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शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

जागरण की संस्कारशाला !

                    आज के परिवेश में जब आज की पीढी को देखते हैं या फिर आज की नयी पौध को देख कर यही कहते हुए सुनते हैं कि  पता नहीं कैसे संस्कार पाए है ? बच्चों को हम अपनी दृष्टि से कभी सुसंस्कृत नहीं पाते  हैं लेकिन हम ये भूल जाते हैं कि  ये संस्कार बच्चों को मिलें कहाँ से? परिवार , समाज, स्कूल और अपने परिवेश से - लेकिन अगर हम खुद को इस कसौटी पर कसे तो ये ही पायेंगे कि जहाँ हम संस्कारों की बात करते हैं वहां पर कितनी ऐसी बातें हैं जिनके बारे में पूर्णरूप से शायद हम भी परिचित नहीं है। फिर कुछ भी सीखने की कोई उम्र नहीं होती और ये भी जरूरी नहीं की हमारे बड़े सम्पूर्ण हों और उनसे छोटे हमेशा उनसे कम ज्ञान ही रखते हों। वे भी हमें सिखा सकते हैं। 
                    मैं बात दैनिक जागरण के द्वारा आरम्भ की गयी संस्कारशाला के बारे में कर रही हूँ। इस बारे में पहले भी विभिन्न वर्गों में बाँट कर दैनिक जागरण द्वारा संस्कारशाला प्रस्तुत की गयी थी लेकिन इस बार उसके स्वरूप को बदल कर जिस उद्देश्य और लक्ष्य को सामने रख कर प्रस्तुत किया जा रहा है उससे हम सिफ बच्चों से ही नहीं बल्कि बड़ों से भी बहुत कुछ सीखने की अपेक्षा करते हैं। ये संस्कारशाला जो शुरू की गयी है संग्रहणीय  है और साथ ही इसको घरों और स्कूलों में संचित करके रखा जाय और बच्चों को इसके बारे में पूर्णरूप से परिचित करने का संकल्प घर परिवार और स्कूल द्वारा ठान  लिया जाय तो फिर वह दिन दूर नहीं जब कि  हम अपने समाज में बढती हुई उत्श्रंख्लता , अनुशासनहीनता और बड़ों के प्रति अनादर और उपेक्षा के भाव से उनको पूरी तरह न सही लेकिन बहुत हद तक दूर ले जाने में सफल हो सकेंगे .
                 हम सिर्फ बच्चों की बात ही क्यों करें बल्कि इस में दर्शाए जा रहे बहुत से संस्कार ऐसे हैं जो की समय के साथ उपलब्ध होने वाली सुविधायों से जुड़े हैं और वे हमने न अपने बचपन में सीखे हैं और न ही देखे हैं वे तो हमारे लिए भी उपयोगी हैं। इसको संग्रहनीय मान कर सभाल कर रखा जाय तो फिर ये आज भी नहीं बल्कि जैसे नैतिकता के मूल्य कभी बदलते और कम नहीं होते वैसे इन संस्कारों का मोल कभी कम नहीं होता बल्कि पढ़ने वाले को कभी कभी कुछ बातें ऐसे प्रभावित करती हैं कि हमारे अंतर में छिपे हुए गलत विचार आर धारणाएं अपने आप ही ख़त्म हो जाती हैं।  
                       मेरा अपना अनुभव है कि अगर इसको ध्यानपूर्वक पढ़ कर उसका विश्लेषण करे तो पायेंगे किये ये वह संस्कार हैं जो हमें ही नहीं बल्कि हर व्यक्ति को संस्कारित बनाने में सही अर्थों में सहायक होते हैं। आप चाहे घर के बुजुर्ग हों , स्कूल के शिक्षक हों या फिर किसी भी ऑफिस में काम करने वाले जिम्मेदार अधिकारी - इनको अपने परिवेश में फैला कर वहां के वातावरण को और लोगों को नैतिक मूल्यों से अवगत करा कर अपने एक जिम्मेदार नागरिक , परिवार के सदस्य , स्कूल में गुरु शिष्य की परंपरा निभाने वाले गुरु साबित ही नहीं होंगे बल्कि इसके वर्तमान स्वरूप में पालने वाले दूषित वातावरण को प्रदूषण से मुक्त कर पाने में सहायक होंगे। 
             ये मीडिया द्वारा किया गया सार्थक प्रयास है जिसको जन जन तक पहुँचाने और  आम जन जीवन को एक सार्थक दिशा में मोड़ने की और नैतिकता से जोड़ कर सभ्य और सुसंस्कारित समाज के रूप में देखने और बदलने की मंशा को लेकर किया गया है।

4 टिप्‍पणियां:

  1. एक सार्थक प्रयास ...


    विश्व एड्स दिवस पर रखें याद जानकारी ही बचाव - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. सहजीवन की मर्यादा ही संस्कार हैं..

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  3. सराहनीय पोस्ट सराहनीय अखबारी पहल ,नौनिहाल हमारी प्रणाली के उत्पाद हैं .

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  4. सही बात है .. सार्थक और विचारनीय आलेख।
    सादर
    मधुरेश

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ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.