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बुधवार, 15 सितंबर 2010

अच्छा है विकल्प !

                   आज के अख़बार में एक कॉलम में ऐसी विज्ञप्ति देखी, जो कम से कम इससे पूर्व मेरी दृष्टि से कभी नहीं गुजरी थी. लोकतंत्र के लिए एक अच्छा विकल्प लगा.
          विज्ञप्ति थी  -------

                                                             भारतीय संसद 

                                                               राज्य सभा सचिवालय 
                          यातना निवारण विधेयक , २०१० सम्बन्धी
                                       राज्य सभा की प्रवर समिति 
                    इस विधेयक के सम्बन्ध में सुझाव आमंत्रित करती है.
                               ( सम्पूर्ण विवरण के लिए दैनिक जागरण ( १५ सितम्बर २०१० ) का पृष्ठ ९ पर देखें .)


                किसी अधिनियम के लिए इस तरह से जन मानस से मत संग्रह संसद के स्तर पर मेरी दृष्टि में पहली बार आया है. इसके अपवाद भी हो सकते हैं अतः  इसको विवाद का विषय न बनाया जाय. क्या इसी तरह से लोगसभा के स्तर पर जन प्रतिनिधि जहाँ अपनी जनता का प्रतिनिधित्व करने के लिए जाते हैं और वहाँ प्रतिनिधित्व करने में अक्षम है या अक्षम नहीं भी हैं तो वे सिर्फ दल के झंडे तले सिर्फ हाथ उठाने भर का कार्य करने की क्षमता रखते हैं. जो जनहित से जुड़ा है वह राष्ट्र हित से भी जुड़ा होगा और इस तरह के विषयों पर जन का भी अधिकार होता है. संचार माध्यम से या व्यक्तिगत तौर पर राष्ट्रीय निर्णयों पर जन सामान्य की भागीदारी से उनकी देश की राजनीति या अन्य गतिविधियों के प्रति उदासीनता है उसको कम करेगा. अपनी बात जो वह ऊपर तक लाना चाहता है, उसको अगर प्रतिनिधि नहीं लाता है तो लोकसभा प्रश्न काल  में कुछ समय ऐसा होना चाहिए कि देश की जनता मूक या अकर्मठ प्रतिनिधियों के चलते मामलों को संसद के पटल पर रख सके. उन्हें उतना ही महत्व दिया जाना चाहिए जितना कि किसी मंत्री या सांसद के प्रश्न को.
                ऐसा एक प्रकोष्ठ स्थापित होना चाहिए  जो कि जनप्रतिनिधियों के निरंकुश आचरण , अनाचार या अत्याचार के प्रति विरोध दर्ज करने के बाद उनको निष्पक्ष विचार के लिए सदन के समक्ष प्रस्तुत कर सके . इसके लिए जन प्रतिनिधि को उत्तर देने के लिए बुलाया जाय. ये कार्य मात्र केंद्र स्तर पर ही नहीं अपितु राज्य स्तर पर भी होना चाहिए.
                 लोकतंत्र जो अब सिर्फ कुछ दलों, पूंजीपतियों या खानदानों में सिमट कर रह गया है. उसमें लोक की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए. छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक जो विकास निधि प्रदान की जाती है, वह कार्य वर्ष समाप्त होने पर वापस हो जाती है. क्षेत्र नरक का नरक बना रहता है और निधि वापस हो जाती है ऐसा किस लिए होता है?  छोटे स्तर पर पार्षद कहीं और व्यस्त होते हैं, उन्हें ठेकेदारों से समुचित कमीशन नहीं मिल पता है तो विकास कार्य में रूचि ही नहीं लेते हैं. ऐसे ही विधायकों और सांसदों  की निधि  जब वापस जाती है तो इसका मतलब ये समझा जाता है कि उनका क्षेत्र पूर्ण रूप से विकसित और सुवयावस्थित है. इस विषय में उनसे लिखित तौर पर मांगना चाहिए कि इस निधि की वापसी का पर्याय क्या है?
                 इस तरह से कुछ तो समस्याओं, अन्याय और प्रतिनिधित्व के प्रति न्याय की एक आशा जाग्रत होगी. देश की मौजूदा हालात  में कुछ तो सुधार होगा. एक संतोष जन मानस में होगा कि जो पांच साल के लिए दल के नाम पर प्रतिनिधि चुना है , उसकी कार्यविधि पर हम सवाल उठा सकते हैं और फिर उसका उत्तर भी मिलेगा. पार्टी के नाम पर बिठायीं गयी कठपुतलियाँ भी इसके तहत नाचना शुरू कर देंगी सिर्फ मत बढ़ाने के लिए ही संसद में नहीं बैठी रहेंगी.

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