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रविवार, 25 मार्च 2012

एक खामोश देशभक्त !

ये लेख पुराना है लेकिन इस क्रांतिकारी को नमन करने के लिए हम इतिहास नहीं बदल सकते हें। बस हम उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हें।

आज २५ मार्च उनकी पुण्य तिथि है. वह खामोश क्रांतिकारी - बहुत शोर शराबे से नहीं बने थे. उन्हें मूक क्रांतिकारी के नाम से भी जाना जा सकता है. अपने बलिदान तक वे सिर्फ कर्म करते रहे और उन्हीं कर्मों के दौरान वे अपने प्राणों कि आहुति देकर नाम अमर कर गए.
वे इलाहबाद में एक शिक्षक जय नारायण श्रीवास्तव के यहाँ २६ अक्तूबर १८९० को पैदा हुए. शिक्षक परिवार गरीबी से जूझता हुआ आदर्शों के मार्ग पर चलने वाला था और यही आदर्श उनके लिए संस्कार बने थे. हाई स्कूल की परीक्षा प्राइवेट तौर पर पास की और आगे की शिक्षा गरीबी की भेंट चढ़ गयी. करेंसी ऑफिस में नौकरी कर ली. बाद में कानपुर में एक हाई स्कूल में शिक्षक के तौर पर नौकरी की.
वे पत्रकारिता में रूचि रखते थे, अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उमड़ते विचारों ने उन्हें कलम का सिपाही बना दिया. उन्होंने हिंदी और उर्दू - दोनों के प्रतिनिधि पत्रों 'कर्मयोगी और स्वराज्य ' के लिए कार्य करना आरम्भ किया.
उस समय 'महावीर प्रसाद द्विवेदी' जो हिंदी साहित्य के स्तम्भ बने हैं, ने उन्हें अपने पत्र 'सरस्वती' में उपसंपादन के लिए प्रस्ताव रखा और उन्होंने १९११-१३ तक ये पद संभाला. वे साहित्य और राजनीति दोनों के प्रति समर्पित थे अतः उन्होंने सरस्वती के साथ-साथ 'अभ्युदय' पत्र भी अपना लिया जो कि राजनैतिक गतिविधियों से जुड़ा था.
१९१३ में उन्होंने कानपुर वापस आकर 'प्रताप ' नामक अखबार का संपादन आरम्भ किया. यहाँ उनका परिचय एक क्रांतिकारी पत्रकार के रूप में उदित हुआ. 'प्रताप' क्रांतिकारी पत्र के रूप में जाना जाता था. पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजों की खिलाफत का खामियाजा उन्होंने भी भुगता.
१९१६ में पहली बार लखनऊ में उनकी मुलाकात महात्मा गाँधी से हुई, उन्होंने १९१७-१८ में होम रुल मूवमेंट में भाग लिया और कानपुर कपड़ा मिल मजदूरों के साथ हड़ताल में उनके साथ रहे . १९२० में 'प्रताप ' का दैनिक संस्करण उन्होंने उतारा. इसी वर्ष उन्हें रायबरेली के किसानों का नेतृत्व करने के आरोप में दो वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गयी. १९२२ में बाहर आये और पुनः उनको जेल भेज दिया गया. १९२४ में जब बाहर आये तो उनका स्वास्थ्य ख़राब हो चुका था लेकिन उन्होंने १९२५ के कांग्रेस सत्र के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया.
१९२५ में कांग्रेस ने प्रांतीय कार्यकारिणी कौंसिल के लिए चुनाव का निर्णय लिया तो उन्होंने स्वराज्य पार्टी का गठन किया और यह चुनाव कानपुर से जीत कर उ. प्र. प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य १९२९ तक रहे और कांग्रेस पार्टी के निर्देश पर त्यागपत्र भी दे दिया. १९२९ में वह उ.प्र. कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष निर्वाचित हुए और १९३० में सत्याग्रह आन्दोलन ' की अगुआई की. इसी के तहत उन्हें जेल भेजा गया और ९ मार्च १९३१ को गाँधी-इरविन पैक्ट के अंतर्गत बाहर आये.
१९३१ में जब वह कराची जाने के लिए तैयार थे. कानपुर में सांप्रदायिक दंगों का शिकार हो गया और विद्यार्थी जी ने अपने को उसमें झोंक दिया. वे हजारों बेकुसूर हिन्दू और मुसलमानों के खून खराबे के विरोध में खड़े हो गए . उनके इस मानवीय कृत्य के लिए अमानवीय कृत्यों ने अपना शिकार बना दिया और एक अनियंत्रित भीड़ ने उनकी हत्या कर दी. सबसे दुखद बात ये थी कि उनके मृत शरीर को मृतकों के ढेर से निकला गया. इस देश की सुख और शांति के लिए अपने ही घर में अपने ही घर वालों की हिंसा का शिकार हुए.
उनके निधन पर गाँधी जी ने 'यंग' में लिखा था - 'गणेश का निधन हम सब की ईर्ष्या का परिणाम है. उनका रक्त दो समुदायों को जोड़ने के लिए सीमेंट का कार्य करेगा. कोई भी संधि हमारे हृदयों को नहीं बाँध सकती है.'
उनकी मृत्यु से सब पिघल गए और जब वे होश में आये तो एक ही आकार में थे - वह था मानव. लेकिन एक महामानव अपनी बलि देकर उन्हें मानव होने का पाठ पढ़ा गया था.
कानपुर में उनकी स्मृति में - गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक चिकित्सा महाविद्यालय और गणेश उद्यान बना हुआ है. आज के दिन उनके प्रति मेरे यही श्रद्धा सुमन अर्पित हैं.

9 टिप्‍पणियां:

  1. गणेशजी का व्यक्तित्व और विचार अनुकरणीय है।

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  2. गणेश शंकर विद्यार्थी को नमन ... सार्थक लेख

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  3. श्रद्धांजलि एवं शहीद को नमन

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