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बुधवार, 10 अप्रैल 2013

हौसले को सलाम ! (12)

   

                           संघर्ष अगर किसी के सहारे के रहते किया जाय तो   तो साथ  है  अगर मंजिलें बहुत बहुत दूर हों और एक औरत के खाली हाथ हों या फिर हाथ बंधें हों तो फिर उसकी विवशता को और उसमें फंसकर छटपटाते  उसके जीवन को कैसे ईश्वर राह दिखता है और वह भी उस मुकाम तक  दे  उसने कभी कल्पना ही न की हो. एक  ऐसी ही महिला की कहानी जो मिली भी तो सिर्फ कुछ घंटों के  लेकिन दे गयीं ये सब .....

                              आज की प्रस्तुति मेरी ही है. ............!







     वह भी मेरी ही तरह से एयर पोर्ट पर किसी को रिसीव करने के लिए बाहर से आई थी  और फ्लाइट लेट थी .   उनका बेटा आ रहा था और मेरी बेटी।  वह छोटे कद की शालीन सी दिख रही थी।  समय तो  हमें गुजारना ही था, एक दूसरे के बारे में कुछ जानना भी इसका एक अच्छा विकल्प था।    अपनी आदत के अनुसार जब दो महिलायें बैठती हैं तो  एक दूसरे के  बारे में जानने के लिए उत्सुक होती है। 
आप कहाँ से हैं? 
 
किसे लेने आयीं है? 
कौन कौन है परिवार में ? आदि आदि।  
       हम  भी इसके अपवाद न थे. लेकिन इतने थोड़े से समय में सब कुछ बता  देने के लिए किसी को मोटिवेट करना मेरे काम से जुड़ा है ,  और उनके बारे में सब कुछ जान लिया।

                    वह  कमला एक बेटे और एक बेटी की माँ  - बेटा  वैज्ञानिक और बेटी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रोफेसर। बेटा  विदेश से "युवा वैज्ञानिक एवार्ड" लेकर लौट  रहा था और उसकी इच्छा थी कि वह अपना एवार्ड माँ को दे और माँ उसको लेने के लिए आये। वह आई थी और उसका सिर गर्व से ऊँचा था। 
                     अपने  संघर्षों  की परछाईं उनकी नज़रों में नजर आ रही थी - जब वह हाई स्कूल कर चुकी तो गाँव के रिवाज के अनुसार उसकी शादी की बात शुरू हो गयी। वहाँ के रिवाज के अनुसार आस पास के रिश्तेदारों में वर खोजा जाता था और एक वर मिला वह इंजीनियर था। पहले कद देख कर उसने मना  कर दिया की इतनी छोटी लड़की से नहीं करेंगे , लेकिन बाद में हाँ कर दी और फिर शादी हो गयी।  वह गाँव छोड़ कर शहर आ गयी , पति के पद के अनुसार उसे हर सुख -सुविधा मिली। वह जल्दी ही एक बेटे और बेटी की माँ  बन गयी।  उसके पति सिविल इंजीनियर थे और अपने पद के अनुसार उनकी ऊपरी आय भी अधिक ही थी और सोसायटी के अनुरूप पार्टी होते रहना आम बात थी और फिर पार्टी में तो ड्रिंक भी करने लगे।  काम में इतने व्यस्त रहते थे कि अपने स्वास्थ्य की ओर कभी ध्यान नहीं दिया  और उनको जल्दी ही डायबिटीज भी हो गयी लेकिन इस बारे में न उन्हें  और न ही मुझे कुछ भी पता न था। सब कुछ वैसे ही चलता रहा और तब पता चला जब कि उनकी दोनों किडनी बेकार हो चुकी थीं। 
         सिर्फ सत्ताईस साल की उम्र में जब बेटा ५ और बेटी ३ साल की थी मेरी दुनियाँ उजड़ गयी।
                   गाँव से जेठ सारा सामान भर कर गाँव ले जाने के लिए आ गए।  पति के ऑफिस में लिख कर दे दिया कि  मेरी बहू नौकरी नहीं करेगी और सब कुछ  लेकर गाँव आ गए। बिना पढ़े लिखे खेती वाले घर में - एक विधवा का जीवन  कैसा होता है? ये हर कोई नहीं जानता।  मेरे घर का सारे सुख- सुविधा का सामान जेठ के कमरे  में लग गया और मुझे मिली एक कोठरी  जिसमें जमीन  पर एक दरी पड़ी होती और उस पर अपने दोनों बच्चों के साथ सोती। सुबह से घर के काम मेरे जिम्मे सबके  खाने के बाद जो भी बचता चाहे सिर्फ रोटी या फिर सिर्फ दाल, पेट भरे या नहीं खा कर रह जाती। बेटा जानवरों के साथ खेतों में घूमता और बेटी मिट्टी में  खेलती रहती और जब थक जाती तो आकर मेरे पास सो जाती।  वे बच्चे जो कभी गाड़ी के अलावा चले नहीं थे, रात में  जमीन पर एक दरी पर मेरे पास सोने आ जाते।  रात में मैं बिस्तर पर पड़ी रोती कि क्या जिन्दगी इतनी विरोधाभासी भी हो सकती है? आगे और पीछे अँधेरे के अलावा कुछ भी नजर नहीं आता था। 
                        एक दिन जेठ जी ने बेटे को कुछ माँगने पर पीटा और कहा वैसे ही रह जैसे बिना बाप के बच्चे रहते हैं, तेरा बाप कमा कर नहीं दे रहा है जो तेरी फरमाइश पूरी करूँ। ये शब्द मेरे कानों में गर्म शीशे की तरह से घुल ही तो गए लेकिन मुझे जलालत के सिवा कुछ भी हाथ नहीं आया। पेंशन मेरी अभी बन कर नहीं आ रही थी, तो मेरे पास जो भी था उसको सँभाल कर रखे थी कि अगर इन लोगों को पता चल गया तो वे वह भी मुझसे ले लेंगे। 
 
           उसी समय मेरी बड़ी ननद गाँव आई और मेरे बच्चों और मेरी दुर्दशा होती देखी, वे  बड़ी थी और उन्होंने अपने पति, जो कि मेरे पति के मित्र भी थे। उन्होंने हम तीनों को मेरे मायके भेजने का प्रस्ताव अपने भाई के सामने रखा लेकिन जेठ जी इसके लिए राजी नहीं थे। उनको एक काम करने वाली मिली थी। लेकिन नन्दोई जी के कहने पर वह एक महीने के लिए भेजने को तैयार हो गए लेकिन उससे पहले उन्होंने मुझसे कुछ कागजों पर दस्तखत करवा लिए , इसमें उनकी मंशा क्या थी ? ये न मुझे पता थी और न ही मेरी ननद को लेकिन नन्दोई जी इसके बारे में अनुमान लगा चुके थे कि वह हमारी जायदाद अपने नाम लिख कर हमें उससे वंचित कर सकते हैं। मायके पहुँच कर मैंने खुली हवा  में साँस ली लेकिन एक माँ  के लिए उसकी सबसे छोटी बेटी और वह भी विधवा हो तो  दिल पर क्या गुजरी  है ये उसके अलावा कोई और नहीं जान सकता। मैं तो कुछ दिन आराम से रही लेकिन मेरी ननद ने कुछ और ही सोच रखा था।
                          मेरी बड़ी ननद ने अपने बड़े भाई से बैर मोल लिया और पति के ऑफिस में  मेरी नौकरी के लिए बात की लेकिन मैं सिर्फ हाई स्कूल पास थी और मुझे क्लर्क की नौकरी के लिए भी टाइपिंग आनी चाहिए थी।  जो मुझे नहीं आती थी , एक इंजीनियर की पति चपरासी जैसे पद पर काम करे न ही मुझे उचित  लग रहा था और न ही ऑफिस वालों को।  मुझे एक महीने  का समय  दिया गया और मैं ऑफिस से आकर टाइपिंग सीखने  जाने लगी।  मेरी ननद मेरे साथ रही बच्चों को देखने के लिए लेकिन अपना घर छोड़ कर कौन कितने दिन रह सकता था और फिर वह भी चली गयी।  
           कुछ दिन में टाइपिंग सीखने के दौरान मेरी दोस्ती एक लड़की से हुई , उसके भाई उसको छूटने के बाद लेने आते थे, मैं बच्चों को साथ लाती थी और वे  उतनी देर बाहर के चबूतरे पर खेलते रहते थे।  एक दिन सोनिया के भाई उसको लेने आये तो उन्होंने बच्चों को खेलते देखा तो पूछ बैठे - "बच्चों आप यहाँ क्या कर रहे हैं ?" बच्चे तो बच्चे बता दिया कि मेरी मम्मी यहाँ पढ़ने आती हैं तो तब तक हम बाहर खेलते हैं , घर में कोई नहीं है न।
 
                   फिर एक दिन और वह मुझे अपने घर ले गयी।  उसके घर में उसके तीन भाई और भाभी थे सबने मुझे उसकी ही तरह से घर में जगह दी।  मेरे पति का सारा पैसा  मुझे दिलवाया और मेरे लिए अपने घर के करीब ही एक फ्लैट खरीदवा दिया। मैं ऑफिस जाती और बच्चे मेरे पीछे उनके घर में  रहते मुझे नहीं पता कि  मेरे बच्चे समय के साथ इतने समझदार और गंभीर कैसे हो गये ? बेटा खुद पढ़ने  बैठता और बहन को भी लेकर बैठता।  खुद ट्यूशन  लेकर अपनी पढाई के लिए सारा सामान खुद जुटा लेता मुझसे कुछ नहीं कहता था। 
                मेरे देवर  और  जेठ ने कभी ये जानने की कोशिश नहीं की कि  मैं कहाँ हूँ ? जिन्दा भी हूँ या मर गयी।  मेरे बच्चों का क्या हुआ ? मेरे हिस्से  की सारी  खेती दबा ली।  मेरी आमदनी अधिक नहीं थी किसी तरह से बच्चों को पाल ही रही थी। बेटे ने स्कालरशिप लेकर अपनी ही नहीं बल्कि अपनी बहन को भी पढाई के लिए प्रेरित किया। फिर उसको अंटार्टिका जाने का अवसर मिला लेकिन हम इतने समर्थ नहीं थे कि वहां पर रहने के लिए जो किट चाहिए थी वह खरीद सकते। उस दिन मैंने अपने बेटे को बहुत मायूस देखा वह मेरे साथ आकर लेट गया और भरे गले से पहली बार बोला - "आई अगर बाबा होते तो मैं अंटार्टिका जा पाता न।" मैं निरुत्तर थी लेकिन मैंने उसके सिर पर हाथ रखते हुए पूछा कि कितने पैसे लगेंगे और उसने जो रकम बताई वो मेरे पास हो ही नहीं सकती थी।बस एक चीज थी कि हमारे यहाँ सोने का महत्व बहुत था और मेरे पास भी काफी जेवर थे और फिर मैंने बगैर किसी की परवाह किये और बगैर बताये अपना मंगलसूत्र जो कि  बहुत कीमती था बेच दिया क्योंकि वह मेरे किसी काम का नहीं था लेकिन वो मेरे पति की निशानी थी और उसको बेचने में मेरा कलेजा मुंह को आ गया था लेकिन दिल कड़ा करके मैंने बेच दिया और उसको पैसे दिए कि जाकर अपनी किट खरीद ले। 
                     उसने मुझसे बहुत सवाल किये कि आप पैसे कहाँ से लाईं ? मैंने कह दिया कि अपनी कलीग से उधार ले लिया है धीरे धीरे अदा कर दूँगी। उसकी ख़ुशी ने मुझे इतना आत्मसंतोष दिया था कि वह मेरे लिए अनमोल था। वहां से आकर उसको पी एचडी के लिए स्कॉलरशिप मिल गई और वहां मेरे पास से दिल्ली चला गया। उसने अपनी बहन को एम टेक करवाया और उसकी शादी में भी पूरी जिम्मेदारी उठाई। 
                     उसके सपने कैसे पंख  लगा कर ऊँचाइयों पर जा पहुँचे मुझे पता नहीं लगा. उसने पढाई लगातार बिना रुके पूरी  की जो मैं न जुटा सकी वह उसने खुद  जुटाया और अपने वैज्ञानिक  के सपने को पूरा ही नहीं किया बल्कि इस एवार्ड को लाकर मेरे संघर्ष को एक मुकाम दे दिया।

10 टिप्‍पणियां:

  1. शुरू में लगा जैसे कोई फिल्म चल रही है.गाँव में एक विधवा का जीवन....
    फिर एक ननद का आकर अपने भाई से लड़ कर भाभी की मदद करना और फिर एक दोस्त का इतना सहयोग.
    सच है भगवान् दुःख देता है तो उससे लड़ने की शक्ति और माध्यम भी देता है.
    बहुत प्रेरक प्रसंग था रेखा जी. आभार यहाँ हमारे साथ सांझा करने के लिए.

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  2. उफ़ ये है असली संघर्षमय जीवन और उससे पार पाती शख्सियत …………एक सीख देती मार्मिक संघर्षशील प्रस्तुति

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  3. न जाने कितने गम हैं ज़माने में ...हर गम से रूबरू होते जा रहे हैं...और यह श्रंखला पढ़ते जा रहे हैं....और वह हौसला और मज़बूत होता जा रहा है ..कि शक्ति का दूसरा नाम औरत है ....निस्संदेह !!!

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  4. आपकी यह प्रस्तुति कल के चर्चा मंच पर है
    कृपया पधारें

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  5. विपदाओं से घिरी नारी जब निखर कर सामने आती है तो नमन करने की इच्छा होती है !

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  6. प्यास रहे, आस रहे, जीवन जूझना सिखा देता है, प्रेरक जीवन।

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  7. जीवन तो संघर्ष का ही दूसरा नाम है,बहुत ही प्रेरक रचना.

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  8. बहुत सुन्दर प्रस्तुति
    रेखा जी. आभार .....हमारे साथ सांझा करने के लिए.

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ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.