गुरु वह होता है जो जीवन को सही दिशा देता है।. बचपन में माँ प्रथम गुरु और पिता द्वितीय गुरु होता है . वैसे तो जननी और जनक का स्थान सर्वोपरि है लेकिन उसके बाद गुरु वह है जो जीवन और संसार के सत्य से परिचय करवाता है, जो जीवन को अर्थों में मानव के अनुरूप चल कर जीने का रास्ता दिखाता है। वह सब जो उसने अपने तप से पाया उसको बाँट देता है अपने शिष्यों में . वह अनुपम उपहार जिसे न कोई और दे सकता है और न मानव पा सकता है. गुरु वह नहीं जो कुछ लेकर देता है वह तो सौदा होता है , गुरु वह जो सिर्फ देता है और लेता है तो मानव के दुर्गुण , कलुषित मानसिकता और बुराइयाँ . इन सब को ले लेता है सही दिशा दिखा कर और मुक्ति का रास्ता दिखाता है।
आज गुरु पूर्णिमा पर मैं सार्वजनिक तौर पर अपने आध्यात्मिक गुरु के विषय में लिख .रही हूँ . वे आज के बड़े बड़े गुरुओं की तरह शिष्यों से घिरे रहते थे लेकिन अपने घर पर ही , वे एक गृहस्थ थे और अपने गुरु होने के नाते किसी से कुछ नहीं लेते थे। आत्मसाक्षात्कार होने के बाद भी कभी उन्होंने ये बात कभी किसी को नहीं बतलाई . तमाम उपलब्धियों और दिव्य दृष्टि से सम्पन्न होने पर भी उसको कभी धंधा नहीं बनाया। जो आ गया कभी अपनी समस्या लेकर भी तो उसे उबार लिया भले ही उसके लिए खुद को पीड़ा में झोंक दिया हो।.
वे रिश्ते में मेरे फूफा जी थे लेकिन अपनी दिव्य दृष्टि से सम्पन्न होने पर मेरा भूत और भविष्य देखने के बाद भी कभी मुझे नहीं .बताया अपार स्नेह दिया मुझे और मैं समझती थी कि मेरे सारे भाई बहनों में मैं और भाई साहब उनके सबसे प्रिय थे।. बचपन से ही पूजा पाठ के बारे में बताया करते थे। छोटी छोटी बातें हमें बतलाया करते थे।.
मेरी शादी कानपूर में ही हुई और फिर तो मुझे उनके सानिध्य रहने का और अवसर मिलना आरम्भ हो गया।. मेरे पति भी उनका बहुत सम्मान करते थे और कभी मेरे कहने पर वहां जाने से इनकार नहीं किया जीवन के हर संघर्ष और मुसीबत में उन्होंने हौसला और रास्ता दिया नहीं तो इतनी शक्ति एक इंसान में होना शायद मुश्किल ही मिलती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक , बंधन से लेकर मुक्ति तक सारी चर्चाएँ हुआ करती थी।. वे मेरे स्वभाव को बहुत अच्छी तरह समझते थे और इस लिए उन्होंने मुझे बहुत कुछ दिया।. जीवन में मानव बन कर जीने का मंत्र दिया। एक बार कह ही दिया - ' रेखा अब इस जन्म में तुम किसी भी इंसान से दीक्षा मत लेना . '
तब मुझे दीक्षा लेना क्या होता है ? इस विषय में कुछ भी पता नहीं था।. फिर एक दौर आया और मेरे परिवार के लोग आशाराम बापू से दीक्षा लेने के लिए जा रहे थे लेकिन मुझे फूफा जी की बात याद थी और मैंने फिर दीक्षा नहीं ली . मुझे गुरु मंत्र, पूजा विधि, और मुक्ति के मार्ग को उन्होंने सिर्फ संवाद में ही सिखाया था।. किससे क्या होना है? कैसे जनहित में कौन सी पूजा होनी है ये भी सब उन्हीं से सीखा . उसको कहाँ और कैसे प्रयोग करना है ये निर्धारण मैंने खुद किया .
उनके जाने के बाद ही मेरी बुआ जी ने मुझे बताया कि फूफा जी ने कहा था --' तुम ये मत समझना कि मैं रेखा तो इतना स्नेह इसलिए देता हूँ कि वह तुम्हारी भतीजी है , नहीं मेरा और रेखा का रिश्ता पिछले सात जन्मों का है इसलिए ये मेरी सबसे प्रिय है। '
आज मैं अपने गुरु जगदम्बा प्रसाद श्रीवास्तव को शत शत नमन करती हूँ।.
आज गुरु पूर्णिमा पर मैं सार्वजनिक तौर पर अपने आध्यात्मिक गुरु के विषय में लिख .रही हूँ . वे आज के बड़े बड़े गुरुओं की तरह शिष्यों से घिरे रहते थे लेकिन अपने घर पर ही , वे एक गृहस्थ थे और अपने गुरु होने के नाते किसी से कुछ नहीं लेते थे। आत्मसाक्षात्कार होने के बाद भी कभी उन्होंने ये बात कभी किसी को नहीं बतलाई . तमाम उपलब्धियों और दिव्य दृष्टि से सम्पन्न होने पर भी उसको कभी धंधा नहीं बनाया। जो आ गया कभी अपनी समस्या लेकर भी तो उसे उबार लिया भले ही उसके लिए खुद को पीड़ा में झोंक दिया हो।.
वे रिश्ते में मेरे फूफा जी थे लेकिन अपनी दिव्य दृष्टि से सम्पन्न होने पर मेरा भूत और भविष्य देखने के बाद भी कभी मुझे नहीं .बताया अपार स्नेह दिया मुझे और मैं समझती थी कि मेरे सारे भाई बहनों में मैं और भाई साहब उनके सबसे प्रिय थे।. बचपन से ही पूजा पाठ के बारे में बताया करते थे। छोटी छोटी बातें हमें बतलाया करते थे।.
मेरी शादी कानपूर में ही हुई और फिर तो मुझे उनके सानिध्य रहने का और अवसर मिलना आरम्भ हो गया।. मेरे पति भी उनका बहुत सम्मान करते थे और कभी मेरे कहने पर वहां जाने से इनकार नहीं किया जीवन के हर संघर्ष और मुसीबत में उन्होंने हौसला और रास्ता दिया नहीं तो इतनी शक्ति एक इंसान में होना शायद मुश्किल ही मिलती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक , बंधन से लेकर मुक्ति तक सारी चर्चाएँ हुआ करती थी।. वे मेरे स्वभाव को बहुत अच्छी तरह समझते थे और इस लिए उन्होंने मुझे बहुत कुछ दिया।. जीवन में मानव बन कर जीने का मंत्र दिया। एक बार कह ही दिया - ' रेखा अब इस जन्म में तुम किसी भी इंसान से दीक्षा मत लेना . '
तब मुझे दीक्षा लेना क्या होता है ? इस विषय में कुछ भी पता नहीं था।. फिर एक दौर आया और मेरे परिवार के लोग आशाराम बापू से दीक्षा लेने के लिए जा रहे थे लेकिन मुझे फूफा जी की बात याद थी और मैंने फिर दीक्षा नहीं ली . मुझे गुरु मंत्र, पूजा विधि, और मुक्ति के मार्ग को उन्होंने सिर्फ संवाद में ही सिखाया था।. किससे क्या होना है? कैसे जनहित में कौन सी पूजा होनी है ये भी सब उन्हीं से सीखा . उसको कहाँ और कैसे प्रयोग करना है ये निर्धारण मैंने खुद किया .
उनके जाने के बाद ही मेरी बुआ जी ने मुझे बताया कि फूफा जी ने कहा था --' तुम ये मत समझना कि मैं रेखा तो इतना स्नेह इसलिए देता हूँ कि वह तुम्हारी भतीजी है , नहीं मेरा और रेखा का रिश्ता पिछले सात जन्मों का है इसलिए ये मेरी सबसे प्रिय है। '
आज मैं अपने गुरु जगदम्बा प्रसाद श्रीवास्तव को शत शत नमन करती हूँ।.
ज्ञान जहाँ से भी अर्जित हो और जिससे भी हो वो ही वास्तविक गुरु है और जिसने जीने की राह दिखाई वो ही तो हुआ परम गुरु जीवन जीने की कला सिखाना ही तो गुरु का कर्तव्य होता है।
जवाब देंहटाएंगुरु के प्रति आपका समर्पण अप्रतिम है
जवाब देंहटाएंगुरु ही ब्रह्म है.
जवाब देंहटाएंगुरु वह होता है जो जीवन को सही दिशा देता है।
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंगुरु को नमन..
जवाब देंहटाएंहर सद्गुरु को मेरा प्रणाम, गुरु ही हमारे अज्ञान को दूर कर जीने का सही रास्ता दिखलाते हैं, धन्यवाद....
जवाब देंहटाएंmeri bhawanaon se mail khati hui baatein.Bahut sahi kaha ,didi aapne.
जवाब देंहटाएंआप भाग्यशाली है जो श्रेष्ठ गुरु का सामीप्य पाया।
जवाब देंहटाएंगुरु का सान्निध्य मिले, इससे अच्छा और क्या?
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