डॉ अनवर जमाल
छुट्टियाँ तो गाँव में ही ..........
गर्मियों की छुट्टियों का मज़ा तो बस गांव में आता है
गर्मी की छुट्टियां हमारे लिए स्कूल से आज़ादी का पैग़ाम लाती थीं। इन
छुट्टियों में हम अपनी ननिहाल जाया करते थे जो कि ज़िला सहारनपुर के
क़स्बा नानौता से तक़रीबन 5 किलोमीटर दूर स्थित है। इस गांव का नाम है
छछरौली। यह गांव क़ुदरती मंज़र की दौलत से मालामाल है। हरे भरे खेत और
बाग़ों के दरम्यान बहते हुए छोटे-बड़े राजबाहे इस इलाक़े की रौनक़ हैं।
बच्चों की छलांगों से और उनके शोर-पुकार से सारा माहौल गूंजता रहता है।
इन्हीं बच्चों के बीच में हम भी शामिल रहा करते थे। एक दूसरे के पीछे
भागना और फिर पुल पर चढ़कर छपाक से पानी में कूद जाना और फिर पानी में भी
तैर तैर कर पकड़म पकड़ाई खेलना।
हमारे नाना पुराने ज़माने के नंबरदार हैं। उनके वालिद ने जब ज़मीनें
ख़रीदी थीं तो उनका पेमेंट अशर्फ़ियों से किया था जो कि तौलकर दी गई थीं
और गधों पर लादकर भेजी गई थीं।
सीलिंग और भाईयों में बंटवारे के बाद खेती की ज़मीन के अलावा 55 बीघे में
उनके बाग़ आज भी हैं। जिनमें आम, बेर, जामुन और नाशपाती से लेकर तरह तरह
के पेड़ लगे हुए हैं। बुनियादी तौर पर ये आम के बाग़ ही कहलाते हैं। जब
तेज़ हवा चलती थी तो हम ख़ुश होकर दूसरे बच्चों के साथ बाग़ों की तरफ़
भागा करते थे और छोटी छोटी आमियां चुन लाते थे अपने खाने के लिए। हम तो
दस-बीस कैरियां ही लाते थे बाक़ी सब समेटकर कूड़े पर फेंक दी जाती थीं।
शहरों में इन्हें आज महंगे भाव बिकते देख कर मुझे ताज्जुब भी होता है और
पुराने दिन भी याद आते हैं।
हमारी नानी का घर भी बहुत बड़ा था और उनकी पशुशाला भी। उनकी मुर्ग़ियां
जहां-तहां अंडे देती फिरती थीं और हम उन्हें ढूंढते फिरते थे। जो अंडा
जिस बच्चे को मिलता था। उसे अंडे पर उसी बच्चे का हक़ मान लिया जाता था।
कभी भूसे के कमरे में तो कभी गेहूं स्टोर करने वाले कमरों में, हर जगह हम
अंडों की टोह लिया करते थे।
हमारे नाना के पास पहले तो बहुत गाय भैंसे थीं। इतनी थीं कि कभी उन्हें
खूंटे पर बांधने की नौबत ही नहीं आई। बस बाड़े में हांक कर दरवाज़ा बंद
कर दिया। नाना और नानी बीमार हुए तो बस 5 भैंसे और कुछ बकरियां ही रह गई
थीं। अपने लिए तो ये भी बहुत थीं। उनके मक्खन और घी का ज़ायका हमारी
छुट्टियों की लज़्ज़त को बहुत ज़्यादा बढ़ा देता था। आंगन के नीम तले
कढ़ते हुए लाल लाल दूध को उसकी मोटी मलाई के साथ पीना, वाह...। सोचकर आज
भी मज़ा आ जाता है।
हमारी एक ख़ाला और दो मामू हैं। हमारे बचपन में हमारे दोनों मामू की शादी
नहीं हुई थी लिहाज़ा उनका पूरा लाड प्यार हम पर ही बरसता था। ख़ाला की
शादी हमारे चाचा से ही हुई है। वह भी वहीं आ जाती थीं। या तो नाना का घर
पूरे साल सुनसान पड़ा रहता था या फिर एक दम ही धमाचैकड़ी मच जाती थी।
नाना बेचारे हमारे पीछे पीछे यही देखते रहते थे कि कौन बच्चा छत पर है और
कौन बच्चा घास काटने वाली मशीन पर ?
उनकी सांसे अटकी रहती थीं, जब तक कि हमारी छुट्टियां पूरी नहीं हो जाती
थीं। हमारी सलामती की वजह से ही हमें हमारे मामू घोड़ों की सवारी भी नहीं
करने दिया करते थे। फिर भी हम ज़िद करके और कभी मिन्नत करके उनकी सवारी
गांठ ही लिया करते थे। इसी दरम्यान हम छोटे मामू साबिर खां साहब के साथ
मछली के शिकार के लिए भी जाया करते थे। जाल वाल लेकर गांव के बहुत से
आदमियों के साथ मछली पकड़ने का रोमांच भी अलग ही है। कभी यही टीम अपने
शिकारी कुत्तों के साथ ख़रगोश के शिकार के लिए जाया करती थी। ग़र्ज़ यह
कि तफ़रीह बेतहाशा थी।
इसी बीच आम खाने लायक़ हो जाया करते थे। बाग़ से आम तुड़वाकर टोकरों और
बोरियों में भी हमारे सामने भरा जाता था और इस तुड़ाई में हम भी हिस्सा
लेते था। फिर उसे मज़दूर भैंसा बुग्गी या ट्रैक्टर पर लाद देते और एक
ख़ास तरीक़े से उन्हें तीन दिन तक रज़ाईयों के नीचे ढक दिया जाता। तीसरे
दिन से हमारी नानी हमें छांट छांट कर आम देतीं और हम बच्चे अपने अपने आम
बाल्टियों में भिगो कर खाते। आम इन छुट्टियों का ख़ास आकर्षण हुआ करते
थे। आज भी हम यही कोशिश करते हैं कि बाज़ार से आम लाएं तो टोकरे में ही
लाएं। लेकिन इस कोशिश के बावजूद हमें बचपन वाला वह मज़ा नहीं आता।
हम आज भी सोचते हैं कि जिन लोगों की ननिहाल किसी गांव में नहीं है,
उन्हें गर्मियों की छुट्टियों का मज़ा भला क्या आता होगा ?
गर्मी की छुट्टियां हमारे लिए स्कूल से आज़ादी का पैग़ाम लाती थीं। इन
छुट्टियों में हम अपनी ननिहाल जाया करते थे जो कि ज़िला सहारनपुर के
क़स्बा नानौता से तक़रीबन 5 किलोमीटर दूर स्थित है। इस गांव का नाम है
छछरौली। यह गांव क़ुदरती मंज़र की दौलत से मालामाल है। हरे भरे खेत और
बाग़ों के दरम्यान बहते हुए छोटे-बड़े राजबाहे इस इलाक़े की रौनक़ हैं।
बच्चों की छलांगों से और उनके शोर-पुकार से सारा माहौल गूंजता रहता है।
इन्हीं बच्चों के बीच में हम भी शामिल रहा करते थे। एक दूसरे के पीछे
भागना और फिर पुल पर चढ़कर छपाक से पानी में कूद जाना और फिर पानी में भी
तैर तैर कर पकड़म पकड़ाई खेलना।
हमारे नाना पुराने ज़माने के नंबरदार हैं। उनके वालिद ने जब ज़मीनें
ख़रीदी थीं तो उनका पेमेंट अशर्फ़ियों से किया था जो कि तौलकर दी गई थीं
और गधों पर लादकर भेजी गई थीं।
सीलिंग और भाईयों में बंटवारे के बाद खेती की ज़मीन के अलावा 55 बीघे में
उनके बाग़ आज भी हैं। जिनमें आम, बेर, जामुन और नाशपाती से लेकर तरह तरह
के पेड़ लगे हुए हैं। बुनियादी तौर पर ये आम के बाग़ ही कहलाते हैं। जब
तेज़ हवा चलती थी तो हम ख़ुश होकर दूसरे बच्चों के साथ बाग़ों की तरफ़
भागा करते थे और छोटी छोटी आमियां चुन लाते थे अपने खाने के लिए। हम तो
दस-बीस कैरियां ही लाते थे बाक़ी सब समेटकर कूड़े पर फेंक दी जाती थीं।
शहरों में इन्हें आज महंगे भाव बिकते देख कर मुझे ताज्जुब भी होता है और
पुराने दिन भी याद आते हैं।
हमारी नानी का घर भी बहुत बड़ा था और उनकी पशुशाला भी। उनकी मुर्ग़ियां
जहां-तहां अंडे देती फिरती थीं और हम उन्हें ढूंढते फिरते थे। जो अंडा
जिस बच्चे को मिलता था। उसे अंडे पर उसी बच्चे का हक़ मान लिया जाता था।
कभी भूसे के कमरे में तो कभी गेहूं स्टोर करने वाले कमरों में, हर जगह हम
अंडों की टोह लिया करते थे।
हमारे नाना के पास पहले तो बहुत गाय भैंसे थीं। इतनी थीं कि कभी उन्हें
खूंटे पर बांधने की नौबत ही नहीं आई। बस बाड़े में हांक कर दरवाज़ा बंद
कर दिया। नाना और नानी बीमार हुए तो बस 5 भैंसे और कुछ बकरियां ही रह गई
थीं। अपने लिए तो ये भी बहुत थीं। उनके मक्खन और घी का ज़ायका हमारी
छुट्टियों की लज़्ज़त को बहुत ज़्यादा बढ़ा देता था। आंगन के नीम तले
कढ़ते हुए लाल लाल दूध को उसकी मोटी मलाई के साथ पीना, वाह...। सोचकर आज
भी मज़ा आ जाता है।
हमारी एक ख़ाला और दो मामू हैं। हमारे बचपन में हमारे दोनों मामू की शादी
नहीं हुई थी लिहाज़ा उनका पूरा लाड प्यार हम पर ही बरसता था। ख़ाला की
शादी हमारे चाचा से ही हुई है। वह भी वहीं आ जाती थीं। या तो नाना का घर
पूरे साल सुनसान पड़ा रहता था या फिर एक दम ही धमाचैकड़ी मच जाती थी।
नाना बेचारे हमारे पीछे पीछे यही देखते रहते थे कि कौन बच्चा छत पर है और
कौन बच्चा घास काटने वाली मशीन पर ?
उनकी सांसे अटकी रहती थीं, जब तक कि हमारी छुट्टियां पूरी नहीं हो जाती
थीं। हमारी सलामती की वजह से ही हमें हमारे मामू घोड़ों की सवारी भी नहीं
करने दिया करते थे। फिर भी हम ज़िद करके और कभी मिन्नत करके उनकी सवारी
गांठ ही लिया करते थे। इसी दरम्यान हम छोटे मामू साबिर खां साहब के साथ
मछली के शिकार के लिए भी जाया करते थे। जाल वाल लेकर गांव के बहुत से
आदमियों के साथ मछली पकड़ने का रोमांच भी अलग ही है। कभी यही टीम अपने
शिकारी कुत्तों के साथ ख़रगोश के शिकार के लिए जाया करती थी। ग़र्ज़ यह
कि तफ़रीह बेतहाशा थी।
इसी बीच आम खाने लायक़ हो जाया करते थे। बाग़ से आम तुड़वाकर टोकरों और
बोरियों में भी हमारे सामने भरा जाता था और इस तुड़ाई में हम भी हिस्सा
लेते था। फिर उसे मज़दूर भैंसा बुग्गी या ट्रैक्टर पर लाद देते और एक
ख़ास तरीक़े से उन्हें तीन दिन तक रज़ाईयों के नीचे ढक दिया जाता। तीसरे
दिन से हमारी नानी हमें छांट छांट कर आम देतीं और हम बच्चे अपने अपने आम
बाल्टियों में भिगो कर खाते। आम इन छुट्टियों का ख़ास आकर्षण हुआ करते
थे। आज भी हम यही कोशिश करते हैं कि बाज़ार से आम लाएं तो टोकरे में ही
लाएं। लेकिन इस कोशिश के बावजूद हमें बचपन वाला वह मज़ा नहीं आता।
हम आज भी सोचते हैं कि जिन लोगों की ननिहाल किसी गांव में नहीं है,
उन्हें गर्मियों की छुट्टियों का मज़ा भला क्या आता होगा ?
बेहतरीन संस्मरण..वाकई गांव की बचपन की यादें हमेशा साथ रहती हैं...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर संस्मरण्।
जवाब देंहटाएंआज आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएंमैं समय हूँ ...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .
वाह!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया संस्मरण।
डॉ. साहिब का संस्मरण पढ़कर तो हमें भी गाँवे की याद आ गई!
bahut khila sa bachpan aur chhuttiyon kee achhi yaaden
जवाब देंहटाएंअनवर भाई आपकी गर्मियों की छुट्टियों की दास्तान पढ़ कर हमें आपकी किस्मत से रश्क हो रहा है...ऐसे बचपन का सपना तो हर बच्चा देखता है लेकिन उसके सच होने का नसीब आप जैसे किसी किसी को ही होता है...बहुत दिलचस्प वाकये बयां किये हैं आपने...मजा आ गया.
जवाब देंहटाएंनीरज
अच्छा लगा पढ़ना .....
जवाब देंहटाएंभारत की आत्मा गांवों में बसती है
जवाब देंहटाएंरेखा जी से कल फ़ोन पर बात हुई तो पता चला कि हमारा भेजा हुआ संस्मरण उन्होंने पब्लिश कर दिया है। आज उन्होंने लिंक भेजा तो इधर आना हुआ और देखा कि यहां तो इसे पढ़ा भी गया है और सराहा भी काफ़ी गया है। टिप्पणी देने वाले सभी ब्लॉगर्स का मैं दिल से आभारी हूं और जनाब नीरज गोस्वामी जी की बात को बिल्कुल सही मानता हूं कि गर्मियों की छुट्टियों में मौज-मस्ती का जो एक आदर्श ख़ाका हमारे ज़हन में होता है, हमने उसे जिया है, अल्लाह का शुक्र है।
वाक़ये बहुत से हैं। हमने तो महज़ एक हल्का सा बयान भर किया है।
गांव आज भी पुकारता है। हम बच्चे थे तो सभी के नवासे और सभी के भांजे थे। हमारे खेतों पर काम करने वाले दलित भी और हमारे पड़ौसी ज़मींदार जाट, सभी हमारे नाना-मामू थे और हैं। सभी के घरों में खेलने के लिए हम ऐसे ही बेधड़क घुस जाते थे जैसे कि ख़ुद अपने नाना के घर में। हमारे वालिद सबके दामाद थे। उनकी इज़्ज़त सारा गांव करता था। ऊंच-नीच और अमीरी-ग़रीबी के बावजूद सब एक जान भी थे।
गांव की बात ही निराली है। यह सच है कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है।
मुझे ख़ुशी है कि मुझे ‘भारत की आत्मा‘ से साक्षात्कार करने का मौक़ा मिला और मुझे इस बात की भी ख़ुशी है कि मैंने अपने अनुभव आप से साझा किए।
यह मौक़ा बहन रेखा जी के ज़रिये मिला है, सभी के साथ मैं उनका भी शुक्रगुज़ार हूं।
हरियाली तीज के शुभअवसर पर आप सभी को बहुत बहुत शुभकामनायें .
धन्यवाद !
यह उत्तम रचना सोमवार को हमारे साथ आप देख सकते हैं ब्लॉगर्स मीट वीकली में। आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंhttp://www.hbfint.blogspot.com/
AWESOME POST THANKS FOR SHARE I LOVE THIS POST
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