कुछ साल पहले इलाहबाद के बालिका संरक्षण गृह में नाबालिग बच्चियों के यौन शोषण की बात सामने आयी थी और उसके पीछे भी बहुत सारे प्रश्न खड़े हो गए थे लेकिन फिर आगे क्या हुआ ? इसके बारे में कोई भी पता नहीं है। वहां की वार्डेन अपने घर में रहती थी और बच्चियां पुरुष नौकरों के सहारे छोड़ दी जाती थीं। सरकारी संस्थाओं में ये हाल है कि वार्डेन के पद पर काम करने वाली महिला संरक्षण गृह से दूर अपने घर में सो रही है और बच्चियां पुरुषों के हवाले करके। जिम्मेदार लोगों को सिर्फ और सिर्फ अपने वेतन से मतलब होता है। शायद उनकी संवेदनाएं भी मर चुकी होती हैं। प्रश्न यह है कि बच्चियों की संरक्षा का दायित्व महिलाओं को क्यों नहीं सौप गया था ? ऐसा किस्सा कानपुर में भी हुआ था , जब संवासिनी आश्रम छोड़ कर भागने लगती हैं तो फिर खलबली मच जाती है। रसूखदार लोगों के चल रहे बाल गृह एक धंधा मात्र है सरकारी पैसे को हड़पने का और अपने काले धन को सफेद बनाने का।
जून २०१६ को कानपु र के निकट रनियां में एक बाल संरक्षण गृह शांति देवी मेमोरियल संस्था द्वारा संचालित शिशु गृह एवं बाल गृह में से शिशु गृह में ५ बच्चियों की कुपोषण के कारण मौत हो गयी थी और तब उसको बंद करने का आदेश दिया गया था और बच्चियों को दूसरी जगह भेज दिया गया था।
बाल गृह में भी २३ अगस्त२०१६ को ७ वर्षीय मासूम की मौत हो गयी। यहाँ पर पालने वाले बच्चों के प्रति कौन जिम्मेदार होता है ? ये केंद्र बगैर निरीक्षण के कैसे चलते रहते हैं ? राज्य की भी कोई जिम्मेदारी होती है या नहीं। कितने आयोग चल रहे हैं ? मानव संसाधन मंत्रालय , महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और भी कई परियोजनाओं के अन्तर्गत इस तरह की संस्थाएं को अनुदान मिलता है लेकिन इसके बाद क्या कोई उत्तरदायित्व नहीं बनता है कि वे जाने इन में पालने वाले या संरक्षित किये जाने वाले बच्चों का हाल क्या है ? उनके रहने , खाने और चिकित्सा व्यवस्था कैसी है ? एक टीम को इसके लिए नियुक्त किया जाना चाहिए जो समय समय पर इनका निरीक्षण करे। बशर्ते कि वे भी इन संस्थाओं की तरह पैसा बनाने का काम न करते हों।
कैसा जीवन बिताती हैं ? --
इन संरक्षण गृहों में वे कैसा जीवन बिताती हैं , ये जाने की न कोई महिला आयोग कभी जानने की कोशिश करता है और न ही सरकार का कोई भी विभाग ऐसा है। उनसे गृहों में साफ सफाई , बाकी घरेलू काम करवाए जाते हैं , जबकि सरकार की तरफ से इन गृह संचालकों को एक मोटी रकम मिलती है इनके भरण पोषण के लिए। वह कहाँ जाती है ? इसका कोई हिसाब किताब कहीं माँगा जाता है या फिर रसूख वाले और दबंगों को ये काम दिया जाता है। इस काम में सिर्फ पुरुष ही दोषी हों ऐसा नहीं है बल्कि महिलाये भी ऊपर के अफसरों को खुश करने के लिए और अपनी आमदनी बनाये रखने के लिए लड़कियों को प्रयोग करती हैं।
आश्रम या गृह- समाज सेवा का प्रतीक माने जाते हैं जैसे -- सरकारी नारी कल्याण केंद्र , वृद्धाश्रम , बाल सुधार केंद्र या बालिका सुधार गृह , अनाथालय , संवासिनी गृह और बाल संरक्षण गृह का नाम सुनकर ये ही लगता है। लेकिन इनको चलाने वाले एनजीओ में होने वाली गतिविधियों से यही समझ आता है कि कुछ लोग जोड़ तोड़ कर सरकारी सहायता प्राप्त कर दुनियां का दिखावा करके एनजीओ खोल लेते हैं और फिर उसे बना लेते हैं अपनी मोटी आमदनी का एक साधन। सब कुछ कागजों पर चलता रहता है , जब तक कि कोई बड़ी वारदात सामने नहीं आती है। उसके पीछे का खेल एक दिन सामने आता है।एक एनजीओ को तो मैं भी अपने ही देखते देखते करोड़पति होने की साक्षी हूँ बल्कि कहें हमारे घर से दो किमी की दूरी पर है। वर्षों में उसी के सामने से ऑफिस जाती रही हूँ और वह सिर्फ ईंटों से बने स्कूल के मालिक ने कुछ ही सालों में इंटर कॉलेज , फिर डिग्री कॉलेज और साथ ही संवासिनी आवास तक बना डाले और फिर जब संवासिनी की मौत हुई और उसपर की गयी लीपापोती ने सब कुछ सामने ला दिया।
ये सिर्फ एक एनजीओ की कहानी नहीं है बल्कि ऐसे कितने ही और मिलेंगे। ,ये तो निजी आश्रम तो बनाये ही इसी लिए जा रहे हैं कि वह इनके नाम पर सरकारी अनुदान लेने की नीयत होती है। साम दाम दंड भेद सब अपना कर पैसे वाले बनाने का काम बहुत तेजी से चल निकला है। इन तथाकथित समाज सेवकों के दोनों हाथ में लड्डू होते हैं , समाज में प्रतिष्ठा , प्रशासन में हनक और हर महकमें में पैठ। धन आने के रास्ते खुद बा खुद खुलते चले जाते हैं। इन पर सरकार का कोई अंकुश नहीं होता है क्योंकि मिलने वाले अनुदान में सरकारी विभागों का भी हिस्सा होता है और फिर कौन किससे हिसाब माँगेगा या फिर निरीक्षण करने आएगा। सारी खाना पूरी कागजों पर होती रहती है।
सामर्थ्य का परिचायक
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वृद्धाश्रम के नाम पर लोग अनुदान देते हैं और खुद समर्थ वृद्ध अपना खर्च खुद उठाते हैं। लेकिन क्या सभी जगह उन्हें वह माहौल मिलता है, जो कि पाने के लिए वह वहां जाते है। इनका खोलना किसी साधारण व्यक्ति के वश का काम नहीं होता है , इसके लिए पहुँच , पैसा और मानव शक्ति का होना बहुत जरूरी है। कई जगह देखा है दूसरों की जमीन पर कब्ज़ा करके भवन निर्माण होने लगा और पहुँच रहित और एक आम आदमी उनसे लड़ने की ताकत नहीं रखता है, वह थाने के चक्कर ही लगता रहेगा। उसकी जमीन पर भवन बना कोई आश्रम खोल दिया गया। पहुँच से अनुदान मिल गया - भवन अनुदान , वृद्धों के लिए सरकारी सहायता , दान दाताओं से अनुदान। इतने काम करने वाले पर पुलिस भी जल्दी हाथ नहीं डाल पाती है और जिसकी जमीन है वह लगाता रहे थाने के चक्कर उसकी एफ आई आर तक दर्ज नहीं होती है। सब तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला ही तो देखने को मिलता है।इसके चलाने वाले बहुत अच्छी छवि समाज में रखते हैं लेकिन जब उनकी काली करतूते सामने आती है तो समझ आता है कि इस सफेदपोश के अंदर कितनी कालिमा है। कहीं कहीं तो वृद्धाश्रम में रहने वाले वृद्धों को काम के लिए चुपचाप भेजा जाता है और वे रात में वापस आते हैं।
अनुदान के बाद निरीक्षण
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बाल संरक्षण गृह के नाम पर भी लोग अपना व्यवसाय चला रहे हैं। इसमें सभी शक के दायरे में नहीं आते हैं, लेकिन इन संरक्षण गृहो का जीवन अगर अंदर झांक कर कोई देखना चाहे तो संभव नहीं है और इसके लिए सहायक महिला आयोग , मानव संसाधन मंत्रालय , मानवाधिकार आयोग सब कहाँ सोते रहते हैं ? किसी की कोई भी जिम्मेदारी नहीं बनती है। अगर संरक्षण गृह खोले गए हैं तो उनका निरीक्षण भी उनका ही दायित्व बनता है। एक दिन न सही महीनों और सालों में तो उन पर दृष्टिपात करना ही चाहिए। वह हो इस लिए नहीं पाता है क्योंकि पहुँच ही सारी कार्यवाही कागजों पर पूरी करवा देती है और फिर ये संरक्षण गृह यातना गृह बने होते हैं। इनका रख रखाव और साफ सफाई , खाना पीना सब कुछ ऐसा कि जिसे आम आदमी के खाने काबिल भी न हो। सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार कहा था कि उत्तर प्रदेश में महिला आयोग जैसी कोई चीज है भी या नहीं क्योंकि हर जगह अराजकता के बाद भी इस आयोग को कभी सक्रिय होते नहीं देखा जाता है। निराश्रितों , संवासिनियों , अबोध बालिकाओं में संरक्षण किसका होता है ? इसके बारे में सिर्फ कागजात साक्षी होते हैं।
सरकार का दायित्व
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बीमार कर देने वाला वातावरण और बदबू और सीलन से भरे हुए कमरे जिनमें वह बच्चे कैसे जीते हैं ? ये जानने की कोई भी जरूरत नहीं समझता है। निजी एनजीओ की बात तो हम बाद में करेंगे पहले हम सरकारी सरंक्षण ग्रहों की बात कर लें। इनमें से आये दिन संवासनियां मौका मिलते ही भाग जाती हैं। बाल संरक्षण गृहों से भी बच्चों के भागने की खबर मिलती रहती है। अगर यहाँ पर उन्हें वह वातावरण मिलता है जिसके लिए उनको भेजा गया है तो वे अनाथ या संरक्षणहीन बच्चे क्यों भागेंगे ? सब जगह ऐसा होता हो ये मैं नहीं कह सकती लेकिन अव्यवस्था और विवादित रखरखाव् पर सरकार को दृष्टि तो रखनी ही चाहिए। किसी को तो ये सब चीजें संज्ञान में रख कर इनके प्रति जिम्मेदार होना चाहिए।
इतनी सारी अनियमितताओं के बाद भी किसी की नींद खुलती नहीं है। सरकारें आती और जाती रहती हैं लेकिन ये सब उसी तरह से चलती रहती हैं क्योंकि सरकार इस बात से अवगत ही नहीं है कि कहाँ कहाँ और कितना अनुदान जा रहा है। विभागों में सब कुछ निश्चित है कि कितने अनुदान पर कितने प्रतिशत देना होगा। वहां से चेक जारी ही तब होता है जब आप अग्रिम राशि के रूप में उन्हें चेक दे दें.
ये जितने भी NGOs हैं सारे ही बन्द होने चाहिये।
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'युगपुरुष श्रीकृष्ण से सजी ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (27-08-2016) को "नाम कृष्ण का" (चर्चा अंक-2447) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सही लिखा जी लोग आजकल बस कैसे भी कर के सरकारी सहायता ले लेते है और परिणाम उसका कुछ होता नहीं और उस पैसे को व्यक्तिगत प्रयोग में लाते है।
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