शुक्रवार, 23 मार्च 2012
शहीद दिवस !
आज २३ मार्च उन वीरों के बलिदान होने का दिन हें जिन्होंने अंग्रेजी सरकार की चूलें हिला दी थीं। हम कुछ लोग नम आखों से उनको याद करते हें और उनकी क़ुरबानी को नमन करते हें। बस हम ही न - बाकी वे जो संसद में बैठे हें , जो विधान सभा में बैठे हें और वे जो बड़े बड़े मंत्रालयों को संभाल रहे हें उनके लिए ये दिन पता नहीं कैसा गुजरता होगा? उनके पास समय नहीं होगा इन वीरों को याद करने का क्योंकि अब वे बीते कल के नायक हो चुके हें और आज के नायक तो यही है हर स्याह और सफेद करने के लिए।
आज के दिन किसी भी अखबार में देखा कि किसी मंत्रालय ने या किसी सरकार ने इन तीनों वीरों भगत सिंह , राजगुरु और सुखदेव की शहादत के दिन को याद करते हुए कुछ ही शब्दों में श्रद्धांजलि अर्पित की हो। ये पत्र पत्रिका में कुछ संवेदनशील लेखक और मीडिया इसको याद कर लेती हें . हो सकता है कि हमारे सांसदों और विधायकों को ये पता भी न हो कि आज के दिन को शहीद दिवस कहा क्यों जाता है? आने वाले समय में हमारी भावी पीढ़ी इस बात को बिल्कुल ही याद नहीं कर पायेगी क्योंकि कभी स्कूलों में ऐसे दिन कोई याद करने जैसी बात तो होती ही नहीं है कि प्रारंभिक कक्षाओं में ही बच्चों को शिक्षक इन शहीदों के बलिदान दिवस पर कुछ मौखिक ही बता में भी कभी लघु कथा के रूप में और कभी पूरे पाठ के रूप में देश के इन शहीदों की कहानी होनी चाहिए। इस देश की स्वतंत्रता के इतिहास के ये नायक गुमनाम न रह जाएँ।
इन्होने किस जुल्म में अपने को फाँसी पर चढ़ा दिया ये भी तो बच्चों को पता होना चाहिए। कहीं ये सब कालातीत तो नहीं हो चुकी है । ऐसा विचार मेरे मन में क्यों आया? ये भी मैं आप सबको बताती चलूँ- आज डॉ राम मनोहर लोहिया जी का भी जन्मदिन है और एक अखबार में पूरे पृष्ठ पर इसका विज्ञापन के साथ समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह के द्वारा एक विचार सम्मलेन आयोजित किया गया है। वैसे लोहिया जी की भी राष्ट्र के लिए भूमिका काम महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि समाज के लिए भी है लेकिन अगर कहीं किसी अख़बार के छोटे से कोने में इन शहीदों के लिए शहीद दिवस पर कुछ करने की घोषणा होती तो अधिक अच्छा होता।
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बिलकुल ठीक कहा आपने आज कल की पीढ़ी ने तो यह जाना ही नहीं की देश को आज़ाद करने के लिए क्या कुछ नहीं किया गया था उन दिनों कम से कम ऐसे मौकों पर ज्यादा कुछ नहीं तो हर स्कूल और कॉलेज मे कुछ देर मौन रखकर श्रद्धांजलि तो दी ही जा सकती है इन महान वीरों को। सार्थक आलेख....
जवाब देंहटाएंशहीदों को शत्-शत् नमन!
जवाब देंहटाएंआपने बिलकुल सच कहा।
जवाब देंहटाएंअमर शहीदों को सादर नमन!
सार्थक पोस्ट ... आज़ादी के दीवानों को भूलना देश के लिए विडम्बना है ... शहीदों को नमन
जवाब देंहटाएंजी आपके विचारों से सहमत....शहीदों की उपेक्षा उचित नहीं
जवाब देंहटाएंशहीदों को शत्-शत् नमन!
जवाब देंहटाएंखुबसूरत सृजन / शुभकामनायें नव वर्ष व रचना-रचनाकार को /
शहीदों को नमन..
जवाब देंहटाएंतीनों बाँकुरों की लड़ाई केवल इतनी नहीं थी कि अंग्रेजों से देश को मुक्ति मिल जाए। वे चाहते थे कि ऐसी व्यवस्था कायम हो जिस में एक व्यक्ति द्वारा दूसरे का और एक देश द्वारा दूसरे का शोषण न हो। उन के यह उद्देश्य निरंतर पूंजीवाद, साम्राज्यवाद और सामंतवाद को भयभीत करता रहता है। यही कारण है कि इन तीनों की प्रतिनिधि सरकारें इन नामों से परहेज करती हैं या उन्हें अंधराष्ट्रवादी बताने का प्रयत्न करती हैं।
जवाब देंहटाएंशहीदों को शत्-शत् नमन!
जवाब देंहटाएंदिनेश जी,
जवाब देंहटाएंअरे हम अपनी भावी पीढ़ी को इतना ही बता सकें कि ये हमारे देश के लिए क्या थे? उनके जज्बे और जूनून ने कैसे अपनी लड़ाई लड़ी और कैसे खुद को हंसते हंसते फाँसी पर चढ़ा दिया. काम से काम इस देश की दुर्दशा पर कुछ तो सोच बदलेगी. अपने देश के इतिहास से वे वाकिफ तो हो सकें.
अमर शहीदों को सादर नमन।
जवाब देंहटाएंअमर शहीदों को सादर नमन। देश जब शहीदों को भूल जाता है तब देश पर शहीद होने वाले भी समाप्त हो जाते है बस वर्तमान की तरह केवल लुटेरे रह जाते हैं।
जवाब देंहटाएंशहीदों को सादर नमन
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