अजय कुमार झा :
पवन चन्दन :
रेखा जी नमस्कार
बचपन की तो बहुत सी घटनाएं हैं। किस को लिखूं यही सोच रहा था । अचानक मुझे याद आया कि मैंने बचपन के दिनों की गांव के माहौल की एक रचना लिखी थी। उसे भेज रहा हूं। समय मिल पाया तो कोई किस्सा जरूर भेजूंगा।
क्या जीवन था....
जब चलती चक्की घोर घोर, सब बोले हो गयी भोर भोर
फिर चून पीस कर चार किलो, गिड़गम पर रखा दूध बिलो
नेती से जब जब रई चली फिर छाछ बटी यूं गली गली
यूं बांट बांट कर स्वाद लिया, बचपन को हमने खूब जिया
क्या जीवन था वो ता...ता...धिन
मैं ढूंढ़ रहा हूं वो पल छिन
जीवन जीने के झगड़े में नंगे पांवों दगड़े में
चलते चलते रेतों में पहुंच गये हम खेतों में
फिर एक भरोटा चारा ले ज्वार बाजरा सारा ले
सूखा सूखा छांट दिया लिया गंडासा काट दिया
गाय भैंस की सानी में यूं बीत गया फिर सारा दिन
मैं ढूंढ़ रहा हूं वो पल छिन
सांझ घिरी जब धुएं से, फिर आयी पड़ोसन कुएं से
लीप पोत कर चूल्हे को ज्यों सजा रहे हों दूल्हे को
फिर झींना उसमें लगवाया, फोड़ अंगारी सुलगाया
जब लगी फूंकनी आग जली, यूं चूल्हे चूल्हे आग चली
कितने चूल्हे जले गांव में दर्द भरा है ये मत गिन
मैं ढूंढ़ रहा हूं वो पल छिन
अविनाश वाचस्पति:
बचपन क्या एक धरोहर है ?
बचपन में गर्मियों का गर्म अहसास तो कभी हुआ ही नहीं। न फ्रिज होते थे और न एसी अथवा कूलर। पर गर्मियों में धूप में घूमने से एक अजीब सा सुकून मिलता था। मैं जहां पर रहता हूं, वहां पर मेरे बचपन में चारों ओर जंगल, खाईयां और पहाडि़यां हुआ करते थे और मैं अपने एक दो मित्रों अथवा छोटे भाई के साथ वहां पर बेरियां छानने निकल पड़ता था। लाल बेरी की झाडि़यां खूब होती थीं जिनसे हाथ बचाकर लाल पीले बेरफल तोड़ने और उन्हें खाने में खूब स्वाद आता था। भरी तपती दोपहरी में दो तीन घंटे कैसे बीते जाते थे। याद नहीं है परंतु तब न तो पानी की जरूरत होती थी। और यूं ही जंगलनुमा जगहों पर मित्रमंडली मारी मारी फिरती थी।
स्कूल की छुट्टियों में बुआ चाची के बच्चे घर आया करते थे या हम जाया करते थे और खूब धमा चौकड़ी मचाया करते थे। बावजूद इसके कि हमें कहा जाता था कि बाहर बहुत धूप है सो जाओ परंतु नींद आंखों से गायब रहती थी। यहां घर के लोग सोए कि हम बाहर खिसक लिए।
शाम होते होते आसपास के घरों में छिपन छिपाई खेलना, खो खो खेलना चलता था। परंतु सबसे अधिक आनंद छिपन छिपाई में मिलता था। जब थप्पा या ....... यह शब्द तो याद ही नहीं आ रहा है, कहा जाता था। वैसे पढ़ने का शुरू से भूत रहा हूं। नंदन, चंपक, पराग, चंदामामा, लोटपोट, दीवाना और समाचारपत्र में नवभारत टाइम्स जैसे ही घर में आता था कि एक सीटिंग में पूरा पढ़ जाता था।
कई गर्मियों में जब किशोर हुआ तो जासूसी उपन्यास भी खूब पढ़े हैं। बहुत चस्का लगा था। उन दिनों वेदप्रकाश कम्बोज के जासूसी उपन्यास बहुत पढ़े। पर यह सब काम एक सीटिंग का ही होता था। और उसी का नतीजा है कि आज पढ़ने में गजब की गति है और आज ब्लॉगिंग में खूब काम आ रही है।
तभी ग्यारह बरस की उम्र में लिखने का शौक लग गया था और चार पांच बरस बाद छपने का आनंद भी लूटना शुरू कर दिया था। प्रकाशन के नाम पर उन दिनों संपादक के नाम पर खूब पत्र छपे हैं। सब संभाले हुए हैं। इसी लिखने के शौक के चलते हिन्दी टाइपिंग सीखी और एक माह से अधिक सीखने का पैसा नहीं दिया। टाइपिंग कॉलेज का हिन्दी टाइपिंग का काम मेरे से करा लिया जाता था और देने के बदले राशि मिलती थी।
कई बरस सुबह उठकर अखबार बांटने का कार्य भी किया पर मैं छुट्टियों की गर्मी का बखान करते करते यह कौन सी खान खोदने लग गया।
अभी इतना ही बाकी ....... फिर कभी। वैसे ऐसी स्मृतियां तो खूब हैं पर इसमें भला किसको दिलचस्पी हो सकती है कि गर्मियों की गर्मी में खूब लट्टू चलाए हैं, कंचे भी खेले हैं चाहे कम ही। काफी बरस पहले अशोक चक्रधर जी के आवास पर काका हाथरसी जी ने मेरा नाम जानकर पूछा था कि अविनाश खूब खेलते होगे ताश, प्रश्न पर मैंने कहा था कि ताश को कभी नहीं लगाया हाथ।
शुभ वर्तमान।
सभी ब्लॉगरों के संस्मरण बहुत रोचक और प्रेरक हैं!
जवाब देंहटाएंबचपन की यह मुलाक़ात भी बढ़िया रही ..
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक प्रसंग हैं।
जवाब देंहटाएंbahut achha lag raha hai
जवाब देंहटाएंwah re bachpan...achchha lagta hai:()
जवाब देंहटाएंमजा आ गया..अजय जी तो बहा ले गये...अविनाश जी खुद ही उन दिनों की यादों में बह गये और पवन जी, क्या कविता रची है उन दिनों में भी...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया.