सुधा भार्गव |
इस बार के कानपूर प्रवास में उन्होंने आते ही मुझे मेल की कि वे कानपूर आ गयी हैं और मिलना चाहती हैं . फिर उनके घर की लोकेशन और बेटी और दामाद के बारे में बताया तो पता चला कि मेरे पतिदेव उनकी बेटी और दामाद से परिचित हैं फिर क्या था ? मुझे भी जाने में कोई संकोच नहीं हुआ .
हम ऐसे मिले जैसे कि पहली बार नहीं बहुत बार मिल चुके हों . उनकी आत्मीयता और सब कुछ बाँट लेने की हसरत ने हम दोनों को जितने समय मौका मिला .हम अपनी अपनी बातें शेयर करते रहे .
उनका कानपुर प्रवास में कानपुर के और ब्लॉगर और लिखने वालों से मिलने की बात से लगा की वे कितनी मिलनसार है . वैसे तो मैं सबसे चुपचाप मिल लेती हूँ और खुद में में ही शेयर कर लेती हूँ लेकिन कुछ ऐसा मिला उनसे कि मन हुआ सबसे इसको शेयर करूं . वैसे मैं मुलाकात को अपना व्यक्तिगत मामला मानती हूँ इसी लिए मैं कोई कैमरा लेकर नहीं गयी थी कि अपने उन क्षणों को कैद करके सब लोगों के साथ बाँट सकती लेकिन वो पल मेरे मन में संचित हैं और फिर अपनी मुलाकात इसी प्रवास में फिर से करने वाली हूँ और वह भी अपने और ब्लॉगर साथियों के साथ .
सुधा जी ने मुझे अपनी ४ किताबें भी भेंट की - जो उनकी लेखनी और भावों से परिचित करने के लिए पर्याप्त हैं .उनके काव्य संग्रह "रोशनी की तलाश में " ने मुझे उनकी काव्य विधा से परिचित कराया . जिसमें उनकी कलम ने अगर गीत लिखे तो अंतस के भावों को जीवन के हर पहलू को दिखाने वाले हैं . लेकिन सिर्फ एक पक्ष नहीं बल्कि इस संग्रह में उन्होंने कई खण्डों में कविता को इस तरह से विभाजित किया कि अगर प्रेम और दायित्वों में उलझी हुई नारी लिख रही है तो फिर समाज से जुड़े देश से जुड़े समसामयिक विषयों पर भी उनकी कलम बेबाक चली है. मुझे इस समय उनकी ये पंक्तियाँ बहुत समसामयिक लग रही हैं जब की ये पंक्तियाँ उन्होंने वर्षों पहले लिखी थी .
किसी की जिन्दगी पर दागी गोली चली ,
मेरे सीने में नजर आती है
किसी की आँख से ढुलके आंसू ,
बाढ़ मेरे घर में आती है.
नारी मन के हर पक्ष को भी इसमें प्रस्तुत किया , उसके जीवन के विभिन्न पक्ष इस तरह रखे कि संवेदनशील कवि हृदय सब कुछ कह देना चाह रहा हो.
मैं सपने देखती हूँ
दिखाती हूँ
पर बेचा नहीं करती .
और
आशा की दीपशिखा
हाथ में प्रज्ज्वलित किये
पूर्णता की धुन में
आगे बढती रही .
पत्थर से पाँव छिले
काँटों से घाव रिसे
शून्य को ताकती
आगे बढती रही .
भारतीय नारी
लौह सदृश्य भूमिका में थी
लहू से लथपथ
पति-पथ गामिनी . मैं उस पुस्तक की विवेचना नहीं कर रही लेकिन जब उसको पढ़ा तो उसमें इतना सारा था कि हर पंक्ति को उद्धृत करने का मन करने लगा . लेकिन इतनी हिम्मत तो नहीं है कि उसे पूरा का पूरा उठा कर रख सकूँ लेकिन उस कलम के प्रति नमित हूँ .तीन पुस्तकें उनकी बच्चों के लिए शिक्षाप्रद कहानीयों की हैं सो मेरे पड़ोस में रहने वाले बच्चों ने मेरे आते ही कब्ज़ा कर लिया - 'दादू पहले हम पढेंगे ' .
वे मुझसे बहुत बड़ी हैं लेकिन उनके स्नेह और अपनत्व को देख कर लगता है कि हम पता नहीं कब से एक दूसरे को जानते हैं .
सुधा भार्गव जी से स्नेह भरी मुलाकात, उनके व्यक्त्तित्व और कृत्तित्व से लाभान्वित करने हेतु आभार ..
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत मुलाकात...
जवाब देंहटाएंसुधा जी वाकई बहुत मिलनसार है. जब भी लन्दन आती हैं हम भी जरूर मिलते हैं.
जवाब देंहटाएंसुधा जी जैसी विरल शख्सियत के साथ यादगार मुलाक़ात की आपने और उस आनंद को हम सबके साथ शेयर किया बहुत-बहुत शुक्रिया आपका ! कुछ व्यक्तित्व होते ही ऐसे हैं जो मन पर अमिट छाप छोड़ देते हैं ! !
जवाब देंहटाएंबहुत संक्षिप्त पर सारगर्भित परिचय कराया है, आभार।
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