ये बानगी है कुछ विज्ञापनों की -----रोज करीब करीब हर दैनिक अख़बार में निकला करते हैं. इनसे आने वाली बू सबको आती है और सब इस बात को समझते हैं. अख़बार वाले भी और असामाजिक गतिविधियों में लिप्त लोगों को सही दिशा देने वाली संस्थाएं भी लेकिन क्या कभी इस ओर किसी ने प्रयास किया कि इनकी छानबीन की जाय ? लेकिन आख़िर की क्यों जाय?
परिवार संस्था पहले भी थी और आज भी है, बस उसके नियम और कायदे कुछ उदार हो गए हैं. पहले बेटे और बहू परिवार के साथ ही रहते थे और वहीं पर कोई नौकरी कर लेते थे. उस समय मिल जाती थीं. घर और परिवार की मर्यादा का पालन होता रहता था. मुझे अपना बचपन और जीवन का प्रारंभिक काल याद है. घर से बाहर जाने पर अकेले नहीं जा सकते थे कोई साथ होना चाहिए. स्कूल भी अकेले नहीं बल्कि साथ पढ़ने वाली कई लड़कियाँ इकट्ठी हो कर जाती थीं. भले ही स्कूल घर से २० कदम की दूरी पर था. समय के साथ ये सब बदला और बदलते बदलते यहाँ तक पहुँच गया कि लड़कियाँ और लड़के दोस्ती के नाम पर कहाँ से कहाँ तक पहुँचने लगे हैं। कहीं भी विश्वास जैसी चीजें अब रह नहीं गयीं हैं। दोस्ती के नाम पर ऐसे काम भी होने लगे हैं , जिसमें यहाँ से लड़कियों को लेकर विदेशों में तक पहुँचाने वाले रैकेट मौजूद हैं. कहीं कभी कोई वारदात सामने आ गयी तो हंगामा मच जाता है लेकिन खुले आम आने वाले इन विज्ञापनों को क्या कोई नहीं पढ़ पाता है ?
सिर्फ ये ही क्यों? मसाज सेंटर के नाम पर निकलने वाले विज्ञापनों में भी आप इस तरह के कामों की महक पा सकते हैं. हमारी सरकार या फिर पुलिस किस इन्तजार में रहती है कि ऐसे लोगों पर छापे मारने के लिए कोई बड़ी वारदात जब तक न हो जाए तब तक उनकी नींद खुलती ही नहीं है. इन विज्ञापनों में फ़ोन नं. ईमेल एड्रेस सभी कुछ होता है. इसके लिए कोई आपरेशन क्यों नहीं चलाया जाता है? समाज में सेक्स के भूखे भेडिये बेलगाम घूम रहे हैं जिनसे बच्चियों से लेकर युवतियां ही नहीं बल्कि उम्र दराज महिलायें भी सुरक्षित नहीं है. जिसमें ऊँची पहुँच वाले लोगों को तो अब संयम जैसे गुण से कोई वास्ता ही नहीं रह गया है या फिर इनके साए तले पलने वाले लोग भूखे भेडिये बन कर घूम रहे हैं.
अब ये लड़कियों तक ही सीमित नहीं रह गया है क्योंकि अब तो लड़कों को भी अच्छे पैसे मिलने के नाम पर लुभाया जाने लगा है और लडके भी क्या करें ? सब तो पढ़ लिख कर नौकरी नहीं पा लेते हैं बल्कि पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ उन्हें सिर्फ काम की तलाश में उलझा ले जाता है और फिर वे इनके जाल में ऐसे फँस जाते हैं कि निकल ही नहीं पाते हैं। ऐसा नहीं है पुलिस ने ऐसे मामलों पर काम किया और भंडाफोड़ भी किया लेकिन ये काम तो आज भी खुले आम अखबारों में निमंत्रण दे रहे हैं और हम पढ़ रहे हैं।
कुछ विज्ञापन की बानगी :
* प्रिया मसाज पार्लर रजि. २००८ अमीर घरों की अकेली महिलाओं की बॉडी मसाज करके युवक रोजाना २५ - ३० हजार कमाएं। सर्विस आधे घंटे में। संपर्क सूत्र : ०००००००००
* दीपा मसाज पार्लर रजि. २००४ अमीर घरों की अकेली महिलाओं की बॉडी मसाज करके युवक रोजाना २५ - ३० हजार कमाएं। सर्विस आधे घंटे में। संपर्क सूत्र : ०००००००००
अलग अलग नाम से पार्लर के ढेरों विज्ञापन और एक ही भाषा होती है - कोई भी इसकी भाषा पढ़ समझ सकता है कि इसके पीछे क्या चल रहा है ? फिर क्यों समाज के ये कोढ़ पाले जा रहे हैं क्योंकि उनके ऊपर हाथ रखने वाले भी इसमें हिस्सेदार होते हैं। कौन होती है अमीर घरों की अकेली महिलायें ? और क्या सिर्फ मसाज के काम के पच्चीस हजार से लेकर तीस हजार तक सिर्फ आधे घंटे में मिलते हैं तो फिर क्यों कोई बोझ ढोता है। क्यों सुबह से शाम तक ऑफिस में काम करता है और फिर भी नहीं कमा पता इतना ? ढेरों सवाल है और उत्तर हम सभी जानते हैं और चुप हैं।
मीडिया वाले नए नए मामलों को लेकर टी वी पर रोज पेश करते रहते हैं लेकिन उनकी नजर इन पर क्यों नहीं पड़ती है कि वे ऐसे लोगों तक पहुँचने के लिए अपने जाल बिछा कर इनका खुलासा करें. जो खुल गया उसको पेश करके कौन सा कद्दू में तीर मार रहे हैं. अभी हम आदिम युग की ओर फिर प्रस्थान करने लगे हैं तो फिर अपने प्रगति के दावों को बखानना बंद करें नहीं तो अंकुश लगायें। इस तरह की संस्थाओं और विज्ञापनों पर जिनसे समाज का भला नहीं होता है. इस दलदल में फंसने के बाद अगर कोई बाहर निकलना भी चाहे तो नहीं निकाल सकता है. अपना भंडा फूटने के डर से इनसे जुड़े लोगों को इस तरह से अनुबंधित कर लिया जाता है या फिर उनको ऐसे प्रमाणों के साथ बाँध दिया जाता है कि वे उससे निकलने का साहस नहीं कर पाते हैं. इससे समाज सिर्फ और सिर्फ पतन कि ओर जा रहा है. इस पर अंकुश लगाना चाहिए चाहे जिस किसी भी प्रयास से लगे. .
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