पतिदेव भी गुस्से में आ गए कोई नहीं जाएगा. सब होटल में ही रुको और वापस चलो. मेरा बहुत मन था कि यहाँ तक आयी हूँ तो दर्शन कर ही लूं. पापा की गुस्सा से दोनों ही बेटियां चलने के लिए बेमन से तैयार हुईं. टैक्सी की गयी और जब मैं होटल की सीढियां उतर रही थी तो मैंने मन ही मन कामना की -ये मेरी आस्था की परीक्षा है, मेरी बेटी को मंदिर तक सकुशल ही ले जाना चाहती हूँ और आपकी कृपा भी चाहती हूँ. " . बहुत दूर था मंदिर और बाई रोड ही जाना था. नासिक से शिंगुनापुर जाने वाले रास्ते में एक खास चीज यह भी देखी की थोड़ी - थोड़ी दूर पर टेंट लगा कर कुर्सियां डाल कर दुकाने सजी थीं और वहाँ पर कोल्हू में जुटा हुआ बैल शांत खड़ा था शायद ग्राहकों के आने की प्रतीक्षा कर रहा था की कब आयें और उसको गन्ने का रस निकालने के लिए आदेश मिले. अभी तक तो मैंने मशीनों से रस निकलते हुए ही देखा था. यह मेरा पहला अनुभव था कि दुकान में बैल को कोल्हू में जोत कर रह निकल रहे थे.
मंदिर के अन्दर शनि देव की शिला जो की पूजन के लिए स्थापित है.
मंदिर के अन्दर तस्वीरें लेने के लिए अनुमति नहीं थी. फिर भी सिर्फ एक तस्वीर किसी तरह से ली और फिर शेष मंदिर के परिसर में ली गयीं.
इस स्थान पर हम पहली बार गए थे बस सुना भर था कि इसका हिन्दू धर्म में बड़ा ही महात्म्य है. आज इस समय जब कि हम १६० किमी की यात्रा करके आये और मेरी बेटी कि हालात वैसे ही सामान्य थी जैसे कि ट्रेन से यात्रा करने में होती है. मेरी आस्था और दृढ हो चुकी थी क्योंकि सब कुछ अच्छा लग रहा था. ऐसा होने की तो मेरी बेटी कल्पना ही नहीं कर सकती थी और इस समय वह भी उस अज्ञात शक्ति के लिए नतमस्तक थी.
शनिवार के दिन यहाँ पर बहुत अधिक भीड़ होती है. चारों तरफ कारों, टैक्सियों और बसों का ताँता लगा था.. यहाँ पर शनिदेव की शिला का पूजन सिर्फ पुरुष ही करते हैं और वह भी वहीं प्रसाद कि दुकानों से मिलने वाले नारंगी रंग के एक वस्त्र धोती में. जिसको पहन कर नहा कर गीले वस्त्र में ही पूजन करने जाते हैं. चारों तरफ पुरुष तो नारंगी रंग के वस्त्रों में थे ही साथ ही नन्हे बटुक भी उसी वेशभूषा में बहुत प्यारे लग रहे थे. स्त्रियाँ मंदिर प्रांगन में ही दर्शन कर सकती हैं. शिला स्पर्श करने का विधान वहाँ नहीं था. अपार भीड़ के बाद भी वहाँ पर कोई धक्का मुक्की नहीं थी. मंदिर के परिसर में सरसों का तेल चढाने के कारण चारों तरफ फिसलन थी. और शिला वाले चबूतरे पर तो तेल का तालाब ही बना हुआ था.
बस अगर सबसे खलने वाली बात थी तो ये थी यहाँ पर प्रसाद की दुकानों पर बड़ी लूट मची हुई थी. - एक प्रसाद की डलिया जिसमें मुश्किल से ३० या ३५ रुपये का सामान होगा उसकी कीमत उन लोगों ने ३५१ रुपये वसूल की. जब कि मंदिर जाने से पहले २५१ बताया था और लौट कर आने पर जब पेमेंट किया तो १०० रुपये बढ़ा कर लिए और बोले कि नहीं इतना ही होता है. इसके साथ ही टैक्सी वालों का कमीशन भी ये लोग देते हैं कि भक्तो को उनके यहाँ लाने पर इतना मिलेगा. खैर ये तो सभी तीर्थ स्थानों पर होता है लेकिन इस तरह से नहीं. जब कि ये मान्यता है और सिर्फ मान्यता ही नहीं बल्कि सत्य भी है कि यहाँ पर घरों में या दुकानों में आज भी ताले नहीं डाले जाते हैं. घर खुले ही रहते हैं और यहाँ पर चोरी जैसे घटनाएँ घटित नहीं होती. इसके बाद हम उसी टैक्सी से वापस नासिक रोड होटल में लौट कर आये कुल ३२० किमी यात्रा करने के बाद भी सभी लोग खुश थे और खास तौर पर मैं कि मेरी बिटिया रानी बिल्कुल नॉर्मल थीं और आज मैंने अपनी आस्था और विश्वास को पूरी तरह से फलीभूत होते देखा था.
nice post
जवाब देंहटाएंखूबसूरत तस्वीरों के साथ दिल को छूती हुई पोस्ट.
जवाब देंहटाएंyaatra achhi rahi
जवाब देंहटाएंतस्वीरों से सजा यात्रा विवरण अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंअच्छा मनोहारी चित्रण , मेरी कई साल पहले की यात्रा याद आ गयी..
जवाब देंहटाएंसुंदर फोटो के साथ अच्छा यात्रा संस्मरण है ....
जवाब देंहटाएंहम भी अभी ही होकर आए हैं।
जवाब देंहटाएंहां पूजा के सामान के नाम पर तो
खुली डकैती है,चढाने के बाद वह सामान फ़िर वहीं पहुंच जाता है।
बाकी शनि बाबा इनको संभालेंगे।
ांअपकी यात्रा विवरण मे लगा कहीं हम भी आपके साथ ही हैं एक बात समझ नही आयी कि वहाँ फोटो क्यों नही खींचने देते? शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंबहुत सुदर यात्रा विवरण, ओर चित्र भी अति सुंदर लगे
जवाब देंहटाएंसुन्दर तस्वीर ...सचित्र वर्णन और आपका विश्वास इस स्थान की सैर करने को विवश कर रहा है ...!
जवाब देंहटाएंसुन्दर तस्वीर ...सचित्र वर्णन और आपका विश्वास इस स्थान की सैर करने को विवश कर रहा है ...!
जवाब देंहटाएंखूबसूरत चित्रों के साथ यह यात्रा वर्णन बहुत अच्छा लगा...
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया यात्रा-वृत्तांत...शिगनापुर की सबसे बड़ी खासियत है...वहाँ के घरों में दरवाजों का ना होना और दुकानों में शटर का ना होना...कहते हैं...वहाँ जो भी चोरी करे,अँधा हो जाता है..इस डर से कोई चोरी नहीं करता...अंधविश्वास ही सही, एक बुराई से तो दूर रहते हैं वहाँ के लोग...पहले तो पूरे गाँव में ही दरवाजे नहीं थे...अब सिर्फ मंदिर के आस-पास वाले घर और दुकानों में दरवाजे नहीं होते.
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा जान की बिटिया बिलकुल स्वस्थ रही और दर्शन की आपकी मनोकामना पूरी हुई.