शिक्षा के क्षेत्र में इतनी प्रतियोगिता चल रही है कि हर बच्चे का सपना अब कहीं और नहीं बल्कि इंजीनियर या डॉक्टर बनने पर ही टिका हुआ है, लेकिन हर बच्चे की मेधा और बुद्धिमत्ता को बढ़ाने का कोई भी साधन ऐसा नहीं है कि हम उसे सबके बराबर कर सकें। सपने हर बच्चे को देखने का हक है और ईश्वर से कामना भी यही है कि उनका ये सपना सच हो लेकिन क्या अगर हम उनके लिए उतने ही संस्थान खोल दें जितने के इस परीक्षा में बैठने वाले लोग हैं तो क्या सभी का ज्ञान और बुद्धि का स्तर समान हो सकता है। नहीं ऐसा नहीं हो सकता है, सपने हम समान देख सकते हैं लेकिन उनको हासिल कर लें ये जरूरी नहीं है।
करीब आधा दशक तक देश में सिर्फ 4 आई आई टी रहीं और उनके शिक्षण और प्रशिक्षण का स्तर उच्चकोटि का रहा है। देश से लेकर विदेश तक यहाँ के छात्रों ने अपने नाम का परचम लहराया है। विश्व स्तर पुरस्कार जीत कर अपने संस्थान का नाम रोशन किया है। तब राजनीति में बैठे कुछ लोगों को लगा कि अगर ऐसी ही और कई आई आई टी खोल दी जाएँ तो देश में इतने ही सशक्त और सक्षम इंजीनियर तैयार हो सकेंगे और फिर हम इस क्षेत्र में सबको पीछे छोड़ देंगे . फिर क्या था? राजनीति जो सिर्फ विधेयक पास करने भर से ही सपने देखने लगती है और इसको क्रियान्वित भी कर दिया गया . देश में आई आई टी का तमगा लगा कर निकलने वाले छात्रों की संख्या बढ़ गयी . प्रतिष्ठित चारों आई आई टी के शिक्षकों ने अपना संस्थान छोड़ कर नए संस्थानों में निदेशक के पद संभाल लिए तो आशा जगी कि आई आई टी के इसी स्तर को कायम रख पाने में सफल हो सकेंगे लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो पाया या आगे भी हो पायेगा। हम संख्या तो बढ़ा सकते हैं लेकिन उसकी गुणवत्ता को कायम रखने के लिए योग्य शिक्षक कहाँ से लायेंगे? आज के भौतिकवादी युग में जब कि पैसे की ही अहमियत सबसे है और विदेशी कम्पनियाँ अधिक पैकेज देकर मेधा को ले कर जा रही हैं और मेधा भी संस्थान से निकलते ही पैसे की चकाचौंध से भ्रमित होकर चले जाते हैं और क्यों न जाएँ? क्या हम उनको इतना दे सकते हैं। नहीं फिर हम मेधा को रख ही नहीं सकते हैं।
शोध की दिशा में जाने वाले कितने छात्र होते हैं और जो होते हैं वे कितनी आई आई टी के लिए पर्याप्त होंगे। संख्या नहीं हमे लिए गुणवत्ता पर अधिक ध्यान देना होगा .
इसके साथ ही जब इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने की स्वतंत्रता दे दी गयी तो फिर ये कुकुरमुत्तों की तरह उगने लगे . जिसने इंटर पास किया और इंजिनियर बनने की इच्छा है तो बनाने के लिए तैयार है ये कॉलेज। फिर ऐसे लोगों का भविष्य क्या होगा? इसका किसी को नहीं पता है। बैंक से लोन लेकर या घर जमीन बेच कर माँ बाप पढ़ा तो देते हैं फिर उसके बाद ? नौकरी के लिए भटक रहे हैं क्योंकि इन कॉलेज में गुणवत्ता क्या है? ये उन सब लोगों को पता नहीं होती है बस अच्छी सी बिल्डिंग और ऊपरी तामझाम देखकर उन्हें लगता है कि पढ़ कर निकलते ही मेरा बेटा अच्छे से पैकेज पर नौकरी करने लगेगा और हमारे दिन बदल जायेंगे। ये सपना हमेशा सपना ही रह जाता है और बच्चे इतना भी नहीं कमा पाते हैं कि वे अपने लिए हुए लोन को भी चुका लें।
अब और सपना हम देखने लगे हैं कि 4 एम्स उत्तर प्रदेश में खोले जाएँ बगैर ये सोचे कि क्या उन सब में वह गुणवत्ता बनाकर रखी जा सकेगी जो इस समय एक एम्स होने पर कायम है। केंद्र के एक एम्स की उचित है क्योंकि एक को वह सारी सुविधाएँ मुहैया कराइ जा सकती हैं जो उच्च स्तरीय चिकित्सा के लिए जरूरी है। ये प्रस्ताव और उसको पूरा करने का सपना धीरे धीरे ही फलीभूत होता है कहीं ऐसा न हो आधी छोड़ एक को धावों आधी मिली न पूरी पावो .
करीब आधा दशक तक देश में सिर्फ 4 आई आई टी रहीं और उनके शिक्षण और प्रशिक्षण का स्तर उच्चकोटि का रहा है। देश से लेकर विदेश तक यहाँ के छात्रों ने अपने नाम का परचम लहराया है। विश्व स्तर पुरस्कार जीत कर अपने संस्थान का नाम रोशन किया है। तब राजनीति में बैठे कुछ लोगों को लगा कि अगर ऐसी ही और कई आई आई टी खोल दी जाएँ तो देश में इतने ही सशक्त और सक्षम इंजीनियर तैयार हो सकेंगे और फिर हम इस क्षेत्र में सबको पीछे छोड़ देंगे . फिर क्या था? राजनीति जो सिर्फ विधेयक पास करने भर से ही सपने देखने लगती है और इसको क्रियान्वित भी कर दिया गया . देश में आई आई टी का तमगा लगा कर निकलने वाले छात्रों की संख्या बढ़ गयी . प्रतिष्ठित चारों आई आई टी के शिक्षकों ने अपना संस्थान छोड़ कर नए संस्थानों में निदेशक के पद संभाल लिए तो आशा जगी कि आई आई टी के इसी स्तर को कायम रख पाने में सफल हो सकेंगे लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो पाया या आगे भी हो पायेगा। हम संख्या तो बढ़ा सकते हैं लेकिन उसकी गुणवत्ता को कायम रखने के लिए योग्य शिक्षक कहाँ से लायेंगे? आज के भौतिकवादी युग में जब कि पैसे की ही अहमियत सबसे है और विदेशी कम्पनियाँ अधिक पैकेज देकर मेधा को ले कर जा रही हैं और मेधा भी संस्थान से निकलते ही पैसे की चकाचौंध से भ्रमित होकर चले जाते हैं और क्यों न जाएँ? क्या हम उनको इतना दे सकते हैं। नहीं फिर हम मेधा को रख ही नहीं सकते हैं।
शोध की दिशा में जाने वाले कितने छात्र होते हैं और जो होते हैं वे कितनी आई आई टी के लिए पर्याप्त होंगे। संख्या नहीं हमे लिए गुणवत्ता पर अधिक ध्यान देना होगा .
इसके साथ ही जब इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने की स्वतंत्रता दे दी गयी तो फिर ये कुकुरमुत्तों की तरह उगने लगे . जिसने इंटर पास किया और इंजिनियर बनने की इच्छा है तो बनाने के लिए तैयार है ये कॉलेज। फिर ऐसे लोगों का भविष्य क्या होगा? इसका किसी को नहीं पता है। बैंक से लोन लेकर या घर जमीन बेच कर माँ बाप पढ़ा तो देते हैं फिर उसके बाद ? नौकरी के लिए भटक रहे हैं क्योंकि इन कॉलेज में गुणवत्ता क्या है? ये उन सब लोगों को पता नहीं होती है बस अच्छी सी बिल्डिंग और ऊपरी तामझाम देखकर उन्हें लगता है कि पढ़ कर निकलते ही मेरा बेटा अच्छे से पैकेज पर नौकरी करने लगेगा और हमारे दिन बदल जायेंगे। ये सपना हमेशा सपना ही रह जाता है और बच्चे इतना भी नहीं कमा पाते हैं कि वे अपने लिए हुए लोन को भी चुका लें।
अब और सपना हम देखने लगे हैं कि 4 एम्स उत्तर प्रदेश में खोले जाएँ बगैर ये सोचे कि क्या उन सब में वह गुणवत्ता बनाकर रखी जा सकेगी जो इस समय एक एम्स होने पर कायम है। केंद्र के एक एम्स की उचित है क्योंकि एक को वह सारी सुविधाएँ मुहैया कराइ जा सकती हैं जो उच्च स्तरीय चिकित्सा के लिए जरूरी है। ये प्रस्ताव और उसको पूरा करने का सपना धीरे धीरे ही फलीभूत होता है कहीं ऐसा न हो आधी छोड़ एक को धावों आधी मिली न पूरी पावो .
अतः ऐसा निर्णय लेने से पहले हमें अपने अतीत से सीख लेनी चाहिए कि शिक्षा में संख्या नहीं बल्कि गुणवत्ता का महत्व होता है। उसे कायम चाहिए। हर स्तर के छात्र के लिए उस स्तर के संस्थान होने चाहिए और भी गुणवत्ता को पूरी तरह से कायम रखना चाहिए ताकि उससे पढ़कर निकल कर आने वाले छात्र अपना जीवन ट्यूशन पढ़ा कर या फिर शिक्षा से कुछ इतर करके अपना जीवन न गुजारें।
सचमुच दीदी. इंजीनियरिंग कॉलेजों की बढत देख के तो ऐसा ही लगता है कि एक दिन केवल इंजीनियर ही इंजीनियर नज़र आयेंगे देश में.
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही संख्या बढ़ाने से गुणवत्ता नहीं बढ़ जायेगी..
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही मुद्दा उठाया है आंटी। दरअसल आज कल पढ़ने वालों का ध्यान केवल इंजीनयर या डॉक्टर बनने भर पर है और पढ़ाने वाले भी सिर्फ अपनी ड्यूटी पूरी कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंजब तक पढ़ाने वाले शिक्षकगण शोध का महत्व पढ़ने वालों को नहीं समझाएँगे तब तक उनके योग्य उत्तराधिकारी भी मिलना कठिन होगा।
सादर
खास को आम बनाती दुनिया..
जवाब देंहटाएंखास को जब आम बना देती है दुनियाँ तो वो अपना महत्व खो देता है और फिर भीड़ में सब आम हो जाते हें.
जवाब देंहटाएंगुणवत्ता पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है।
जवाब देंहटाएंयह सच है कि जब तक योग्य शिक्षक नहीं होंगे तब तक इन कॉलेजों से अच्छे छात्र नहीं निकल सकते। शिक्षकों का प्रत्येक क्षेत्र में अकाल है। इसके लिए विदेशी पलायन रोकना होगा और शिक्षक को उच्च वेतनमान देना होगा।
जवाब देंहटाएंआम आदमी आइसक्रीम और बोतल वाले पानी की सोच भी नहीं सकता ......मंत्री जी को सोच बदलनी होगी
जवाब देंहटाएंसार्थक पोस्ट