आस्ट्रेलिया में भारतीयों के साथ हो रहे विगत वर्षों से दुर्व्यवहार की खबरें - यहाँ तक कि हमले और हत्याओं तककी घटनाएँ आम हो चुकी हैं । हम ये सब पढ़ और सुन कर आदी हो चुके हैं कौन सा हमारे घर या परिवार का कोईइसमें त्रसित है। हम आज भी वहाँ जाने के लिए तैयार हैं चाहे अपना जमीर ही बेच कर क्यों न रहना पड़े?
आज अख़बार में पढ़ा कि बिकनी पर हिन्दू देवी लक्ष्मी के तस्वीर का प्रिंट छापने से कारण विवाद से घिरीआस्ट्रेलियाई कंपनी लीसा ब्लू स्विमवियर ने माफी मांगी - ' अगर हमारे करण आपकी भावनाएं आहट हुई हैं , तो हम उसके लिए माफी माँगते हैं।'
सिर्फ बिकनी के लिए माफी माँग ली गयी , उस दिन टाइम्स ऑफ इंडिया में छापे हुए समाचार में इस बिकनी केअतिरिक्त कुछ जोड़ी जूते भी उसमें प्रदर्शित किये गए थे इनके ऊपर गणेश, ॐ और अन्य धार्मिक प्रतीक चिन्होंको बनाया गया था। क्या ये किसी भी धर्म का अनुयायी हो इस बात को सभी समझते हैं कि अगर हम किसी कीआस्था या विश्वास के प्रति इस तरह का व्यवहार करेंगे तो वह अनुचित की श्रेणी में रखा जाएगा।
लेकिन शायद इंसान की सोच इससे अधिक व्यावसायिक हो गयी है उसको प्रचार मिलना चाहिए । चर्चित तो हुएन शायद इससे पहले इस कंपनी को भारत में कोई न जानता हो लेकिन अब सभी लोग जान गए हैं।
देवी देवता या धर्म ग्रन्थ ऐसे आस्था से जुड़े हैं कि इनके अपमान और प्रतिकार के लिए युद्ध या विद्रोह कुछ भी होसकता है। अगर विदेशी यह जानते हैं कि ये हिन्दू धर्म के देवी देवता या पूज्य हैं तो फिर उनका प्रयोग क्या प्रदर्शितकरता है? बिकनी या जूते पर जीसस कि तस्वीर क्यों नहीं लगाई गयी? सिर्फ इस लिए कि वे किसी धर्म के लिएपूज्य पुरुष हैं। फिर दूसरे कि भावनाओं को आहत करने के लिए ऐसा काम क्यों किया गया? क्या सिर्फ माफी मांगलेने से हम उनको माफ कर पायेंगे? शायद नहीं। ये तमाशा धर्म ग्रंथों के लिए भी होता रहा है। लेकिन किसी कासार्वजनिक तौर पर अपमान करने के बाद उससे माफी मांग ली जाय तो अपराध क्षम्य हो जाता है। आस्था एकऐसी भावना है कि जिसके लिए अगर कोई आहत करे तो फिर कम से कम मैं तो क्षमा नहीं कर सकती । जिन देवीदेवताओं को हम सर नवाते हैं उनको जूतों में बना कर बनाने वाले क्या प्रदर्शित करना चाहते हैं? व्यापार के लिएइन सब को भी प्रचार तंत्र का हिस्सा बना लिया जाय। बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा? ऐसे मामले को विश्वपटल पर उठना जरूरी है ताकि भविष्य में आस्था को इतने अश्लील तरीके से कोई प्रयोग न कर सके।
बुधवार, 11 मई 2011
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आपका कहना सही है और इसी से जुडे एक विषय पर अभी मैने एक लेख लिखा है जब ब्लोग पर लगाऊंगी तब देखना कि हम लोग भी तो कम नही है तभी तो दूसरे हमारा फ़ायदा उठाते हैं……………कल शायद वो आलेख फ़ेसबुक पर लगाऊंगी तब देखियेगा।
जवाब देंहटाएंक्षमा करें रेखा जी। मेरा अनुरोध है कि आप इस मुद्दे की चर्चा अवश्य करें,पर कम से कम अपने ब्लाग से तो इन चित्रों को हटा दें। चित्रों को देकर हम उसका प्रचार ही कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंनिश्चित ही विरोध दर्ज किया जाना चाहिये...
जवाब देंहटाएंराजेश जी की बात से सहमत। मुझे कई बार लगता है कि कुछ लोग भारत की चाशनी लेते हैं कि अभी तक इनमें कितना स्वाभिमान बचा हुआ है। जब विरोध होता है तब माफी मांग लेते हैं, फिर ऐसी हरकत कर देते हैं। इनका जिसदिन पुरजोर विरोध होगा, उस दिन से सारी दुनिया में ऐसे कारनामे बन्द हो जाएंगे। लेकिन हम स्वयं ही अपनी आस्थाओं पर वार करते हैं तब क्या करें?
जवाब देंहटाएंमैं चित्रों को लगा नहीं रही थी लेकिन पढ़ने वाले के लिए चित्र से ही पता चलेगा कि हम कितने लज्जित किये जा रहे हैं.
जवाब देंहटाएंवैसे आप कहते हैं तो हटाये देती हूँ.
राजेश जी की बात से सहमत।
जवाब देंहटाएंआदरणीया रेखा जी आपकी बात सच होते हुए भी हमारा रबैया ढुलमुल ही है | जबकि जोरदार विरोध दर्ज कराना चाहिए | वैसे इस तरह के कार्य प्रचार का माध्यम भी है |
जवाब देंहटाएंहद तो है ही....जब अपने देश का चित्रकार हिंदू देवियों के नग्न चित्र बनाता है और हम उसे आर्ट कहते हैं तो विदेशियों से क्या उम्मीद.
जवाब देंहटाएंदेशी बनाए या विदेशी ,
जवाब देंहटाएंग़ैर-हिंदू बनाए या फिर ख़ुद हिंदू
अपमानित करने के लिए बनाए या फिर सम्मानित करने के लिए या फिर व्यापार के लिए
जो भी महापुरूषों और महानारियों के नग्न चित्र बनाए उसका विरोध भी किया जाए और उसे सज़ा भी दिलाई जाए ।
एक रोज़ मैंने बरसात के दिनों में घर में दाख़िल होने से पहले जूते साफ़ करने के लिए दहलीज़ पर डाले गए कट्टे पर अचानक नज़र डाली तो उस पर मुझे गणेश जी का चित्र नज़र आया , आस्था और विचार के अंतर के बावजूद मैंने उसे उठाकर एक तरफ़ रख दिया लेकिन तब तक दसियों लोग उस पर अपने जूते रगड़ चुके थे।
ऐसे ही मैंने देखा है लोगों को ट्रेन में अपने बच्चों के टट्टी पेशाब पर अख़बार डालते हुए , अख़बार बिछाकर प्लेटफ़ॉर्म पर सोते हुए बल्कि प्लेट पर अख़बार के टुकड़े पर बिरयानी से लेकर पपीता तक बेचते-खाते भी देखे जा सकते हैं । उन सबमें देवी-देवताओं के चित्र बने होते हैं।
इसी तरह धूप बत्ती , अगर बत्ती और कैलेंडर्स आदि पर भी देवी देवताओं के चित्र बने हुए होते हैं और वे श्रद्धालुओं द्वारा ही कूड़े पर डाल दिए जाते हैं ।
यह कितना और क्यों उचित है ?
आप भारत का मसला हल कर लीजिए , सारे विश्व तक इसका असर पहुंचेगा ।
जरूरत आज इस बात की है कि समस्या पर व्यापक रूप से सोचा जाए और फिर उसका कोई हल निकाला जाए।
देशी बनाए या विदेशी ,
जवाब देंहटाएंग़ैर-हिंदू बनाए या फिर ख़ुद हिंदू
अपमानित करने के लिए बनाए या फिर सम्मानित करने के लिए या फिर व्यापार के लिए
जो भी महापुरूषों और महानारियों के नग्न चित्र बनाए उसका विरोध भी किया जाए और उसे सज़ा भी दिलाई जाए ।
एक रोज़ मैंने बरसात के दिनों में घर में दाख़िल होने से पहले जूते साफ़ करने के लिए दहलीज़ पर डाले गए कट्टे पर अचानक नज़र डाली तो उस पर मुझे गणेश जी का चित्र नज़र आया , आस्था और विचार के अंतर के बावजूद मैंने उसे उठाकर एक तरफ़ रख दिया लेकिन तब तक दसियों लोग उस पर अपने जूते रगड़ चुके थे।
ऐसे ही मैंने देखा है लोगों को ट्रेन में अपने बच्चों के टट्टी पेशाब पर अख़बार डालते हुए , अख़बार बिछाकर प्लेटफ़ॉर्म पर सोते हुए बल्कि प्लेट पर अख़बार के टुकड़े पर बिरयानी से लेकर पपीता तक बेचते-खाते भी देखे जा सकते हैं । उन सबमें देवी-देवताओं के चित्र बने होते हैं।
इसी तरह धूप बत्ती , अगर बत्ती और कैलेंडर्स आदि पर भी देवी देवताओं के चित्र बने हुए होते हैं और वे श्रद्धालुओं द्वारा ही कूड़े पर डाल दिए जाते हैं ।
यह कितना और क्यों उचित है ?
आप भारत का मसला हल कर लीजिए , सारे विश्व तक इसका असर पहुंचेगा ।
जरूरत आज इस बात की है कि समस्या पर व्यापक रूप से सोचा जाए और फिर उसका कोई हल निकाला जाए।
देशी बनाए या विदेशी ,
जवाब देंहटाएंग़ैर-हिंदू बनाए या फिर ख़ुद हिंदू
अपमानित करने के लिए बनाए या फिर सम्मानित करने के लिए या फिर व्यापार के लिए
जो भी महापुरूषों और महानारियों के नग्न चित्र बनाए उसका विरोध भी किया जाए और उसे सज़ा भी दिलाई जाए ।
एक रोज़ मैंने बरसात के दिनों में घर में दाख़िल होने से पहले जूते साफ़ करने के लिए दहलीज़ पर डाले गए कट्टे पर अचानक नज़र डाली तो उस पर मुझे गणेश जी का चित्र नज़र आया , आस्था और विचार के अंतर के बावजूद मैंने उसे उठाकर एक तरफ़ रख दिया लेकिन तब तक दसियों लोग उस पर अपने जूते रगड़ चुके थे।
ऐसे ही मैंने देखा है लोगों को ट्रेन में अपने बच्चों के टट्टी पेशाब पर अख़बार डालते हुए , अख़बार बिछाकर प्लेटफ़ॉर्म पर सोते हुए बल्कि प्लेट पर अख़बार के टुकड़े पर बिरयानी से लेकर पपीता तक बेचते-खाते भी देखे जा सकते हैं । उन सबमें देवी-देवताओं के चित्र बने होते हैं।
इसी तरह धूप बत्ती , अगर बत्ती और कैलेंडर्स आदि पर भी देवी देवताओं के चित्र बने हुए होते हैं और वे श्रद्धालुओं द्वारा ही कूड़े पर डाल दिए जाते हैं ।
यह कितना और क्यों उचित है ?
आप भारत का मसला हल कर लीजिए , सारे विश्व तक इसका असर पहुंचेगा ।
जरूरत आज इस बात की है कि समस्या पर व्यापक रूप से सोचा जाए और फिर उसका कोई हल निकाला जाए।
सरकारों को प्रयास करना होगा।
जवाब देंहटाएंरेखा श्रीवास्तव जी एशियन लोग धर्म के मामले मे कुछ ज्यादा ही नाजूक हे, मै इन लोगो की तरफ़ दारी नही कर रहा, बाल्कि इन के बारे बता रहा हुं, यह बाईविल के ऊपर भी बेठ जाते हे, उस पर पेर भी रख लेते हे, उसे कुडे मे भी फ़ेंक देते हे, लेकिन भारत मे नये बने ईसाई भी यह सब नही करते, दुसरा यहां जो भी कपडे बन कर आते हे, वो भारत, पाकिस्तान या फ़िर बंगला देश से आता हे, ओर यह सब काम करते तो हमारे ही लोग हे, जो पर्दे के पीछे हे, कभी सोचे कि इन को यह चित्र कहां से मिलते हे? मैने भी १५,२० साल कपडे का काम किया हे इस कारण मै जानता हुं.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सार्थक लेखन.... विचारोत्तेजक आलेख,
जवाब देंहटाएंहद तो है ही.... ग्लोबल सांस्कृतिक गिरावट का दौर है....
किसी भी देश अथवा धर्म के देवताओं अथवा महापुरुषों का इस इस प्रकार अपमान भर्त्सनीय है...वही हमें भी ध्यान रखना चाहिए कि हम अपने धार्मिक प्रतीकों को दुर्लभ बनायें ...अखबारों , पत्रिकाओं और विक्रय की विभिन्न वस्तुओं पर इनके चित्र अंकित ना करें !
जवाब देंहटाएंhttp://vanigyan.blogspot.com/2010_07_18_archive.html
सार्थक और सटीक लेख ....ध्यान देना ज़रूरी
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