कहते हैं न कि इंसान वही सुखी है जो तन , मन से सुखी हो। धन का सुख तो उसकी लालसाओं और जरूरतों से जुड़ा रहता है। कभी वह अपार धन के बाद भी , पलंग के गद्दे के नीचे नोटों की मोटी तह लगा कर भी सुखी नहीं होता और कभी कोई इस " दाता इतना दीजिये जामे कुटुंब समाय , मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय। " सूक्ति पर विश्वास करके जीवन भर सुखी रह लेता है।
आज का जो जीने का तरीका है या फिर कहें इस वर्तमान जीवनचर्या ने इंसान को तनावों के अतिरिक्त कुछ दिया ही नहीं है। ये सत्य है कि आज हर आयु वर्ग में कुंठा , अवसाद और तनाव के शिकार लोग मिल रहे हैं। सबके अपने अपने तरीके के तनाव है और इस तनाव के जो कारण है वही आगे जाकर उनको अवसाद का शिकार बना देते हैं। आज ८० प्रतिशत लोग ( इसमें हर आयु वर्ग के हैं ) मानसिक तौर पर स्वस्थ नहीं है। सबकी अपनी अपनी परेशानियां है - बच्चे को स्कूल से भेजने से जीवन में कम्पटीशन और सबसे आगे रहने की लालसा, चाहे ये अभिभावकों के द्वारा थोपी गयी हो उनके बचपन की अल्हड़ता और भोलेपन को छीन लेता है। स्कूलों की शिक्षा पद्यति ने भी उनको किताबों और होम वर्क के तले इतना दबा दिया है कि वे कुछ और सोच ही नहीं पाते हैं। खुली हवा में खेलना उनके लिए कितना जरूरी है ये कोई समझता नहीं है।
उससे आगे बढे तो अपने करियर की चिंता युवाओं को इसका शिकार बना रही है। बार बार की असफलता या फिर मनमुताबिक जगह का न मिलना उन्हें क्या देता है ? यही कुंठा , तनाव और अवसाद !
जबतक उन्हें मंजिल मिल नहीं जाती वे संघर्ष करते रहते हैं और ये संघर्ष का काल क्या उन्हें मानसिक रूप से स्वस्थ रहने देता है। घर वालों के कटाक्ष , पड़ोसियों की बातें और सफल हुए मित्रों के माता पिता की अपने बच्चों की सफलता की लम्बी चौड़ी बातें - उन्हें क्या देता है ? सिर्फ कुंठा ,मानसिक तनाव और अवसाद।
नौकरी करने वाले जो कॉर्पोरेट जगत से जुड़े हैं - उनके काम की कोई सीमा नहीं है , डेड लाइन , टारगेट और प्रोजेक्ट का कम्पलीट होना - ऐसे बेरियर हैं कि कई बार बच्चे अपने सगे रिश्तों के महत्वपूर्ण अवसरों पर शामिल होने से वंचित हो जाते हैं। जीवन के कुछ पल ऐसे होते हैं कि जिन्हें इंसान अपने अनुसार जीना चाहता है लेकिन आज वह भी नसीब नहीं है फिर हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य बरक़रार रहेगा।
परिवार वालों की अपनी तरह की अलग अलग समस्याएं , बुजुर्गों की भी अपनी समस्याएं हैं , एकाकीपन , आर्थिक असुरक्षा , पारिवारिक तनाव ये सब मानसिक तौर वाले कारक है और इससे ही बढ़ता जा रहा है - समाज में स्वस्थ मानसिकता का अभाव !
इसके परिणाम क्या हो रहे हैं --
जो उम्र होती है खेलने की क्यों मौत चुन लेते हैं ? आत्महत्या अपने आप में इस बात की द्योतक है कि मानसिक दबाव में रहा होगा। जब उसको अपने अनुसार कोई भी भविष्य के लिए आशा नजर नहीं आती तो वह ऐसे कदम उठा लेता है।
ये जीवन की इति नहीं है - अगर हमारे परिवार का कोई सदस्य , मित्र , बच्चे या फिर कोई परिचित मानसिक तौर पर अवसाद , कुंठा या तनाव शिकार है तो उसको मनोरोग विशेषज्ञ के पास ले जाना चाहिए। इससे पहले कि वह गंभीर समस्या का शिकार जो जाए। काउंसलिंग की भी जरूरत होती है जो परिवार के सदस्य सबसे अच्छी तरह से अध्ययन करके कर सकते हैं। हमें अपनी आर्थिक प्रगति भरपूर दिख रही है लेकिन उसके पीछे दीमक की तरह खा रहे ये अवसाद , कुंठा और तनाव किसी को नजर नहीं आते हैं।
आप स्वयं अपना स्वविश्लेषण कीजिये और फिर स्वयं को स्वस्थ रखने की दिशा में प्रयास कीजिये और अगर आप स्वस्थ हैं तो दूसरों के लिए प्रयास कीजिए।
कुछ सार्थक सुझव दे सकती हूँ जिनको अपनाने से कुछ तो इससे ग्रसित लोग स्वयं को स्वस्थ बनाने की दिशा में सक्रिय हो सकते हैं --
१. नियमित सुबह भ्रमण के लिए निकले , सुबह की जलवायु आपको शारीरिक रूप से नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी सामान्य रहने में सहायक होगी।
२. सोने और जागने का समय निश्चित करें।
३. ६ घंटे की नींद जरूर लें , सोने के बाद दिमाग तरोताजा रहता है।
४. लगातार कंप्यूटर या मोबाइल पर काम न करें। सोशल साइट पर रहने के बजाय अपने आस पास सामाजिक होने का प्रयास करें।
५. बच्चों को भी पढाई से उठाकर कुछ देर खुली हवा में पार्क या अन्य जगह पर खेलने के लिए कहें।
६. परिवार के सदस्यों के साथ समय बिताएं और उनके नियमित जीवन की समस्याओं से अवगत रहें।
अगर जीवन है तो उसे पूरी तरह से स्वस्थ होकर जीना ही वास्तव में जीवन है।
आज का जो जीने का तरीका है या फिर कहें इस वर्तमान जीवनचर्या ने इंसान को तनावों के अतिरिक्त कुछ दिया ही नहीं है। ये सत्य है कि आज हर आयु वर्ग में कुंठा , अवसाद और तनाव के शिकार लोग मिल रहे हैं। सबके अपने अपने तरीके के तनाव है और इस तनाव के जो कारण है वही आगे जाकर उनको अवसाद का शिकार बना देते हैं। आज ८० प्रतिशत लोग ( इसमें हर आयु वर्ग के हैं ) मानसिक तौर पर स्वस्थ नहीं है। सबकी अपनी अपनी परेशानियां है - बच्चे को स्कूल से भेजने से जीवन में कम्पटीशन और सबसे आगे रहने की लालसा, चाहे ये अभिभावकों के द्वारा थोपी गयी हो उनके बचपन की अल्हड़ता और भोलेपन को छीन लेता है। स्कूलों की शिक्षा पद्यति ने भी उनको किताबों और होम वर्क के तले इतना दबा दिया है कि वे कुछ और सोच ही नहीं पाते हैं। खुली हवा में खेलना उनके लिए कितना जरूरी है ये कोई समझता नहीं है।
उससे आगे बढे तो अपने करियर की चिंता युवाओं को इसका शिकार बना रही है। बार बार की असफलता या फिर मनमुताबिक जगह का न मिलना उन्हें क्या देता है ? यही कुंठा , तनाव और अवसाद !
जबतक उन्हें मंजिल मिल नहीं जाती वे संघर्ष करते रहते हैं और ये संघर्ष का काल क्या उन्हें मानसिक रूप से स्वस्थ रहने देता है। घर वालों के कटाक्ष , पड़ोसियों की बातें और सफल हुए मित्रों के माता पिता की अपने बच्चों की सफलता की लम्बी चौड़ी बातें - उन्हें क्या देता है ? सिर्फ कुंठा ,मानसिक तनाव और अवसाद।
नौकरी करने वाले जो कॉर्पोरेट जगत से जुड़े हैं - उनके काम की कोई सीमा नहीं है , डेड लाइन , टारगेट और प्रोजेक्ट का कम्पलीट होना - ऐसे बेरियर हैं कि कई बार बच्चे अपने सगे रिश्तों के महत्वपूर्ण अवसरों पर शामिल होने से वंचित हो जाते हैं। जीवन के कुछ पल ऐसे होते हैं कि जिन्हें इंसान अपने अनुसार जीना चाहता है लेकिन आज वह भी नसीब नहीं है फिर हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य बरक़रार रहेगा।
परिवार वालों की अपनी तरह की अलग अलग समस्याएं , बुजुर्गों की भी अपनी समस्याएं हैं , एकाकीपन , आर्थिक असुरक्षा , पारिवारिक तनाव ये सब मानसिक तौर वाले कारक है और इससे ही बढ़ता जा रहा है - समाज में स्वस्थ मानसिकता का अभाव !
इसके परिणाम क्या हो रहे हैं --
- छोटी कक्षा के छात्र ने पिता के डांटने पर आत्महत्या ली। .
- लड़की ने माँ के देर तक बाहर न रहने के आदेश पर आत्महत्या।
- उच्च पदासीन अधिकारी द्वारा आत्महत्या।
- अफसरों के व्यवहार से क्षुब्ध होकर आत्महत्या।
- पत्नी के मायके जाने पर आत्महत्या।
- परीक्षा में असफल होने पर आत्महत्या।
जो उम्र होती है खेलने की क्यों मौत चुन लेते हैं ? आत्महत्या अपने आप में इस बात की द्योतक है कि मानसिक दबाव में रहा होगा। जब उसको अपने अनुसार कोई भी भविष्य के लिए आशा नजर नहीं आती तो वह ऐसे कदम उठा लेता है।
ये जीवन की इति नहीं है - अगर हमारे परिवार का कोई सदस्य , मित्र , बच्चे या फिर कोई परिचित मानसिक तौर पर अवसाद , कुंठा या तनाव शिकार है तो उसको मनोरोग विशेषज्ञ के पास ले जाना चाहिए। इससे पहले कि वह गंभीर समस्या का शिकार जो जाए। काउंसलिंग की भी जरूरत होती है जो परिवार के सदस्य सबसे अच्छी तरह से अध्ययन करके कर सकते हैं। हमें अपनी आर्थिक प्रगति भरपूर दिख रही है लेकिन उसके पीछे दीमक की तरह खा रहे ये अवसाद , कुंठा और तनाव किसी को नजर नहीं आते हैं।
आप स्वयं अपना स्वविश्लेषण कीजिये और फिर स्वयं को स्वस्थ रखने की दिशा में प्रयास कीजिये और अगर आप स्वस्थ हैं तो दूसरों के लिए प्रयास कीजिए।
कुछ सार्थक सुझव दे सकती हूँ जिनको अपनाने से कुछ तो इससे ग्रसित लोग स्वयं को स्वस्थ बनाने की दिशा में सक्रिय हो सकते हैं --
१. नियमित सुबह भ्रमण के लिए निकले , सुबह की जलवायु आपको शारीरिक रूप से नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी सामान्य रहने में सहायक होगी।
२. सोने और जागने का समय निश्चित करें।
३. ६ घंटे की नींद जरूर लें , सोने के बाद दिमाग तरोताजा रहता है।
४. लगातार कंप्यूटर या मोबाइल पर काम न करें। सोशल साइट पर रहने के बजाय अपने आस पास सामाजिक होने का प्रयास करें।
५. बच्चों को भी पढाई से उठाकर कुछ देर खुली हवा में पार्क या अन्य जगह पर खेलने के लिए कहें।
६. परिवार के सदस्यों के साथ समय बिताएं और उनके नियमित जीवन की समस्याओं से अवगत रहें।
अगर जीवन है तो उसे पूरी तरह से स्वस्थ होकर जीना ही वास्तव में जीवन है।
सार्थक और समाज को दिशा ,सचेत करता आलेख
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