श्यामल सुमन :
ये था मेरा बचपन !
यूँ तो मेरा बचपन पूरी तरह गाँव में ही बीता बल्कि यूँ कहें की पूरी पढाई ही गाँव में हुई क्योंकि मैट्रिक की पढाई ख़त्म होते ही पेट की आग बुझाने के लिए मुझे नौकरी का नया आयाम चुनना ही था और मैंने चुना भी. खैर-- बात बचपन की यादों और खासकर के गर्मी की छुट्टियों में बिताये गए समय की है तो चलिए वहीँ चलता हूँ. आज जब हमारे बच्चे "समर वेकेशन इंजॉय" करते हैं शहरों में, उन दिनों वैसा वातावरण गाँव में कहाँ? यदि कहीं कुछ संभावनाएं बन भी सकतीं थीं तो अर्थाभाव बहुत बड़ी बाधा थी.
शहर हो या गाँव गर्मी की छुट्टियाँ तो सबकी तरह मुझे भी मिलतीं थीं साथ में विद्यालय से अच्छा खासा होम वर्क भी. मैं सबसे पहले बिशेष मेहनत करके उस होम वर्क को पूरा कर लेता था ताकि आगे किसी प्रकार का कोई मानसिक बोझ न रहे. फिर शुरू हो जाती थी बाल-सुलभ धमा-चौकड़ी, खेल-कूद और ग्रामीण परिवेश में उपलब्ध कई प्रकार के मनोरंजन. उन दिनों में "गुल्ली-कौड़ी" का खेल बहुत प्रचलित था हमलोगों के बीच में. इसके अतिरिक्त "लुका-छिपी", कबड्डी, गिल्ली-डंडा और कई प्रकार के खेलों में हम उम्र साथियों के साथ लगे रहने में काफी मज़ा आता था. न खाने की सुध न नहाने की और न ही डांट-डपट का भय. बस मस्त रहना. युद्ध जीतने पर किसी कमांडर को जितनी ख़ुशी मिलती है किंचित उससे अधिक ख़ुशी मिलती थी खेल में अपने प्रतिद्वंदियों को पराजित करने में. मन ही मन कई तरह की योजनायें बनाता अपनी जीत की निश्चितता के लिए और सफलीभूत होने पर तो अपने को "चाणक्य" या "चर्चिल" से कम समझने का कोई प्रश्न ही नहीं पैदा होता था.
आजकल की तरह आधुनिक "स्विमिंग पूल" के बदले हमलोगों ने प्राकृतिक रूप से नदी और तालाब में तैरने का खास आनंद भी उठाया करता था गर्मी की छुट्टियों में वो भी काफी देर तक. चूँकि मैं बिहार के कोशी प्रभावित इलाके से आता हूँ. अतः नदी और तालाब की निकटता और साहचर्य स्वाभाविक है. यह भी एक मनोरंजक किन्तु स्वासथ्यवर्धक क्रीडा सामान्य रूप से स्वीकृत थी हम बच्चों के बीच जिसका आनंद हमलोग सम्मिलित रूप से उठाते थे. इस तैरने के क्रम में भी पानी के अन्दर भी कई प्रकार के खेलों का ईजाद हम लोग स्वयं कर लिया करते थे.
अक्सर गाँव, शहर के वनिस्बत प्रकृति के अधिक करीब होता है. इन्हीं छुट्टियों के दरमियान आम, जामुन, लीची आदि जैसे ललचाने वाले बार्षिक फलों का पेड़ों में लगना प्राकृतिक घटना है जिसे नजदीक से देखने का, तोड़ के खाने का एक अलग आनंद मिलता था . यह बताना उचित लगता है कि चोरी करके आम तोड़ने का एक खास आनंद मिलता था और मज़े कि बात है कि उन दिनों से आज तक भी गाँव में आम कि चोरी को को चोरी माना ही नहीं जाता. पकडे जाने पर मामूली डांट-डपट से मामला ख़तम. साथ ही याद करता हूँ कि जब भी आंधी-तूफान के आसार भर नज़र आते थे कि साथियों के साथ गाँव के किसी के बगीचे या पास के ही जंगल की तरफ दौड़ शुरू ताकि अधिक से अधिक आम चुन कर ला सकूँ. कुछ इसी तरह से गर्मी की छुट्टियों का आनंद उठाया करता था.
सारी बातें तो लिखना संभव नहीं लेकिन आज आपने रेखा जी बहुत लिखवा लिया. मैंने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत गद्य लेखन से ही किया था लेकिन अधिक लिखने के डर से मैंने पद्य लिखने का रास्ता चुना लेकिन आपके बिशेष आग्रह के कारण आज बच नहीं पाया. चूँकि कवि हूँ अतः कभी बचपन के ऊपर एक कविता लिखी थी उसे भी प्रेषित कर रहा हूँ.
बचपन
आती याद बहुत बचपन की।उमर हुई है जब पचपन की।।
बरगद, पीपल, छोटा पाखर।
जहाँ बैठकर सीखा आखर।।
संभव न था बिजली मिलना।
बहुत सुखद पत्तों का हिलना।।
नहीं बेंच, था फर्श भी कच्चा।
खुशी खुशी पढ़ता था बच्चा।।
खेल कूद और रगड़म रगड़ा।
जो प्यारा था उसी से झगड़ा।।
बोझ नहीं था सर पर कोई।
पुलकित मन रूई की लोई।।
हर बालू-घर होता अपना।
शेष अभीतक घर का सपना।।
रोज बदलता मौसम जैसे।
क्यों न आता बचपन वैसे।।
बचपन की यादों में खोया।
सु-मन सुमन का फिर से रोया।।
रोचक संस्मरण।
जवाब देंहटाएंकोई सु-मन कभी न रोये,
जवाब देंहटाएंबचपन में वह ऐसा खोये।
रोचक संस्मरण और खूबसूरत गज़ल। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक संस्मरण्।
जवाब देंहटाएंबढ़िया संस्मरण और उम्दा रचना....
जवाब देंहटाएंसतत संपर्क की कामना के साथ आप सभी के प्रति हार्दिक धन्यवाद और रेखा को खासकर
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
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