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सोमवार, 4 जुलाई 2011

गर्मियों की छुट्टियाँ और अपना बचपन (२०)

मेरा सरोकार की ये सौवीं पोस्ट जा रही है आप सबके पास , हमारी इस श्रृंखला ने इसको बढ़ाने में बहुतमदद की। वैसे तो इस पर अनीता कुमार जी आह रही थी लेकिन कुछ तकनीकी गड़बड़ी के कारण उनकी पोस्ट हमआपको बाद में देते हैं तो फिर आज मिलते हैं वाणी गीत जी से।





वाणी गीत :

शरारत मंहगी पड़ी


स्कूली बच्चों के लिए ग्रीष्म ऋतु का बड़ा आकर्षण स्कूल की लम्बी छुट्टियाँ हुआ करती है . ना सुबहजल्दी स्कूल जाने की किचकिच ,ना होम वर्क की टेंशन . खूब सारा खेलना ,टी वी देखना , कंप्यूटर पर गेम खेलना . भरीदुपहरी में कूलर या .सी. की ठंडी हवा में कलेजे तक ठंडी कुल्फियों के साथ आम ,खरबूजे और तरबूज के स्वाद का लुत्फ़फिर भी बच्चे और बड़े शिकायत करते मिल जायेंगे , उफ़ , कितनी गर्मी है .
हमलोगों के बचपन के उन दिनों में कूलर और . सी. हर घर की शोभा नहीं होते थे , ना ही टीवी और कंप्यूटर , ना कोईहौबी क्लास जाने की आवश्यकता और ना ही छुट्टियाँ मनाने हिल स्टशन जाने की रवायत ही थी .भरी गर्मी में पसीने सेतर खेलते रहने के कारण पूरे शरीर में अलाईओं के दाने से बेपरवाह बच्चों के लिए छुट्टियों में नानी या दादी का घर हीकिसी पर्वतीय स्थल से भी बड़ा आकर्षण हुआ करता था ...बच्चे पूछ लेते हैं कई बार , जब इतना कुछ नहीं होता था तोआप लोंग छुट्टियों में करते क्या थे . सोचा मैंने भी कि ढेर सारा खेलने के बाद भी गर्मी की दुपहरियां कितनी बड़ी लगतीथी .आज कल बच्चों से से पूछ लो तो झट कह देंगे ." दिन कितनी जल्दी दिन बीत जाता है ".
हमारी गर्मी की छुट्टियाँ बिहार , राजस्थान और आंध्रा के बीच झूलती रहती थी .भरी दुपहरी में माँ या दादी /नानी केआँख लगते ही चुपके से दरवाजे खोल कर निकल जाना और मित्र मंडली के साथ कॉलोनी के आम के पेड़ों से कच्चीअमिया तोड़ कर उन पर कई तरह के एक्सपेरिमेंट करना , कभी पना बना कर तो कभी पतली फांकों पर नमक लगा करचटखारे लेना , दांत खट्टे हो रहे हैं अभी तो सोच कर. कभी फालसे , शहतूत के पेड़ों के नीचे डेरा जमाना . राजस्थान मेंनानी के घर छुटियाँ बिताने जाते तो छाछ- राबड़ी छक कर बेरों की झाड़ियाँ हमारा निशाना बनती थी . राजस्थान में दिनकी भयंकर गर्मी में रेत जितनी तपती है , रात में उतनी ही ठंडी हो जाती है . ठंडी रातों में देर तक रेत के लड्डू या घरबनाने में महारत हासिल करते कौन किसी इन्जिनीअर से कम समझते रहे होंगे .
वहीं बिहार में कॉलोनी के बीचों बीच बना मिल मालिक के बंगले में लगे सुन्दर फूलों और फलों के पौधे /पेड हमें बहुतलुभाते थे ,जिसके गेट पर खड़ा सिक्योरिटी गार्ड हमें हमारा सबसे बड़ा दुश्मन नजर आता था . सायं- सांय करतीसुनसान दुपहरियों में जब सब बड़े मीठी नींद के झोंके ले रहे होते , हम हैरान होते कि इन गार्ड्स को नींद क्यों नहीं आती . जरा उसकी आँख चुके तो घुस जाएँ बंगले में , और हनुमान जी के समान अशोक वाटिका के फूलों और फलों का सौन्दर्यआँखों और जीभ तक गटक लें . इन दुपहरियों में सारे बच्चे मिलकर कभी गुड्डे- गुड़ियों की शादी रचाते तो कभीरामलीला का नाटक खेलते. अब नहीं दिखते हैं कभी भी बच्चे इस तरह खेलते .
एक दुपहरी में भी ऐसे ही आँख बचाकर निकले घर से फालसों के पेड़ों को निशाना बनाने . छोटी चंचल बहन भी साथ थी . एक पेड के नीचे काला कुत्ता सुस्ता रहा था . छुटकी ने आव देखा ना ताव , घर के बाहर लगी हेज़ से तोड़ी एक डाल औरउसके कान में घुसा दी . कुत्ते को अपनी नींद में व्यवधान बर्दाश्त नहीं हुआ , उसने छुटकी के पंजे में अपने पूरे दांत गडादिए . हम छोटे बच्चों का उस कुत्ते से उसका हाथ छुडाना बड़ा मुश्किल हो गया . छुटकी के रोने और हमारे चीखने कीआवाज़ सुन कर गार्ड दौड़ा और बड़ी मुश्किल से उसका हाथ छुड़ाया , मगर जब तक कुत्ते महाशय उसकी हथेली में चारदांत आर- पार कर चुके थे और दर्द और दहशत से छुटकी बेहोश हो चुकी थी . हमारा दुश्मन देवदूत ही नजर रहा थाउस समय . जल्दी से मम्मी और पापा को खबर की . उन दिनों उस छोटे कस्बे में चिकित्सा सुविधाएँ इतनी नहीं थी , फटाफट हलकी ड्रेसिंग कर छुटकी को गाडी में लेकर पास के बड़े कस्बे में डॉक्टर के पास ले जाया गया .उस दिन माँ सेपड़े चांटे और भगवान् के सामने मत्था टेकती छुटकी के ठीक हो जाने की फ़रियाद करती माँ आज भी अच्छी तरह याद हैछुटकी के पेट में चौदह बड़े इंजेक्शन और उसके लिए अपने आपको कुसूरवार मानते हम भाई -बहन , नतीजन कुछदिनों तक डरते सहमते गर्मी की छुटियाँ घर में कैद हो कर बिताने को मजबूर होना पड़ा .
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9 टिप्‍पणियां:

  1. ओह यह तो लेने के देने पड़ गए
    संस्मरण अच्छा लगा .. आज कल तो बच्चों का बचपन दिखता ही नहीं ..सब बहुत जल्दी समझदार हो जाते हैं

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  2. ओह …………ये तो कभी ना भूलने वाली घटना बन गयी।

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  3. bachpan to muskaan hai, per bechari chhutki ! per ab to ise bhi yaadker sab hanste honge

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  4. बाप रे, ये तो लेने के देने पड़ गये....

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  5. आहा .. ऐसी बातों से ही तो कहावत बनी है .. लेने के देने ..अच्छा संस्मरण है ...

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  6. बहुत बढ़िया!
    बचपन कीशरारतों को याद करना बहुत अच्छा लगाता है!

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  7. ओह....पढ़ कर ही लगने लगा कि जैसे कुत्ता मेरे पाँव में ही दाँत गढ़ा रहा हो....

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