माधुरी जैसी फिल्मी पत्रिका में कुछ भी छप जाना इतना महत्वपूर्ण होता है, ये मुझे पता नहीं था. कुछ और बहुत प्रसिद्ध तो नहीं लेकिन फिल्मी पत्रिकाओं से लेख लिखने के प्रस्ताव आने लगे. मैं कोई फिल्मी दुनियाँ से तो जुड़ी नहीं थी बस रूचि थी उसमें और जानकारी भी बहुत अच्छी थी. मेरठ से प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका ने लेख माँगा और मैंने " फिल्मों में महिलाओं कि भागीदारी " विषय पर लेख लिखा और भेज दिया. प्रकाशित होने के बाद पत्रिका मेरे घर आ गयी. मेरठ में मेरे भाई साहब के एक मित्र थे , उन्होंने पढ़ा होगा और तुरंत ही उनका पत्र आया कि मैंने रेखा का लेख और फोटो देखी. मुझे ये कुछ जंचता नहीं है कि लड़की ऐसे फिल्मी दुनियाँ पर लेख लिखे. खैर फतवा जारी हुआ कि फिल्मी विषयों पर नहीं लिखना है और विषय चुनो. तब फ़ोन और मोबाईल तो होते नहीं थे कि घर आम घर में लगे हों. सो पत्र एक सशक्त माध्यम था. उस समय न भाई साहब बहुत बड़े थे लेकिन बड़े भाई का रुतबा होता था. सो बंद कर दिया. पर कलम तो कहीं न कहीं रास्ता खोज ही लेती है उस पर तो फतवा जारी नहीं किया जा सकता है.
अपनी पत्र मित्रों में एक रोचक घटना याद है , लखनऊ की एक लड़की थी (वास्तव में वह लड़का था) कृष्णा लाठ ने मेरे लेखों से प्रभावित हो कर पत्र लिखा और मित्रता की बात हुई. लखनऊ मेरी हद में था सो मैंने दोस्ती कर ली. करीब ३ साल तक हम सहेलियों की तरह सब बाते शेयर करते रहे. मेरे चाचा लखनऊ आ गए और मुझे जाना हुआ तो मैंने उसको लिखा . बस उसके बाद उसने पूछा कि क्या मैं किसी लड़के से दोस्ती करना पसंद करूंगी तो मैंने मना कर दिया. उसके बाद उसने स्वीकार किया कि वह वास्तव में लड़का है लेकिन उसे मेरी दोस्ती अच्छी लगी इसलिए वह लड़की के नाम से पत्र लिख रहा था. अब आगे से नहीं लिखेगा लेकिन वह एक अच्छी दोस्त खो रहा है. मुझे उसका पता अभी भी याद है , कहीं गणेश गंज में रहता था.
प्रतिमा मेरी कविता की प्रेरणा बनी हम लोग अपने पत्रों में शेर और कविताएँ लिखा करते थे. हमारे पत्र १२ -१४ पन्नों के होते थे. सभी के चाहे उमा हो या प्रतिमा या कृष्णा. मुझे अपना पहला शेर याद है और मुझे आज भी बहुत पसंद है.
मैयत उठ दी दो अश्क भी गिरा न सके
दफनाया इतना गहरा कि आवाज भी आ न सके
कब्र पर फूल चढाने से क्या फायदा
मेरे जनाजे के साथ तुम दो कदम भी आ न सके.
मैंने एक डायरी बना रखी थी, उसके बाएं पेज पर चार लाइनों के शेर या कवित्त और दायें पेज में कविता लिखती थी. बाद में इस डायरी का जो हश्र हुआ - इस राज को आगे बताएँगे. मैं मेज पर बैठ कर नहीं पढ़ती थी. बस काम सेफ्री होकर अन्दर कमरे में जमीं में दरी डाली और एक तकिया लिया अपनी डायरी और कॉपी लेकर चले गए . पेट के नीचे तकिया लगा लिया और उलटे लेट कर ही लिखना और पढ़ना करती थी. मेरा ट्रांसिस्टर पास में होता था और साथ साथ गाने सुनने का सिलसिला भी चलता रहता था.
एक दिन तो हद हो गयी मुझे अपने पर शर्म भी आई. मेरी छोटी बहन की सलेहियाँ आई तो कमरे में मेरी डायरी रखी थी. वे उठ कर पलटने लगी तो उन लोगों ने कविताएँ देखी. फिर वे बहन से बोलीं , " गीता ये किस फिल का गाना है?"
बहन ने कहा कि 'ये फ़िल्म का गाना नहीं है मेरी दीदी की कविता है वो कविता लिखती हैं. '
वह तुरंत बोली कि 'क्या तुम्हारी दीदी पढ़ी लिखी भी हैं?'
मैं उस समय बी. ए. में पढ़ रही थी. मुझे अपने पर बड़ी शर्म आई कि क्या मैं बिल्कुल बिना पढ़ी लिखी नजर आती हूँ? लेकिन मैं तो जैसी आज हूँ, वैसे ही थी. दिखावे से कोई मतलब नहीं था. मैं तो ऐसी ही हूँ.
(क्रमशः)
अपनी पत्र मित्रों में एक रोचक घटना याद है , लखनऊ की एक लड़की थी (वास्तव में वह लड़का था) कृष्णा लाठ ने मेरे लेखों से प्रभावित हो कर पत्र लिखा और मित्रता की बात हुई. लखनऊ मेरी हद में था सो मैंने दोस्ती कर ली. करीब ३ साल तक हम सहेलियों की तरह सब बाते शेयर करते रहे. मेरे चाचा लखनऊ आ गए और मुझे जाना हुआ तो मैंने उसको लिखा . बस उसके बाद उसने पूछा कि क्या मैं किसी लड़के से दोस्ती करना पसंद करूंगी तो मैंने मना कर दिया. उसके बाद उसने स्वीकार किया कि वह वास्तव में लड़का है लेकिन उसे मेरी दोस्ती अच्छी लगी इसलिए वह लड़की के नाम से पत्र लिख रहा था. अब आगे से नहीं लिखेगा लेकिन वह एक अच्छी दोस्त खो रहा है. मुझे उसका पता अभी भी याद है , कहीं गणेश गंज में रहता था.
प्रतिमा मेरी कविता की प्रेरणा बनी हम लोग अपने पत्रों में शेर और कविताएँ लिखा करते थे. हमारे पत्र १२ -१४ पन्नों के होते थे. सभी के चाहे उमा हो या प्रतिमा या कृष्णा. मुझे अपना पहला शेर याद है और मुझे आज भी बहुत पसंद है.
मैयत उठ दी दो अश्क भी गिरा न सके
दफनाया इतना गहरा कि आवाज भी आ न सके
कब्र पर फूल चढाने से क्या फायदा
मेरे जनाजे के साथ तुम दो कदम भी आ न सके.
मैंने एक डायरी बना रखी थी, उसके बाएं पेज पर चार लाइनों के शेर या कवित्त और दायें पेज में कविता लिखती थी. बाद में इस डायरी का जो हश्र हुआ - इस राज को आगे बताएँगे. मैं मेज पर बैठ कर नहीं पढ़ती थी. बस काम सेफ्री होकर अन्दर कमरे में जमीं में दरी डाली और एक तकिया लिया अपनी डायरी और कॉपी लेकर चले गए . पेट के नीचे तकिया लगा लिया और उलटे लेट कर ही लिखना और पढ़ना करती थी. मेरा ट्रांसिस्टर पास में होता था और साथ साथ गाने सुनने का सिलसिला भी चलता रहता था.
एक दिन तो हद हो गयी मुझे अपने पर शर्म भी आई. मेरी छोटी बहन की सलेहियाँ आई तो कमरे में मेरी डायरी रखी थी. वे उठ कर पलटने लगी तो उन लोगों ने कविताएँ देखी. फिर वे बहन से बोलीं , " गीता ये किस फिल का गाना है?"
बहन ने कहा कि 'ये फ़िल्म का गाना नहीं है मेरी दीदी की कविता है वो कविता लिखती हैं. '
वह तुरंत बोली कि 'क्या तुम्हारी दीदी पढ़ी लिखी भी हैं?'
मैं उस समय बी. ए. में पढ़ रही थी. मुझे अपने पर बड़ी शर्म आई कि क्या मैं बिल्कुल बिना पढ़ी लिखी नजर आती हूँ? लेकिन मैं तो जैसी आज हूँ, वैसे ही थी. दिखावे से कोई मतलब नहीं था. मैं तो ऐसी ही हूँ.
(क्रमशः)
आपके ये संस्मरण पर्त डर पर्त खुल रहे हैं...अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकितनी सात्विक दोस्ती रही होगी उस लखनऊ वाली/वाला से....आप लिखती चलें हम पढ रहे हैं...इन्तज़ार में हैं अगली कड़ी के...
जवाब देंहटाएंपर कलम तो कहीं न कहीं रास्ता खोज ही लेती है उस पर तो फतवा जारी नहीं किया जा सकता है.
जवाब देंहटाएंक्या बात कही है ...बहुत रोचक लग रहे हैं आपके संस्मरण ..बहुत अच्छा लग रहा है पढना :) लिखती रहिये बिंदास.
बहुत ही सुन्दर चल रही है संस्मरण यात्रा....पहले तो ये लिखना वगैरह मुश्किल था ही...पैरेंट्स को लगता था ,पढ़ाई से ध्यान हट जायेगा...खुद भी इतना डरते थे ,सब...और भाई साहब के दोस्त का फरमान....तो सचमुच फतवा ही लगता था...पर आदत कहाँ जाती है...नए रास्ते निकाल लेती है.
जवाब देंहटाएंइंतज़ार है,अगली कड़ी का..
सच कहा कि कलम अपना रास्ता खोज ही लेती है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर संस्मरण. पत्रों का जमाना तो अब खतम हुआ.
आगे इन्तजार रहेगा.
बहुत सुंदर यादगारे, भाई की बात का इतना मान.... क्या यह सब आज के जमाने मै भी चलता है? मुझे ये कुछ जंचता नहीं है कि लड़की ऐसे फिल्मी दुनियाँ पर लेख लिखे. खैर फतवा जारी हुआ कि फिल्मी विषयों पर नहीं लिखना है और विषय चुनो. बहुत सुंदर.आप का लेख पढते समय यु लगता है जैसे हम सब मिल कर कही बेठे हुये आपस मै बाते कर रहे हो...
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