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शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

दूरस्थ शिक्षा में छेद !

                    

   दूरस्थ शिक्षा एक बहुत अच्छे उद्देश्य को लेकर आरम्भ की गयी थी. हमारे देश के एक वर्ग की आर्थिक स्थिति और उसके शिक्षा जारी रखने की ललक ने इसका जन्म दिया था. फिर इसमें तकनीकी शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा को भी जगह दे दी गयी. जब तक ये संस्थान सीमित थे इनकी गुणवत्ता पर संदेह नहीं किया जा सकता था किन्तु जब विश्वविद्यालयों में शिक्षा व्यापार बन गयी तो फिर ऐसे कुकुरमुत्तों की तरह से संस्थान भी खुलने लगे और जिनमें दूरस्थ शिक्षा के नाम पर बहुत सारी डिग्री बांटी जा रही हैं.
                       दूरस्थ शिक्षा के नाम पर इग्नू  की अपने आप में एक मिसाल है. जिसकी डिग्री पूरे देश में ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर भी मान्य है. उसकी परीक्षाएं पास करना आसान भी नहीं है. बल्कि ये कहते सुना का कि रेगुलर डिग्री लेना अधिक आसान है लेकिन इग्नू के डिग्री हासिल करना आसान नहीं है. इस की तरह से और भी कई संस्थान दूरस्थ शिक्षा के अंतर्गत विभिन्न कोर्स चलाने लगे . जिनकी शिक्षा प्रणाली पर हँसी नहीं बल्कि रोना आता है क्योंकि वे खुले आम डिग्री बेच रहे हैं. मोटी लम्बी चौड़ी फीस और उसके बदले में डिग्री. उनके पास परीक्षार्थी का पूरा पूरा रिकार्ड होता है. परीक्षा  पुस्तिका होती हैं और उसको कभी भी आप अगर जांच करना चाहें तो इसमें कभी भी कोई गड़बड़ी दिख ही नहीं सकती है .
                     मैं जाने माने संस्थान की एम बी ए की डिग्री की बात कर रही हूँ. सत्र परीक्षा अपने निश्चित समय पर होती हैं और इसके निश्चित परीक्षा केंद्र भी हैं. फार्म भरे जाते हैं, कौन फार्म लेकर जाता है ? कौन उसको जमा करता है? कौन उसके प्रवेश पत्र को प्राप्त करता है इसके लिए कोई नियम नहीं हैं क्योंकि परीक्षा ही इस तरह से ली जाती है की दस्तावेजों में पूरा पूरा सोलह आने खरा उतरने वाला तरीका जो अपना रहे हैं. कही कोई ढील नहीं और न ही उसको चुनौती देने वाली कोई बात उठ सकती है.
                   परीक्षा देने वाले मेरे एक परिचित हैं. वे कहीं और नौकरी करते हैं और एम बी ए इसलिए कर रहे हैं की आगे promotion में उनको इसका पूरा पूरा लाभ मिले. उनके सारे काम कोई और करता है. प्रवेश पत्र उनके हाथ में आ जाता है और वे ऑफिस से आधा दिन की छुट्टी लेकर परीक्षा देने चले आते हैं. पढ़ते भी हैं या नहीं इसका किस्सा अभी समझ आ जायेगा. पढ़ाई का समय होता तो इतनी मोटी रकम देकर परीक्षा क्यों दे रहे होते? परीक्षा भवन में पहुँचते ही प्रश्न पत्र मिल जाता है और उत्तर पुस्तिका भी मिल जाती है. जिस समूह का उनका प्रश्न पत्र होता है. उसी के अनुसार उनके मोबाइल पर उत्तर क्रम से आने शुरू हो जाते हैं. वे SMS देखते जाते हैं और भरते जाते हैं. बस हो गयी परीक्षा फेल होने की कोई गुंजाइश तो होती ही  नहीं है.
                  एक बार का वाकया कि उनको जिस ग्रुप का प्रश्न पत्र मिला उनको मोबाइल पर दूसरे ग्रुप के उत्तर आने शुरू हो गए और वह एकदम से घबरा गए , उन्होंने परीक्षक से दूसरे ग्रुप का प्रश्न पत्र माँगा लेकिन वह उपलब्ध करने में असमर्थ रहे . परिणाम जाना ही जा सकता है की अपनी बुद्धि से इंसान क्या कर सकता है? उस बार उनकी उस पेपर में बैक लग गयी.
                  इस वाकये को सुन कर लगा कि अब शिक्षा का अर्थ सिर्फ और सिर्फ आगे बढ़ना रह गया है चाहे वह साम दाम दंड भेद  किसी भी प्रकार से हासिल की जाय. अब सोचना पड़ रहा है की शिक्षा का कौन सा क्षेत्र ऐसा है जो कलंकित नहीं रह गया है.  किसी विश्व विद्यालय में फेल छात्रों का नाम पदक सूची में होता है क्योंकि वह छात्र किसी प्रो. का बेटा या बेटी होता है.  यहाँ तो तक तो ठीक है घर की बात है. दूरस्थ में भी ऐसा होता है फिर एम बी ए हो या फिर कोई और डिग्री लोग चाहे खून पसीना बहाकर इग्नू से लें या फिर सिक्किम मनिपाल या सिम्बोइसिस से - क्या उन्हें एक स्तर पर रखा जा सकता है? नहीं , लेकिन अगर प्रोन्नति का आधार सिर्फ डिग्री ही होनी है तो फिर वह किसी भी संस्थान की हो बराबर जगह रखती है.  इस तरह की नीतियों का खामियाजा कौन भुगतता है - ईमानदार वर्ग. फिर अगर युवा वर्ग आक्रोशित होता है तो फिर हम उस पर इल्जाम क्यों लगते हैं?  अब दो ही वर्ग उन्नति के हक़दार रह गए हैं - एक तो आरक्षित वर्ग या फिर पैसे वालों का वर्ग. श्रमजीवी का तो कहीं पर भी स्थान ही नहीं रह गया है. उनकी मेहनत की कोई कीमत नहीं है.
                इस चीटिंग का कोई विकल्प है? यदि नहीं तो शिक्षा के इन छेदों को खोज  निशान लगाने होंगे. अगर हम ये नहीं कर पाए तो प्रतिभा पलायन से हमको सशंकित भी नहीं होना चाहिए. 

7 टिप्‍पणियां:

  1. आज शिक्षा; शिक्षा नहीं व्यवसाय और वस्तु बन गयी है.शिक्षालय बेचते हैं और ग्राहक (विद्यार्थी ???) खरीदते हैं.और फिर हमारे मंत्री जी कहते हैं की देश में गुणवत्ता परक शोध नहीं हो रहे.इन हालातों में सुधार के लिए मज़बूत इच्छा शक्ति की ज़रुरत है दोनों ओर से शिक्षार्थी की ओर से भी और शिक्षक और व्यवस्था की ओर से भी.

    सादर

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  2. एक निजी संस्थान है जिसके व्यवस्थापक नामधारी व्यक्ति हैं । इनके इतने विज्ञापन छापते हैं सब जगह पता नहीं करोड़ो खर्च करते हैं , बड़े बड़े सपने दिखाये जाते हैं । जबकि मानव संसाधन विभाग ने इस संस्थान को काली सूची में डाल रखा है

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  3. कितनी भी अच्छी व्यवस्था बना लीजिये, छेद करने वाले मिल जायेंगे।

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  4. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (7/2/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
    http://charchamanch.uchcharan.com

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  5. व्यावसायिकता की हद्द है बस.

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  6. इस तरह से चल रही परीक्षाएं तो... बस हद ही हैं ।

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  7. हमारे यंहा तो एक इस प्रकार की यूनिवर्सिटी भी है जो गारंटी से सर्टीफिकेट देती है एक भी दिन जाना नहीं पड़ता है |

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ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.