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रविवार, 3 जून 2012

जनप्रतिनिधियों की पोल !

          हमारे देश की लोकतान्त्रिक प्रणाली के शासन को जिस तरह से चलाया जा रहा है , उसकी आधी सच्चाइयाँ उस जन मानस की जानकारी से दूर है और उनके पास इसको जानने के कोई स्रोत भी नहीं है क्योंकि इसकी जानकारी आम आदमी तक आएगी कैसे?  इसके अधिकार को प्रयोग नहीं कर पाती है. वह तो इसके बाद सिर्फ झेलती है वर्तमान सरकार की सही और गलत नीतियों को और उसके द्वारा किये जा रहे मनमाने कामों को.
                         पिछले वर्ष संसद में उपस्थित सांसदों के विषय में कुछ जाना था कि बड़े बड़े सांसद संसद में कितने दिन उपस्थित रहे ? वे सांसद होने के कारण है लाखों रुपये वेतन और भत्ते के रूप में ले रहे हें फिर भी लगता है कि उनका जमीर उन्हें इस बात के बाध्य नहीं पर पाता  कि जिस लिए वे लाखों रुपये ले रहे हें उस संसद में उपस्थित होने की उनकी नैतिक जिम्मेदारी बनती है लेकिन ये बात तो एक आम आदमी के लिए पता होती है. वह जो सरकारी पद पर काम कर रहा है या फिर कहीं निजी संस्थान में काम कर रहा है . उसे उपस्थित रहना होता है और अगर छुट्टी भी लेनी है तो उसको उन नियमों के अनुसार ही मिलेगी जो उसकी सेवा शर्तों में शामिल है. उनका वेतन कितना होता है? और उनके कार्यकाल कितना होता है? इसके बारे  में इन  सांसदों को पता नहीं होता है. इन  लोगों  को पांच  सालों  में कितने दिन संसद के सत्र  में आना  होता है. उस पर भी ये कि उनमें  कितनों को संसद में कभी  आना  ही नहीं होता है क्योकि  इसमें  छुट्टियों  और उपस्थिति  का  कोई लफडा  होता ही नहीं है. वेतन भत्ते इतने कि सारी जिन्दगी के लिए कुछ करना ही न पड़े और फिर उसके बाद न भी चुने गए तो जीवन भर के लिए पेंशन तो मिलेगी ही. बस पांच साल के लिए एक बार चुन लिए जाओ फिर इनमें से कुछ तो साम दाम दंड भेद इतना कमा लेते हें कि उन्हें रखने के लिए देश में जगह ही नहीं मिलती है और उन्हें उसे विदेशों में छिपा कर रखना पड़ता है. ये जनता के प्रतिनिधि होते हें और जनता के ही हक़ में बोल नहीं पाते और जरूरत भी क्या है? बोलेंगे तब भी वेतन और भत्ते आने और न बोलेंगे तब भी इनमें कोई धोखा नहीं है. सब अपनी अपनी किस्मत का खाते हें.
                    ये सिर्फ संसद की हालात नहीं है बल्कि ये तो राज्य की विधान सभा में चुने गए विधायकों का भी यही हाल होता है. उत्तर प्रदेश राज्यों में आकार की दृष्टि से काफी बड़ा राज्य है और इसकी विधान सभा में लगभग ४०३ विधायकों को चुन कर लाया जाता है . इनमें से कई तो शपथ ग्रहण समारोह में भी अनुपस्थित होते हें जिन्हें बाद में शपथ  दिलाई जाती है. कैसे एक राज्य सरकार अपनी मनमानी करने सफल होती है क्योंकि सदन में विपक्ष के नाम पर कोई उपस्थित होता ही नहीं है . हाँ सत्ता पक्ष के विधायक भी सदन में उपस्थित होने के बारे में संजीदा नहीं होते हें. इस विषय में नेशनल इलेक्शन वाच और ए डी आर की एक रिपोर्ट के अनुसार १५ वीं   विधानसभा जिसका कार्यकाल २००७ - २०११ तक रहा और इस में सदन की कार्य वही महज ८९ दिन चली . इसमें पूरे ८९ दिन सदन में उपस्थित रहने वाले विधायकों में सिर्फ सिर्फ ५ विधायक हें जो शत प्रतिशत उपस्थित रहे और ८८ दिन उपस्थित रहने वाले विधायकों की संख्या २०  रही.  जिनमें से १९ सत्तापक्ष के थे और १ विरोधी दल सपा के विधायक थे.
                                कितना गर्व करने वाली बात है और जनाधार देने वालों को ठगा जाने का अहसास  कराने  वाली बात. अगर सत्तापक्ष निरंकुश होकर बेकार के निर्णय ले और राजकोष को बर्बाद करे तो उस पर कोई एतराज करने वाला कहाँ है? वैसे भी बहुमत लेकर सरकार बनाने वाली बसपा का शासन काम और उसके कामों में सजीव इंसान के लिए नहीं बल्कि वे जो नहीं रहे उनको जिन्दा करने के लिए बुतों और पार्कों का निर्माण कराया गया . जिन्दा लोग तो सिर्फ मत देने के लिए होते हें और एक बार उन्होंने विश्वास किया उसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और आगे की सरकार की बात अब आगे सामने आएगी.
                            मेरे मत के अनुसार चाहे सांसद हों या फिर विधायक इनके कार्यकाल में इनके उपस्थित रहने के लिए उपस्थिति भी अनिवार्य की जानी चाहिए . उनके लिए भी कुछ आचार संहिता होनी चाहिए ताकि वे सिर्फ उस जिम्मेदारी के लिए जिसके लिए उन्हें चुन कर भेजा गया है . उस कार्य को करें. अपनी विधायक राशि को जनहित में प्रयोग लायें न कि कुछ उन विधायकों और सानासदों की तरह जिन्होंने आजतक अपनी राशि उठाई तक नहीं है और न अपना कोई खाता उस राशि के लिए खोला है. उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने वेतन और भत्ते से मतलब होता है और बाकी माननीयों वाली सुविधाएँ तो उन्हें प्राप्त हैं हीं . अब एक संशोधन  संविधान में इस बारे में भी जरूरी है. जिन्हें जनता ने चुन है उनके लिए भी कुछ क़ानून होने चाहिए और वे बाध्य होने चाहिए उनको पालन करने के लिए.

5 टिप्‍पणियां:

  1. दुनिया में भारत का लोकतन्त्र हास्यास्पद हो गया ऐसे तो!

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  3. इसका कारण है कि जनता अपनी सामंतवादी प्रवत्ती से उबर नहीं पायी है। भारत की तो संस्कृति ही है जिसकी लाठी उसकी भैंस। नेता खुद को किसी राजा से कम नहीं समझते और राजनीती उनका खानदानी पेशा हो जाता है, किसी मध्यम वर्ग या गरीब वर्ग के व्यक्ति को तो सिर्फ़ मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जाता है।

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  4. सहमत -पर्दाफाश है यह विवरण!

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ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.