कल शाम गेट खटखटाया गया साथ ही गेट के बाहर कुछ
अधिक लोगों के बोलने की आवाजें आ रहीं थी. कुछ समझाने की कोशिश कर रही थी
कि अभी तो कोई त्यौहार भी नहीं है (किसी भी धर्म का) और न ही इन दिनों को
सामूहिक धार्मिक कृत्यों के होने का अवसर है कि लोग चंदा लेने के लिए आये
हों. जाकर गेट खोल कर देखा तो पता चला कि ये निकाय चुनाव की घोषणा होने के
बाद अभी उसके नामांकन के लिए आवेदन फॉर्म मिलने की घोषणा की गयी थी. मैंने
उन लड़कों से पूछा कि क्या बात है? वह बोले वह चुनाव के लिए आये हें -
चाची खड़ी हो रही हें वह आप लोगों से मिलने के लिए आयीं हैं. वह सामने
आयीं तो मुझे कुछ चेहरा पहचाना हुआ लगा लेकिन फिर भी मैं ये सोच
रही थी कि इनको मैंने देखा कहाँ है? मेरी असमंजस देख कर वह खुद ही
बोलीं - अरे दीदी पहचाना नहीं , अभी हम बरगद पर मिले थे और
हर साल ही मिलते हैं. ओह तभी मुझे याद आया कि वट सावित्री
व्रत में जब हम लोग बरगद पर पूजा के लिए जाते हैं तो वहाँ पर ये
पूजा का समान लेने के लिए उपस्थित होती हैं यानि कि वे माली का
काम करने वाली हैं.
हमारे वार्ड की सीट पिछड़ी जाति की महिला के लिए आरक्षित है. अब दलों में होड़ है कि किसको खड़ा किया जाय ? इसमें सबसे बड़ी चीज जो मैंने देखी कि वह जो पम्फलेट हमें देकर गयीं थीं उसमें उनकी फोटो थी और साथ ही उनसे बड़ी उनके पति की फोटो थी जिसमें लिखा था पति अमुक अमुक . ये बात स्पष्ट थी कि इन्हें खड़ा तो किया जा रहा था लेकिन इसके पीछे सारा काम इनके पतिदेव ही देखने वाले थे क्योंकि किसी भी नेता के साथ उसकी पत्नी की तस्वीर तो कभी नहीं छपती और न ही नेताजी अपनी पत्नी को साथ लेकर चलते हैं. नहीं ये निकाय चुनाव में महिला को आरक्षण देकर उसका सम्मान नहीं किया जा रहा है बल्कि उसको मोहरा बना कर मतदाताओं को बेवकूफ बनाने का खेल खेला जा रहा है . उसके सामने कोई विकल्प तो हैं नहीं . ऐसा नहीं है कि इस वार्ड में कोई पढ़ी लिखी पिछड़े वर्ग की महिला नहीं होगी क्योंकि शिक्षा ने अब इस वर्ग में भी एक ऐसा समूह तैयार कर दिया है कि वे भी अपने अधिकारों और सामाजिक जिम्मेदारियों से पूरी तरह से वाकिफ हैं और एक सामान्य जन होने के नाते स्थानीय समस्याओं से भी पूरी तरह से वाकिफ भी हैं. फिर इन अशिक्षित या अल्प शिक्षित महिलाओं को इस क्षेत्र में आगे लाने का एक मात्र उद्देश्य यही है कि इनको आगे करके कुछ दलों और उनके पति को आगे करके अपमी मर्जी से काम किया और कराया जा सके. अभी तक हम उस व्यामोह से बाहर नहीं आये हैं कि जहाँ पर पत्नी कितनी भी आगे बढ़ जाए जब लिखा जाएगा तो पति का ही नाम होगा लेकिन उसकी पहचान करने के लिए साथ में पति का फोटो भी हो ऐसा कुछ समझ नहीं आता है.
वह जो अभी तक सिर्फ अपनी दुनियाँ फूलों की माला बनाने और फूल बेचने में ही देखती चली आ रहीं थी क्या उनको राजनीति के गलियारों में चल कर कुछ प्राप्त करने का प्रयास करेंगी उसके पेचदगियों को समझ भी पाएंगी लेकिन उन्हें समझना किसे है? पढ़ी लिखी महिला को अगर वे इस काम के लिए चुनेंगे तो फिर अपनी मर्जी कैसे चलेगी? इस लिए किसी कठपुतली को इस काम के लिए खड़ा कर दिया जाय बस फिर अपना राज है. ऐसे नहीं है इससे पूर्व यानि कि वर्तमान सत्र के पूर्व के सत्र में भी एक पिछड़े वर्ग की महिला को आरक्षित सीट के लिए चुन गया. उसे मैं व्यक्तिगत रूप से भी जानती हूँ. बस वह खड़ी हुई नामांकन किया और चुनाव जीत गयी इसमें कोई शक नहीं कि इसके लिए उनके पति ने बहुत मेहनत की होगी. लेकिन वे सिर्फ शपथ लेने के लिए गयीं थी और उसके बाद उनके हस्ताक्षर किये हुए कागज़ उनके पति लिए रहते थे जहाँ काम पड़ा उनको प्रयोग कर लिया. घर में वह एक प्रताड़ित महिला के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है. उनके पति सभासद ही कहलाते थे. उनकी पत्नी सभासद हें इस बात को लोग भूल ही गए थे. जो औरत अपने घर में अपने अधिकारों के लिए न लड़ पा रही हो , उसके अपने वार्ड की समस्याओं और विकास के लिए आवाज उठाने का साहस कहाँ होगा?
यहाँ तो ये सोचा जाता है कि महिला आरक्षण मिला नहीं और रातों रात नेत्रियाँ पैदा हो जायेंगी. वे राजनीति में आकार सक्रिय भाग लेने लगेंगी और अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने लगेंगी. ये आरक्षण भी एक चाल है . ये एक उदाहरण नहीं है बल्कि जितनी भी महिलायें खड़ी हो रही हें उनके उनके पीछे उनके पति या फिर पति को जिन लोगों ने इस काम के लिए मोहरा बनाया है उनकी सत्ता चलने वाली है. ऐसे महिला आरक्षण की हिमायती तो कोई भी नहीं होगा विशेष रूप से कोई भी महिला. ये राजनीतिक चालें हें जो आगे आम मतदाता को बेवकूफ बनाने के लिए चली जा रही हें और मतदाता इसके लिए मजबूर है.
हमारे वार्ड की सीट पिछड़ी जाति की महिला के लिए आरक्षित है. अब दलों में होड़ है कि किसको खड़ा किया जाय ? इसमें सबसे बड़ी चीज जो मैंने देखी कि वह जो पम्फलेट हमें देकर गयीं थीं उसमें उनकी फोटो थी और साथ ही उनसे बड़ी उनके पति की फोटो थी जिसमें लिखा था पति अमुक अमुक . ये बात स्पष्ट थी कि इन्हें खड़ा तो किया जा रहा था लेकिन इसके पीछे सारा काम इनके पतिदेव ही देखने वाले थे क्योंकि किसी भी नेता के साथ उसकी पत्नी की तस्वीर तो कभी नहीं छपती और न ही नेताजी अपनी पत्नी को साथ लेकर चलते हैं. नहीं ये निकाय चुनाव में महिला को आरक्षण देकर उसका सम्मान नहीं किया जा रहा है बल्कि उसको मोहरा बना कर मतदाताओं को बेवकूफ बनाने का खेल खेला जा रहा है . उसके सामने कोई विकल्प तो हैं नहीं . ऐसा नहीं है कि इस वार्ड में कोई पढ़ी लिखी पिछड़े वर्ग की महिला नहीं होगी क्योंकि शिक्षा ने अब इस वर्ग में भी एक ऐसा समूह तैयार कर दिया है कि वे भी अपने अधिकारों और सामाजिक जिम्मेदारियों से पूरी तरह से वाकिफ हैं और एक सामान्य जन होने के नाते स्थानीय समस्याओं से भी पूरी तरह से वाकिफ भी हैं. फिर इन अशिक्षित या अल्प शिक्षित महिलाओं को इस क्षेत्र में आगे लाने का एक मात्र उद्देश्य यही है कि इनको आगे करके कुछ दलों और उनके पति को आगे करके अपमी मर्जी से काम किया और कराया जा सके. अभी तक हम उस व्यामोह से बाहर नहीं आये हैं कि जहाँ पर पत्नी कितनी भी आगे बढ़ जाए जब लिखा जाएगा तो पति का ही नाम होगा लेकिन उसकी पहचान करने के लिए साथ में पति का फोटो भी हो ऐसा कुछ समझ नहीं आता है.
वह जो अभी तक सिर्फ अपनी दुनियाँ फूलों की माला बनाने और फूल बेचने में ही देखती चली आ रहीं थी क्या उनको राजनीति के गलियारों में चल कर कुछ प्राप्त करने का प्रयास करेंगी उसके पेचदगियों को समझ भी पाएंगी लेकिन उन्हें समझना किसे है? पढ़ी लिखी महिला को अगर वे इस काम के लिए चुनेंगे तो फिर अपनी मर्जी कैसे चलेगी? इस लिए किसी कठपुतली को इस काम के लिए खड़ा कर दिया जाय बस फिर अपना राज है. ऐसे नहीं है इससे पूर्व यानि कि वर्तमान सत्र के पूर्व के सत्र में भी एक पिछड़े वर्ग की महिला को आरक्षित सीट के लिए चुन गया. उसे मैं व्यक्तिगत रूप से भी जानती हूँ. बस वह खड़ी हुई नामांकन किया और चुनाव जीत गयी इसमें कोई शक नहीं कि इसके लिए उनके पति ने बहुत मेहनत की होगी. लेकिन वे सिर्फ शपथ लेने के लिए गयीं थी और उसके बाद उनके हस्ताक्षर किये हुए कागज़ उनके पति लिए रहते थे जहाँ काम पड़ा उनको प्रयोग कर लिया. घर में वह एक प्रताड़ित महिला के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है. उनके पति सभासद ही कहलाते थे. उनकी पत्नी सभासद हें इस बात को लोग भूल ही गए थे. जो औरत अपने घर में अपने अधिकारों के लिए न लड़ पा रही हो , उसके अपने वार्ड की समस्याओं और विकास के लिए आवाज उठाने का साहस कहाँ होगा?
यहाँ तो ये सोचा जाता है कि महिला आरक्षण मिला नहीं और रातों रात नेत्रियाँ पैदा हो जायेंगी. वे राजनीति में आकार सक्रिय भाग लेने लगेंगी और अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने लगेंगी. ये आरक्षण भी एक चाल है . ये एक उदाहरण नहीं है बल्कि जितनी भी महिलायें खड़ी हो रही हें उनके उनके पीछे उनके पति या फिर पति को जिन लोगों ने इस काम के लिए मोहरा बनाया है उनकी सत्ता चलने वाली है. ऐसे महिला आरक्षण की हिमायती तो कोई भी नहीं होगा विशेष रूप से कोई भी महिला. ये राजनीतिक चालें हें जो आगे आम मतदाता को बेवकूफ बनाने के लिए चली जा रही हें और मतदाता इसके लिए मजबूर है.
नाम महिलाओं का काम उनके पतियों का!
जवाब देंहटाएंयही तो हो रहा है आज!
शुरू में तो पति आदि की चलती है लेकिन बाद में औरतें अपनी भी चलाती हैं और जब वे राजनीती में पुख्ता हो जाती हैं तो फिर वे सिर्फ अपनी ही चलती हैं .
जवाब देंहटाएंशिक्षा की अपनी जगह अहमियत है.
देखें -
http://blogkikhabren.blogspot.in/2012/06/nikah.html
नहीं जमाल जी ऐसा नहीं है, जिन महिलाओं को मोहरा बनाया जाता है वे अपने अस्तित्व को कभी सिद्ध करने लायक हो ही नहीं पाती हें क्योंकि समर्थ को कोई मोहरा नहीं बना पाता है. फिर अगर जीवन में कुछ करने में वह सक्षम है तो अपने निर्णय ले रही हें तो इसको बुरा नहीं समझना चाहिए. आज औरत हो फिर आदमी किसी को किसी के इशारे पर नाचने की जरूरत नहीं रही.
हटाएंबिल्कुल सही आकलन किया है।
जवाब देंहटाएंआज का ज्वलंत प्रश्न .......
जवाब देंहटाएंपतियों के नाम पर लड़े जा रहे हैं चुनाव, अभी भी..
जवाब देंहटाएंवे पतियों के नाम पर नहीं लड़ रही हें बल्कि पाती उनके नाम पर राजनीति में अपना हाथ साफ करना चाह रहे हें.
हटाएंसमस्याएं आरक्षणों से हल नहीं होंगी, शैक्षिक व सांस्क़तिक बदलावों से होंगी
जवाब देंहटाएंइस बात को वो समझ कर भी समजना कहाँ चाहते हें? ये तो वोट बैंक का एक जरिया है कि आरक्षण को हथियार बनाकर सीधे सादे लोगों को अपना शिकार बना लो. नहीं तो ये आरक्षण अपने सही स्वरूप में hota.
हटाएंमामला चाहे आरक्षण का हो या कोई और्…सत्ता के भूखे अपना रास्ता खोज ही लेते हैं। जनता सब जानती है पर मजबूर है।
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