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सोमवार, 4 जुलाई 2011

गर्मियों की छुट्टियाँ और अपना बचपन (२१)


कौन नहीं चाहता है की फिर से अपने बचपन में झांक लें लेकिन कहाँ जिन्दगी इतनी रफ्तार से भागी चली जा रही है कीपलट कर देखने की फुरसत कहाँ है? आज के काम निपट गए तो रात में सोने से पहले ही कल की रूपरेखा तैयार कर लेतेहैंलेकिन मैंने सबको मजबूर कर दिया की चलिए अपने बचपन में झांकिए और फिर सोच कर मुस्करा लीजिएअपनी शरारतें और अपनी कारस्तानियों को फिर से आईने में देखा तो खुद को लगता है की हम ऐसा करते थेलेकिनफिर भी प्यारा लगता है कितने बचपन के चरित्र बिछुड़ गए और इतिहास में सिमट गए लेकिन एक क्षण के लिएलिखते समय याद बहुत आये
उन्हीं यादों को समेटे खड़ी हैं अनीता कुमार जी

अनीता कुमार :




वो बचपन की यादें ........


बहुत दिन के बाद ब्लॉग पर आई हूँ और आपका संस्मरण पढ़ कर मजा आह गयावो कहते हैं कि खरबूजेको देख कर खरबूजा रंग बदलता है वैसे ही संस्मरण पढ़ कर यादों का काफिला चल निकला तो सोचा कि इसको मंजिल तक पहुंचा ही दूं सो ये आपके लिए........
सबके संस्मरण पढ़ते हुए एक बात मेरे दिमाग में ये कौंधी थी कि गर्मियों की छुट्टी में सभी गाँव की ओर कूच करते थे और देहात की प्राकृतिक सम्पदा का मजा लूटते थेहम इस मामले में गरीब ही रहे , शहरी जो ठहरेफिर भी गर्मी की छुट्टियाँ हमारे लिए कुछ काम रोमांचक होती थींहर गर्मियों की छुट्टी में दो ही जगह जाना होता था या तो दिल्ली (ददिहाल) या फिर मुरादाबाद (नौनिहाल) दोनों ही जगह के अपने मजे थे
मुरादाबाद में मेरे नाना का सिनेमा हाल था और घर और सिनेमा हॉल के बीच में एक छोटा सा मैदान थागाना शुरू होता तो आवाज घर तक आती थीसिनेमा हाल में नाना जी ने एक कमरा सिर्फ अपने परिवार के लिए बनवाया हुआ थाजिसमें बड़ा सा सोफा झूले के रूप में लगा हुआ थाइधर पिक्चर शुरू हुई और उधर हम नाश्ता पानी सब छोड़ कर भागे चले जाते थेकभी फैमिली बॉक्स में झूले पर बैठ कर और कभी प्रोजेक्टर रूम में ओपेरटर की नाक में दम करके पिक्चर देखा करते थेमुरादाबाद छोटा शहर था एक ही सड़क पर थियेटर थे
सभी थियेटरों में हमें विशेषाधिकार प्राप्त थे। पांच छः बरस के रहे होंगे. एक लेमन वाला (मेरा मतलब सिर्फ कोल्ड ड्रिंक ही बेचा करता था) जिसकी दुकान नाना के सिनेमा हाल के पास थी. घर आता था और मेरी जिद पर अपने साथ ले जाता था. एक हाथ गाड़ी और उसपर बोरी से ढकी रखी बर्फ की सिल्ली और उस पर बैठ कर मैं पूरे शहर का नजारा देखा करती थी.उसी के साथ जाकर पहली बार बर्फ बनाने की फैक्टरी देखी. उस अँधेरे कमरे में ऊँचाई से गिरती पानी की रिमझिम बूँदें आज भी जेहन में ताजा हैं. मेरी नानी जैसे पराठे तो कोई बना ही नहीं सकता था. जिस दिन घर में मांस बनता हम बच्चों के लिए बड़ा रोमांचक होता था. नानी शुद्ध शाकाहारी, नाना मीट बनाने का काम करते थे. वो भी रसोई के बाहर - उन्हें एक अंगीठी जला कर दे दी जाती थी. और जब वे मसाले माँगते तो नानी उन्हें मसालादानी में हाथ नहीं लगाने देती और हम बच्चों से मसाले की कागज की पुडिया बनाकर भेजी जाती. नानी और नाना के शाकाहारी और मांसाहारी होने की तनातनी देखने में बड़ा मजा आता था.
हर साल गर्मियों की छुट्टी में दिल्ली जाना तय था. अलीगढ से दिल्ली पापा के चाचा के घर जाने के लिए हम छुट्टियाँ होते ही पीछे पद जाते. हमारा ददिहाल वही था. जैसे ही हमारा स्कूटर कोठी के गेट पर रुकता शशि दीदी जल्दी से नीचे उतर कर आती और हमें बाँहों में भर लेती. शशि दीदी यूँ तो पापा की चचेरी बहन थीं लेकिन वे हमारी हमउम्र थीं. उनका छोटा भाई राहुल जिसे हम आज भी काके कहकर बुलाते हैं गजब का उधमी था. उसका जोड़ मेरे छोटे भाई के साथ था. रात को बिस्तर छत पर लगते थे और छत पर पानी डाल कर उसको ठंडा करना मुझे बहुत अच्छा लगता था. रात में जिद करके हम और शशि दीदी एक ही बिस्तर पर सोते थे. देर रात तक हम लोग न जाने क्या खुसुर पुसुर किया करते थे और बीच बीच में चाची की आवाज सुनाई देती अब सो जाओ सुबह सैर को जाना है. सुबह उठते ही हम बच्चे और घर के मर्द पांच बजे अजमल खां रोड की ओर चल पड़ते थे. इतबार को दुकान बंद रहती थी सो उस दिन नाश्ता छोले और पूरी का होता था. हम बच्चों को भेजा जाता था स्टैण्डर्ड की दुकान से छोले और पूरी और दही लाने के लिए.घर पहुँचाने तक हम बच्चे दही के ऊपर की मोटी मलाई चट कर चुके होते थे. दोपहर से फेरी वाले फेरी लगाने लगते और मजाल है की कोई फेरी वाला हमारे घर रुके बिना चला जाए -- फालसे, उबली हुई मसालेदार छल्ली, और न जाने क्या क्या? गर्मियों के दिन होते - दिल्ली में ये रिवाज था की सभी गृहणियां तंदूर पर रोटी लगवाने भिजवा देती. शाम पड़ते ही मैं और दीदी परत में आता गीले कपड़े से और फिर थाली से ढाका हुआ लेकर तंदूर पर रोटी लगवाने के लिए लेकर जाते. वहाँ बहुत भीड़ होती थी ज्यादातर बच्चे ही आते थे आता लेकर. फिर क्या था की तंदूर वाले को बता कर की कितनी रोटी बनानी और हम झूले पर चढ़ जाते और तब तक झूलते रहते जब तक की तंदूर वाला आवाज न दे की अपनी रोटियां ले जाओ. लाल बहादुर शास्त्री का जमाना था. देश में अज्ज की किल्लत थी. शास्त्री जी के कहे अनुसार रविवार की रात को खाना नहीं बनता था. घर के बड़े लोग एक वक्त का फाका करते थे लेकिन बच्चे कब मनाने वाले थे सो बच्चों के लिए ढेर सारे फल ,चाट पकौड़ियों का इंतजाम किया जाता था.
शाम को खाना खाने के बाद सब बैठक में बैठ कर गपियाते थे. मेरी मम्मी चाचा जी के सामने घूंघट किये रहती थी. अगर चाचा जी कमरे में होते तो बहुत धीमी आवाज में बोला करती थी. चाची जी अक्सर कहा करती थी की निर्मला छड परे हुन ए घूंघट वूंघट पर मम्मी उनकी बात टाल जाया करती थीं. हम सब बच्चों के लिए मम्मी का घूंघट खींचना एक खेल हो जाता था. जब हम ज्यादा परेशान करते तो चाचा जी खुद उठ कर छत पर सोने चले जाया करते थे. मेरे पापा के छोटे चाचा भी उसी मकान के ऊपरी हिस्से में रहते थे. उनकी पत्नी मलयाली थी ( हाँ पचास के दशक में उनके चाचा ने लव मैरिज की थी.) छोटी चाची हम सब बच्चों की सबसे चहेती आंटी थी - अनीता आंटी. मुझे उनका नाम इतना पसंद था की मैंने जिद की की मेरा नाम भी अनीता होना चाहिए मुझे क्या पता था की नियति अपना खेल खेल रही है और आज मैं भी एक मलयाली की पत्नी हूँ. अनीता आंटी के घुंघराले बाल चाँदी सा रंग और सुरीला गला आज भी मेरे जेहन में उतना ही ताजा है जितना की उस समय हुआ करता था. उनके हाथों का बन राइ और जीरे के तड़के वाला आम का अचार का स्वाद आज भी मेरी जिव्हा पर है. और मैं कभी वैसा अचार नहीं बन पायी. इतवार के दिन हमारे घर सुबह से ही लोगों के आने का तांता शुरू हो जाता . हमारे छोटे चाचा सत्संग के लिए मशहूर थे. हम सबको हिदायत रहती की दो घंटे किसी की हंसी की आवाज नहीं निकालनी चाहिए. हम हाल में बैठे सत्संग के अंत में अनीता चाची के भजनों में इतना डूब जाते की शैतानी का सवाल ही नहीं उठता था. इतवार छोड़ कर बाकी सब दिन हम बच्चों का घर पर राज रहता था. बरामदे में एक तरफ एक हौज में हैंडपंप लगा हुआ था. नहाने के नाम पर हम बच्चे हौज की नाली में कपड़ा फंसा कर बारी बारी से हैंडपंप चला कर हौज को पानी से भर लेते और फिर उसमें नहाने में स्विमिंग पूल की कमी न लगती. बड़ी चाची हमें झूठा गुस्सा दिखा कर जब एक डेढ़ घंटे तक बाहर आने के लिए कहती रहती और हम उनकी बात न सुनते तो वे हमें धमकी देती की फिर जब उनको लगता की ये नहीं मानेगे तो आखिरी हथियार फेंका जाता की मैं अभी ऊपर से अनीता चाची को बुलाती हूँ. हम अनीता चाची से जितना प्यार करते थे उतना डरते भी थे.वे मरती नहीं थी लेकिन कह देती की ऊपर नहीं आना और अगर हम ऊपर नहीं जायेंगे तो फिर गाना कैसे सुनेंगे और केरल के किस्से कैसे सुनेंगे? और उनके हाथ का डोसा कैसे छोड़ देते सो हम एक एक करके बाहर आ जाते. बरामदे के दूसरे तरफ सीमेंट का डिब्बा बन हुआ था वो शायद कचरे के लिए बनाया गया था. हम उस पर खड़े होकर दूर गंदे नाले के ऊपर से जाती हुई रेलगाड़ी देखा करते थे. बचपन में हम सब बच्चों को गंदे नाले की तरफ जाने की मनाही थी. नाला भी एक नहर जितना बड़ा था. उस गंदे नाले के उस पार कौन लोग रहते हैं इस रहस्य को न तब किसी ने खोला और न आज तक हमें पता चल पाया. अजीब अजीब कल्पनाएँ मन में उठती थीं. नाले की विशालता देख कर हमारा बाल मन भयभीत हो जाया करता था. दोपहर को गेंद , गोते और कैरम खेलते और शाम को चाट पकौड़ी उड़ाते महिना कब गुजर जाता हमें पता ही नहीं लगता था. हमारे वापस जाने के दिन आ जाते और हमारे साथ सभी लोग उदास हो जाते . चाची हमारे साथ ढेरों समान बांध देती.
एक बार शशि दीदी ने जिद पकड़ ली की वे भी हमारे साथ अलीगढ जायेंगी. चाचा जी ने बहुत समझाया की तुम कभी घर से दूर नहीं रही हो तुम नहीं रह सकोगी. (हमारे अलीगढ के किराये के मकान और कोठी में बहुत अंतर था. ) पर हमारे साथ कुछ और दिन बिताने के लालच में वे बोली की मैं एडजस्ट कर लूंगी हम लोग अलीगढ आ गए . अलीगढ में हमारा मकान पहले माले पर था. दो कमरे और बीच में बड़ा सा आँगन आगन के दूसरे छोर पर टायलेट . सुबह जब उनको जाना था तो वे उसको देख कर डर गयी क्योंकि दिल्ली में तो पाश्चात्य टाइप का टायलेट था और अलीगढ में ऊपर के माले पर टायलेट के नाम पर एक छेद था और ग्राउंड फ्लोर पर एक छोटे से पतले से कमरे में एक बड़ा सा घड़ा रखा होता था. ग्राउंड फ्लोर के कमरे का दरवाजा गाली में खुलता था. और मेहतर हाथगाड़ी में मैला खाली करके ले जाते थे. लेकिन जब कोई उस शौच को इस्तेमाल करता था तो नीचे घड़े से इतनी जोर की आवाज आती थी जैसे कोई बम फूट रहा हो. शशि दीदी ने उसी दिन वापसी की गाड़ी पकड़ ली. ) ही ही ही ही ..........
ये यादें तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही हैं और मुझे तो कहीं न कहीं रुकना ही है न.................

11 टिप्‍पणियां:

  1. सबके संस्मरण पढ़ते हुए एक बात मेरे दिमाग में ये कौंधी थी कि गर्मियों की छुट्टी में सभी गाँव की ओर कूच करते थे और देहात की प्राकृतिक सम्पदा का मजा लूटते थे। हम इस मामले में गरीब ही रहे , शहरी जो ठहरे। फिर गर्मी की छुट्टियाँ हमारे लिए कुछ कम रोमांचक न होती थीं।
    .,,sach garmiyon kee chhutiyon mein gaon bahut bhaate hain... bahut achha sansmaran .. main bhi gaon se bahut din baad lauti hun ..gaon se aakar main apni yaadon ko taaja rakhne ke libe sansmaran jarur likhti hun abhi bhi likha hai.samay mile to dekhiyega aapki vicharon ka swagat hai...
    haardik shubhkamnayen...

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  2. :)अलीगढ़ के दूसरे माले का टॉयलेट ..... और दीदी का अगले ही दिन लौटना...खूब हँसे..ऐसी ही कई यादे और भी ताज़ा हो गई...

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  3. हा हा हा बहुत ही मजेदार संस्मरण है । और मुझे अब यकीन हो चला है कि जिंदगी के सबसे खूबसूरत पल बचपन की ही पल होते हैं , बहुत ही कमाल की यादें निकाली आज पिटारे से आपने अनीता जी । और रेखा जी को बहुत बहुत शुक्रिया इन्हें यहां सहेजने के लिए

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  4. आप तीनों दोस्तों ने मेरे बारे में जानने की जहमत उठाई इस के लिए मैं तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ

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  5. बात संस्मरणों की हो तो फिर अनिता जी की कोई सानी नहीं -पाठकों को वे सहज हे ले जाती हैं अतीत के वातायन में ..
    अनिता जी आपको मलयालम आती है ?

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  6. बचपन की मस्त यादे अनीता जी की पढकर बहुत आनन्द आया………

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  7. धन्यवाद अजय जी, ये भी एक मजा है सब के संस्मरण बहुत अच्छे लगते हैं और कुछ तो ऐसे अनूठे होते हैं की जिसके बारे में कुछ लोगों को पता ही नहीं होता है. अनीता जी के पुराने तरह के टोइलेट के बारे में सबको कहाँ पता हो? मुझे पता था.

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  8. अरविन्द जी, समीर जी, वंदना जी, रेखा जी बहुत बहुत शुक्रिया।
    अरविन्द जी मुझे बस उतनी ही मलयालम आती है जितनी रसोईघर में चाहिए होती है।मेरे ससुराल में सब बड़िया अंग्रेजी बोलते हैं इस लिए कभी मलयालम न सीखने की कमी खली नहीं। वैसे कहने में शर्म तो आती है लेकिन बता दूँ कि मेरी पंजाबी पर भी पकड़ मलयालम से थोड़ी ही ज्यादा है। :)

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  9. फिल्में, मस्ती और आनन्द, यह देख कर आजकल के बच्चे भी जल उठे आपसे।

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ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.