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मंगलवार, 14 मई 2013

परिवार दिवस !

                         
चित्र गूगल के साभार ( संयुक्त परिवार )

                          आज एक वाकया याद आ गया . मेरे एक आत्मीय हैं - उनके अपने ७ भाई हैं और उनके अपने अपने परिवार है . मानी  हुई बात है कि  सब अब अलग अलग रह रहे हैं . ये सबसे छोटे हैं - खुद भी अच्छी स्थिति में हैं और सारे भाई भी सम्पन्न है . विवाद हुआ कि पैतृक  मकान को लेकर इनकी इच्छा थी कि  पिताजी के नाम को रहने दिया जाय और सारे  भाई बाजार भाव पर ये मकान उन्हें दे दें ताकि वे उसमें पिता के नाम से कोई  स्वयंसेवी संस्था बना दें और पिताजी का नाम चलता रहे . लेकिन भाई को कोई नहीं दे पाया। मकान किसी तीसरे व्यक्ति को बेच दिया गया और पैसे बाँट लिए  . जब इस भाई की बेटी की शादी हुई तो कोई भाई शादी में शामिल तक नहीं हुआ. उन्होंने शादी के कार्ड में अपने सभी भाइयों के नाम लिखवाये थे . हाँ एक भाई ने किसी दूसरे आदमी से एक लिफाफे में कुछ रुपये रख कर भेज दिए  जिसे इनके बेटे ने वापस कर दिया कि पैसे हमारे पास भी हैं . शादी में अपने की उपस्थिति मायने रखती है . इसमें एक साथ रहने की बात छोडिये सुख और दुःख में शामिल होने का अर्थ भी  खो गया . वे भाई जो कभी एक साथ बैठ कर खाना खाते थे , खेलते थे और सोते भी थे . अब किसी के कुछ न रह गए थे. परिचितों के परिधि से भी बाहर क्योंकि विवाह समारोह में तो सभी शामिल होते है. 
           हमारे देश में परिवार संस्था का जो स्वरूप है वह देश में नहीं बल्कि विदेशों में भी बहुत ही गर्व की दृष्टि से देखा जाता है . परिवार सामाजिक संगठन की एक महत्वपूर्ण इकाई है और समाज का निर्माण भी बहुत सारे परिवारों  से ही होता है . परिवार दिवस की अवधारणा  भी हमें पश्चिम से ही मिला लेकिन हम इसके मुहताज क्यों हुए ? हम तो वृहत परिवार के सदस्य होते रहे हैं और सभी उसमें एक परिवार के सदस्य होकर जीते रहे हैं और कहीं कहीं आज भी जी रहे है . विवाह और सन्तति के क्रम से ही इसका निर्माण हुआ और फिर इसी क्रम में यह आगे बढ़ता चला जा रहा है. समय के साथ इसमें परिवर्तन अवश्य ही हुआ है . कभी परिवार बड़े बाबा और बड़ी दादी से शुरू होता था और घर में एक बड़ी  सास के रहते हुए सारी बहुएँ ही रहती थी और घर के सरे निर्णय पर घर के सबसे बुजुर्ग द्वारा ही लिए जाते थे और वो सबके लिए शिरोधार्य होती थी क्योंकि आर्थिक आधार वही बड़ा माना जाता था . धीरे धीरे घर में बगावत करने वाले भी लोग होने लगे और इस आधार की नींव से ही दीवार दरकने लगी फिर एक विशाल भवन में दीवारें खड़ी  होने लगी और एक से दो परिवार बंटने  लगे. फिर भी माता -पिता के लिए उनका घर शेष था . उनके लिए अपने घर में अधिकार से रहने का जज्बा भी शेष था .
                              धीरे धीरे परिवार का आकर छोटा होने लगा क्योंकि हमारी प्रगति ने हमें और अधिक सुविधा और सुख से भरपूर जीवन जीने के लिए ऐसा करने पर मजबूर कर दिया . हमारे माता - पिता ने अपने ४ बच्चे अपने सीमित साधनों में पाले और फिर उनको सक्षम भी बनाया .  परिवार में अब उनको कोई जगह नहीं दी जा रही है . अब परिवार का मतलब है पति पत्नी और बच्चे . यानि की एकल परिवार की नींव पड़  चुकी है और यही कारण  है पारिवारिक तनावों के निरन्तर बढ़ाते जाना . उन परिवारों का भी दिन व दिन टूटते जाना . विवाह संस्था जो इस परिवार की नींव होती है , धीरे धीरे वह भी ख़त्म हो रही है . लिव इन रिलेशन ने परिवार को सबसे बड़ा झटका दिया है . बिना किसी बंधन और जिम्मेदारी के जीवन बिताना शायद आज के लोगों को ज्यादा सहज लगने लगा है.
                                  वैसे तो   रोज ही होना चाहिए क्योंकि इस जीवन को दिशा  देने वाले परिवार  के लिए हम सिर्फ एक दिन कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं ? लेकिन ये हमने अपने देश से नहीं बल्कि पश्चिमी संस्कृति से ग्रहण किया है . हम पश्चिम से क्या क्या ले चुके हैं लेकिन उसमें कितना सार्थक ले रहे हैं और कितना पूर्ण ग्रहण कर रहे हैं और कितना आंशिक ? अपनी मर्जी और सुविधा के अनुसार हम ग्रहण कर रहे है . हमने वहां के देखा देखी एकल परिवार की भूमिका को सहज और सरल समझ कर अपना लिया . अपनी माता पिता के प्रति जिम्मेदारी से मुक्त भी हुए और पत्नी भी खुश . फिर ये नहीं सोचा कि हमारी माता -पिता  आर्थिक रूप से आत्मनिभर है भी या नहीं . पश्चिम में तो बुजुर्गों के लिए पेंशन का प्रावधान है और वे उससे अपनी जरूरतों को पूरा कर लेते हैं . वे अपने बच्चों पर आश्रित नहीं होते हैं .हमने आधे अधूरे स्वरूप को अपनी सुविधानुसार अपना लिया . 

                           वहां के लोग  अपने घर को छोड़ देते हैं तो फिर वे जिम्मेदारी उठाने वाली बात समझते ही नहीं है. उनको अपने  माता पिता से कितना लगाव होता है ? क्योंकि वे बड़े होते ही अपनी जिम्मेदारी खुद उठाने लगते हैं . हम तो अपने पैरों पर खड़े होने तक माता - पिता पर आश्रित होते हैं और अपने पैरों पर खड़े होते ही खुद मुख्तार बन जाते है . फिर हमें परिवार के स्तर  अपने से कम नजर आने लगता है . विवाह सम्बन्ध भी अपने वर्तमान स्तर के अनुसार करके उस पुराने परिवार को छोड़ कर नया परिवार बसा लेते हैं .
                        अब परिवार की परिभाषा अलग तरीके से गढ़ ली गयी है ,  जिसमें प्रेम और सामंजस्य का पूर्ण अभाव मिलता है.  वैसे तो हम वसुधैव कुटुम्बकं  की बात करते हैं लेकिन अपने ही परिवार में क्या हो रहा है ? की हम भाई बहनों की बात छोडिये अपने माता -पिता तक को नहीं रख पा  रहे हैं बल्कि परिवार की परिभाषा अब पति पत्नी और बच्चों में सिमट गयी है. क्या धीरे धीरे ये भी ख़त्म हो जाएगा ? अगर हमने न सोचा तो फिर ये भी दिन आएगा  . लोग होंगे , परिवार को बढाने  के सारे  प्रयत्न होंगे  लेकिन एक बंधन जो है वो परिवार में बंधे न होंगे . 

10 टिप्‍पणियां:

  1. घर से मस्जिद बहुत दूर है चलो किसी रोते हुये बच्चे को हसाया जाये.

    शुरुआत तो खुद से करनी होगी

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  2. पश्चिम से अपनी मन मर्ज़ी जो सुविधापूर्ण लगता है वो ले लेते हैं बाकी जो अच्छा है और कष्ट पूर्ण है उसे छोड़ देते हैं ... वहाँ बुजुर्गों के लिए सरकार सोचती है ॥पर यहाँ ऐसा कोई प्रावधान नहीं है .... बस अपनी सुविधानुसार परिवार जैसी संस्था खत्म की जा रही है ... सार्थक लेख

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  3. हम आँख मूँद कर बस चले जा रहे हैं ..अंजाम न जाने क्या होगा.

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  4. परिवार बना रहे, प्यार बना रहे।

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  5. आपकी यह प्रस्तुति कल के चर्चा मंच पर है
    धन्यवाद

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  6. प्रकृति परिवर्तनशील है,समाज परिवर्तनशील,रीति रिवाज परिवर्तनशील है तो परिवार में परिवर्तन तो आएगा ही.आजतक कोई रोक नहीं पाया ,भविष्य में भी कोई रोक नहीं पायेगा.यह परिवर्तन इतनी धीमीगति से होता है, एक पीढ़ी में यह नजर नहीं आता .दो तीन पीढ़ी के बाद नज़र आता है .तब बहुत देर हो गयी होती है .

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  7. परिवार तो बने ही रहेंगे लेकिन जो विस्फोट हो रहा है उसकी विभीषिका में सब जलेंगे . अभी तक तो विवाह के बाद परिवार टूटते नजर आने लगे हैं और कल ये होगा कि अगर हमने अपने ही प्रयासों से अपने ही घर को न बचाया तो कल को उससे पहले ही बच्चे दूर होते चले जायेंगे और हो ही रहा है. अब बच्चे चाहे पढाई के लिए , चाहे नौकरी के लिए घर छोड़ कर बहुत पहले चले जाते हैं और फिर उनका लगाव भी उसी तरह से बँट जाता है .फिर वे वापस वहां रहने हमेशा के लिए तो नहीं ही आते है . अपवाद इसके भी हैं लेकिन चाहे वह मजबूरी हो या फिर भटकाव - कही और अपनत्व खोज कर बस जाते हैं . माता -पिता अपनी पूँजी लगा कर घर बनाते हैं कि ये बेटे का कमरा और ये हमारा लेकिन बेटे का कमरा फिर आबाद कहाँ हो पता है ? उन्हें अपनी इच्छानुसार वही घर खोजना होता है जहाँ उन्हें रहना है और एक पीढी पुरानी पसंद भी उन्हें पुरानी लगने लगती है.

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  8. त्‍याग का जीवन से दूर होना और भोगवाद का जीवन में पदार्पण के कारण ही परिवार टूट रहे हैं। सभी को अकेलेपन की स्‍वतंत्रता चाहिए। लेकिन यह बादल एक दिन छंटेगे जरूर। क्‍योंकि बिना परिवार के हम न जाने कितनी मु‍सीबतें झेल रहे हैं।

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  9. माता -पिता अपनी पूँजी लगा कर घर बनाते हैं कि ये बेटे का कमरा और ये हमारा लेकिन बेटे का कमरा फिर आबाद कहाँ हो पता है ?

    उन्हें अपनी इच्छानुसार वही घर खोजना होता है जहाँ उन्हें रहना है और एक पीढी पुरानी पसंद भी उन्हें पुरानी लगने लगती है.

    सवाल भी है
    और जबाब भी है
    परेशान सब हैं
    लेकिन कोशीश
    किसी को नहीं करना है
    सार्थक सामयिक अभिव्यक्ति

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  10. रेखा दी .......वक्त बहुत तेज़ी से बदल रहा है ...अब देखते हैं संयुक्त परिवार कब तक खुद को संभाल कर चलते है ...जो इस वक्त में खुद को संभाल गया उसे कोई भी वक्त कभी उसकी जगह से नहीं हिला सकता

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