आई आई टी में भी सितम्बर माह में हिंदी सप्ताह मनाया जाता है और उसमें विभिन्न प्रतियोगिताएं भी हुआ करती हैं. मैंने उसमें कभी भाग नहीं लिया जब कि मेरी सहेलियां जो यहाँ पर मेरे साथ थी कई बार कहा. एक बार तो वह पीछे ही पड़ गयी और उसने २००५ में मेरी डायरी से कविता निकाल कर हिंदी प्रकोष्ठ में भेज दी. वहाँ से मेल आ गयी कि आपको इस लेक्चर हाल में पहुंचना है.
दरअसल बात यह है कि मैं इतने लम्बे समय से हूँ यहाँ लेकिन पूरी आई आई टी के परिसर से मेरा सरोकार कभी नहीं रहा. मैं आकर अपने कमरे में और बस जाते समय ही निकलती हूँ.
एक लड़के ने मुझे उस लेक्चर हाल तक पहुँचाया. और यहाँ पर मैंने पहली बार अपने लेखन की प्रस्तुति की. मेरी कविता थी -' पूजिता या तिरस्कृता '
सीता पूजिता
क्यों?
मौन, नीरव, ओठों को सिये
सजल नयनों से
चुपचाप जीती रही।
दुर्गा
शत्रुनाशिनी
क्रोधित, सबला
संहारिणी स्वरूपा
कब सराही गई
नारी हो तो सीता सी
बनी जब दुर्गा
चर्चा का विषय बनी
समाज पचा नहीं पाया
उंगली उठी और उठती रही।
सीता कब चर्चित हुई
प्रशंसनीय , सहनशील
घुट-घुट कर जीने वाली
जब खत्म हो गई,
बेचारी के विशेषण से विभूषित हो
अपना इतिहास दफन कर गई।
समाज पुरूष रचित औ'
नारी जीवन उसकी इच्छा के अधीन,
स्वयं नारी भी
सीता औ' दुर्गा के स्वरूप को
पहचान कर भी
अनजान बनी जीती रहती है
पुरूष छत्रछाया में मंद मंद विष पीती रहती है।
इस कविता को पहला पुरस्कार मिला. पुरस्कार में पहली बार पुस्तकों को देने का निर्णय लिया गया था और पुरस्कार में मुझे हरिवंश राय बच्चन की 'मधुशाला 'और कमलेश्वर की 'कितने पाकिस्तान ' मिली थी.
फिर हमारे जजों में से एक ने मेरे से पूछा की आप यहाँ कब से है? मैंने बताया की १८ साल से तो बड़े आश्चर्य से कहा - 'आपको पहले देखा नहीं कभी?' वाकई नहीं देखा होगा क्योंकि मेरी परिधि मेरे अपने कमरे से अधिक कहीं नहीं होती है.
दूसरे दिन मेरे साथ काम करने वाले लोगों ने बताया की कल तो बसों में आपकी ही चर्चा हो रही थी कि क्या कविता पढी? इस तरह से मुझे आई आई टी में पहली बार पहचान मिली और इसका श्रेय मैं अपनी सहकर्मी या कहिये आत्मीय नीलम त्रिपाठी को ही देती हूँ. मुझे दूसरे वर्ष भी कविता पाठ में पुरस्कार मिला . लेकिन उसके बाद मैंने भाग लेना बंद कर दिया क्योंकि एक दिन मैंने बस स्टॉप पर सुना कि जब तक ये रहेंगी कविता का पुरस्कार नहीं मिलने वाला. हो सकता है कि मुझे सुना कर रही हों वे, लेकिन मैंने फिर जाना बंद कर दिया.
यहाँ पर रह कर मेरा परिचय नेट से तो पूरा पूरा था. लेकिन अन्य विधाओं से मेरा कोई परिचय नहीं था. यही पर मेरे साथ काम कर रही एक इंजीनियर ने मेरा ऑरकुट पर खाता खोल दिया तो मेरा दायरा और बढ़ गया.
आरम्भ में जब मैंने अपने लेखन से मिले भाइयों का जिक्र किया था तो उनमें से एक था बिहार से 'अजय' . वह उस समय शायद हाई स्कूल में रहा होगा और मैं बी ए में थी. कई साल पत्राचार के बाद बंद हो गया लेकिन मुझे ये नहीं याद कि मैं किसको क्या दिशा निर्देश दिया करती थी. ये तो है कि मैं काउंसलर पैदाइशी थी. नेट करने पर कई बार उसका नाम देखने को मिला वह अब पत्रकारिता के क्षेत्र में आ चुका था. और नामी गिरामी पत्रकार भी है. लेकिन उससे संपर्क का कोई साधन नहीं था. फिर सोचा हो सकता है कि भूल भी गया हो, सब मुझ जैसे नहीं होते. एक दिन उसके लेख के साथ उसका ईमेल आई डी भी मुझे मिला. कई हफ्तों तक सोचती रही कि इसको एक मेल डालूँ फिर संकोच कर गयी कि इतना बड़ा पत्रकार हो चुका है पता नहीं पहचाने या नहीं. फिर भी मैंने उसको एक मेल लिखी - 'अगर याद हो तो मैं तुम्हारी उरई वाली रेखा दीदी हूँ, और अगर न हो तो इस मेल को इग्नोर कर देना. '
मुझे उसका उत्तर तुरंत ही मिला और उसका जबाब था - ' दीदी मैं आपको कैसे भूल सकता हूँ? '
फिर तो हमारा मेल व्यवहार फिर से हो गया . मेरे उस भाई का नाम है "अजय ब्रह्मात्मज" . फिर उसके साथ ही मुझे एक भाभी भी मिल गयी - ' विभा रानी' .
कुछ ऐसा इत्तेफाक हुआ कि कुछ ही महीनों के बाद ही अजय को यहाँ पर एक फ़िल्म कि टीम लेकर आना पड़ा. उसने मुझे फ़ोन किया कि मैं कानपुर आ रहा हूँ और आपसे मिलना चाहता हूँ. शाम को पता चला कि वह आ तो गया लेकिन मेरे पास तक नहीं आ पायेगा. अतः मैंने कहा कि मैं ही आ जाती हूँ. वह उस समय 'आहिस्ता-आहिस्ता ' कि टीम लेकर आया था. फ़ोन से संपर्क हुआ और मैं पतिदेव थे नहीं तो पडोसी के बेटे के साथ रेव थ्री पहुँची. चूँकि फ़िल्म वाले थे तो बहुत ही सुरक्षा थी. मेरे को तो ऊपर जाने से मना कर दिया. आप नहीं जा सकती हैं. मैंने नीचे से ही फ़ोन किया तो गार्ड समझा कि कोई खास हैं तो उसने मुझे ऊपर भिजवा दिया. मैं अजय को नहीं पहचानती थी और अजय मुझे नहीं. कभी देखा ही नहीं था. मैं इतने बड़े हाल में किसको पूंछू. खैर मैंने उसके मोबाइल पर कॉल की तो वह खुद ही मेरे पास आ गया. आकर सबसे पहले उसने मेरे पैर छुए थे. उस क्षण मैं कितनी अभिभूत हुई थी उसका बयान नहीं आकर सकती . वह बचपन का रिश्ता आज भी कितना गहरा और सम्मान दे रहा है.
और उससे से बड़ी बात उसने तब कही - जो मेरे साथ लड़का गया था उससे ही कहा कि आज मैं जो कुछ भी दीदी कि बदौलत ही हूँ.
और बस हम भाई बहन इस तरह फिल्मी अंदाज में ही मिले . उसने मेरे 'अभय देओल' से भी इंट्रो करवाया कि ये मेरे दीदी है यही रहती है और मुझसे मिलने आयीं है. सबसे बड़ी बात ये रही कि मैं अभय देओल को पहचानती नहीं थी. बाद मैं जो लड़का मेरे साथ गया था उसने पूछा कि आंटी जिससे आपका परिचय मामाजी ने करवाया था उसको नहीं जानती . मैंने कहा नहीं तब उसने कहा कि वो अभय देओल था.
कुल मिलाकर मेरी छोटी सी मुलाकात थी लेकिन थी बहुत यादगार. दुबारा जब उसका कानपुर आना हुआ तब भी मैंने कहा कि मैं आ जाती हूँ, उसने कहा नहीं अब कि बार मैं ही घर आऊंगा और फिर वह घर भी आया सबसे मिला. मुझे नहीं लगा कि ये हमारे रिश्ते कहीं से भी अपने खून के रिश्ते से अलग हैं.
अब मेरी भाई से तो कम भाभी से अधिक बात हो जाती है. हम ऑरकुट पर हैं , पता नहीं कुछ लोगों ने इस पर भी रिसर्च की और हमारे आपस के स्क्रैप पढ़े . फिर घुमा कर पूछना शुरू किया कि आप कहाँ से है? मैंने कहा UP से , तो फिर दूसरा सवाल कि फिर विभा रानी आपकी भाभी कैसे हैं? अब मैं किसको किसको कहानी सुनाऊं ? इस लिए इस जगह सब खोल कर बता दिया कि ये मेरे रिश्ते भी वही से मिले हैं .
दरअसल बात यह है कि मैं इतने लम्बे समय से हूँ यहाँ लेकिन पूरी आई आई टी के परिसर से मेरा सरोकार कभी नहीं रहा. मैं आकर अपने कमरे में और बस जाते समय ही निकलती हूँ.
एक लड़के ने मुझे उस लेक्चर हाल तक पहुँचाया. और यहाँ पर मैंने पहली बार अपने लेखन की प्रस्तुति की. मेरी कविता थी -' पूजिता या तिरस्कृता '
सीता पूजिता
क्यों?
मौन, नीरव, ओठों को सिये
सजल नयनों से
चुपचाप जीती रही।
दुर्गा
शत्रुनाशिनी
क्रोधित, सबला
संहारिणी स्वरूपा
कब सराही गई
नारी हो तो सीता सी
बनी जब दुर्गा
चर्चा का विषय बनी
समाज पचा नहीं पाया
उंगली उठी और उठती रही।
सीता कब चर्चित हुई
प्रशंसनीय , सहनशील
घुट-घुट कर जीने वाली
जब खत्म हो गई,
बेचारी के विशेषण से विभूषित हो
अपना इतिहास दफन कर गई।
समाज पुरूष रचित औ'
नारी जीवन उसकी इच्छा के अधीन,
स्वयं नारी भी
सीता औ' दुर्गा के स्वरूप को
पहचान कर भी
अनजान बनी जीती रहती है
पुरूष छत्रछाया में मंद मंद विष पीती रहती है।
इस कविता को पहला पुरस्कार मिला. पुरस्कार में पहली बार पुस्तकों को देने का निर्णय लिया गया था और पुरस्कार में मुझे हरिवंश राय बच्चन की 'मधुशाला 'और कमलेश्वर की 'कितने पाकिस्तान ' मिली थी.
फिर हमारे जजों में से एक ने मेरे से पूछा की आप यहाँ कब से है? मैंने बताया की १८ साल से तो बड़े आश्चर्य से कहा - 'आपको पहले देखा नहीं कभी?' वाकई नहीं देखा होगा क्योंकि मेरी परिधि मेरे अपने कमरे से अधिक कहीं नहीं होती है.
दूसरे दिन मेरे साथ काम करने वाले लोगों ने बताया की कल तो बसों में आपकी ही चर्चा हो रही थी कि क्या कविता पढी? इस तरह से मुझे आई आई टी में पहली बार पहचान मिली और इसका श्रेय मैं अपनी सहकर्मी या कहिये आत्मीय नीलम त्रिपाठी को ही देती हूँ. मुझे दूसरे वर्ष भी कविता पाठ में पुरस्कार मिला . लेकिन उसके बाद मैंने भाग लेना बंद कर दिया क्योंकि एक दिन मैंने बस स्टॉप पर सुना कि जब तक ये रहेंगी कविता का पुरस्कार नहीं मिलने वाला. हो सकता है कि मुझे सुना कर रही हों वे, लेकिन मैंने फिर जाना बंद कर दिया.
यहाँ पर रह कर मेरा परिचय नेट से तो पूरा पूरा था. लेकिन अन्य विधाओं से मेरा कोई परिचय नहीं था. यही पर मेरे साथ काम कर रही एक इंजीनियर ने मेरा ऑरकुट पर खाता खोल दिया तो मेरा दायरा और बढ़ गया.
आरम्भ में जब मैंने अपने लेखन से मिले भाइयों का जिक्र किया था तो उनमें से एक था बिहार से 'अजय' . वह उस समय शायद हाई स्कूल में रहा होगा और मैं बी ए में थी. कई साल पत्राचार के बाद बंद हो गया लेकिन मुझे ये नहीं याद कि मैं किसको क्या दिशा निर्देश दिया करती थी. ये तो है कि मैं काउंसलर पैदाइशी थी. नेट करने पर कई बार उसका नाम देखने को मिला वह अब पत्रकारिता के क्षेत्र में आ चुका था. और नामी गिरामी पत्रकार भी है. लेकिन उससे संपर्क का कोई साधन नहीं था. फिर सोचा हो सकता है कि भूल भी गया हो, सब मुझ जैसे नहीं होते. एक दिन उसके लेख के साथ उसका ईमेल आई डी भी मुझे मिला. कई हफ्तों तक सोचती रही कि इसको एक मेल डालूँ फिर संकोच कर गयी कि इतना बड़ा पत्रकार हो चुका है पता नहीं पहचाने या नहीं. फिर भी मैंने उसको एक मेल लिखी - 'अगर याद हो तो मैं तुम्हारी उरई वाली रेखा दीदी हूँ, और अगर न हो तो इस मेल को इग्नोर कर देना. '
मुझे उसका उत्तर तुरंत ही मिला और उसका जबाब था - ' दीदी मैं आपको कैसे भूल सकता हूँ? '
फिर तो हमारा मेल व्यवहार फिर से हो गया . मेरे उस भाई का नाम है "अजय ब्रह्मात्मज" . फिर उसके साथ ही मुझे एक भाभी भी मिल गयी - ' विभा रानी' .
कुछ ऐसा इत्तेफाक हुआ कि कुछ ही महीनों के बाद ही अजय को यहाँ पर एक फ़िल्म कि टीम लेकर आना पड़ा. उसने मुझे फ़ोन किया कि मैं कानपुर आ रहा हूँ और आपसे मिलना चाहता हूँ. शाम को पता चला कि वह आ तो गया लेकिन मेरे पास तक नहीं आ पायेगा. अतः मैंने कहा कि मैं ही आ जाती हूँ. वह उस समय 'आहिस्ता-आहिस्ता ' कि टीम लेकर आया था. फ़ोन से संपर्क हुआ और मैं पतिदेव थे नहीं तो पडोसी के बेटे के साथ रेव थ्री पहुँची. चूँकि फ़िल्म वाले थे तो बहुत ही सुरक्षा थी. मेरे को तो ऊपर जाने से मना कर दिया. आप नहीं जा सकती हैं. मैंने नीचे से ही फ़ोन किया तो गार्ड समझा कि कोई खास हैं तो उसने मुझे ऊपर भिजवा दिया. मैं अजय को नहीं पहचानती थी और अजय मुझे नहीं. कभी देखा ही नहीं था. मैं इतने बड़े हाल में किसको पूंछू. खैर मैंने उसके मोबाइल पर कॉल की तो वह खुद ही मेरे पास आ गया. आकर सबसे पहले उसने मेरे पैर छुए थे. उस क्षण मैं कितनी अभिभूत हुई थी उसका बयान नहीं आकर सकती . वह बचपन का रिश्ता आज भी कितना गहरा और सम्मान दे रहा है.
और उससे से बड़ी बात उसने तब कही - जो मेरे साथ लड़का गया था उससे ही कहा कि आज मैं जो कुछ भी दीदी कि बदौलत ही हूँ.
और बस हम भाई बहन इस तरह फिल्मी अंदाज में ही मिले . उसने मेरे 'अभय देओल' से भी इंट्रो करवाया कि ये मेरे दीदी है यही रहती है और मुझसे मिलने आयीं है. सबसे बड़ी बात ये रही कि मैं अभय देओल को पहचानती नहीं थी. बाद मैं जो लड़का मेरे साथ गया था उसने पूछा कि आंटी जिससे आपका परिचय मामाजी ने करवाया था उसको नहीं जानती . मैंने कहा नहीं तब उसने कहा कि वो अभय देओल था.
कुल मिलाकर मेरी छोटी सी मुलाकात थी लेकिन थी बहुत यादगार. दुबारा जब उसका कानपुर आना हुआ तब भी मैंने कहा कि मैं आ जाती हूँ, उसने कहा नहीं अब कि बार मैं ही घर आऊंगा और फिर वह घर भी आया सबसे मिला. मुझे नहीं लगा कि ये हमारे रिश्ते कहीं से भी अपने खून के रिश्ते से अलग हैं.
अब मेरी भाई से तो कम भाभी से अधिक बात हो जाती है. हम ऑरकुट पर हैं , पता नहीं कुछ लोगों ने इस पर भी रिसर्च की और हमारे आपस के स्क्रैप पढ़े . फिर घुमा कर पूछना शुरू किया कि आप कहाँ से है? मैंने कहा UP से , तो फिर दूसरा सवाल कि फिर विभा रानी आपकी भाभी कैसे हैं? अब मैं किसको किसको कहानी सुनाऊं ? इस लिए इस जगह सब खोल कर बता दिया कि ये मेरे रिश्ते भी वही से मिले हैं .
sabse pahle to kavita ki tarif kar du kyun ki us kavita par aap ko inab pahle hi mil chuka he
जवाब देंहटाएंor ha aap ke bhaya ka or aap ka rista bhi waqy kisi filmi duniya se kam nahi hai
har bar ki tarha is bar bhi shandar
shekhar kumawat
अजय ब्रहाम्त्ज चित्रपट के मूर्धन्य पत्रकार है , लेकिन आपके लेखन को उन्होंने कैसे प्रभावित किया , कृपया इस पर प्रकाश डाले. आपकी पोस्ट अपने मूल उद्देश्य से विचलित सी हो गयी है आत्मा विमुग्धता की तरफ , ऐसा मुझे लगता है. बेहतरीन कविता .
जवाब देंहटाएंआशीष ,
जवाब देंहटाएंअजय आज बहुत बड़े पत्रकार हैं , लेकिन मेरे भाई बहन का रिश्ता तब बना था जब वह शायद ८-९ क्लास में पढता था. जब मेरी पहली चीज प्रकाशित हुई थी. मुझे भी लगाकि मैं कुछ भटक गयी. बताओ सम्पादित कर देती हूँ.
अरे वाह ये भाई बहन का रिश्ता तो बहुत ही खूबसूरत है ..ओर बड़ा ही सुन्दर रहा मिलन ,इस लेखन ने देखिये आपको कितना बहमूल्य तोहफा दिया
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया.
आदरणीय रेखा जी , मै एक अदना सा टिप्पड़ीकार हूँ , और मै संपादन के लिए कैसे बोल सकता हूँ. लेकिन मुझे जो बात पूछनी थी वो मैंने अपने पहले कमेन्ट में पुछ लिया था की अजय जी ने आपके लेखन को कैसे प्रभावित किया? . मै तो ये सोच रहा था की भाई बहन की इस आत्मीय और फ़िल्मी मिलन पर एक और पोस्ट बन जाती जो मौका अपने गवा दिया , हा हा .
जवाब देंहटाएंआशीष ,
जवाब देंहटाएंमुझे अजय के लेखन ने नहीं बल्कि मेरे लेखन ने उसको बचपन में ही प्रभावित किया था. अगर आरम्भ की कड़ियाँ फिर से पढेंगे तो पता चल जाएगा कि हम कब जुड़े. ये मुझे पता है कि इसपर एक पोस्ट और बन सकती थी लेकिन मुझे कुछ अधूरा सा लग रहा था. इसलिए मैंने उसको यही पर डालदिया.
हाँ शिखा ये तो है, बड़ा प्यारा रिश्ता है और फिर इतने साल बाद मूल के साथ ब्याज भी मिल गया.
जवाब देंहटाएंआईये सुनें ... अमृत वाणी ।
जवाब देंहटाएंआचार्य जी
रेखा दी,
जवाब देंहटाएंमैं आपके संस्मरण के इस हिस्से का कब से इंतज़ार कर रही थी कि कब आप अजय भैया से अपनी मुलाकात का विवरण लिखेंगी, कोई आपका आलेख पढ़कर एक हाई स्कूल में पढने वाला बालक, पत्रव्यवहार करता है अपनी छोटी-मोटी परेशानियां भी बाँटते ही होंगे और आप उचित मार्गदर्शन करती होंगी तभी तो ज़िन्दगी कि इस भीड़ में भी यह रिश्ता सीप में मोती की तरह सुरक्षित रहा और अपनी चमक नहीं खोयी .
बहुत ही रोचक लगा ये पूरा आलेख. देर से ही सही पर आपको ईनाम जीतने की बहुत बहुत बधाई. बहुत ही सुन्दर कविता है..बिलकुल प्रथम पुरस्कार की हकदार. और आपने बिलकुल ही क्यूँ बंद कर दिया भाग लेना, बीच बीच में लेती रहिये. और ईनाम जीतती रहिये,इस से अच्छा लिखने कि भी प्रेरणा मिलेगी और हमें बधाई देने का अवसर मिलेगा...:)
@आशीष जी, यह रेखा दी की अपने लेखन की संस्मरण यात्रा है,इस से जितनी यादें जुडी होंगी वो शेयर करेंगी. उन्होंने अपने छपे आलेख ,जो कि गलती से रद्दी में बेच दिए गए,उसका भी तो जिक्र किया...उसने इनके लेखन पर कैसे प्रभाव डाला?
जवाब देंहटाएंऔर अजय ब्रह्मात्मज जी अगर इतने बड़े पत्रकार नहीं होते, फिर भी पैंतीस वर्ष बाद पहली बार अगर वे पत्र मित्रता के जरिये बने अपने मुहँबोले भाई से मिलतीं तब भी इसका जिक्र उतनी ही आत्मीयता से करतीं. किसी दायरे में बंध कर संस्मरण नहीं लिखा जाता, उस विषय या उस दरम्यान जितनी यादें जुडी होती हैं,सबका ही जिक्र किया जाता है,तभी संस्मरण रोचक बनते हैं. किसी आलेख और संस्मरण में यही अंतर है.
और आत्म मुग्धता वाली बात मुझे कहीं नज़र नहीं आई. जब उन्हें पुरस्कार मिले तो जिक्र तो करेंगी ही...
रश्मि , बहुत बहुत धन्यवाद! जिस ढंग से आशीष को उत्तर तुमने दिया मैं नहीं दे पाई थी वैसे उसका प्रश्न करना भी गलत नहीं था. फिर भी तुमने बचालिया.
जवाब देंहटाएंBahut achhi kavita hai... Nishchay hi pratham puraskaar ke yogya.
जवाब देंहटाएंBadhai Rekha ji.
बड़ा अच्छा मिलन रहा इतने साल की जुदाई के बाद भाई बहन का.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा आपके, विभा जी के और अजय भाई के बारे में पढ़कर.
जी, कविता की तारीफ करना तो रह ही :)
जवाब देंहटाएंरश्मि जी , मेरा मंतव्य कोई आक्षेप लगाना नहीं था, मेरी अल्पबुद्धि में जो आया वो मैंने पुछ लिया था. और हा अगर मेरा पूछना अगर तर्क संगत नहीं था उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ . जहा तक विषयव् विचलन की बात है रेखा जी को भी स्वयं ऐसा ही लगा . मैंने कभी नहीं कहा की पुरस्कार मिलने पर हर्ष प्रकट करना आत्म बिमुग्धता है. मेरा आशय उनकी प्रतियोगिता में हिस्सा ना लेने के निर्णय से था जो की किसी की बात सुनकर लिया गया था और और मुझे ये प्रतीत हुआ की उनको ये लगा की ये बात सच हो सकती है , ये शुरुवात होती है आत्म बिमुग्धता की..
जवाब देंहटाएंbadhiyadilchsp aur amol sansmarn .leek se hatkar rchit kvita purskrat hone ki bahut bhut badhai .
जवाब देंहटाएंbahut acchha laga apke baare me padh kar aur apki pahli prastuti ko padh kar.
जवाब देंहटाएंaapki post kal 11/6/10 ke charcha munch k liye chun li gayi he.
abhaaar..
बहुत सहेज कर रखा था यादों को और उसे करीने से रख दिया।ऐसी सहजता मैं अभी तक नहीं पा सका।मुझे गर्व है कि किशोर उम्र में दीदी का मार्गदर्शन मिला। यचमुच मैं आज जो भी हूं,उसका आरंभिक संबल रेखा दी ने ही दिया...मुझे गर्व है।उन्होंने अधिकार से मुझे खोजा और स्नेह दिया।
जवाब देंहटाएं-अजय ब्रह्मात्मज (नाम इसलिए लिख रहा हूं कि यह कमेंट चवन्नी चैप नाम से आएगा।)
रेखा जी,
जवाब देंहटाएंआज मैं थोडा पिछड़ गयी....पर क्या करूँ...आपका ब्लॉग ही नहीं खुल रहा था...आपकी साहित्य यात्रा बहुत बढ़िया है...आपके संस्मरण का पूरा आनंद ले रहे हैं...अजय भाई और विभा से मिलन शानदार रहा...
और कविता तो बस ... मन के अन्दर तक पहुँच गयी...बहुत ज़ोरदार अभिव्यक्ति
बहुत ही सुन्दर कविता है, पुरस्कार तो मिलना ही था, धीरे धीरे आपसे हमारा परिचय भी बढता जा रहा है! नहीं लगता कि आप से अपरिचित हैं!
जवाब देंहटाएंआप के संस्मरण पढ़ना बहु्त अच्छा लगा, और आप की फ़ोटो दे्ख कर और अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंनहीं आशीष मेरा प्रतियोगिता में भाग लेने का निर्णय आत्मविमुग्धता से प्रेरित बिल्कुल भी नहीं था क्योंकि अगर मेरे कहीं होने से या मेरे किसी भी काम से किसी को कष्ट होता है तो मैं उस काम को करना पसंद नहीं करती हूँ. ये मेरे अपने जीवन में भी है. फिर सच कहूं, वो प्रतियोगिता मुझे प्रतियोगिता नहीं लगी मुझे जबरन भेजा गया तो चली गयी. प्रतियोगिता वहाँ होती हैं जहाँ कि सामान स्तर की प्रस्तुति हो.
जवाब देंहटाएंनारी हो तो सीता सी
जवाब देंहटाएंबनी जब दुर्गा
चर्चा का विषय बनी
समाज पचा नहीं पाया
उंगली उठी और उठती रही।
सीता कब चर्चित हुई
प्रशंसनीय , सहनशील
घुट-घुट कर जीने वाली
जब खत्म हो गई,
...bahut hi umda prastuti ke saath aapke baare mein jaankari prapt huyee..
Haardik shubhkamnayne...
रेखा जी , आपने और रश्मि जी ने मिलकर मुझ मूढ़ मति को बहुत कुछ समझा दिया . आभार
जवाब देंहटाएंaapki ye kavita padhi thi maine bua...bahut achchhi lagi thi...main bhi aapko apni kuchh kavitayen bhejungi...
जवाब देंहटाएंsampoorn safar aur kavita...mann ko prabhavit ker gaye
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