संकल्प दिवस पर शत शत नमन |
वह दिन वाकई बहुत भयावह रहा था। जब ये समाचार कि ' इंदिरा गांधी को उनके अंगरक्षक ने गोलियां मारी हैं। ' मैंने सुना उस समय मैं कानपूर के एलिम्को संस्थान में अपने एम एड के लघु शोध के लिए कुछ किताबें लेने के लिए गयी थी। वहां पर रेडियो पर न्यूज़ सुनी। सबसे पहले मन में यही विचार आया कि अब देश का क्या होगा? वहां से किताबें लेकर किसी तरह से घर आई।
ऐसे समय में अफवाहों का बाजार किस तरह से गर्म होता है , ये अपने आँखों से देखा और वह दहशत भी झेली हम लोगों ने। हम उस समय इंदिरा नगर में रहते थे और उस समय वहां पर सिर्फ एक सिख परिवार रहता था। सब लोगों को डर था कि रात में उस परिवार पर हमला हो सकता है। उनकी सुरक्षा के लिए इंदिरा नगर के लोग हर तरह से प्रतिबद्ध हुए। सभी प्रवेश मार्गों पर लोगों की टोली ने अवरुद्ध कर रखा था। तब मोबाइल नहीं ही थे लेकिन उनके घर की सुरक्षा पूरी थी।
हम जिस घर में रहते थे , नीचे रहते थे और ऊपर मकान मालकिन अकेली रहती थी। उन्होंने हम लोगों को परिवार सहित ऊपर बुला लिया था कि अगर कुछ होता भी है तो नीचे ज्यादा खतरा है और ऊपर से हम सामना कर सकते हैं। बीच बीच में रह रह कर अफवाहों का बाजार गर्म हो उठता कि वे लोग ( दंगाई) इस रस्ते से आने की सोच रहे हैं। हमारा संयुक्त परिवार था हम ९ लोग थे, ६ बड़े और ३ हमारी बेटियां। कहीं और किसी के घर जा नहीं सकते थे। बस रात का ही डर था क्योंकि हमले की साजिश रात में ही रची जाती थी। कहीं दूर शोर सुनाई देता तो अंदर तक काँप जाते थे कि पता नहीं क्या होगा ?
वह रात गुजर गयी और प्रशासन सतर्क भी हुआ। वह परिवार सुरक्षित बच गया लेकिन मेरे दायरे में ही नहीं बल्कि रोज साथ होने वाले दो सिख परिवारों की कहानी बदल गयी थी। उस समय मैं एक पब्लिक स्कूल में प्रिंसिपल का काम भी देख रही थी और मेरे साथ काम करने वाली चरणजीत कौर ( पता नहीं अब कहाँ होंगी ?) टीचर थी। उस दिन उन्होंने शाम को सभी लोगों को अपने यहाँ खाने पर बुलाया था। उसके बाद तो कहानी ही बदल गयी। कई दिनों तक कर्फ्यू लगा रहा और जब स्कूल खुला तो पता चला कि उनका पूरा घर लूट लिया गया और वे लोग कहाँ गए ये पता नहीं लग पाया ? कई महीनों तक हम सब सामान्य नहीं हो पाये थे।
दूसरा था उसी स्कूल से लगी हुई एक बिल्डिंग मटीरियल की दुकान थी - वह एक सिख सज्जन की ही थी और उनसे करीब करीब रोज ही दुआ सलाम हुआ करती थी और वे थे भी बहुत सज्जन इंसान। उनकी पूरी दुकान जला दी गयी थी और जो सामान लूटने वाला था लूट लिया गया था। आस पास के कुछ लोगों को उनसे कुछ बैर भी था और वे लोग बहुत खुश देखे गये , लेकिन हमें दिल अफ़सोस था कि किसी की रोजी रोटी चली गयी पता नहीं कितने दिन लगेंगे उन्हें फिर से जुटाने में लेकिन इतना था कि उनका घर वहां नहीं था और वे परिवार सहित सुरक्षित थे।
वैसे तो इंदिरा गांधी जैसी लौह इरादों वाली प्रधानमंत्री के साथ हुआ वह विश्वासघात शर्मिंदा करने वाला था, लेकिन शिकार जो निर्दोष इसमें शिकार हुए वो हादसे भूलने वाली चीज नहीं है। लेकिन लिखा आज ३० साल बाद है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (02-11-2014) को "प्रेम और समर्पण - मोदी के बदले नवाज" (चर्चा मंच-1785) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
दुखद यादें
जवाब देंहटाएंबेहद दुखदायी थे वे दिन ...
जवाब देंहटाएंVery Nice Post....
जवाब देंहटाएंWelcome to my blog
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