इस घटना को लिखने की वजह पिछले अनुभव "रिश्वत ऐसे ली जाती है" के सन्दर्भ में दिनेश राय द्विवेदी जी और काजल कुमार जी के कथन पर ही लिख रही हूँ।
ये बात कई साल पुरानी है। समझौता और गलत बात से मैंने कभी नहीं किया है। मैं उस समय इंदिरा नगर में रहती थी और मेरे पतिदेव के प्रोमोशन का टेलीग्राम आया . उस समय मोबाइल का चलन नहीं था और फ़ोन भी किराये के मकान होने के नाते नहीं था। तब त्वरित सूचना का एक मात्र साधन टेलीग्राम ही थे। पोस्टमैन ने टेलीग्राम देने के एवज में इनाम माँगा जिसको देने से मैने इंकार कर दिया और वह भी इनाम नहीं तो टेलीग्राम नहीं कहते हुए वापस लेकर चला गया।
इस बात को मैंने दैनिक जागरण के "जनवाणी " में भेज दिया और "जनवाणी" से उसको विभाग में भेज दिया जाता है। इत्तेफाक से उसपर कार्यवाही शुरू हो गयी। ठीक होली वाले दिन पोस्टल विभाग के कुछ लोग जिनमें एक अधिकारी था 3-4 पोस्टमैन को लेकर मेरे घर आये और बोले कि इनमें आप पहचान लीजिये किसने ये बात कही थी? उन लोगों में वह पोस्टमैन था। उस दिन मेरे पहचानने से वह कम से कम सस्पेंड होने वाला था या नौकरी ही चली जाएगी ऐसा उन लोगों ने कहा।
मैंने सोचा कि बेकार त्यौहार के दिन इसकी नौकरी चली जायेगी घर में इसके पत्नी और बच्चे इसी पर निर्भर हों, इसके कर्मों की सजा वे क्यों भोगें? । इसलिए मैंने पहचानने से इनकार कर दिया और कहा कि इनमें से ही कोई था। ऑफिसर ने कहा कि आप बतलाइए क्या कार्यवाही आप चाहती हैं ? कार्यवाही तो होगी फिर चाहे सब पर हो। मैंने अपने विवेक से उनको लिखा कि -- 'मेरे द्वारा सही गई असुविधा को आप लोगों ने संज्ञान में लिया इसके लिए मैं आभारी हूँ लेकिन मैं इनमें से किसी पर भी कोई अनुशासनहीनता के एवज में कार्यवाही नहीं चाहती हूँ। इस कार्य के लिए इतनी चेतावनी ही काफी है ताकि भविष्य में कोई ऐसा वाकया दुबारा न हो। '
हर व्यक्ति की अपनी एक छवि होती है और उसके बारे में विभाग में सभी जानते हैं इसलिए उस पोस्टमैन को वहां ट्रान्सफर कर दिया गया। मैं इस बात को भूल भी गयी लेकिन जब हम अपना मकान बनवा कर यहाँ आये तो इस इलाके में वही पोस्टमैन था। लेकिन वह नहीं भूला था। जब भी मेरा कोई पत्र आये मिले ही नहीं , यहाँ तक कि मेरे पापा के निधन होने पर भाई साहब ने टेलीग्राम भेजा तो वह मुझे आज तक नहीं मिला। मैंने तो अपनी डाक अपने ऑफिस के पते पर मंगाना शुरू कर दिया।
जब उसका ट्रान्सफर यहाँ से भी हुआ तो वह नए पोस्टमैन को इलाके में लेकर बता रहा था तो उसने बताया की इस घर के लोग बहुत ही ख़राब हैं पता नहीं कब किसकी नौकरी खा जाएँ? मैं तो इनके पत्र फाड़ कर भेज देता था। अब आगे तुम जानो . जब नया पोस्टमैन हमसे परिचित हो गया तब उसने ये बात बतलाइ । और मैंने उसको सारा माजरा बताया। ये सजा पायी थी मैंने अन्याय के खिलाफ आवाज उठा कर कि मैं अपने पापा के अंतिम दर्शन भी नहीं कर सकी। लेकिन अन्याय के साथ समझौता अब भी नहीं सीखा है।
ये बात कई साल पुरानी है। समझौता और गलत बात से मैंने कभी नहीं किया है। मैं उस समय इंदिरा नगर में रहती थी और मेरे पतिदेव के प्रोमोशन का टेलीग्राम आया . उस समय मोबाइल का चलन नहीं था और फ़ोन भी किराये के मकान होने के नाते नहीं था। तब त्वरित सूचना का एक मात्र साधन टेलीग्राम ही थे। पोस्टमैन ने टेलीग्राम देने के एवज में इनाम माँगा जिसको देने से मैने इंकार कर दिया और वह भी इनाम नहीं तो टेलीग्राम नहीं कहते हुए वापस लेकर चला गया।
इस बात को मैंने दैनिक जागरण के "जनवाणी " में भेज दिया और "जनवाणी" से उसको विभाग में भेज दिया जाता है। इत्तेफाक से उसपर कार्यवाही शुरू हो गयी। ठीक होली वाले दिन पोस्टल विभाग के कुछ लोग जिनमें एक अधिकारी था 3-4 पोस्टमैन को लेकर मेरे घर आये और बोले कि इनमें आप पहचान लीजिये किसने ये बात कही थी? उन लोगों में वह पोस्टमैन था। उस दिन मेरे पहचानने से वह कम से कम सस्पेंड होने वाला था या नौकरी ही चली जाएगी ऐसा उन लोगों ने कहा।
मैंने सोचा कि बेकार त्यौहार के दिन इसकी नौकरी चली जायेगी घर में इसके पत्नी और बच्चे इसी पर निर्भर हों, इसके कर्मों की सजा वे क्यों भोगें? । इसलिए मैंने पहचानने से इनकार कर दिया और कहा कि इनमें से ही कोई था। ऑफिसर ने कहा कि आप बतलाइए क्या कार्यवाही आप चाहती हैं ? कार्यवाही तो होगी फिर चाहे सब पर हो। मैंने अपने विवेक से उनको लिखा कि -- 'मेरे द्वारा सही गई असुविधा को आप लोगों ने संज्ञान में लिया इसके लिए मैं आभारी हूँ लेकिन मैं इनमें से किसी पर भी कोई अनुशासनहीनता के एवज में कार्यवाही नहीं चाहती हूँ। इस कार्य के लिए इतनी चेतावनी ही काफी है ताकि भविष्य में कोई ऐसा वाकया दुबारा न हो। '
हर व्यक्ति की अपनी एक छवि होती है और उसके बारे में विभाग में सभी जानते हैं इसलिए उस पोस्टमैन को वहां ट्रान्सफर कर दिया गया। मैं इस बात को भूल भी गयी लेकिन जब हम अपना मकान बनवा कर यहाँ आये तो इस इलाके में वही पोस्टमैन था। लेकिन वह नहीं भूला था। जब भी मेरा कोई पत्र आये मिले ही नहीं , यहाँ तक कि मेरे पापा के निधन होने पर भाई साहब ने टेलीग्राम भेजा तो वह मुझे आज तक नहीं मिला। मैंने तो अपनी डाक अपने ऑफिस के पते पर मंगाना शुरू कर दिया।
जब उसका ट्रान्सफर यहाँ से भी हुआ तो वह नए पोस्टमैन को इलाके में लेकर बता रहा था तो उसने बताया की इस घर के लोग बहुत ही ख़राब हैं पता नहीं कब किसकी नौकरी खा जाएँ? मैं तो इनके पत्र फाड़ कर भेज देता था। अब आगे तुम जानो . जब नया पोस्टमैन हमसे परिचित हो गया तब उसने ये बात बतलाइ । और मैंने उसको सारा माजरा बताया। ये सजा पायी थी मैंने अन्याय के खिलाफ आवाज उठा कर कि मैं अपने पापा के अंतिम दर्शन भी नहीं कर सकी। लेकिन अन्याय के साथ समझौता अब भी नहीं सीखा है।
अनाचार व्यवस्था में इतना रम गया है कि उस के विरुद्ध लड़ने वाले को असुविधाएँ तो उठानी पड़ती हैं। यदि आप ने शिकायत कर दी थी तो फिर उस का समर्थन करना चाहिए था। हम अक्सर दया भाव के शिकार हो कर अनाचार करने वालों को छोड़ देते हैं। यहीं से सुधार की प्रक्रिया नष्ट हो जाती है और शिकायत करने की सजा का दौर आरंभ हो जाता है। यदि उस पोस्टमेन ने बदले की भावना से आप के पत्रादि नष्ट कर दिए थे तो आप को पुनः उस की शिकायत करनी चाहिए थी।
जवाब देंहटाएंसुधार के लिए सतत संघर्ष करना होता है। जब लोग देखते हैं कि यह व्यक्ति न तो इन मामलों में दया करता है और न ही समझौता। तब वे आप की परवाह करने लगते हैं।
मैं जहाँ काम करता हूँ वहाँ कोई फाइल बिना धक्के के नहीं सरकती। एक वकील को दिन में कम से कम दस बार बाबुओं और चपरासियों की जेबें गर्म करनी पड़ती हैं। अनेक बाबू और चपरासी अनेक वकीलों से अधिक अच्छी आय कर लेते हैं। लेकिन अदालत में कोई वकील यह तय कर ले कि उसे किसी को पैसा नहीं देना है तो आरंभ में एक दो वर्ष उसे परेशानी भुगतनी पड़ती है लेकिन एक बार पहचान बन जाने के बाद उस से कोई एक पैसा नहीं मांगता और कोई काम नहीं रोकता। मैं ने अपनी वकालत के 33 वर्षों में कभी रिश्वत नहीं दी। लेकिन फिर भी मेरे काम सब से पहले होते हैं। इस के और भी कारण हैं। रिश्वत देने वाला इन बाबुओँ और चपरासियों के साथ कभी मानवीय व्यवहार नहीं करता और ये मानवीय व्यवहार के लिए तरस जाते हैं। उन्हें केवल हम जैसे लोगों के यहाँ शरण मिलती है।
आपका संस्मरण अच्छा है लेकिन आपको उस दुष्ट पोस्टमैन को सबक सिखाना जरुर चाहिए था।
जवाब देंहटाएंहम्म ..ऐसा ही होता है.
जवाब देंहटाएंप्रेरक, खुशी में और दुख में एक ही मापदण्ड अपनाने होंगे।
जवाब देंहटाएंभलाई का ज़माना नहीं रहा...ऐसे में किसके साथ जाएँ फैसला करना मुश्किल होता है...खैर आपने जो उचित था इंसानियत के नाते वो किया...सामने वाला अगर इंसान ही न हो तो इसमें आपका क्या कसूर...
जवाब देंहटाएंनीरज
आपकी दया ही आप पर भारी पड़ गयी ... द्विवेदी जी ई बात से सहमत ...
जवाब देंहटाएंक्या कहें...दया करने का ऐसा परिणाम....कि फिर किसी पर दया करने का दिल भी न हो.
जवाब देंहटाएंकुछ लोगो की फ़ितरत कभी नही बदलती और आज गांधी वाला स्टाइल भी नही चलता कि कोई एक गाल पर मारे तो दूसरा आगे कर दिया जाये आज तो कोई एक मारे तो चार मारो तभी सब सुधरते हैं नही तो शरीफ़ लोग ही दुख ज्यादा पाते हैं।
जवाब देंहटाएंbravo rekha
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंजब तक सजा ना मिले कोई भी व्यक्ति सुधरता नहीं है जाचे वो गरीब हो या अमीर दया या माफ़ी तो कई बार गलतियों को और करने के लिए बढ़ावा दे देती है |
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