अजित गुप्ता :
गर्मियों की छुट्टियों में बचपन के वे दिन
गर्मियों की छुट्टियों का किसे इंतजार नहीं होता? हमें भी होता था। मेरा बचपन जयपुर में बीता। जयपुर में एक मन्दिर परिसर में घर था जहाँ केवल दस-बारह ही परिवार रहते थे। बड़ा सारा मोगरे का बगीचा था, परिसर के चारों तरफ शहतूत के पेड़ लगे थे। हमारे घर के बाहर एक खिरनी का पेड़ था, जिसमें बहुत कम खिरनी लगती थी, लेकिन लगती थी। एक तरफ के खाली मैदान को हमने खेल मैदान बना रखा था। जिसमें क्रिकेट, बेडमिन्टन और रिंग खेली जाती थी। हमारे परिसर के सारे ही परिवार सुबह के खाने से दस बजे तक फारिग हो जाते थे। क्योंकि हमारे परिवार को छोड़कर सभी व्यवसायी थे। जैसे ही पुरुष घर से बाहर और सारे ही बच्चे और महिलाएं हमारे पड़ोस के घर में एकत्र हो जाते थे। कभी ताश का दौर चलता तो कभी चौपड़ का। कभी केरमबोर्ड भी आ जाता। बीस-पच्चीस लोगों का हुजूम सारा दिन धमाचौकड़ी करता। कोई ताश खेल रहा होता तो कोई चौपड़। चौपड़ जब बिछती तो सारा हुजूम ही वहाँ उमड़ता और पासे कितने आएंगे और किस गोटी को कूटना है, बस इसी का शोर रहता। केरमबोर्ड में भी रानी किसकी होगी, इसके लिए खूब तमाशा होता।
शाम होने को आती तो महिलाएं रसोई में चले जाती और हम बच्चे या किशोर निकल पड़ते क्रिकेट खेलने। मैदान तो खूब बड़ा था ही। कभी हमारे साथ बड़े भी आ जुटते तो खेल में परिवर्तन भी हो जाता। क्रिकेट से बेडमिन्टन और रिंग पर आ जाते। लेकिन यह दौर चलता लगभग सूरज के अस्त होने तक। हम सब जैन परिवार थे तो सभी सूर्यास्त से पूर्व भोजन करते, इसलिए प्रत्येक घर से आवाजे आने लगती कि अब खेल बन्द करो, नहीं तो खाना नहीं मिलेगा। जैसे-तैसे सूर्यास्त से पूर्व भोजन करते और फिर निकल पड़ते सैर करने। इस बार हमारी मित्रमंडली ही साथ होती। हम लोग जहाँ रहते थे वहाँ रेत के बड़े-बड़े टीले थे। बस जाकर जम जाते किसी एक टीले पर। धीरे-धीरे हमने बड़ों को भी चश्का लगा दिया और वे हमारे साथ आने लगे। हमारा काम और आसान हो गया, अब हमें घर आने की जल्दी नहीं थी। रात नौ बजे तक हम टीलों पर ही फिसलते रहते। कबड्डी खेलते रहते। जयपुर में हमारा घर शहर के परकोटे के बाहर था, हम रेत के टीलों की ओर जाते और कुछ भी बोलते तो परकोटे की दीवार से प्रतिध्वनी लौटकर आती। हम छोटे बच्चों को खूब डराते। आवाज लगाते कि इस पीपल के पेड़ पर भूत रहता है। प्रतिध्वनी आती कि रहता है, रहता है।
रात को लौटने के बाद भी हम घर नहीं जाते, मोगरे के बगीचे के पास ही एक कुआँ था और बगीचे को पानी देने के लिए एक हौज बना रखा था, बस हमारी सहेली मण्डली वहीं जमती। जब हौज में पानी होता तो उसमें डुबकी भी लगा लेते। जब रात अधिक हो जाती तब लगता कि अब घर जाने पर डाँट अवश्य पड़ेगी। लेकिन हम चुपचाप से अपनी खटिया पर बिस्तर डालकर सो जाते। हमारे यहाँ छत नहीं थी तो घर के बाहर खटिया डालकर ही सोते थे। पास-पास दो घर थे तो पास-पास ही खटिया लगी होती। काफी देर तक भी खुसुर-पुसर चलती रहती, इस डर से बेपरवाह कि यदि पिताजी जग गए तो डण्डे पड़ेगे। बोरियत क्या होती है इस शब्द का जीवन में अता-पता ही नहीं था। कभी शाम को मन्दिर भी चले जाते और खूब आरती और भजन गाकर भगवान को भी प्रसन्न करने का प्रयास कर लेते। हमारे पास काम ज्यादा थे और समय कम। स्कूल से होमवर्क भी मिलता था लेकिन हमने शायद ही कभी किया हो। एक बात और, सुबह को पिताजी जल्दी ही जगा देते। हमारे घर के पास गलता जी नामक तीर्थ है। बस रोज सुबह ही पिताजी के साथ वहाँ पैदल जाते। पहले चढ़ाई फिर ढलान और तब जाकर पानी का बड़ा कुण्ड। वहाँ खूब नहाते। लेकिन मैंने तैरना नहीं सीखा, सारे ही भाई-बहनों ने सीखा लेकिन मैं इस मामले में डरपोक निकली। पिताजी अक्सर गलता जी से भी बहुत आगे तक हमें ले जाते लेकिन इससे हमारी दिनचर्या में कोई अन्तर नहीं आता। अब क्या कोई किशोर ऐसी छुट्टियां व्यतीत करता है, जो हम करते थे? यह तो दिनचर्या है गर्मी के दिन की लेकिन जब बरसात आ जाती थी तब रेत के धोरों में खेलने का आनन्द ही कुछ और था। लेकिन वो फिर और कभी।
वंदना गुप्ता :
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन........
दिन में हम सभी ज्यादातर ताश खेलते या लूडो ........ताश में भी पत्तादाब या सीप और उसमे भी अपने अपने पार्टनर पहले बना लेते थे. सब पहले से सेट करके रखते यहाँ तक कि इशारे भी सेट होते थे ताकि हार ना जाएँ ...........और फिर उसमे लड़ाइयों का आलम तो पूछिए ही मत........रोज लड़ना झगड़ना और मेरी मम्मी के पास सबका आना और फिर उनका सुलह करवाना...........तब वो भी खेल में शामिल हो जाती थीं मगर मेरी मम्मी बहुत सीधी थीं या जानबूझकर हम से हार जाती थीं मगर हम बच्चे बहुत खुश हुआ करते थे . और जो हमसे छोटे बच्चे थे वो हमारे साथ खेलने को झगड़ते थे ........ये यादें ऐसी हैं कि आज भी जब हम सब मिलते हैं तो याद करते हैं.........एक ताश में गेम होता था लाद ........उसे खेलने के लिए कई बार हम १५ -१५ लोग होते और पत्ते ३-४ ही हाथ में आते थे और शोर ऐसा कि क्या बताएं उस पर बड़ों की डांट पड़ती सो अलग ...........इन सभी खेलों में हमारे साथ हमारे बड़े भाई भी शामिल हो जाते थे तब अलग ही बात होती थी खेल की.........यहाँ तक कि रात के १ बज जाते मगर किसे होश ? और तब मेरे बाऊ जी सबको डांट लगाते सोना नहीं है क्या और हम सब चुपचाप जाकर सोने की कोशिश करते .........उन दिनों छतों पर सोया करते थे और छत पर सोने का अपना ही मज़ा होता था ..........शाम को ही छतों पर पानी डाल आया करते थे ताकि ठंडी हो जायें और फिर हम सब बिस्तर लगाकर घंटों मस्ती मारा करते .........कभी वो सब अपने स्कूल की बातें सुनाते तो कभी भूत प्रेतों की बात करते और फिर सब डरते........एक अलग ही समा था जो अब लौटकर नहीं आने वाला........
उन्ही दिनों १९८३ में जब इंडिया ने वर्ल्ड कप जीता था तो हम सब एक साथ थे और घर में रात को देर तक टीवी देखने में पाबन्दी थी मगर हम जब तो ठहरे जुनूनी .......जब तक तो देख सकते थे टीवी पर देखा और जब हमें बड़ों का हुक्म आ गया कि सो जाओ तो चुपचाप जाकर सोने की एक्टिंग की और थोड़ी देर में ही बराबर के पडोसी की खिड़की हमारी खिड़की के सामने पड़ती थी और वहाँ टीवी लगा हुआ था तो हम सबने अपनी खिड़की से आखिर का मैच देखा और उसमे भी सबके टशन थे कि जैसे ही कोई हिलता और कोई आउट होता तो उसे कह देते कि अब हिलना मत वरना आउट हो जायेगा........ना जाने कैसे कैसे अन्धविश्वास पाल लिए थे उस पल हम सभी ने .........मगर जब इंडिया जीता तो ख़ुशी की सीमा नहीं थी और हम सबने उसे बहुत एन्जॉय किया ...........वो भी कुछ ऐसे लम्हात थे जहाँ बहुत बेफिक्री थी ........कोई चिंता नहीं बस सारा दिन सारे घर में कभी धूप में तो कभी छाँव में धमाचौकड़ी मचाना और शाम को छत पर पतंग उडाना ......बेशक मुझे नहीं आती थी मगर मेरे भांजे तो थे ना वो सब उड़ाते और हम सब उनकी हेल्प करते ..........अब तो सिर्फ यादें हैं और कई बार कहती हैं ..........कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन.
वंदना अवस्थी दुबे :
मैं मूढमति .
छुट्टियों के नाम पर मुझे वो छुट्टियाँ भुलाए नहीं भूलतीं, जब हम गर्मियों की छुट्टी में अपने पुश्तैनी गाँव जाया करते थे. ये अलग बात है कि उस वक्त मैं बहुत छोटी थी, और मेरा हर काम दीदियों का मोहताज हुआ करता था. उनके खेलों में मैं किसी प्रकार कच्ची लोई मान के शामिल कर ली जाती थी, और तमाम खेलों में मेरी सहभागिता केवल उन सब के पीछे-पीछे दौड़ने तक ही सीमित थी. मेरी खूब सारी दीदियाँ मिल के गुडिया की शादी करतीं, और मुझे ढोल बजाने का काम सौंप , खेल की मुख्य धारा से अलग कर देतीं
( ये बाद में समझ में आया). और मैं मूर्खमति, मिटटी के मटके के मुंह पर कागज़ चिपका के बनाए गए ढोल को पीटती, एक तरफ बैठी खुद को अति महत्वपूर्ण समझती. ऐसी ही बहुत सारी यादें हैं, लेकिन यहाँ लिखूंगी, तो पूरी पोस्ट ही बन जायेगी :) अभी इतना ही बाकी फिर कभी. ठीक है न?
(सफर अभी जारी रहेगा)
बड़ी हो रोचक श्रंखला।
जवाब देंहटाएंलगता है बचपन में सबने ही बहुत मस्ती कि है ...ऐसी छुट्टियाँ आज कल कहाँ ?
जवाब देंहटाएंअजीत जी ने तो मुझे भी याद दिला दिया चौपड़ का खेल ... सबसे ज्यादा मज़ा आता था जब गोटियों को बावली किया जाता था :)
संगीता जी चौपड़ का खेल है ही बहुत मजेदार। अब तो बरसों हो गए और लगभग भूल ही गए हैं। शायद हम सभी का बचपन एक जैसा ही था, लेकिन आजका बचपन हम से बहुत भिन्न है। हम कभी बोर नहीं होते थे, यह शब्द जानते भी नहीं थे और आज बच्चे बात-बात में बोर होते हैं। रेखा जी को धन्यवाद जो इतनी अच्छी श्रृंखला प्रारम्भ की है।
जवाब देंहटाएंमजेदार संस्मरण.घर के अंदर बैठकर सबके साथ खेलने का मजा ही कुछ और है.
जवाब देंहटाएंबहुत मजा आ रहा है सबकी यादों के सफर में साथ चल कर.
इसका श्रेय रेखा जी को जाता है जिन्होने एक बार फिर यादों की पगडण्डी पर दौडा दिया और कुछ पलों के लिये बचपन लौटा दिया।
जवाब देंहटाएंबहुत मजा आ रहा है सबकी यादों के सफर में साथ चल कर.
जवाब देंहटाएंयह श्रृंखला बड़ा ही रिफ़्रेशिंग लग रहा है। मुजे भी लिखना है, पर ...!
जवाब देंहटाएंअरे अरे आधी से ज्यादा बाते तो हमारे बचपन से मिलती जुलती हे... बहुत सुंदर जी, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसभीके बचपन के संस्मारंकमोबेश एक जैसे ही लगते हैं शायद इसलिए कि हंसी खुशी, उल्लास और मौज मस्ती की शक्ल एक सी होती है ! और बचपन को इससे अलग कर देखा ही नहीं जा सकता ! सभीके बहुत ही दिलचस्प और शानदार संस्मरण हैं ! पढ़ कर बहुत ही आनंद आ रहा है !
जवाब देंहटाएंबचपन हर गम से बेगाना होता है..
जवाब देंहटाएंकोई किसी से कम नहीं दिख रहा है जी यहाँ तो ...बहुत रोचक...
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