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शनिवार, 15 जून 2013

विश्व वयोवृद्ध दुर्व्यवहार विरोध दिवस !

                            हमारे देश  में तो संयुक्त  परिवार की अवधारणा  के कारण आज जो वृद्धावस्था में है अपने   परिवार में उन लोगों ने अपने बुजुर्गों  बहुत इज्जत दी होगी और उनके सामने तो घर की पूरी की पूरी  कमान बुजुर्गों के हाथ में ही रहती थी . मैंने  देखा है अपने घर में दादी से पूछ कर सारे काम होते थे . खेती से मिले नकद राशि  उनके पास ही रहती थी . लेकिन  उनके सम्मान से पैसे के होने न होने का  कोई सम्बन्ध नहीं था . 

 १. वृद्ध माँ  आँखों से भी कम दिखलाई  देता है , अपने पेट में एक बड़े फोड़े होने के कारण एक नीम हकीम डॉक्टर के पास जाकर उसको  ऑपरेट  करवाती है . उस समय  पास कोई अपना नहीं होता बल्किपड़ोस   में रहने वाली  होती है . वह ही उसको अपने घर दो घंटे   लिटा कर रखती है और फिर अपने बेटे के साथ हाथ  कर घर तक छोड़ देती है . *
 
२.  74 वर्षीय माँ घर में झाडू पौंछा करती है क्योंकि बहू के पैरों में दर्द रहता है तो वो नहीं कर सकती है . उस घर में उनका बेटा , पोता  और पोती 3 सदस्य कमाने वाले हैं   किसी को भी उस महिला के काम करने पर कोई ऐतराज नहीं है . एक मेट आराम से रखी जा सकती है लेकिन  ?????????? *
3. बूढ़े माँ - बाप को एकलौता बेटा अकेला छोड़ कर दूसरी जगह मकान लेकर रहने लगा क्योंकि पत्नी को उसके माता - पिता पसंद नहीं थे और फिर जायदाद वह सिर पर रख कर तो नहीं ले जायेंगे . मरने पर मिलेगा तो हमीं को फिर क्यों जीते जी अपना जीवन नर्क बनायें .*


                            आज हम पश्चिमी संस्कृति के  जिस रूप के पीछे  भाग रहे हैं उसमें हम वह नहीं अपना रहे हैं जो हमें अपनाना चाहिए  अपनी सुख और सुविधा के लिए अनुरूप  बातों को अपना रहे हैं . आज मैंने  में पढ़ा कि 24 शहरों  में वृद्ध दुर्व्यवहार के लिए मदुरै  सबसे ऊपर है और कानपुर दूसरे नंबर पर है . कानपूर में हर दूसरा बुजुर्ग अपने ही घर में अत्याचार का  शिकार हैं . एक गैर सरकारी संगठन  कराये गए सर्वे के अनुसार ये  परिणाम   हैं .
                 हर घर में बुजुर्ग हैं और कुछ लोग तो समाज के डर  से उन्हें घर से बेघर नहीं कर   हैं लेकिन कुछ  लोग ये भी  कर देते हैं . एक से अधिक संतान वाले बुजुर्गों के लिए अपना कोई घर नहीं होता है बल्कि कुछ दिन इधर  और कुछ दिन  उधर में जीवन गुजरता रहता है . उस पर भी अगर उनके पास अपनी पेंशन या  संपत्ति है तो बच्चे ये आकलन  करते रहते हैं कि  कहीं दूसरे को तो  ज्यादा नहीं दिया है और अगर ऐसा है तो  उनका जीना दूभर कर देते हैं . उनके प्रति अपशब्द , गालियाँ या कटाक्ष आम बात मानी जा सकती है . कहीं कहीं तो उनको मार पीट का शिकार भी होना पड़ता है . 
                      इसके कारणों को देखने की कोशिश की तो पाया कि  आर्थिक तौर पर बच्चों पर  निर्भर माता - पिता अधिक उत्पीडित होते हैं . इसका सीधा सा कारण  ये है कि उस समय के अनुसार आय बहुत अधिक नहीं होती थी और बच्चे 2 - 3 या फिर 3 से भी अधिक होते थे . अपनी  आय में अपने माता - पिता के साथ अपने बच्चों के भरण पोषण  में सब कुछ खर्च  देते थे . खुद के लिए कुछ भी नहीं रखते थे . घर में सुविधायों  की  ओर भी ध्यान  देने का समय और  उनके पास नहीं होता था . बच्चों की स्कूल यूनिफार्म के अतिरिक्त दो चार जोड़ कपडे ही हुआ करते थे . किसी तरह से खर्च पूरा करते थे ,  पत्नी के लिए जेवर  और कपडे बाद की बात होती थी . घर में कोई नौकर या मेट  नहीं हुआ करते थे सारे  काम गृहिणी ही देखती थी . सरकारी नौकरी भी थी तो  बहुत कम पेंशन  मिल रही है और वह भी बच्चों को सौप  पड़ती है . . कुछ बुजुर्ग रिटायर्ड होने के बाद पैसे मकान  बनवाने में लगा देते हैं  . बेटों में बराबर बराबर बाँट दिया . फिर  हाथ एक एक पैसे के लिए मुहताज होते हैं और जरूरत पर माँगने पर बेइज्जत किये जाते हैं . 
                      आज जब की आय बच्चों की कई कई गुना बढ़ गयी है ( भले ही इस जगह तक पहुँचाने के लिए पिता ने अपना कुछ भी अर्पित  किया हो ) और ये उनकी पत्नी की मेहरबानी मानी जाती है .
-- आप के पास था क्या ? सब कुछ  हमने जुटाया है . 
--अपने जिन्दगी भर सिर्फ  खाने और खिलाने में उडा  दिया .  
-- इतने बच्चे पैदा करने की जरूरत  क्या थी ? 
--हम अपने बच्चों की जरूरतें पूरी  करें या फिर आपको देखें .
-- इनको तो सिर्फ दिन भर खाने को चाहिए , कहाँ से आएगा इतना ?
--कुछ तो अपने बुढ़ापे के लिए सोचा होता , खाने , कपडे से लेकर दवा दारू तक का खर्च हम कहाँ से पूरा करें ? 
--बेटियां आ जायेंगी तो बीमार नहीं होती नहीं तो बीमार ही बनी रहती हैं .
-- पता नहीं कब तक हमारा खून पियेंगे  ये , शायद  हमें खा कर ही मरेंगे . 
                          अधिकतर घरों में अगर बेटियां हैं तो बहुओं को उनका आना जाना फूटी आँखों नहीं  सुहाता है . अपनी माँ - बाप  से मिलने आने के लिए भी उनको सोचना पड़ता है . 
                   बुजुर्गों का शिथिल  होता हुआ शरीर भी उनके लिए एक समस्या बन जाता है . अगर वे उनके चार काम करने में सहायक हों तो बहुत  अच्छा,  नहीं तो पड़े रोटियां  तोड़ना उनके लिए राम नाम की तरह होता है . जिसे बहू और बेटा  दुहराते रहते हैं . अब जीवन स्तर बढ़ने के साथ साथ जरूरतें इतनी बढ़ चुकी हैं कि उनके बेटे पूरा नहीं कर पा  रहे हैं . घर से बाहर  की सारी  खीज घर में अगर पत्नी पर तो उतर नहीं सकती है तो माँ -बाप मिलते हैं तो किसी न किसी  से वह कुंठा उन पर ही उतर जाती है . 
                     वे फिर भी चुपचाप सब कुछ सहते रहते हैं , अपने ऊपर हो रहे दुर्व्यवहार की बात किसी से कम ही  हैं क्योंकि कहते हैं - 'चाहे जो पैर उघाड़ो इज्जत तो अपनी ही जायेगी न .' फिर कहने से क्या  फायदा ? बल्कि कहने से अगर ये बात उनके पास तक पहुँच गयी तो स्थिति और बदतर हो जायेगी . हम चुपचाप सब सह लेते हैं . घर में शांति बनी रहे . ज्यादातर घरों में बहुओं की कहर अधिक होता है और फिर शाम को बेटे के घर आने पर कान भरने की दिनचर्या से माँ बाप के लिए और भी जीना दूभर कर देता है . पा नहीं क्यों बेटे को अपने दिमाग का इस्तेमाल करने की आदत क्यों ख़त्म हो चुकी है ? 
                       माता  पिता को बीमार होने  पर दिखाने  के लिए उनके पास छुट्टी नहीं होती है और वहीँ पत्नी के लिए छुट्टी भी ली जाती है और फिर खाना भी बाहर से ही खा कर  आते हैं . अगर घर में  वाले बनाना आता है तो बना कर खा ले नहीं तो भूखा पड़ा रहे  वह तो बीमार होती है . 
                     हमारी संवेदनाएं कहाँ  गयीं हैं या फिर बिलकुल मर चुकी हैं . कह नहीं सकती हूँ . लेकिन इतना तो है कि हमारी संस्कृति पूरी तरह से पश्चिमी संस्कृति हॉवी हो चुकी है . रिश्ते ढोए जा रहे हैं . वे भी रहना नहीं चाहते हैं लेकिन उनकी मजबूरी है कि  उनके लिए कोई ठिकाना नहीं है . 
                    * सारे  मामले मेरे अपने देखे हुए हैं . 

14 टिप्‍पणियां:

  1. वृद्धों को यथोचित और समुचित सम्मान मिले, कानपुर का नाम सुनकर कान खड़े हो गये।

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    1. कानपूर तो सबसे आगे होगा क्योंकि अच्छे कामों में गिना जाता है तो बुरे में क्यों पीछे रहे .

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  2. जहां तक पश्चिमी संस्कृति की बात है तो इतने साल यहाँ रहने के बाद जो मैंने देखा मुझे नहीं लगता कि यह यहाँ का असर है क्यूंकि यहाँ तो अंग्रेज़ माता-पिता अपने बच्चों के साथ रहते ही नहीं है और यदि कभी बच्चे अपने बच्चों को दादा दादी या नाना नानी के पास छोड़कर जाना चाहे तो इस तरह इजाज़त लेकर छोड़ते है। जैसे बच्चे अपने दादा दादी के घर नहीं किसी पराये के घर छोड़ रहे हों और रही बात हिंदुस्तानियों कि,तो वो यहाँ खुद अपनी आज़ादी के लिए अपने माता-पिता को यहाँ लाकर रखते हैं। इसलिए मेरी नज़र में तो यह पूरब पश्चिम का मामला नहीं बल्कि बच्चों ने अपने जीवन में क्या देखा और उससे क्या सीखा उस पर ज्यादा निर्भर करता है।

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    1. पश्चिम में अलग संस्कृति है लेकिन हम तो जिस संस्कृति में पले हमने बुजुर्गों का तिरस्कार नहीं देखा था और उस समय न किया जाता था . जैसे जैसे पीढी आगे बढ़ रही है ये सब आता जा रहा है . पछिम में साथ रहते ही नहीं है . यहाँ तो अगर ले भी जाते हैं तो उनसे कुछ स्वार्थ सध रहा है . नहीं तो यहाँ पर लोग घर में आया रखा कर बच्चों को पालने का काम करवा लेंगे लेकिन बाबा दादी को साथ न रखना पड़े . भले इसके परिणाम वे अपने बच्चों में देखने लगें .

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  3. ekdam sahi kah rahi hain aap kintu ek bat ye bhi hai ki bahu v sas kee jahan tak bat hai to sas bhi unnees nahi hai bahu se jiska mauka lag jata hai vahi nak me dam kar deti hai .

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  4. आज पूरी दुनिया एक दूसरे से जुड़ सी गई. संचार के कारण संस्कृतियाँ और भी करीब आ गईं. इसलिए पूर्व और पश्चिम का एक दूसरे के लिए आकर्षण भी स्वाभाविक ही है. इस बात को मद्देनज़र रखते हुए यही कहा जा सकता है कि बच्चों को उनके पैरों पर खड़े होने की सीख दी जाए न कि शादी के बाद तक उनके लिए पैसा जोड़ा जाए और मकान जायदाद का इंतज़ाम किया जाए. शुरु से ही बच्चों का लालन पालन ऐसा हो कि कॉलेज पहुँचने तक उन्हें माँ बाप से मदद माँगते हुए शर्म आने लगे. एक दूसरे पर बोझ न बनकर माता-पिता और बच्चों को अपने बारे में स्वयं सोचना है...यही आज के बदलते वक्त की माँग है.

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    1. आपका कहना सही है , लेकिन मानसिकता को हम बदल नहीं सकते हैं जो देश और काल के अनुसार उतनी तेजी से नहीं बदल रही हैं . मेरे अनुसार पुराणी पीढी उनको उतनी तेजी से नहीं अपना प् रही है और नयी पीढी अपनी चल के अनुसार उसे अपना रही है . शायद आगे आने वाली पीढी के साथ ऐसा न हो . वे सबक ले सकते हैं .

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  5. आपकी बात सच है.घर के अंदर क्या होता है कोई नहीं जान सकता.वातावरण ऐसा बने कि वृद्धों को खुल कर अपनी बात कहने का मौका मिले,जहाँ रहते हैं वहाँ लोगों से घुल-मिल सकें तो संभव है स्थितियाँ कुछ बदलें

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  6. ब्लॉग बुलेटिन की फदर्स डे स्पेशल बुलेटिन कहीं पापा को कहना न पड़े,"मैं हार गया" - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  7. समझ में ही नहीं आता दी, कि ये कैसे लोग हैं, जो बुज़ुर्गों को इतना कष्ट दे रहे हैं :(

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  8. बड़ी हृदय विदारक स्थितियां हैं ये रेखा जी ! पता नहीं लोगों की सदाशयता. संस्कार और अंतरात्मा को कैसा घुन लग गया है कि उनके मन से दया माया बिल्कुल समाप्त ही हो गयी है ! मन को बड़ी पीड़ा होती है जब ऐसे मामले सामने आते हैं ! बुजुर्गों की इन समस्याओं का कोई समाधान तो निकलना ही चाहिये !

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ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जो मन में होता है आपसे उजागर कर देते हैं. आपकी राय , आलोचना और समालोचना मेरा मार्गदर्शन और त्रुटियों को सुधारने का सबसे बड़ा रास्ताहै.