www.hamarivani.com

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

दफन होने का अधिकार !

                      हमारे देश के संविधान में सभी को कुछ मौलिक अधिकार मिले हैं, जिनमें जीवन में होने वाली सभी जरूरतों को शामिल किया गया है। कमोबेश सभी किसी न किसी तरह से जी भी रहे हैं . घर नहीं तो सीमेंट के बड़े बड़े पाइप में घर बसा कर बरसात और सर्दी से बचने के लिए जी रहे हैं। मलिन बस्तियों में बांस और पालीथीन के सहारे टेंट की तरह बनाये घरों में अपने परिवार के साथ जीवन गुजार  रहे हैं। लेकिन वे जी रहे हैं चाहे एक छोटे से कमरे में 20 लोग जी रहे हों। जी रहे हैं घर में जगह नहीं है तो पार्क में , फुटपाथ पर , पेड़ों के नीचे रात गुजार ही लेते हैं और दिन में तो कोई मुकम्मल जगह की जरूरत ही नहीं है . इंसान कहीं भी काम पर जाकर या अपने लिए रोजगार खोजने या करने के लिए कहीं न कहीं तो चला ही जाता है।  जीने के लिए समस्या नहीं है - हम जिस समस्या की बात करने जा रहे हैं वह मेरी दृष्टि में तो आज तक नहीं गुजरी है क्योंकि मरने के बाद भी इंसान को दो गज जमीन की जरूरत को हम सदियों से स्वीकार करते चले आ रहे हैं। जिन्दगी में उसे रहने की अपनी जमीन न मिले लेकिन मरने पर तो उसके लिए वे लोग उसे जमीन मुहैय्या कराते  हैं वह भी तब जब कि  वह उसकी मांग नहीं कर रहा होता है,  लेकिन ये हमारा नैतिक दायित्व होता है कि  उस दिवंगत को दफन होने की जगह दी जाये 
                      अगर हम ये कहें कि  अब हमारे देश में ही बल्कि देश ही क्यों कहें ? उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के गृह जनपद में ऐसे जगह है जहाँ पर लोगों को दफन होने की जगह नहीं है। ये जगह है इटावा  जिले में चकरनगर के तकिया मोहल्ला . जहाँ पर दो परिवारों के रहने से शुरुआत हुई थी और धीरे धीरे आबादी बढती गयी और अब उन्हें अपने परिवार वालों को दफनाने के लिए जगह नहीं मिल रही है . हकीकत ये है कि  यहाँ पर हर घर में एक कब्र बनी हुई है। और कब्र के होने पर उसके साथ कुछ धार्मिक आस्थाएं भी जुडी होती हैं . उसको कोई लांघें नहीं और उसके  कुछ बनाया भी नहीं जाना चाहिए . यहाँ पर लोग घर के कमरों में , गुसलखाने में , दरवाजे के पास हर जगह कब्र बनाये हुए हैं . कब्र के बगल में बैठ कर खाना बना रहे होते हैं , सो रहे होते हैं। बच्चों की कब्र दरवाजे के पास बना देते हैं क्योंकि बच्चों के लिए जगह कम  लगती है। यहाँ घर वालों को घर में ही दफन करने के लिए मजबूर लोग कहाँ जाएँ? और कैसे जियें ? 
                      क्या सरकार मीलों लम्बे जंगल में से कुछ जगह भी इन दिवंगत लोगों के दफन होने के लिए देने की व्यवस्था नहीं कर सकती है ?  बड़े बड़े स्टेडियम, पार्क और गाँव को राजधानी बना देने वाले शासक अपने ही जनपद में लोगों के दफन होने के अधिकार को बहाल  नहीं कर  सकते हैं। अभी धरती इतनी छोटी नहीं है कि मरने के बाद इंसान के लिए दफन होने की जगह भी न मिल सके वे भी इंसान ही है  अपने ही घर में दफन करके उनके साथ ही जीने के लिए लोग मजबूर हैं। बड़ी बड़ी बातें और बड़े बड़े वादे  करने वाले ये सरकार के नुमाइंदे आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को समझने के लिए तैयार ही कहाँ है? यहाँ पर कोई एकडों जमीन पर बने बंगले  को सिर्फ अपने परिवार के रहने के लिए छोटा बता कर बड़े की मांग कर रहा है और कहीं वे अपने घर के सदस्य को मरने के बाद भी कहीं दो गज जमीन मुहैय्या नहीं करवा पा  रहे हैं।
                  हम लोकतंत्र में जी रहे हैं लेकिन जीने के अधिकार को खोने के बाद अब मरने के बाद दफन होने का हक भी खो रहे हैं।

11 टिप्‍पणियां:

  1. गुलामी के दौर और आज में क्या फर्क हैं .....मैं तो ये ही नहीं समझ पा रही हूँ ...बेहद ज्वलंत प्रश्न को उठाया है आपने दीदी

    जवाब देंहटाएं
  2. तेजेंदर शर्मा जी की कहानी कब्र का मुनाफा याद आ गई. अब शायद जीने के लिए जो चाहिए वो अलग मरने के बाद का भी इंतजाम खुद ही करने जाना होगा.

    जवाब देंहटाएं
  3. इससे अधिक त्रासदी और क्या होगी की मरणोपरांत भी सुकून के साथ रहने को जगह ना मिले ! कदाचित इसीलिये दाह संस्कार की प्रक्रिया अधिक उचित है कि इस प्रक्रिया को अपनाने से यह नश्वर शरीर पंचतत्व में विलीन हो जाता है और मृत्यु के बाद उसे किसी स्थान की आवश्यकता नहीं होती ! कई देशों में मुस्लिम लोग भी इस विधि को अपना रहे हैं ! सोचने पर बाध्य करती संवेदनशील प्रस्तुति !

    जवाब देंहटाएं
  4. चिंताजनक लेकिन साथ ही आश्चर्यजनक परिस्थितियाँ हैं ! देश में सब जगह मुसलामानों और ईसाइयों के कब्रिस्तान हैं जिनका संचालन उन्हीं की धार्मिक सस्थाएं करती हैं ! इटावा के आसपास ना तो इतनी घनी आबादी है और ना ही इतनी मंहगी जगह कि कब्रिस्तान के लिए भूमि उपलब्ध ना हो पाए ! कहीं यह समस्या आपसी झगड़ों और कट्टरवादिता की वजह से धर्म से बहिष्कृत लोगों की तो नहीं ? गहराई से अध्ययन की आवश्यकता है !
    रेखा जी ये विचार मेरे पतिदेव के हैं जिन्होंने आपका आलेख सुनने के बाद व्यक्त किये हैं !

    जवाब देंहटाएं
  5. समस्या की जड़ तक जा कर ही समाधान मिल सकता है.

    जवाब देंहटाएं
  6. उत्तर
    1. समस्या तो है लेकिन समाधान कहाँ से आएगा ? सालों से ये लोग इस काम के लिए मजबूर हैं लेकिन यहाँ सिर्फ धर्म के कारण नहीं बल्कि समाज के सभ्य और शिक्षित लोगों को इसके समाधान के लिए पहल करनी चाहिए। बात जब अख़बार तक्क पहुँच चुकी है तो फिर जिले स्तर पर स्थानीय सरकार खामोश क्यों है? इसे तो उसी को सुलझाना चाहिए।

      हटाएं
  7. बहुत भयानक सच है और समाधान भी जरूरी है ।

    जवाब देंहटाएं
  8. साधना जी आपके पतिदेव ने इसा विषय पर टिप्पणी की , हाँ इटावा ऐसी जगह नहीं है फिर भी वहां पर ऐसा हो रहा है और ऐसा नहीं है कि वह स्थान किसी विधायक के क्षेत्र में न आता हो लेकिन उनका कहना है कि पास में जो जमीन है उस पर वन विभाग का अधिकार है जो नहीं मिल सकती है लेकिन वन विभाग के पास तो सैकड़ों एकड़ भूमि होती है , बाकी क्या कारण है ये तो वहां के लोगों को सुलझाना चाहिए लेकिन जरूर कुछ ऐसे कारन है जिससे नौबत तक आ चुकी है। ऐसा नहीं कि इसा समस्या को इन लोगों ने ऊपर पहुँचाने की की कोशिश न की हो लेकिन यहाँ सुनता कौन है?
    --

    जवाब देंहटाएं
  9. किसी भी समस्या को तह तक जाके देखना ठीक है ... सामाजिक ढांचा ओर राजनीति ... दोनों ही बहुत होती हैं अपने मुल्क में ..

    जवाब देंहटाएं

ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.