***** क्षमा इस बात के लिए की ये 13 लेख जुलाई को पोस्ट होना लेकिन हमारी नेट सेवा ने आज होने दिया.
अखबार में एक छोटी सी खबर पढ़ी और फिर पहुँच गयी 3 साल पहले। अब तो हमें शर्म आने लगी है अपने देश की व्यवस्था पर की न तो हमारे देश में कोई क़ानून रह गया है और न ही न्याय की आशा बची है। देश की व्यवसायिक नगरी मुंबई विगत वर्षों में कई आतंकी हमले झेल चुकी है और ऐसा नहीं है की उन हमले देश के माहौल को हिला नहीं गए लेकिन हम हिल कर फिर स्थिर हो गए और वे जिन ने 6 साल पहले मुंबई के कई रेलवे स्टेशनों पर हुए विस्फोट में 187 लोगों को खोया है और वे न जाने कितने परिवारों को तहस नहस करने वाले बन गए। फिर 13 जुलाई को मुंबई में 3 भीड़ भरे स्थानों पर हुए विस्फोटों में 27 लोगों ने अपना जीवन की आहुति दी थी और फिर कुछ परिवार ऐसे ही बिखर गए।
3 साल पहले हुए विस्फोट पर एक कविता उसी समय लिखी थी उसे दुबारा यहाँ उद्धृत करके उन सबके दुःख को याद कर रही हूँ
गोली, बारूद और धमाकों
की राजनीति कराने वालो
गुमनाम रहने वालो
कहते हो की हम धर्म के लिए
लड़ रहे हैं लड़ाई ।
मत सताओ हमारे वर्ग को
अपने वर्ग का पता तो बताओ
वे कब तुम्हें अपना मानते हैं।
क्यों अपनी कुंठाओं और वहशत को
धर्म और वर्ग का नाम देते हो।
खून के रंग से बता सकते हो
तुम्हारे वर्ग के खून का रंग
कौन सा है?
तुम्हारे धर्म के लोगों के
खून का रंग कैसा है?
तुम्हारी गोलियों से मरे
सिर्फ इंसान होते हैं।
रोते बिलखते परिवार
कोई अपना खोते हैं।
जब देने को कुछ नहीं
तुम्हारे पास उनको
क्यों छीनते हो -- साया उनका
उनकी रोटियों को जुटाने वाला
तुम्हारा क्या बिगड़ा है।
तुम्हारा जो भी धर्म हो
एक तरफ खड़े हो जाओ
खुदा या ईश्वर की दुहाई देने वाले आवाज़ दो
उनको देखना है कि
कितने लोग तुम्हारी जमात में आते हैं।
ये हैवानियत का खेल
इंसानियत को
इस जहाँ से मिटा नहीं सकता है।
खौफ दे सकता है
रुला सकता है
पर किसी के आंसू
पोंछ नहीं सकता है
मुंह छिपा कर बाहर निकलते हो
नाम तक नहीं है तुम्हारा
दूसरों के इशारे पर
गोली चलाने वालो
कभी तुम्हारे भी शिकार होंगे
तुम्हारी ही गोलियों के।
ये धमाके तुम्हारे लिए शगल
घी के दिए जलने सा
जश्न मनाने का दिन
रोटी बिलखती इंसानियत,
हिलाकर रख दिया
विश्व के जनमानस को.
कहाँ है ये हत्यारे
शायद हममें ही छुपे हैं
वे मानव हो ही नहीं सकते है
सिर्फ हत्यारे हैं
और हत्यारों की कोई जाति नहीं होती
कोई धर्म नहीं होता।
मुझे इतना ही नहीं लिखना है अपने देश की राजनीति और सरकार क्या चाहती है ? इस मंशा पर प्रश्न करते करते थक चुके हैं . सरकार इन पकडे गए आतंकियों को कितने दिन तक शरण देकर उनकी आवभगत करना चाहती है . देश में तहस नहस मचाने वाले इन आतंकियों को सरकारी मेहमान बना कर हम उनकी खातिर तवज्जो में कोई कमी नहीं रखते हैं और चूंकि वह पडोसी देश से जुड़े हैं तो फिर अतिथि देवो भव की अपनी परंपरा को हम छोड़ तो नहीं सकते हैं.
13 जुलाई 2011 का आरोपी यासीन भटकल दिल्ली और मुंबई पुलिश के में भागने में सफल हुआ क्योंकि उन हादसों में शायद पुलिस के किसी परिवार का कोई सदस्य नहीं खोया होगा जिन्होंने खोया है वे शायद इस जन्म में उन्हें पा न सकेंगे और भुला भी न सकेंगे।
अफजल गुरु , कसाब फिर जुन्दाल फिर आने वाले कल आएगा फसीह -- हम एक एक पकड़ रहे और खुद अपनी पीठ थपथपा रहे हैं . कितने दिन आखिर कितने दिन सजा को इसी तरह से बढ़ाते हुए किसी ऐसे काण्ड का इन्तजार कर रहे हैं कि इन आतंकवादियों को छोड़ने के फरमान जारी कर दिए जाएँ ऐसा होता रहा है और शायद वाकये ऐसे ही किसी का इन्तजार कर रहे हैं।
क्यों नहीं ऐसे मामलों के लिए फास्ट ट्रेक कोर्ट में सुनवाई क्यों नहीं होती है? मामले में हुए को लागू करने में इतनी देर क्यों की जा रही है? इन्हें हम इतनी सुविधाएँ दे रहे हैं कि उनके मन बढ़ते जा रहे हैं , उन्हें जेल में इन्टरनेट की सुविधा चाहिए . वे हमारे के लिए इतने बड़े मेहमान हैं उन्हें गतिविधियों का तो होना ही चाहिए और फिर अपने भाई बंधुओं के साथ मिलकर हमारे घर में बैठ कर नयी साजिश रच सकें और अपने देश की सुरक्षा के लिए नाकाबिल साबित कर सकें। कब हमारी सरकार और न्याय तंत्र काम को अंजाम देगा और उन हादसों में मरनेवाले लोगों की आत्मा को शांति और उनके परिजनों को संतोष मिलेगा .
अखबार में एक छोटी सी खबर पढ़ी और फिर पहुँच गयी 3 साल पहले। अब तो हमें शर्म आने लगी है अपने देश की व्यवस्था पर की न तो हमारे देश में कोई क़ानून रह गया है और न ही न्याय की आशा बची है। देश की व्यवसायिक नगरी मुंबई विगत वर्षों में कई आतंकी हमले झेल चुकी है और ऐसा नहीं है की उन हमले देश के माहौल को हिला नहीं गए लेकिन हम हिल कर फिर स्थिर हो गए और वे जिन ने 6 साल पहले मुंबई के कई रेलवे स्टेशनों पर हुए विस्फोट में 187 लोगों को खोया है और वे न जाने कितने परिवारों को तहस नहस करने वाले बन गए। फिर 13 जुलाई को मुंबई में 3 भीड़ भरे स्थानों पर हुए विस्फोटों में 27 लोगों ने अपना जीवन की आहुति दी थी और फिर कुछ परिवार ऐसे ही बिखर गए।
3 साल पहले हुए विस्फोट पर एक कविता उसी समय लिखी थी उसे दुबारा यहाँ उद्धृत करके उन सबके दुःख को याद कर रही हूँ
गोली, बारूद और धमाकों
की राजनीति कराने वालो
गुमनाम रहने वालो
कहते हो की हम धर्म के लिए
लड़ रहे हैं लड़ाई ।
मत सताओ हमारे वर्ग को
अपने वर्ग का पता तो बताओ
वे कब तुम्हें अपना मानते हैं।
क्यों अपनी कुंठाओं और वहशत को
धर्म और वर्ग का नाम देते हो।
खून के रंग से बता सकते हो
तुम्हारे वर्ग के खून का रंग
कौन सा है?
तुम्हारे धर्म के लोगों के
खून का रंग कैसा है?
तुम्हारी गोलियों से मरे
सिर्फ इंसान होते हैं।
रोते बिलखते परिवार
कोई अपना खोते हैं।
जब देने को कुछ नहीं
तुम्हारे पास उनको
क्यों छीनते हो -- साया उनका
उनकी रोटियों को जुटाने वाला
तुम्हारा क्या बिगड़ा है।
तुम्हारा जो भी धर्म हो
एक तरफ खड़े हो जाओ
खुदा या ईश्वर की दुहाई देने वाले आवाज़ दो
उनको देखना है कि
कितने लोग तुम्हारी जमात में आते हैं।
ये हैवानियत का खेल
इंसानियत को
इस जहाँ से मिटा नहीं सकता है।
खौफ दे सकता है
रुला सकता है
पर किसी के आंसू
पोंछ नहीं सकता है
मुंह छिपा कर बाहर निकलते हो
नाम तक नहीं है तुम्हारा
दूसरों के इशारे पर
गोली चलाने वालो
कभी तुम्हारे भी शिकार होंगे
तुम्हारी ही गोलियों के।
ये धमाके तुम्हारे लिए शगल
घी के दिए जलने सा
जश्न मनाने का दिन
रोटी बिलखती इंसानियत,
हिलाकर रख दिया
विश्व के जनमानस को.
कहाँ है ये हत्यारे
शायद हममें ही छुपे हैं
वे मानव हो ही नहीं सकते है
सिर्फ हत्यारे हैं
और हत्यारों की कोई जाति नहीं होती
कोई धर्म नहीं होता।
मुझे इतना ही नहीं लिखना है अपने देश की राजनीति और सरकार क्या चाहती है ? इस मंशा पर प्रश्न करते करते थक चुके हैं . सरकार इन पकडे गए आतंकियों को कितने दिन तक शरण देकर उनकी आवभगत करना चाहती है . देश में तहस नहस मचाने वाले इन आतंकियों को सरकारी मेहमान बना कर हम उनकी खातिर तवज्जो में कोई कमी नहीं रखते हैं और चूंकि वह पडोसी देश से जुड़े हैं तो फिर अतिथि देवो भव की अपनी परंपरा को हम छोड़ तो नहीं सकते हैं.
13 जुलाई 2011 का आरोपी यासीन भटकल दिल्ली और मुंबई पुलिश के में भागने में सफल हुआ क्योंकि उन हादसों में शायद पुलिस के किसी परिवार का कोई सदस्य नहीं खोया होगा जिन्होंने खोया है वे शायद इस जन्म में उन्हें पा न सकेंगे और भुला भी न सकेंगे।
अफजल गुरु , कसाब फिर जुन्दाल फिर आने वाले कल आएगा फसीह -- हम एक एक पकड़ रहे और खुद अपनी पीठ थपथपा रहे हैं . कितने दिन आखिर कितने दिन सजा को इसी तरह से बढ़ाते हुए किसी ऐसे काण्ड का इन्तजार कर रहे हैं कि इन आतंकवादियों को छोड़ने के फरमान जारी कर दिए जाएँ ऐसा होता रहा है और शायद वाकये ऐसे ही किसी का इन्तजार कर रहे हैं।
क्यों नहीं ऐसे मामलों के लिए फास्ट ट्रेक कोर्ट में सुनवाई क्यों नहीं होती है? मामले में हुए को लागू करने में इतनी देर क्यों की जा रही है? इन्हें हम इतनी सुविधाएँ दे रहे हैं कि उनके मन बढ़ते जा रहे हैं , उन्हें जेल में इन्टरनेट की सुविधा चाहिए . वे हमारे के लिए इतने बड़े मेहमान हैं उन्हें गतिविधियों का तो होना ही चाहिए और फिर अपने भाई बंधुओं के साथ मिलकर हमारे घर में बैठ कर नयी साजिश रच सकें और अपने देश की सुरक्षा के लिए नाकाबिल साबित कर सकें। कब हमारी सरकार और न्याय तंत्र काम को अंजाम देगा और उन हादसों में मरनेवाले लोगों की आत्मा को शांति और उनके परिजनों को संतोष मिलेगा .
सचमुच विचार पूर्ण -मेरी भी भावभीनी भावाभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंसच्चाई से कही गयी बात अच्छी लगी .....
जवाब देंहटाएंइतनी गंभीर बात को सरल शब्दों में लिख दिया आपने ....
जवाब देंहटाएंसच लिखा है ..
जवाब देंहटाएंअपराधियों की कोई जाति कोई धर्म नहीं होता ..
समग्र गत्यात्मक ज्योतिष
आपने एक प्रश्न किया है कि हमारी सरकार क्या चाहती है। सीधा सा उत्तर है कि वह अपना शासन चाहती है, चाहे किसी कीमत पर भी मिले। शासन करने वाले राजनैतिक दल हैं, इन्हें देश से पहले स्वयं की चिन्ता है।
जवाब देंहटाएंखून का धर्म पूछते हो,
जवाब देंहटाएंठंडा या गर्म पूछते हो।
मिला कभी उत्तर ? नहीं मिलेगा ...
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