मुकेश कुमार सिन्हा :
एक तो बचपन ...उसमे भी गर्मी के छुट्टियों के दिन....!! कितना अनोखा दिन हुआ करता था...!!
मेरा वो बचपन जो मुझे याद है, बिहार में बेगुसराय जिला के जिनेदपुर गाँव में ..... मेरी मैया के पल्लू के तले बीता .....मैया मैं अपने माँ को नहीं अपनी दादी को कहता था...और वो मेरे लिए माँ से बढ़ कर थी..! मम्मी पापा के साथ रहने पे भी ...मेरा बचपन मैया के सान्निध्य में ही गुजरा....जो भी कठिनाई हो, जो भी अच्छी बात हुई हो....सब उसके साथ ही साझा किया, उसके साडी में छिप कर...जो भी नखरे करने थे...यहाँ तक की मम्मी पापा ने धुलाई की तो उनको डांट भी दिलवाई...!!!
बचपन की वो गर्मी की छुट्टियों के दिन...........एक वाकया याद है...मेरी उम्र १०-११ साल की थी, एक तो हमारी गरीबी कुछ जायदा ही सर चढ़ कर बोल रही थी...दादाजी सरकारी सेवक रहे थे...पर पापा जायदा कुछ नहीं कर पाए..और हमारी जिंदगी बस ऐसे ही भागी जा रही थी...पापा ने एक छोटी से परचून की दुकान खोली थी...और मेरी शाम वहां गुजरती थी...क्योंकि मैं अपने छः भाई बहनों में सबसे बड़ा था....तो काहे का बचपन...इतना तो बनता है....:(....बेशक हम जैसे भी थे...हमारे रिश्तेदार बेहद अमीर हुआ करते थे...और उनमे से कुछ गर्मी की छुट्टियों में जरुर गाँव आते थे....उस बार मेरे दूर के चाचा के यहाँ पुरे बच्चो की टोली आयी थी....मेरा भी दिन खूब मजे से कट रहा था...उस दिन दोपहर के बाद दुकान में बैठा था....अधिकतर सामानों के दाम का पता होता था...पर एक डब्बे में "किशमिश" करीब एक किलो था....और मुझे ये पता ही नहीं था....ये और वस्तुओं के तुलना में कुछ महंगा होता है....तो चाचा के यहाँ से एक बच्चा एक रूपये का किशमिश लेने आया....मेरे को लगा कम से कम १०० ग्राम तो होंगे ही...मैंने तुरंत बिना सोचे समझे १०० ग्राम किसमिस दे दिया उसे......ओह!! फिर तो लाइन लग गयी......एक घंटे के अन्दर वो ८ बच्चे पहुच गए...जो चाचा के यहाँ आये थे...मैंने भी पूरा डब्बा ख़त्म कर डाला...उफ़!! शाम में पापा जब सामान लेकर दुकान पहुचे और जैसे ही उन्हें पता चला की ये कर डाला मैंने.....ओये होए...फिर तो मेरे पे दुकान पे ही जुल्म शुरू हो गया....वो पिटाई पड़ी की क्या बोलूं...अब बताओ मेरी क्या गलती थी....!! उस दिन के बाद पापा ने हर सामान पे एक चिट लगाई और दाम लिख कर जाने लगे...:Dएक और बात, दुकान में बैठता था...तो इतना तो पता चल गया था की पैसा क्या होता है..तो कुछ पैसे अपने जेब में डालने की आदत भी हो गयी थी...ये अलग बात है, वो ५० पैसे से जायदा कभी नहीं हुआ...तो सामान्यतः हर दिन ५० पैसे तो मुझे मजदूरी समझ कर मिल ही जाते है.....बिना पापा को बताये...!! मुझे न तो कंचा खेलना आता था और न ही पतंग उड़ना आता था..पर शौक बहुत था...और मेरे इस शौक को पूरा करता था मेरा अभिन्न दोस्त अश्वनी...!! याद है मुझे मैं उन चोरी के पैसो से कंचे और पतंग खरीद कर उसको देता ...और उसके पीछे दौड़ते रहता.......क्रिकेट का भी शौक था...पर खेलने से जायदा स्कोरिंग करने मुझे मिलता ...क्योंकि मेरे खेल से बेहतर मेरी लिखावट थी....:)
यादें तो बहुत हैं....फिर कभी बताऊंगा....!!
तो ये कुछ लम्हे थे, जो उस समय तो परेशान करते थे, लेकिन आज , आन्तरिक ख़ुशी देते हैं...अच्छा लगता है ...!!
प्रवीण त्रिवेदी:
अध्यापक पिता की संतान की गर्मियों की छुट्टियाँ कैसी बीत सकती होंगी .....शायद आप सब को समझने में ज्यादा मुश्किल ना हों | जैसे ही छुट्टियाँ हुई नहीं कि दूसरे या तीसरे दिन ही अगली कक्षा का किताबों का ढेर हाजिर .....सोचता कब और कैसे मुक्ति मिल सकती मुझे ?
कुछ दिनों पहले ही हम लोगों की पढ़ाई के नाम पर ही तो परिवार को शहर में लाया गया था .....तो उस कर्म से बचने का तो कोई जुगाड़ था ही नहीं |
हम दो भाई-बहन के बीच उम्र का अंतर करीब दो -ढाई वर्ष का होगा .....जिसे अक्सर मैं भूल कर शैतानियां करता ......और माँ बाप की डांट खाता और ...खेलने का समय भी तभी ......जब पिता का रौबीला चेहरा घर से बाहर ही हो |....जैसे ही आहट होती पिता के आने की तो .......इस डर से कि कहीं पापा यह ना सोंच लें कि अब तक उनके ना रहने में कहीं घूम ही ना रहे हों .....फिर जम जाते पढ़ने की मेज पर |
आज जब गर्मियों की छुट्टियों में जब किसी बच्चे को बाहर जाते देखता हूँ ....तो अचरज ही होता है कि ऐसा भी होता था क्या ? पिता का मानना यह था कि बच्चे रिश्तेदारी (विशेषकर मामा के गावं ....मतलब ममाने ) में जाकर बिगड जाते हैं ....और ढीठ हो जाते हैं .....तो कभी ऐसा उस समय आया भी नहीं ....और कभी सोचा भी नहीं तो बहुत अफ़सोस भी नहीं हुआ .....ज्यादा से ज्यादा गए तो अपने पैत्रक गाँव जाते ......घूमते और आम खाते ........आम खाना ही तो एक उद्देश्य होता था ......और सच कहूँ तो आम खाना मुझे बहुत पसंद भी था|...उस समय हम दो बहन भाई और माता पिता के साथ मेरी छोटी मौसी भी रहती थी ........जिनके साथ हम बिलकुल दोस्ताना और लड़ाकू अंदाज में हमेशा पेश आते ......और वह हमारे ऊपर हमेशा माँ की नजर से नजर रखती | तो भैये ...रेखा जी की मदद से आप इत्ता तो जान ही गएँ होंगे कि इस प्राइमरी के मास्टर में अपनी गर्मियों की छुट्टियाँ केवल पढ़ाई और आम और अपने गाँव के चक्कर में ही बिताई हैं |.....हो रहा है आप को अचरज .....अरे भैये ऐसा भी हो सकता है ........और शायद हुआ भी हो ?
दोनों ब्लॉगरों के संस्मरण पढ़कर आनन्दित हुए हम भी!
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नेट समस्या तो हमारे यहाँ भी है!
kitne chehre , kitni baaten ... per her baat mein ek masoomiyat
जवाब देंहटाएंयही मासूमियत तो वक्त के साथ खो जाती है और इसको हम कितना याद करते रह जाते हैं लेकिन फिर से जी रहे हैं तो लगता है की बचपन लौट आया है.
जवाब देंहटाएंबढ़िया संस्मरण...मास्साब तो पढ़ते ही रह गये...हम्म!!
जवाब देंहटाएंजीवन के विभिन्न रंग पढ़ने का मिल रहे हैं। पहले बचपन ऐसा ही था।
जवाब देंहटाएंयही हैं बचपन के रंग कुछ मीठे कुछ नमकीन्……
जवाब देंहटाएंdhanyawad rekha di...:)
जवाब देंहटाएंkhud ko padh kar achchha lag raha hai:D
गर्मी की छुट्टियों में हमें भी पढ़ने के लिये उकसाया जाता था।
जवाब देंहटाएंbachpan har gam se vegana hota hai.......
जवाब देंहटाएंआपने तो हमारे दिन भी याद दिला दिए पढ़कर बहुत अच्छा लगा |
जवाब देंहटाएंmukesh ji or praveen ji ko padh kar bahut accha laga......kuch or yaade taaza ho gai yaha aa kar
जवाब देंहटाएंMukesh ji kuchh yaaden avismarniya hoti hain aur wo hoti hain baachpan ki yaaden..
जवाब देंहटाएंkabhi agar likh paayi to apni zawaani aur kuchh budhaape ke din likhungi...:D