बच्चे कच्ची मिटटी के लौंदे की तरह होते हैं और किसी कुम्भार की तरह माँ उसको आकर देती हैं। तभी तो कहा जाता है कि माँ से क्या सीखा है ? वह भी चाहती है कि मेरे बच्चे ऐसे बने किसी को ये शब्द कहने का मौका न मिले। तभी तो अपने संस्मरण में लिख रही हैं : आशा लता सक्सेना जी।
बात बहुत पुरानी है पर जब कि मैं खुद नानी दादी
हो गयी हूँ आज भी भूल नहीं पाती |वह ऐसा समय था जब बच्चे माँ की आँखों से डरते थे
|उनकी हर बात समझते थे व कहना मानते थे |हमारे पड़ोस में एक आंटी रहतीं थीं
उनके यहाँ का निमंत्रण आया |सब तैयार होने लगे
|जब जाने के लिए निकल रहे थे मम्मी ने समझाया “वहा जा कर चुपचाप बैठना |जब तक मैं
न कहूँ किसी चीज को हाथ न लगाना |”मैंने सर हिला कर अपनी स्वीकृति दे दी |
तब मुश्किल से मेरी उम्र ४ वर्ष की रही होगी |
वहाँ
सभी बड़े लोग आपस में बातों में व्यस्त हो गए |सारे बच्चे खेलने लगे पर मैं गुमसुम
गुडिया सी मम्मी के पास चिपकी बैठी थी |आंटी ने २-३ बार कहा जाओ तुम भी जा कर खेलो
|पर मैं मम्मी की और देखती रही |आंटी को लगा मुझे भूख लगी होगी तभी नहीं खेल्र रही
|वे एक प्लेट में कुछ खाने के लिए ले आईं |
मैं
भूल गयी कि मम्मी ने क्या कहा था? चट से खाने बैठ गई |वहाँ तो वे कुछ नहीं बोलीं पर
घर आते ही एक तमाचा पड़ा गाल पर |मैं जोर जोर से रोने लगी तब वे बोलीं “क्या घर में
खाने की कमी थी जो वहाँ फैल कर बैठ गयी | “ उसदिन के बाद उनकी हर बात मानने की जैसे मैंने कसम खाली | जब बड़ी हुई तब
भी सदा उनके कहने में चली इसी कारण आज भी उनकी हर छोटी शिक्षा भी याद आती है |माँ
ही बच्चों की प्रथम गुरू है उन्हें समाज में विचरण के तरीके सिखाती है | माँ के
अनुशासित व्यवहार के कारण ही मेरा व्यक्तित्व निखर पाया |
आज जो भी हूँ उ़नके कारण हूँ |
रेखा जी आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा |
जवाब देंहटाएंमेरा संस्मरण शामिल करने के लिए आभार |
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (03-06-2014) को "बैल बन गया मैं...." (चर्चा मंच 1632) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत बढ़िया संस्मरण ! बचपन की ऐसी ही यादें जीवन भर की पूँँजी बन जाती हैं !
जवाब देंहटाएंमाँ ही बच्चे की प्रथम गुरु होती है
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