मेरे रोज के लेखन में ऐसी ही समस्याएँ और उससे जुड़ी कहानियां ही थी. लेकिन ये अवश्य था कि इससे लोगों पर प्रभाव पड़ता था. बड़ा रुतबा रहता था और साथ ही ये भी ऐसी लड़की से शादी नहीं करेंगे ये तो घर कि बाते बाहर भेज देगी. खैर ये तो मेरी चिंता का विषय नहीं था. मेरे पापा का एक वादा था कि जब तक मैं पास होती रहूंगी वे मुझे पढ़ने से नहीं मना करेंगे. मैं एक M . A . कर चुकी थी और दूसरे में कर रही थी. कविताओं के ढेर हो चुके थे लेकिन कहीं भेजने कि हिम्मत नहीं होती थी या ये कहो कि साहस नहीं कर पा रही थी. तभी सोचा कि क्यों न कादम्बिनी में भेजा जाय और मैंने अपनी एक कविता के साथ फोटो रख कर भेज दी. ये काम मैं किसी को बाद में बताती थी जब कि स्वीकृति आ जाती . पता चला कि कादम्बिनी से कविता इस आदेश के साथ लौटकर आ गयी कि आप अपनी २-३ कविताएँ और साथ ही फोटो ग्लोसी पेपर पर बनवा कर भेजे. मुझे तो पता नहीं था कि ये ग्लोसी पेपर होता क्या है? फिर पापा से बोला तो पापा ने बनवा कर दी.
१९७५ में मेरी पहली कविता प्रकाशित हुई. मैंने पहली कविता रेखा 'भावना' के नाम से लिखी थी. मेरी सहेली प्रतिमा ने यही नाम सुझाया था . पहले हम यही सोचा करते थे कि जब कविता लिखते हैं तो पीछे कुछ उपनाम लगते हैं. मेरे पापा 'सुमन' के नाम से लिखते थे. तारीफ की बात ये है कि मैंने आज तक कभी अपने पापा का लिख हुआ नहीं पढ़ा. तब जिस तरह से मैं लिखती थी. आज भी मुझे लगता है कि मेरी भाषा और शैली और सोच में कहीं भी बदलाव नहीं हुआ है.
इस कविता के प्रकाशित होने के साथ ही फिर फैन मेल का सिलसिला शुरू हो गया क्योंकि मनोरमा में पता प्रकाशित नहीं होता था और इससे सिर्फ नाम और शहर ही रहता था. उससे फैन मेल का खतरा कम होता था. अब फिर वही सिलसिला शुरू हो गया . इसमें प्रबुद्ध और संवेदनशील लोगों के पत्र अधिक होते थे. कई पत्रिकाओं के कविता भेजने के प्रस्ताव और फिर मित्रता और शादी के प्रस्ताव आने बहुत ही मामूली बात थी. हम सभी भाई बहन इस पत्रों को मजे लेकर पढ़ा करते थे. इससे मेरी माँ को बहुत उलझन होती थी लेकिन कहती कुछ न थी. एक प्रतिष्ठित पत्रिका में स्वरचित रचना को स्थान मिलना मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी. अब कदम आगे बढ़ाने की सोची तो धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान पर हाथ आजमाना शुरू किया. इस काम में किसी को हमराज नहीं बनाती थी, सिर्फ मेरी छोटी बहन थी जिससे मैं अपने लैटर पोस्ट करवाती थी . उसको सब पता रहता कि मैं क्या कहाँ भेज रही हूँ? इस दिशा में मुझे न कोई गाइड करने वाला था और न ही मुझे कोई नियम क़ानून पता थे. बस हाथ से लिखा ( राइटिंग मेरी अच्छी थी) और लिफाफे में रख कर पोस्ट कर दिया. फिर भूल गयी जब स्वीकृति आ गयी तो समझ गए कि अब छप जाएगा. मेरी सबसे पहली कमाई मुझे मनोरमा से हुई थी तब एक पत्र के २५ रुपये पारिश्रमिक मिलता था. और उस समय इसकी बहुत कीमत होती थी. मैं अपने लिखे हुए को भेजने , मित्रों और भाइयों को पत्र लिखने सब का खर्चा खुद उठने में सक्षम थी.
उसी समय साप्ताहिक हिंदुस्तान में "टूटी हुई जिन्दगी" नाम से महिला पृष्ठ पर एक श्रंखला शुरू की गयी. मैंने भी लिख कर भेज दिया और इत्तेफाक से वह स्वीकृत हो गया और छप कर आ गया. ये सच कहानी पर ही आधारित होती थी और कहानी मेरे एक खास रिश्तेदार , जो कि मेरे घर अक्सर आते रहते थे, पर आधारित थी. साप्ताहिक हिंदुस्तान आया ही था और चूंकि उसमें मेरी कहानी थी तो बाहर कमरे में रखा था. इतने में वे आ गए और मुझे काटो तो खून नहीं क्योंकि मेज पर पत्रिका रखी है और अगर उन्होंने उठ कर कहानी पढ़ ली तो क्या होगा? आखिर मैं भी इंसान थी. डर लगा और मैंने छोटी बहन से कहा कि तुम वहीं रहना जैसे ही साप्ताहिक ये मेज पर वापस रखें तुरंत ले आना. खैर ऐसा कुछ नहीं हुआ उन्होंने उलट पलट कर रह दिया और मैं चिंता से मुक्त हुई. जब मैंने ये बात माँ को बतलाई तो माँ लगी डांटने- मैंने कहा था कि ये काम मत करो , बेकार कि बुराई हो जायेगी. उनका भी कहना सही था क्योंकि भले हम गलत करें लेकिन अगर किसी ने कह दिया तो वह हमारा सबसे बड़ा दुश्मन होता है.
मैंने कहा बुराई हुई तो नहीं न, बस ऐसे ही डर कर रहे तो लिख चुके हम तो. इसके बाद और दो कहानियां इस कालम में प्रकाशित हुई . अब मैं स्थापित लेखक बन चुकी थी. और साप्ताहिक में छपना आसन काम नहीं था लेकिन मैंने तो कुछ किया भी नहीं. यहाँ तक कि मैं संपादक के नाम उसके साथ पत्र लिख कर भी नहीं रखती थी. इस कहानी से मुझे उस समय १२५ रुपये का चैक मिला. मेरा बैंक में कोई अकाउंट तो था नहीं, अभी तक तो मनी आर्डर से पैसे आ जाते थे. कभी जरूरत ही नहीं पड़ी. पहली बार मैंने बैंक में अकाउंट खुलवाया. और तारीफ की बात ये थी कि मैं उस बैंक में न उस समय न आज तक कभी गयी ही नहीं. अकाउंट खुल गया, पैसे आ गए और निकलवा भी लिए. मैंने बैंक की शक्ल नहीं देखी. इतनी जानपहचान थी कि जाने की जरूरत नहीं पड़ी .
सामाजिक रूढ़ियों, नारी शोषण , अंधविश्वास और अन्याय के प्रति ही मैंने हमेशा लिखा . कौन क्या कहता है? इसके बारे में मैंने कभी नहीं सोचा. लेकिन हाँ कहीं ये बात सामने आई कि लड़की लिखती है तो कहीं घर की बातें बाहर न चली जाएँ. मैंने सुन लिया और सोचा कि ऐसे लोग जरूर कुछ गलत करते होंगे तभी तो उन्हें घर की बातें बाहर जाने का डर है. वे मेरी सोच के अनुरुप नहीं हो सकते और इससे पहले वे मेरे पापा और भाई साहब के द्वारा लिस्ट से हटा दिए जाते .
मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. डबल M .A . राजनीति और समाजशास्त्र में कर चुकी थी. अपने करार के अनुसार पापा ने पूछा कि अब किया इरादा है? मैंने कहा कि अब LLB करना चाहती हूँ, लेकिन वह उस समय उरई में थी नहीं सो नहीं हो सकी. वैसे मेरा सपना जज बनाने का था. ताकि मैं अन्याय के खिलाफ खड़ी हो सकूं. वह नहीं हो पाया. मैं मस्त इंसान नहीं हुआ तो कोई बात नहीं अपनी कलम जिंदाबाद फुरसत किसे थी कि सोचें कि अब क्या करें?
मेरी शादी कि बात मेरे एक रिश्तेदार ने अपने ही रिश्तेदार के साथ चलाई. उन लोगों को पता चला कि लड़की लिखती है और पत्रिकाओं में छपता है. उनके लिए ये नयी बात थी , खैर वह तैयार नहीं हुए, मेरे भाई साहब सुबह वापस आने वाले थे कि रात में लड़का अपने टूर से वापस आ गया , रात में भाई साहब से बात करता रहा और जब लड़के को पता चला कि ऐसा है तो भाई साहब तो सुबह वापस आ गए, लेकिन उसने घोषणा कर दी कि जब शादी करनी ही है तो इसी लड़की से क्यों नहीं? घर वाले चाहते थे कि कहीं इकलौती लड़की से करें जहाँ दान दहेज़ और मकान भी मिल जाए. और भी कई प्रस्ताव थे उनके पास. अब अगर लड़का ही अड़ जाए तो कोई क्या करे? लड़के ने अपने रिश्तेदार के द्वारा कहलाया कि फिर से आये बात करने. भाई साहब फिर पहुंचे तो उनके बड़े भाई और पिताजी ने बहुत नखरे दिखाए आखिर रात १ बजे बात बनी और भाई साहब शगुन करके चले आये. मेरे लिखने से प्रभावित हो कर ही इन्होने शादी की जिद पकड़ी थी और आज वही मेरे पतिदेव आदित्य जी हैं.
१९७५ में मेरी पहली कविता प्रकाशित हुई. मैंने पहली कविता रेखा 'भावना' के नाम से लिखी थी. मेरी सहेली प्रतिमा ने यही नाम सुझाया था . पहले हम यही सोचा करते थे कि जब कविता लिखते हैं तो पीछे कुछ उपनाम लगते हैं. मेरे पापा 'सुमन' के नाम से लिखते थे. तारीफ की बात ये है कि मैंने आज तक कभी अपने पापा का लिख हुआ नहीं पढ़ा. तब जिस तरह से मैं लिखती थी. आज भी मुझे लगता है कि मेरी भाषा और शैली और सोच में कहीं भी बदलाव नहीं हुआ है.
इस कविता के प्रकाशित होने के साथ ही फिर फैन मेल का सिलसिला शुरू हो गया क्योंकि मनोरमा में पता प्रकाशित नहीं होता था और इससे सिर्फ नाम और शहर ही रहता था. उससे फैन मेल का खतरा कम होता था. अब फिर वही सिलसिला शुरू हो गया . इसमें प्रबुद्ध और संवेदनशील लोगों के पत्र अधिक होते थे. कई पत्रिकाओं के कविता भेजने के प्रस्ताव और फिर मित्रता और शादी के प्रस्ताव आने बहुत ही मामूली बात थी. हम सभी भाई बहन इस पत्रों को मजे लेकर पढ़ा करते थे. इससे मेरी माँ को बहुत उलझन होती थी लेकिन कहती कुछ न थी. एक प्रतिष्ठित पत्रिका में स्वरचित रचना को स्थान मिलना मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी. अब कदम आगे बढ़ाने की सोची तो धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान पर हाथ आजमाना शुरू किया. इस काम में किसी को हमराज नहीं बनाती थी, सिर्फ मेरी छोटी बहन थी जिससे मैं अपने लैटर पोस्ट करवाती थी . उसको सब पता रहता कि मैं क्या कहाँ भेज रही हूँ? इस दिशा में मुझे न कोई गाइड करने वाला था और न ही मुझे कोई नियम क़ानून पता थे. बस हाथ से लिखा ( राइटिंग मेरी अच्छी थी) और लिफाफे में रख कर पोस्ट कर दिया. फिर भूल गयी जब स्वीकृति आ गयी तो समझ गए कि अब छप जाएगा. मेरी सबसे पहली कमाई मुझे मनोरमा से हुई थी तब एक पत्र के २५ रुपये पारिश्रमिक मिलता था. और उस समय इसकी बहुत कीमत होती थी. मैं अपने लिखे हुए को भेजने , मित्रों और भाइयों को पत्र लिखने सब का खर्चा खुद उठने में सक्षम थी.
उसी समय साप्ताहिक हिंदुस्तान में "टूटी हुई जिन्दगी" नाम से महिला पृष्ठ पर एक श्रंखला शुरू की गयी. मैंने भी लिख कर भेज दिया और इत्तेफाक से वह स्वीकृत हो गया और छप कर आ गया. ये सच कहानी पर ही आधारित होती थी और कहानी मेरे एक खास रिश्तेदार , जो कि मेरे घर अक्सर आते रहते थे, पर आधारित थी. साप्ताहिक हिंदुस्तान आया ही था और चूंकि उसमें मेरी कहानी थी तो बाहर कमरे में रखा था. इतने में वे आ गए और मुझे काटो तो खून नहीं क्योंकि मेज पर पत्रिका रखी है और अगर उन्होंने उठ कर कहानी पढ़ ली तो क्या होगा? आखिर मैं भी इंसान थी. डर लगा और मैंने छोटी बहन से कहा कि तुम वहीं रहना जैसे ही साप्ताहिक ये मेज पर वापस रखें तुरंत ले आना. खैर ऐसा कुछ नहीं हुआ उन्होंने उलट पलट कर रह दिया और मैं चिंता से मुक्त हुई. जब मैंने ये बात माँ को बतलाई तो माँ लगी डांटने- मैंने कहा था कि ये काम मत करो , बेकार कि बुराई हो जायेगी. उनका भी कहना सही था क्योंकि भले हम गलत करें लेकिन अगर किसी ने कह दिया तो वह हमारा सबसे बड़ा दुश्मन होता है.
मैंने कहा बुराई हुई तो नहीं न, बस ऐसे ही डर कर रहे तो लिख चुके हम तो. इसके बाद और दो कहानियां इस कालम में प्रकाशित हुई . अब मैं स्थापित लेखक बन चुकी थी. और साप्ताहिक में छपना आसन काम नहीं था लेकिन मैंने तो कुछ किया भी नहीं. यहाँ तक कि मैं संपादक के नाम उसके साथ पत्र लिख कर भी नहीं रखती थी. इस कहानी से मुझे उस समय १२५ रुपये का चैक मिला. मेरा बैंक में कोई अकाउंट तो था नहीं, अभी तक तो मनी आर्डर से पैसे आ जाते थे. कभी जरूरत ही नहीं पड़ी. पहली बार मैंने बैंक में अकाउंट खुलवाया. और तारीफ की बात ये थी कि मैं उस बैंक में न उस समय न आज तक कभी गयी ही नहीं. अकाउंट खुल गया, पैसे आ गए और निकलवा भी लिए. मैंने बैंक की शक्ल नहीं देखी. इतनी जानपहचान थी कि जाने की जरूरत नहीं पड़ी .
सामाजिक रूढ़ियों, नारी शोषण , अंधविश्वास और अन्याय के प्रति ही मैंने हमेशा लिखा . कौन क्या कहता है? इसके बारे में मैंने कभी नहीं सोचा. लेकिन हाँ कहीं ये बात सामने आई कि लड़की लिखती है तो कहीं घर की बातें बाहर न चली जाएँ. मैंने सुन लिया और सोचा कि ऐसे लोग जरूर कुछ गलत करते होंगे तभी तो उन्हें घर की बातें बाहर जाने का डर है. वे मेरी सोच के अनुरुप नहीं हो सकते और इससे पहले वे मेरे पापा और भाई साहब के द्वारा लिस्ट से हटा दिए जाते .
मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. डबल M .A . राजनीति और समाजशास्त्र में कर चुकी थी. अपने करार के अनुसार पापा ने पूछा कि अब किया इरादा है? मैंने कहा कि अब LLB करना चाहती हूँ, लेकिन वह उस समय उरई में थी नहीं सो नहीं हो सकी. वैसे मेरा सपना जज बनाने का था. ताकि मैं अन्याय के खिलाफ खड़ी हो सकूं. वह नहीं हो पाया. मैं मस्त इंसान नहीं हुआ तो कोई बात नहीं अपनी कलम जिंदाबाद फुरसत किसे थी कि सोचें कि अब क्या करें?
मेरी शादी कि बात मेरे एक रिश्तेदार ने अपने ही रिश्तेदार के साथ चलाई. उन लोगों को पता चला कि लड़की लिखती है और पत्रिकाओं में छपता है. उनके लिए ये नयी बात थी , खैर वह तैयार नहीं हुए, मेरे भाई साहब सुबह वापस आने वाले थे कि रात में लड़का अपने टूर से वापस आ गया , रात में भाई साहब से बात करता रहा और जब लड़के को पता चला कि ऐसा है तो भाई साहब तो सुबह वापस आ गए, लेकिन उसने घोषणा कर दी कि जब शादी करनी ही है तो इसी लड़की से क्यों नहीं? घर वाले चाहते थे कि कहीं इकलौती लड़की से करें जहाँ दान दहेज़ और मकान भी मिल जाए. और भी कई प्रस्ताव थे उनके पास. अब अगर लड़का ही अड़ जाए तो कोई क्या करे? लड़के ने अपने रिश्तेदार के द्वारा कहलाया कि फिर से आये बात करने. भाई साहब फिर पहुंचे तो उनके बड़े भाई और पिताजी ने बहुत नखरे दिखाए आखिर रात १ बजे बात बनी और भाई साहब शगुन करके चले आये. मेरे लिखने से प्रभावित हो कर ही इन्होने शादी की जिद पकड़ी थी और आज वही मेरे पतिदेव आदित्य जी हैं.
लेखन-वेखन हाय रब्बा. बहुत बढिया चल रहा है. पुरानी यादों को सिलसिलेवार तरीके से रखना बहुत कुशलता की मांग करता है. आप यह कर रही हैं. मज़ा आ रहा है.
जवाब देंहटाएंये प्रोफाइल वाला संदेश सिस्तम हटा दें. सीधा साधा रखें, ताकि कम परेशानी हो.
रेखा जी,
जवाब देंहटाएंआपका तो साहित्यिक सफर बहुत बढ़िया रहा....काफी उपलब्धियां हासिल कीं...ये सब पढ़ कर अच्छा लगा....आप ऐसे ही लिखतीं रहें और लोग पढते रहें....शुभकामनायें
आपके साथ आपके साहित्य के डगर का सफ़र बहुत रोचक रहा ...
जवाब देंहटाएंआभार ...!!
विभा,
जवाब देंहटाएंये प्रोफाइल वाला सिस्टम मुझे हटाना नहीं आता, अभी किसी से पूछ कर हटा दूँगी.
बहुत ही सुन्दर तरीके से लिख रही हैं संस्मरण...हम भी आपके साथ उन यादों की गलियों में चलकर उन पलों से दो-चार हो रहें हैं...मनी ऑर्डर भी आते थे :(...मुझे तो हमेशा चेक ही मिले...जो बैंक में जमा हो जाते...पैसे मिलने की तो कोई ख़ुशी होती ही नहीं...
जवाब देंहटाएंअभी तो सफ़र बहुत लम्बा है...हम साथ साथ हैं,आपकी इन यादों के सफ़र में...जारी रखिये...
तुम्हारे ज़माने तक पारिश्रमिक बढ़ गया होगा न, मेरे समय में तो पत्र के २५ और लेख के ७५ मिलते थे. २५ तक मनी आर्डर से ही आते. उससे अधिक चेक से मिलते थे. साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग सबसे अधिक देता था.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चल रही है आपकी साहित्यिक साधना बहुत उपलब्धियां भी मिली और हाँ आदित्य जी भी :) और क्या चाहिए.:)
जवाब देंहटाएंलिखती रहिये आगे का इंतज़ार है.
बहुत सुंदर जी, क्या अब आप के बच्चे भी लिखते है, क्योकि मां बाप के गुण बच्चो मै भी होते है,आगे भी लिखती रहे धन्यवाद
जवाब देंहटाएंयादों से संजोई ....यह साहित्यिक सफ़र.... बहुत अच्छा लगा....
जवाब देंहटाएंbahut achchha lagta hay jab kisi lekhak ke paas uski yaaden dusron ko prerna dene ke liye hoti hayn.aapko anekon shubhkamnaayen
जवाब देंहटाएंरेखाजी
जवाब देंहटाएंमै अभिभूत हूँ आपकी इस साहित्यिक यात्रा का विवरण पढ़कर लगता है हम भी वही है |
मैंने अपनी पहली कविता जब सन १९७२ में लिखी और पिताजी को डरते डरते बताई तो उन्होंने कहा -अब सब कविता लिखने वाले ही हो गये तब मै काफी नर्वस हो गई थी और कई सालों तक कुछ नहीं लिखा फिर कहानी लम्बी है |खैर |बहुत अच्छा लग रहा आपको पढना |
jaldi me padha hai, baad me fursat me padhunga.
जवाब देंहटाएं@राज जी,
जवाब देंहटाएंमेरी दो बेटियां और दोनों ही मेडिकल लाइने में हैं, हाँ छोटी ने जरूर अभी अभी लिखना शुरू किया.
@धन्यवाद मजफूज़ भाई, अरशद भाई, आप लोगों मेरे ब्लॉग पर आये और मुझे पढ़ा.
इधर कई दिनों बाद नेट पर आई हूं. बहुत प्रवाहयुक्त और रोचक संस्मरण हैं दी.
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक जीवन यात्रा रही है आपकी, आदित्य जी को मेरा नमस्कार कहिएगा!
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