ये यादें धरोहर हैं हर इंसान की और जिसने जैसे अपनी धरोहर सहेजी और मुझे सौंप दी उसको मैंने भी उसीतरीके से प्रस्तुत की है। राजीव कुमार जी की यादें एक कविता और संस्मरण के साथ प्रस्तुत हैं:
राजीव कुमार :
गर्मी की छुट्टियाँ
गर्मी की छुट्टियाँ
(सफर आगे जारी रहेगा)
राजीव कुमार :
गर्मी की छुट्टियाँ
"छुट्टी जब-जब आती
गाँव हमें ले जाती है ,
ताल-तलैये,बाग-बगीचे,
खेतों की सैर कराती है,
जामुन,कटहल,आम,पपीता
हमको रोज चखाती है,
किसका है यह,
कौन है मालिक,
कभी नहीं बतलाती है.
मिलवाती है सबसे सबको,
सबमें मेल कराती है,
सबको साथ बिठाती है,
मन के भेद मिटाती है.
सबका प्यार हमें दिलवाती,
स्नेहपात्र का बनाती है.
छुट्टी जब-जब आती है,
गाँव हमें ले जाती है.
आती है हर साल छुट्टियाँ
ढ़ेरों खुशियों लाती हैं
चाक दिखाती है कुम्हार का .
सृजनहार दिखलाती है,
बातों-बातों में हमसबको ,
सृजन-सार समझाती है.
ले जाती है घर लोहार के,
जीवन गढ़ना सिखलाती है.
सुख में,दुःख में साथ रहे सब
यही संदेशा लाती है
छोटे हों या बड़े सभी को
यह इंसान बनाती है.
सुख में,दुःख में साथ रहे सब
यही संदेशा लाती है
छोटे हों या बड़े सभी को
यह इंसान बनाती है.
छुट्टी जब-जब आती
गाँव हमें ले जाती है .
छुट्टियाँ नहीं देती अवसर बस आराम करने का , देती है अवसर हमें जाने का गाँव जहाँ आज भी बसता है हमारा सारा कुटुंब,जहाँ प्रकृति होती है सदा सबके पास,सबके साथ .यह देती है अवसर अपनों के अपनों के पास जाने का,रिश्तों की नींव मजबूत बनाने का.गर्मी की छुट्टियाँ इस लिहाज से काफी महत्वपूर्ण होती हैं क्योंकि बच्चों को महीने-भर की छुट्टी होती है जिसमें बच्चा सपरिवार अपने गाँव जा सकता है.
मैं बचपन से ही मैं मां-पिताजी के पास मुजफ्फरपुर शहर में रहा जो अपनी रसीली लीचियों के लिए मशहूर है . यह छोटा सा मगर बेहद ख़ूबसूरत शहर है. हमारे समय में स्कूल दो पालियों में चला करता था -जाड़े में 10 से 4 और गर्मियों में 7 से 1. बजे तक.लेकिन मई के महीने का मध्य आते-आते गर्मी की छुट्टियाँ पड़ जाती थी . हमें बेसब्री से इसका इंतजार रहता था.ख़ुशी इस बात से चौगुनी हो जाती थी कि हम सपरिवार घर जाते थे-माँ-बाबूजी और तीनों भाई.
जैसे -जैसे गर्मियों की छुट्टियाँ करीब आती जाती हमारे दिल की धड़कनें तेज होने लगती थी,जाने वाले दिन का इन्तजार ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता था. दिल के किसी कोने में अपने गाँव की तस्वीर पहले से ही सी उभरने लगती.पहले थोड़ी धुंधली जरूर होती थी,लेकिन जिस दिन हमारी यात्रा आरम्भ होती,गाडी मैं बैठते-बैठते सबकुछ साफ-साफ दिखने लगता था: एक-एक चीज मानचित्र की तरह नज़रों के सामने तैरने लगता थी .
मई 1971 की बात है.उन दिनों मुजफ्फरपुर से भागलपुर तक के लिए कोई सीधी ट्रेन नहीं चला करती थी.इसलिए हमें बरौनी जंक्शन तक पैसेंजर ट्रेन से और वहां से "धुलयान" नाम की दूसरी पैसेंजर ट्रेन से सुल्तानगंज तक का सफ़र पूरा करना पड़ता था.मुजफ्फरपुर से ट्रेन 8 बजे रात में खुलती थी और सुबह 4 बजे बरौनी पहुंचाती थी. तब ट्रेनों में खुली खिड़कियाँ हुआ करती थी, लोहे की छडें नहीं लगी होती थी जिसका एक फायदा यह था कि भीड़-भाड़ होने कि स्थिति में बाबूजी हमें (तीनों भाई को) खिड़की के रास्ते भीतर घुसा देते थे और वो दोनों भी किसी तरह भीतर आ जाते थे.
यात्रा वाले दिन दोपहर से ही मां रसोई में खाना बना रही थी:कुछ रास्ते का खाना और कुछ पकवान घर के लिए. मेरे भीतर एक अजीब सी बैचैनी घर कर गई थी . ठीक 6 बजे मैं बाबूजी के साथ खादी भंडार कैम्पस के बाहर से दो रिक्शा ले आया . उसपर सारा सामान रखा और स्टेशन की ओर चल पड़े जो खादी भंडार से तकरीबन तीन-साढ़े तीन किलोमीटर की दूरी पर था.स्टेशन पर गाड़ी लगी रहती थी.हम सपरिवार गाड़ी में बैठ गए और उसके चलने की प्रतीक्षा करने लगे.उस दिन किन्ही अपरिहार्य कारणों से गाड़ी 8 बजे की जगह 12 बजे रात में खुली.मन की रफ़्तार गाड़ी की रफ़्तार से होड़ कर रही थी.या यों कहें गाड़ी के स्टेशन पहुँचाने से पहले ही वहां पहुंच जाता.ऐसा रास्ते भर होता रहा.खिड़की वाली सीट पर बैठने के लिये भी हम तीनों भाइयों के बीच खींच-तान हो रही थी जिसे मां ने बीच में पड़कर किसी तरह निपटाया. मैं बड़ा था सो मुझे ही त्याग करना पड़ा.उस दिन गाडी दस बजे के करीब बरौनी जंक्शन पर पहुंची तो हम सब अपना सामान लेकर भागलपुर जानेवाली गाड़ी में सवार हो गए यह गाड़ी मुजफ्फरपुर वाली पैसंजर ट्रेन का मेल लेकर ही जाती थी,ऐसा लोग कहते थे. भागलपुर वाली ट्रेन 12 बजे वहां से खुली . मई माह का तपता सूरज आसमान पर चढ़ आया था.लू के थपेड़े चलने लगे थे.लेकिन दिन के उजाले में चलती गाड़ी से बाहर का नजारा अद्भुत था.बाहर गाडी के साथ-साथ पेड़-पौधे भी तेजी से चलते,ट्रेन कि रफ़्तार से होड़ लेते नजर आ रहे थे.
जब हम सुल्तानगंज पहुंचे तो शाम के छः बज चुके थे और .जब हम स्टेशन पर उतरे तो सबकुछ जाना पहचाना सा ही लगा-प्लेटफार्म पार करनेवाला पुल,स्टेशन मास्टर का कमरा और चिर-परिचित टिकट खिड़की . अब हम स्टेशन से बाहर निकल आये क्योंकि अब हमें बाहर स्थित सरकारी बस अड्डे से घर जाने के लिए बस जो लेनी थी.मां ने दोनों भाई का हाथ पकड़ा,मैं और बाबूजी सामान उठाकर बस स्टैंड पर आ गए. संयोग से भागलपुर-देवघर बस उसी समय आकर खड़ी हुई थी.टिकट लेकर हम सभी बस में सवार हो गए.कुछ ही देर में बस सवारियों को लेकर अपने गंतव्य की ओर चल पड़ी.जब हम रामपुर पंचायत भवन (जो कम्युनिटी हालके नाम से इलाके में प्रसिद्ध था) पहुंचे तो रात के 8 बज चुके थे. बस ने हमें वहीँ उतार दिया . आसमान में चाँद निकल आया था.वहां से पैदल करीब एक किलोमीटर खेतों के बीच से चलकर जाना पड़ता है, बीच में पड़ने वाले नहर को पार करके गाँव पहुंचा जाता है.रात में चलने के नाम से ही मेरी कंपकपी छूटने लगती है क्योंकि मुझे भूतों से बहुत डर लगता है.लेकिन बाबूजी का निडर और साहसी स्वभाव काफी सम्बलकारी था. उसपर घर जाने,अपनों से मिलने का उत्साह . हम चाँद के साये तले बाबूजी से सटे-सटे चलते रहे,मां और दोनों भाई साथ-साथ थे.घर से नहर की दूरी लगभग आधा किलोमीटर है.जब नहर के करीब पहुंचे तो हमें तेज बहते पानी का और डरावना स्वर सुनाई दिया दिया .साथ ही कुछ लोग नहर पर खड़े दिखाई दिए.डर के मारे मेरी तो घिघ्घी बांध गई,लेकिन पिताजी ने निर्भीक होकर पूछा तो पता चला छोटे चाचाजी और गाँव के भैया थे जो हमें लेने आये थे.
जब हमने आँगन में प्रवेश किया तो हमारी आँखें सबसे पहले दादाजी और मामा(हमारे यहाँ दादी को इसी नाम से बुलाते हैं ).दादाजी आँगन में खाट बिछा कर लेटे हुए थे .हमारे आने की खबर पाकर वे उठकर बैठ गए थे,मामा भी उनके पास ही बैठी थी.हम सभी ने दादाजी और मामा के पाँव छूकर आशीर्वाद लिया . अबतक पूरे आँगन में हमारे आने की खबर आग की तरह फ़ैल गई थी.सभी चाचा,चाची,बुआ और चचेरे भाई-बहन आँगन में आ जुटे.हम तीनों भाइयों ने अपने से बड़े सभी लोगों के पाँव छूकर आशीष लिया .मां घर के भीतर चली गई थी जहाँ घर की सभी महिलाएं उनसे मिलने पहुँच गई थी.सबसे मिलना कितना सुखद था बयां कर पाना बहुत मुश्किल था.गाँव में आज भी लोग जल्दी सो जाते हैं.लेकिन घर में सभी हमारा इन्तजार कर रहे थे.
रात को मैं दादाजी के साथ आँगन मैं ही सो गया.लेकिन आँखों से नींद कोसों दूर थी.मन
की अपनी गति थी.कल्पना मुझे अपने दोस्तों से मिलवा रही थी.आम के बागों की सैर करा रही थी.मैं तो सुबह के इन्तजार में बैचेन था.कब सुबह होगी और साल-भर बाद अपने दोस्तों के साथ मस्ती करूँगा.नदी किनारे जाऊंगा,बाग़-बगीचे की सैर करूँगा. मुंह अँधेरे जैसे ही दादाजी खेतों में जाने के लिए उठे वैसे ही मेरी भी आँख खुल गई. सुबह-सुबह मैं अपने दोस्तों को ढूंढ़ने निकल पड़ा.जैसे-जैसे उन्हें मेरे आने की खबर लगी,सब मेरे पास आ गए.सबसे पहले मैं दोस्तों के साथ नदी (बडुआ नदी) के किनारे सैर करने गया जहाँ गाँव के लोग नित्यक्रिया के लिए जाया करते थे. यह नदी घर से मुश्किल से 100 मीटर की दूरी पर है.
जब हमने आँगन में प्रवेश किया तो हमारी आँखें सबसे पहले दादाजी और मामा(हमारे यहाँ दादी को इसी नाम से बुलाते हैं ).दादाजी आँगन में खाट बिछा कर लेटे हुए थे .हमारे आने की खबर पाकर वे उठकर बैठ गए थे,मामा भी उनके पास ही बैठी थी.हम सभी ने दादाजी और मामा के पाँव छूकर आशीर्वाद लिया . अबतक पूरे आँगन में हमारे आने की खबर आग की तरह फ़ैल गई थी.सभी चाचा,चाची,बुआ और चचेरे भाई-बहन आँगन में आ जुटे.हम तीनों भाइयों ने अपने से बड़े सभी लोगों के पाँव छूकर आशीष लिया .मां घर के भीतर चली गई थी जहाँ घर की सभी महिलाएं उनसे मिलने पहुँच गई थी.सबसे मिलना कितना सुखद था बयां कर पाना बहुत मुश्किल था.गाँव में आज भी लोग जल्दी सो जाते हैं.लेकिन घर में सभी हमारा इन्तजार कर रहे थे.
रात को मैं दादाजी के साथ आँगन मैं ही सो गया.लेकिन आँखों से नींद कोसों दूर थी.मन
की अपनी गति थी.कल्पना मुझे अपने दोस्तों से मिलवा रही थी.आम के बागों की सैर करा रही थी.मैं तो सुबह के इन्तजार में बैचेन था.कब सुबह होगी और साल-भर बाद अपने दोस्तों के साथ मस्ती करूँगा.नदी किनारे जाऊंगा,बाग़-बगीचे की सैर करूँगा. मुंह अँधेरे जैसे ही दादाजी खेतों में जाने के लिए उठे वैसे ही मेरी भी आँख खुल गई. सुबह-सुबह मैं अपने दोस्तों को ढूंढ़ने निकल पड़ा.जैसे-जैसे उन्हें मेरे आने की खबर लगी,सब मेरे पास आ गए.सबसे पहले मैं दोस्तों के साथ नदी (बडुआ नदी) के किनारे सैर करने गया जहाँ गाँव के लोग नित्यक्रिया के लिए जाया करते थे. यह नदी घर से मुश्किल से 100 मीटर की दूरी पर है.
कुछ भी तो नहीं बदला था सालभर में.नदी किनारे का बरगद का विशाल बूढा पेड़ जो न जाने कितनी पीढ़ियों का साक्षी रहा है.उसके नीचे गाँव भर के जानवर जेठ की दोपहरी में सुस्ताते थे.गाँव के ढ़ेरों लोग भी वहां खाट लगाकर,गमछा बिछाकर बैठा करते थे.कोई ताश खेलता तो कोई अपनी आप-बीती सुना रहा होता. किसी को किसी से परेशानी नहीं थी.लेकिन हमारा लक्ष्य होता था उस कृशकाय बरसाती नदी की बीचो-बीच बहती पतली सी धारा में नहाना क्योंकि उसमें डूबने का खतरा जरा भी नहीं था.दादाजी बताते थे कि कभी यह नदी अपने तूफानी बहाव के लिए जानी जाती थी. एकबार 1960 में तो इसने अपना किनारा तोड़कर आसपास के गाँव में भारी तबाही भी मचाई थी.चारो तरफ बालू ही बालू भर दिया था.लेकन इंसानों की जिजीविषा भी कहाँ हार मानती है.सालों लगे लेकिन गांववालों ने बालू को टीले के रूप में जामा कर-कर के खेतों को आजाद किया,खेती योग्य बनाया.लेकिन उसके बाद ही उसकी और उस जैसी ढ़ेरों नदियों की जवानी और रवानी विकास की बलि चढ़ गई.हनुमना डैम बनाकर सदा के लिए उसके पर क़तर दिए गए.अब तो वह किसी क्षय-रोगी की तरह कृशकाय नजर आती है.लेकिन उतने पानी में उलट-पलट कर नहाने में जो स्नेह और आनंद मिला वह अनिर्वचनीय था.लगा जैसे उसने हमें अपनी गोद में भर रखा हो.उसके अंक से बाहर आने का जी ही नहीं करता था.आता भी नहीं यदि चचाजी बुलाने न आ जाते.
जैसे ही सूरज मध्य आकाश से थोड़ा पश्चिम की ओर ढला,दादाजी और बड़ों की सलाह को ठेंगा दिखाते हुए हमलोग छुपते-छुपाते घर के पिछवाड़े से होकर आम के बगीचे की ओर भाग गए.वहाँ मैं
मुग्ध होकर एकटक लटकते आमों को देखता रहता और उनके बीच पीले हो रहे आमों की तलाश करता. हवा के झोंके से कोई आम गिरता तो सारे दोस्त उसपर झपट पड़ते,लेकिन चूँकि मैं मेहमान था सो पहला आम मेरे हिस्से ही आता. बिना धोये आम ताजा आम खाने का मजा ही कुछ और था. आम के डंठल के रस से ओठों और गलों पार घाव भी हो जाता थे लेकी कौन उसकी परवाह करता था.दादी ने घर के पिछवाड़े उसी बालू में तरबूज की बेल लगा रखी थी जिसमें ढ़ेरों तरबूज लगे थे लेकिन सब छोटे=छोटे थे. बड़े तरबूजों को दादी लोगों की नज़रों से बचाने के लिए बालू में गाड़कर छिपा देती थी. क्योंकि उसे पता था कि हम आने वाले हैं.हम बेसब्री से सुबह होने का इन्तजार करते थे,दादी से तरबूज तोड़ने चलने का अनुरोध करते थे.काफी मन-मनौवल के बाद दादी हमारे साथ बाहर आती और एक जगह बालू खोद कर तरबूज को बाहर निकालती.हमें खाने से अधिक मजा दादी को बालू के भीतर से तरबूज को खोदकर निकलते और उसे तोड़कर बेल से अलग करते देखने में आता था.
आज समझ आता है वह वहां एक सूखी टहनी गाड़ कर क्यों छोड़ दिया करती थी. इतना ही नहीं दादी हमारे लिए ढेर सारा मक्के और चावल का भूजा तथा चना,मक्का और जौ का सत्तू भी तैयार करके रखती थी. हम तो बस खाने के लिए घर आते और फिर गाँव की गलियों में गायब हो जाते थे.तपती दोपहरी भी हमारे उत्साह को फीका नहीं कर पाती थी.
जैसे ही सूरज ढलने को आता हम गमछे में भूजा बांधकर नदी की पेटी (नदी के भीतर)में पहुँच जाते थे.रेत पर खेलने का मजा ही कुछ और था.सूरज के छिपते ही रेत ठंढी हो जाती थी और उसपर दौड़ने में बहुत मजा आता था.हाँ बालू पर दौड़ना थोड़ा मुश्किल जरूर था बालू पैरों को पीछे खींच लिया करता था जिससे हमर चार कदम दो कदम बनकर रह जाता था.यहाँ केकड़े जैसा एक जीव बालू के भीतर बहुतायत में पाया जाता था जिसे हम बालू खोदकर बाहर निकल लेटे और फिर उसकी टांगों में धागा बांधकर उसे खूब दौड़ते.यह कितना सही था ,नहीं पाता, मगर रूटीन जीवन से अलग यहाँ का मजा ही कुछ और था. हम गीली रेत से घरोंदे बनाते,एक-दूसरे के घरौंदे तोड़कर,फिर उसे बनाते.
कभी सबेरे-सबेरे कुम्हार दादाजी (जो बाबूजी के दोस्त के पिताजी थे) के घर चला जाता जब वे चाक पर मिटटी का लौंदा डालकर मिटटी के अलग-अलग प्रकार के बर्तन बनाया करते थे.हम घंटों उनके पास बैठकर,उनके हाथों के बीच से बर्तन को आकार लेकर बाहर आते और फिर सधे हाथों से पतली रस्सी से उसे चाक से अलगकर जमीन पर रखते देखते रहते.घंटों सृजन का यह क्रम चलता रहता. थोड़ी धूप दिखाकर उसे आलाव में डालकर पकाया जाता था.जिसे हम पूरी तन्मयता से देखा करते थे.अब समझ आता है प्रकृति भी तो कुछ ऐसा ही करती आ रही है आजतक. यह हमारी दिनचर्या में शामिल था.
लेकिन बाबूजी को अधिक से अधिक लोगों से मिलने में मजा आता था.वह गाँव जाते तो एकबार आस-पास में बसे सभी रिश्तेदारों(क्योंकि लगभग सारे रिश्ते 20 -25 किलोमीटर के दायरे में ही होते थे) से जरूर मिलते थे.उनके साथ रहते-रहते मेरी भी कुछ ऐसी आदत हो गई थी कि जहाँ कहीं भी बाबूजी जाते मैं उनके साथ चल पड़ता .रात हो या दिन,बाबूजी पर इसका कोई असर नहीं पड़ता. तपती दोपहरी हो या चाँदनी रात सिर पर गमछा डाले पिताजी चल पड़ते थे अपने रिश्तेदारों से मिलने.कभी सड़क तो कभी जुते हुए खेतों के बीच से.उनका उत्साह देखते ही बनता था.रिश्तेदारों से जो स्नेह और प्यार मिलता था,जो खतीरदारी होती थी उससे हम अभिभूत हो जाते थे.पिताजी का अपने से बड़ों का पैर छूकर आदर देना और छोटों का उनका चरण स्पर्श करना मुझे भी ऐसा ही करने को प्रेरित करता था.बाबूजी सबसे मेरा परिचय करवाते थे,सबसे मुझे भी मिलवाते थे.
चूँकि साल में एकबार गाँव जाना होता था तो बाबूजी माँ और हमसब भाइयों को साथ लेकर ननिहाल और मौसी के घर भी जाया करते थे.मेरा ननिहाल और एक मौसी की ससुराल भागलपुर जिले के अमरपुर थाने में एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है.हम स्टेट बस से पवई उतरकर पैदल ही ननिहाल चले जाते थे. मौसा जी को जैसे ही हमारे आने की खबर लगती वो छप्परवाली बैलगाड़ी लेकर पहुँच जाते क्योंकि मां उसी में बैठकर मौसी के ससुराल जाती थी,पैदल कभी नहीं.मौसी के यहाँ एक अलग ही आनंद आता था.उनका जामुन का एक विशाल पेड़ था.मुझे जामुन खाने का बहुत शौक था.मैं तो बिना कुछ खाए-पीये जामुन खाने पहुँच जाता.मौसाजी भी पीछे-पीछे आते और अपने हरवाहे को पेड़ पर चढ़कर मेरे लिए जामुन तुडवाते थे. मैं दोपहर में भी छिपकर वहां पहुँच जाता और मिटटी के ढेले से जामुन तोड़कर खाता था.
बाद में जब मैं कुछ बड़ा हुआ तो अकेले ही गाँव चला जाया करता था और पूरी छुट्टी अपने गाँव,मौसी के गाँव,ननिहाल और आस-पास कि रिश्तेदारी में बिताकर लौट आता था,लेकिन खाली हाथ कभी भी नहीं.अपने साथ यादों की ढ़ेरों सौगात लेकर.जिसके सहारे साल यूँ निकल जाते हैं मानों पल बीता हो.
(सफर आगे जारी रहेगा)
दीदी,
जवाब देंहटाएंमैंने पहली बार कोई संस्मरण लिखा है इसलिए कुछ त्रुटियाँ रह गई है. इसे स्थान देने के लिए बहुत-बहुत आभार.
पूरा घर खंगाल लिया जाता था गर्मी की छुट्टियों में।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर संस्मरण| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंसचमुच, बचपन तो बचपन होता है।
जवाब देंहटाएं---------
गुडिया रानी हुई सयानी...
सीधे सच्चे लोग सदा दिल में उतर जाते हैं।
वाह, आनन्द आ गया..बहुत रोचक है आपका संस्मरण.
जवाब देंहटाएंआपके संस्मरण ने तो सम्पूर्ण ग्राम दर्शन करा दिए ! बहुत ही अच्छा लगा इसे पढ़ना! बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंdinon bad idhar aaya.sukhad laga.
जवाब देंहटाएंbachpan k din bhula na dena.......
khoob sansmaran hai.
बहुत ही रोचक यादें हैं राजीव जी आपने तो सारी दास्तान बयाँ कर दी आपको तो यादें पूरी तरह याद हैं।
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