम्मानित किया जाता जिससे ऐसे जज्बों में बढ़ोत्तरी होती ...लेकिन इस देश में सम्मानित सिर्फ और सिर्फ निकम्मों और तिकरमबाजों को किया जाता है ...
जवाब देंहटाएंअगर न्यायपालिका चाहे तो आमूल-चूल परिवर्तन हो सकता है इस व्यवस्था में. अदालत में बोलने का काम केवल वकील लोग करते हैं मुवक्किल बस ज़ुबान पर बस ताला लगा कर खड़े रहने के लिए बुलाए जाते हैं जबकि कई छोटे-छोटे केसों में जहां मामूली सा ज़ुर्माना कर केस ख़त्म किया जा सकता है... वकील साहेबान उसे बाकायदा चलाए रखते हैं, हर पेशी के नोट बनाने के चक्ककर में.
जवाब देंहटाएंश्री कृष्ण जन्माष्ठमी की बहुत-बहुत बधाई, ढेरों शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंआप की रचना 03 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
जवाब देंहटाएंhttp://charchamanch.blogspot.com/2010/09/266.html
आभार
अनामिका
ऐसे जज हर न्यायालय में होने चाहिएं .... मामलों को जल्दी से जल्दी निपटाना संवेधानिक अधिकार में शामिल होना चाहिए ...
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