हमने अपने नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों से दान देना एक श्रेष्ठ कार्य बतलाया गया है और किसी न किसी रूप में विभिन्न अवसरों पर दान देते हैं। भिक्षा भी इसी का एक रूप माना गया हैऔर हम अपने तर्कों आधार पर भिक्षा के लिए पत्र वृद्ध , अपाहिज , अक्षम , अंधों को मान लेते हैं और जो किसी न किसी तरह से असहाय हों उन्हें को देने से मन को संतुष्टि मिलती है। आज एक कहानी पढ़ कर आखें खुली की खुली रह गयीं।
नेत्रहीन से भीख मंगवाकर बनी करोड़पति
जागरण संवाददाता, गाजियाबाद। भीख में एक दिन में छह हजार रुपये की कमाई भले ही अविश्वसनीय लगे, किंतु एक नेत्रहीन युवक की यंत्रणा भरी दास्तां सुनकर कोई भी चौंक पड़ता है। इतना ही नहीं, अस्सी साल की वृद्धा ने उसे भीख मांगने के एक से बढ़कर एक गुर सिखाए और खुद करोड़ों की मालकिन बन बैठी। भीख की कमाई से वृद्धा ने अपनी बेटियों के लिए कानपुर में तीन आलीशान मकान भी बनवा रखे हैं, जबकि खुद यहां एक झोपड़ी में रहती है। इस वृद्धा के जुल्म-सितम सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
यह दास्तां सीतापुर के 18 वर्षीय नेत्रहीन व अपाहिज रमेश की है, जो पिछले चार वर्षो से 80 वर्षीय कमला नामक वृद्धा के चंगुल में फंसकर भीख मांगने का काम कर रहा था। रमेश की बातों पर यकीन करें तो उसे प्रतिदिन छह हजार रुपये का टारगेट दिया जाता था। इससे कम रकम लाने पर बदले में उसे मिलती थी नमक की एक सूखी रोटी। भीख मांगने में ना-नुकुर करने पर तेज आवाज में गाने बजाकर वृद्धा अपने नातियों से उसकी पिटाई कराती थी। रमेश के अनुसार, उसे बाकायदा भीख मांगने गुर भी बताए जाते थे।
नेत्रहीन रमेश सीतापुर में अपनी मां शर्मिता और भाई कमलेश व प्रकाश के साथ रहता था। वर्ष 2010 में सीतापुर में रहने वाले तीन पड़ोसी राम अवतार, विपिन और टिंकू नौकरी लगवाने के बहाने से उसे लेकर आ गए थे। तीनों ने उसे लाकर नया गाजियाबाद रेलवे स्टेशन पर छोड़ दिया था। वहीं, रेलवे स्टेशन के पास झुग्गी में रहने वाली वृद्धा कमला की उस पर नजर पड़ी और आश्रय दिया। बाद में रमेश से भीख मंगवाने का धंधा शुरू कर दिया।
रमेश के अपहरण का मुकदमा सीतापुर में दर्ज हैं।
रमेश अपनी माँ के साथ |
भीख मंगवाने वाले गिरोहों की कमी नहीं है। बच्चों को अगवा , नौकरी का लालच लेकर , किसी और तरीके लालच में बरगला कर लाने वालों की कमी नहीं है। ये गिरोह न सिर्फ बच्चों को ट्रैंड करते हैं बल्कि इनके चारों तरफ रह कर निगाह भी रखते हैं। मजदूरों की तरह से शाम को उनकी कमाई की गिनती होती है और सुबह उनहन टारगेटदिया जाता है कि दिन में इतने पैसे उनको भीख से कमा कर लाना होगा। कम होने पर उनको भूखा रखना , मार पीट कर यंत्रणा देना आम बात होती है। इस अंधे बच्चे को १८ घंटे तक भीख मांगनी होती थी जिसमें दिन और रात का कोई बंधन नहीं। उसे रात ३ बजे से स्टेशान पर बैठा दिया जाता था क्योंकि उस समय न बाजार न मंदिर कहीं भी आवाजाही नहीं होती है. स्टेशन पूरी रात गुलजार रहता है। फिर सुबह के ९ बजे मंदिर के सामने बैठ कर भीख मांगनी पड़ती थी और फिर शाम से रात १० बजे तक स्टेशन गेट पर। ये उसके ड्यूटी ऑवर होते थे। शायद एक रात दिन काम करने वाला अफसर भी ६ हजार रुपये प्रतिदिन नहीं कम पता होगा , जब कि इन भिखारियों का टारगेट ६ हजार रुपये प्रतिदिन रहता है और वे उसको हासिल भी कर लेते हैं। बाकि धार्मिक पर्वों जैसे रमजान के माह , नवरात्रि आदि में तो यह कमाई दस हजार रुपये से ऊपर निकल जाती है . ये उनका सफेद धन है और हमारी खून पसीने की कमाई है जिसे हम किसी असहाय पर तरस खाकर देते हैं।
देश के नौनिहालों के साथ होने वाला ये धंधा सुनकर क्या हमें आश्चर्य में नहीं डाल देता है ? क्या इन बच्चों के सहारे कार्यवाही करके ऐसे गिरोहों का पर्दाफाश नहीं होना चाहिए? इन पर हाथ डालना आसान नहीं होता लेकिन इन गुप्त दृष्टि से नजर रखते हुए पकड़ा जा सकता है। कितने घरों के बच्चे इनमें फंसे होंगे और माता पिता अपने बच्चे को खो कर बेहाल होंगे। अगर हम लोग इस दिशा में कुछ कर सकें और इसकी सूचना पुलिस को दी सके तो मानवता की दृष्टि से एक बहुत महान काम होगा।
आपका कहना सही है मगर इसके लिए सभी के सहयोग की जरूरत है पुलिस प्रशासन और जनता
जवाब देंहटाएंham isiliye aise kabhi kisi ko kuchh nahi dete yadi isi tarah koi madad mangta hai to uski madad karna uska sabse bada ahit karna hai kyonki is tarah to vah kabhi bhi us janjal se nikal hi nahi sakta .
जवाब देंहटाएंआपका सही कहना हो इसमें हम सभी का योगदान जरुरी है
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन सेर और सवा सेर - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंपैसे के दान से अन्नदान कहीं अच्छा।
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