मेरे पापा !
आज मेरे पापा की २१ वीं पुण्यतिथि है और हम सिर्फ उन्हें याद कर पाते हें . बस इतना ही संतोष है कि जिस रास्ते पर वे चले उस रास्ते पर ही चलकर मैंने उनका सम्मान किया या फिर उनके उसूलों को जिन्दा रखा है.
मुझे याद आता है जब मेरी शादी हुई थी तो उस समय लड़कियाँ ससुराल से ऐसे ही मायके नहीं चली जाती थी कि जैसे मैं आज कल चली जाती हूँ या फिर अब तो सभी लडकीयाँ जाने लगीं हैं.बस कुछ महीने हों तो बहुत दिन हो गए maudi ( इसका शब्द नहीं मिला जो हम बुंदेलखंड में बेटी के लिए कहते हैं ) आई नहीं जाकर ले आते हैं. मैं सबसे बड़ी बेटी थी और पापा ने ऐसा कभी दिखावा नहीं किया कि मैं उनकी सबसे बड़ी लाडली बेटी हूँ लेकिन मेरे लिखने और मेरी दूसरी बातों से वे इस बात को समझते थे कि मैं उनके नक़्शे कदम पर चलने वाली हूँ. दूसरों के लिए उन्होंने कितना किया? इसकी मैं गिनती नहीं कर सकती हूँ . अपने को खतरे में डाल कर , अपने पैसे लगा कर या फिर किसी की जिन्दगी सुधारने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. इस बात का उन्होंने अपनी जिन्दगी में खामियाजा भी खूब भुगता और फिर भी उनकी प्रिय चौपाई थी ----
बैर न कर काहू सन कोई , राम प्रताप विषमता खोई.
वो वाकया मुझे याद आता है कि उनके किसी परिचित ने उनसे कहा कि उनका कोई रिश्तेदार सरकारी लोन लेना चाहता है तो एक तो मैं जमानत दे देता हूँ और आप दे दीजिये. मेरे से किसी का कोई काम बनता है तो उसके लिए बगैर सोचे समझे वे तैयार रहते थे. जाकर उन्होंने जमानत ले ली. उसके बाद वह भूल गए और ऐसी बातें घर में बताने की कोई जरूरत नहीं समझते थे . कई साल गुजर गए और वह लोन लेने वाला कहाँ गया? इसका उन्हें कोई पता नहीं और दूसरा भी बस परिचित था सो उससे भी कोई बात नहीं. कई साल बाद कोर्ट से एक वकील ने अपना आदमी भेजा कि भाई साहब से कहिये कहीं इधर उधर हो जाएँ उनके नाम का वारंट निकला है और गिरफ्तारी हो सकती है. हम लोगों को काटों तो खून नहीं कि ऐसा क्या कर दिया पापा ने? भाई साहब भी बहुत बड़े न थे लेकिन लड़के थे सो वकील साहब के पास पहुंचे तो पता चला कि वह लोन जो उसने लिया था भरा नहीं और वह भाग भी गया. उसका जो रिश्तेदार था , उसके पास देने को कुछ था ही नहीं सो वह जेल चला गया. अब पापा को तलब किया जा रहा था. उस समय वह लोन मय ब्याज के ५ हजार हो चुका था. फिर कोर्ट के उस आदेश पर स्टे लिया गया और रकम को जमा करने के लिए किश्तों में देने के अनुरोध पर उसकी किश्ते बनवाई गयीं. उस समय सत्तर के दशक में ५ हजार रुपये बहुत बड़ी रकम होती थी लेकिन इसी को कहते हैं न हवन करते हाथ जला लेना.
जिन्दगी के कितने ऐसा वाकये हैं जिन्हें याद करते हैं तो लगता है कि आज कल लोग अगर अपने ही किसी परिचित के लिए जरूरत पड़ जाए तो पीछे हट जाते हैं और एक वो थे जिसका भला हो जाए करते चलो. ईश्वर अपना भला तो करेगा ही ऐसा मानने वाले थे. मुझे अपने पापा पर नाज है.
आज मेरे पापा की २१ वीं पुण्यतिथि है और हम सिर्फ उन्हें याद कर पाते हें . बस इतना ही संतोष है कि जिस रास्ते पर वे चले उस रास्ते पर ही चलकर मैंने उनका सम्मान किया या फिर उनके उसूलों को जिन्दा रखा है.
मुझे याद आता है जब मेरी शादी हुई थी तो उस समय लड़कियाँ ससुराल से ऐसे ही मायके नहीं चली जाती थी कि जैसे मैं आज कल चली जाती हूँ या फिर अब तो सभी लडकीयाँ जाने लगीं हैं.बस कुछ महीने हों तो बहुत दिन हो गए maudi ( इसका शब्द नहीं मिला जो हम बुंदेलखंड में बेटी के लिए कहते हैं ) आई नहीं जाकर ले आते हैं. मैं सबसे बड़ी बेटी थी और पापा ने ऐसा कभी दिखावा नहीं किया कि मैं उनकी सबसे बड़ी लाडली बेटी हूँ लेकिन मेरे लिखने और मेरी दूसरी बातों से वे इस बात को समझते थे कि मैं उनके नक़्शे कदम पर चलने वाली हूँ. दूसरों के लिए उन्होंने कितना किया? इसकी मैं गिनती नहीं कर सकती हूँ . अपने को खतरे में डाल कर , अपने पैसे लगा कर या फिर किसी की जिन्दगी सुधारने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. इस बात का उन्होंने अपनी जिन्दगी में खामियाजा भी खूब भुगता और फिर भी उनकी प्रिय चौपाई थी ----
बैर न कर काहू सन कोई , राम प्रताप विषमता खोई.
वो वाकया मुझे याद आता है कि उनके किसी परिचित ने उनसे कहा कि उनका कोई रिश्तेदार सरकारी लोन लेना चाहता है तो एक तो मैं जमानत दे देता हूँ और आप दे दीजिये. मेरे से किसी का कोई काम बनता है तो उसके लिए बगैर सोचे समझे वे तैयार रहते थे. जाकर उन्होंने जमानत ले ली. उसके बाद वह भूल गए और ऐसी बातें घर में बताने की कोई जरूरत नहीं समझते थे . कई साल गुजर गए और वह लोन लेने वाला कहाँ गया? इसका उन्हें कोई पता नहीं और दूसरा भी बस परिचित था सो उससे भी कोई बात नहीं. कई साल बाद कोर्ट से एक वकील ने अपना आदमी भेजा कि भाई साहब से कहिये कहीं इधर उधर हो जाएँ उनके नाम का वारंट निकला है और गिरफ्तारी हो सकती है. हम लोगों को काटों तो खून नहीं कि ऐसा क्या कर दिया पापा ने? भाई साहब भी बहुत बड़े न थे लेकिन लड़के थे सो वकील साहब के पास पहुंचे तो पता चला कि वह लोन जो उसने लिया था भरा नहीं और वह भाग भी गया. उसका जो रिश्तेदार था , उसके पास देने को कुछ था ही नहीं सो वह जेल चला गया. अब पापा को तलब किया जा रहा था. उस समय वह लोन मय ब्याज के ५ हजार हो चुका था. फिर कोर्ट के उस आदेश पर स्टे लिया गया और रकम को जमा करने के लिए किश्तों में देने के अनुरोध पर उसकी किश्ते बनवाई गयीं. उस समय सत्तर के दशक में ५ हजार रुपये बहुत बड़ी रकम होती थी लेकिन इसी को कहते हैं न हवन करते हाथ जला लेना.
जिन्दगी के कितने ऐसा वाकये हैं जिन्हें याद करते हैं तो लगता है कि आज कल लोग अगर अपने ही किसी परिचित के लिए जरूरत पड़ जाए तो पीछे हट जाते हैं और एक वो थे जिसका भला हो जाए करते चलो. ईश्वर अपना भला तो करेगा ही ऐसा मानने वाले थे. मुझे अपने पापा पर नाज है.
बेटी ने इस तरह याद किया , पापा जी के लिए यही ख़ुशी और सुकून है ... सादर नमन
जवाब देंहटाएंजिसका भला हो जाए करते चलो.........ऐसे बहुत कम लोग होते हैं।
जवाब देंहटाएंपापा जी को नमन!
जवाब देंहटाएंइस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (11-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
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♥ !! जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ !! ♥
आत्मीय संस्मरण!
जवाब देंहटाएंबाबू जी को सादर नमन !
जवाब देंहटाएंmay his soul always rest in peace
जवाब देंहटाएंपापा लोग कभी मरते नहीं
जवाब देंहटाएंजिंदा रहते हैं अपने उसूलों
के साथ बच्चों के मानस
पटल पर टिमटिमाते हैं !
सादर श्रद्धांजली !
जवाब देंहटाएंपापा को भुला पाना असंभव होता है खास कर उस बेटा के लिए जो घर में सबसे बड़ी हो |बहुत अच्छा लेख वही समझती है कि पापा उससे क्या अपेक्षा रखते थे |आपके पापा को सादर श्रधांजलि |
जवाब देंहटाएंआशा
पढ़कर अच्छा लगा और गर्व भी हुआ..
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