www.hamarivani.com

रविवार, 9 जनवरी 2011

मिड-लाइफ क्राइसिस !

                        

                            मिड-लाइफक्राइसिस !

 

                       वह  (मनु) मेरे पास आई थी अपने बारे में कुछ सलाह लेने के लिए - कुछ व्यक्तिगत समस्या थी या फिर औरों से सम्बंधित ये उसको नहीं पता था. फिर भी कुछ तो उत्सुकता थी उसमें कि ऐसा क्यों होता है? एक काउंसलर होने के नाते ये मेरे लिए एक विषय था और विचारणीय भी.


                         वह एक संस्थान में व्यावसायिक कोर्स कर रही थी. पढ़ने में होशियार थी. छोटी जगह की होने के कारण उसकी सोच और संस्कार भी कुछ अधिक आधुनिक न थे. अपने वर्ग में सबसे होशियार, लेकिन सुंदरता, जिसे कहा जा सकता है - वह उसमें नहीं थी. एक साधारण नैन नक्श वाली स्मार्ट लड़की थी. इस वर्ष उसको लगा कि उसके के प्रो. उस पर कुछ अधिक ही ध्यान दे रहे हैं. वे उससे करीब १५ साल बड़े होंगे. उसकी पत्नी भी उनके ही क्षेत्र की थी और अच्छी महिला थी. मनु को अपनी पढ़ाई के अतिरिक्त और किसी में भी रूचि न थी. हाँ डांस वह बहुत अच्छा कर लेती थी. कालेज में कोई भी फंक्शन हो उसका नाम सबसे पहले वह ऊपर रख देते थे. इसको साधारण सी बात मान कर उसने कभी ध्यान नहीं दिया, फिर धीरे धीरे ये प्रक्रिया बढ़ने लगी. अपने कुछ पेपर से सम्बंधित काम भी उसको सौप देते. कहते कि मुझे तुम्हारे ऊपर पूरा भरोसा है और तुम ही इस काम में मेरी मदद कर सकती हो. यहाँ तक वह सामान्य कार्य मान कर करती रही.
               

                     इससे भी आगे - वह अपने रूम में होते और फिर SMS करके उसको किताब लाने के लिए बुलाते, कभी तो पेन और पेन्सिल तक लाने के लिए कह देते. फिर कोशिश करते कि वह उनके साथ वहाँ कुछ देर रुके. मनु की छठी इन्द्रिय ने इसको सही नहीं माना और छुट्टी में जब वह घर आई तो मुझसे मिली. 


                मानव मनोविज्ञान में ये एक मानसिक दशा होती है. इसको मानसिक विकार की श्रेणी में रख सकते हैं. एक सामान्य व्यक्ति अपने पारिवारिक जीवन में ही सारी खुशियाँ खोजता है और अगर संतुष्ट नहीं तो खुद को और गतिविधियों में व्यस्त कर लेता है. लेकिन मानव मन की एक यह स्थिति भी है. जिसको हम "मिड-लाइफ क्राइसिस" के नाम से जानते हैं.


        प्रौढ़ता की ओर बढती हुई आयु अगर मनुष्य को परिपक्वता देती है तो साथ ही मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कुछ ऐसी मनोदशा की जननी भी होती है - जिसे सामान्य  मानसिकता के रूप में स्वीकार किया ही नहीं जा सकता है. ये स्थिति सिर्फ पुरुषों में ही आती हो ऐसा नहीं है बल्कि ये स्थिति स्त्रियों में भी आ जाती है. ये सामान्यतया ४०-६० की आयु में होती है. इसको मानसिक असुरक्षा से भी जोड़ सकते हैं और दूसरे अगर व्यक्ति अपने करियर में पूर्ण सफल है, आर्थिक तौर पर सुदृढ़ है और परिवार भी सम्पूर्ण है तब कुछ ऐसे भाव कि खुद को अलग कैसे दिखाए या फिर चर्चा में रहने की प्रवृत्ति भी उनमें इस प्रकार की बात पैदा कर सकती है. ये स्थिति रहने की अवधि पुरुषों में ५-१० वर्ष और स्त्रियों में २-५ वर्ष हो सकती है.


          मानव जीवन में  ये स्थिति कुछ विशेष घटनाक्रमों के चलते भी हो सकती है, इंसान मानसिक रूप से कितना सुदृढ़ है यह इस बात पर निर्भर करता है.  वैसे  इस  तरह  की स्थिति आना सामान्य बात है किन्तु उसको अपने ऊपर हावी होने देना व्यक्ति की मानसिक सुदृढ़ता पर निर्भर करता है. 


      इसके प्रमुख कारणों में हैं:--


*जीवनसाथी के साथ संबंधों में कटुता या उपेक्षा.
*बच्चों का घर से दूर होना (चाहे शिक्षा के लिए या फिर विवाहोपरांत )
* अभिभावकों की मृत्यु.
* आयु से सम्बंधित शारीरिक परिवर्तन
* स्त्रियों में रजोनिवृत्ति और पुरुषों में आर्थिक अर्जन में कमी आना.
* दूसरों से किसी भी स्थिति में खुद को कमतर आंकने की प्रवृत्ति


                इस मानसिक स्थिति में जो परिवर्तन, जो बातें ऐसे लोगों के व्यक्तित्व में परिलक्षित होने लगते हैं, वे इस तरह के हो सकते हैं. वे इस बात को नहीं मनाते और मनाने की कोई बात ही नहीं है. ये उनकी मानसिक स्थिति है और वे इसको आँक ही नहीं पाते हैं. वे विशेषताएं - जो उनके व्यवहार में दूसरे देख सकते , वे इस प्रकार से हो सकती  हैं :--

 
* अनिर्दिष्ट लक्ष्य को खोजना 

* अपने को उपेक्षित होने का भय
* युवाओं की तरह से कुछ प्राप्ति का भाव
* युवाओं की तरह शौक पाल लेना या फिर उनकी तरह दिखने की प्रवृत्ति
* अपने समय को अकेले में या फिर निश्चित दायरे में व्यतीत करना.
             

              अपने इस दशा से ग्रसित हो कर उनका व्यवहार तो परिवर्तित होता ही है साथ ही उनके दिनचर्या या फिर  शौक भी परिवर्तित हो सकते हैं. वे अपनी इन क्रियाओं के द्वारा खुद को अधिक आत्मविश्वासी दिखाने का प्रयास भी करते हैं या फिर खुद के अन्दर छिपे हुए भय पर विजय पाने के लिए ऐसा सोचने लगते हैं.


* मादक द्रव्यों का सेवन
* अनावश्यक और महंगे सामानों पर पैसा व्यय करना - जैसे वाहन, जेवर , कपड़े या फिर प्रसाधनों पर.
* वे अवसाद की स्थिति में भी जा सकते हैं.
* दूसरों पर दोषारोपण भी करने लग जाते हैं.
* अपने ऊपर विशेष ध्यान देना (जैसे युवाओं जैसे कपड़े पहनना या फिर उनकी आयु के खेलों आदी में रूचि लेना.) अपने से छोटों के साथ अंतरंगता स्थापित करना (वह व्यावसायिक, शारीरिक या कृपापूर्ण कैसी भी हो सकती है.)
* अपने बच्चों के क्षेत्र में अधिक दखलंदाजी करना.
* अपने जीवन में खुशियों का अभाव दिखना , जिनमें अब तक उन्हें खुशियाँ मिलती रही थीं.
* जिनमें अब तक रूचि थी, उनमें अरुचि होना.
* परिवर्तन की चाह
* अपने और अपने जीवन के बारे में भ्रमित होना.
* जीवनसाथी पर क्रोध और आरोपण
* जीवनसाथी  के प्रति समर्पण और प्यार में शक, नए समर्पित रिश्ते की चाह.

          इस विकार का शिकार लोग सिगमंड फ्रायड के सिद्धांत को मानने वाले अधिक होते हैं, उसके अनुसार प्रौढ़ता के आते ही लोगों को मृत्यु का भय लगने लगता है. जबकि इससे इतर भी कुछ विचार होते हैं जो इस ओर ले जा सकते हैं.
                            वास्तव में अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में व्यक्ति अपने करियर, फिर परिवार , बच्चों और उनके करियर और भविष्य के लिए संघर्ष करते हुए व्यतीत कर देता है. जब इन सब चीजों से निवृत्त हो जाता है तो उसको अपने जीवन का लक्ष्य घूमता हुआ नजर आता है. उसकी अपेक्षाएँ अपने जीवनसाथी से बढ़ने लगती है क्योंकि वह उसके साथ रहने वाला एकमात्र साथी रह जाता है. कभी कभी जीवनसाथी भी एक अलग जीवन जीने का आदी हो चुका होता है. अपने जीवनचर्या में वह भी किसी तरह का व्यवधान पड़ना सहन नहीं कर पाता है. जिसको दूसरा व्यक्ति अपनी उपेक्षा समझ बैठता है और उसकी सोच उसको किसी दूसरी तरफ खींचने लगती है.
ऐसी स्थिति सदैव नहीं बनी रहती है, इस की आयु कम ही होती है किन्तु ये कम आयु दूसरे के जीवन को नरक बना चुकी होती है.बॉस द्वारा अपनी सेक्रेटरी से अपेक्षाएं, प्रोफ़ेसर  के द्वारा अपनी छात्राओं  से, महिलाओं द्वारा भी अपने छात्रों से कुछ अपेक्षाएं उनके मिड-लाइफ क्राइसिस से जनित होती हैं. हम समाज में और परिवेश में इस तरह कि घटनाएँ अक्सर देखा करते हैं - जहाँ पर उम्र के इस विशाल अंतर पर कुछ सम्बन्ध सुर्ख़ियों में आते हैं. इनके मध्य गंभीरता कितनी होती है इसके बारे में सोचा जा सकता है और इससे मुक्त होने के बाद यही व्यक्ति अपने अन्तरंग संबंधों से विमुख होने लगते हैं.
                   ऐसी स्थिति से मुक्ति या उन पर विजय पाने के लिए इंसान को इस विषय में स्वयं तो जागरूक कम ही हो पाता है क्योंकि वह खुद ही इस बात का शिकार होता है. इसके लिए अगर उसका कोई अन्तरंग मित्र या साथी उसको सही परामर्श दिलवा सके या स्वयम दे सके तो उसको बचाया जा सकता है क्योंकि ये स्थायी मानसिक दशा नहीं होती है.

5 टिप्‍पणियां:

  1. aapka ye post puri tarah se sachchai pe adharit hai di....!!

    aisa kuchh maine feel kiya hai....par har kuchh share nahi kiya ja sakta...!

    dhanywad di!

    जवाब देंहटाएं
  2. बढ़िया उपयोगी लेख ...इस विषय पर शायद बहुत कम उपलब्ध है यहाँ !
    शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  3. काफी तथ्यपूर्ण आलेख लिख डाला इस बार तो.
    बहुत अच्छी पोस्ट.

    जवाब देंहटाएं
  4. हर जीवन में यही होता है पर कारण अलग अलग होते हैं। एक सपाट सा आ जाता है जीवन में।

    जवाब देंहटाएं

ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.