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शनिवार, 28 मई 2011

गर्मियों की छुट्टियाँ और अपना बचपन ! (२)

डॉ रूपचंद शास्त्री "मयंक"



पिकनिक में मामा मामी उपहार में मिले !


यह बात 1966 की है। उन दिनों मैं कक्षा 11 में पढ़ रहा था। परीक्षा हो गईं थी और पूरे जून महीने की छुट्टी पड़ गई थी। इसलिए सोचा कि कहीं घूम आया जाए। तभी संयोगवश् मेरे मामा जी हमारे घर आ गये। वो उन दिनों जिला पिथौरागढ़ में ठेकेदारी करते थे। उन दिनों मोटरमार्ग तो थे ही नहीं इसलिए पहाड़ों के दुर्गम स्थानों पर सामान पहुँचाने का एक मात्र साधन खच्चर ही थे।
मेरे मामा जी के पास उन दिनों 20 खच्चर थीं जो आरएफसी के चावल को दुर्गम स्थानों तक पहुँचातीं थीं। दो खच्चरों के लिए एक नौकर रखा गया था इसलिए एक दर्जन नौकर भी थे। खाना बनाने वाला भी रखा गया था और पड़ाव बनाया गया था लोहाघाट। मैं पढ़ा-लिखा था इसलिए हिसाब-किताब का जिम्मा मैंने अपने ऊपर ही ले लिया था।
मुझे यहाँ कुछ दिनों तक तो बहुत अच्छा लगा। मैं आस-पास के दर्शनीय स्थान मायावती आश्रम और रीठासाहिब भी घूम आया था। मगर फिर लौटकर तो पड़ाव में ही आना था और पड़ाव में रोज-रोज आलू, अरहर-मलक की दाल खाते-खाते मेरा मन बहुत ऊब गया था। हरी सब्जी और तरकारियों के तो यहाँ दर्शन भी दुर्लभ थे। तब मैंने एक युक्ति निकाली जिससे कि मुझे खाना स्वादिष्ट लगने लगे।
मैं पास ही में एक आलूबुखारे (जिसे यहाँ पोलम कहा जाता था) के बगीचे में जाता और कच्चे-कच्चे आलूबुखारे तोड़कर ले आता। उनको सिल-बट्टे पर पिसवाकर स्वादिष्ट चटनी बनवाता और दाल में मिलाकर खाता था। दो तीन दिन तक तो सब ठीक रहा मगर एक दिन बगीचे का मालिक नित्यानन्द मेरे मामा जी के पास आकर बोला ठेकेदार ज्यू आपका भानिज हमारे बगीचे में से कच्चे पोलम रोज तोड़कर ले आता है। मामा जी ने मुझे बुलाकार मालूम किया तो मैंने सारी बता दी।
नित्यानन्द बहुत अच्छा आदमी था। उसने कहा कि ठेकेदार ज्यू तुम्हारा भानिज तो हमारा भी भानिज। आज से यह खाना हमारे घर ही खाया करेगा और मैं नित्यानन्द जी को मामा जी कहने लगा।


उनके घर में अरहर-मलक की दाल तो बनती थी मगर उसके साथ खीरे का रायता भी बनता था। कभी-कभी गलगल नीम्बू की चटनी भी बनती थी। जिसका स्वाद मुझे आज भी याद है। पहाड़ी खीरे का रायता उसका तो कहना ही क्या? पहाड़ में खीरे का रायता विशेष ढंग से बनाया जाता है जिसमें कच्ची सरसों-राई पीस कर मिलाया जाता है जिससे उसका स्वाद बहुत अधिक बढ़ जाता है। ऐसे ही गलगल नीम्बू की चटनी भी मूंगफली के दाने भूनकर-पीसकर उसमें भाँग के बीज पीसकर मिला देते हैं और ऊपर से गलगल नींबू का रस पानी की जगह मिला देते हैं। (भाँग के बीजों में नशा नहीं होता है)
एक महीने तक मैंने चीड़ के वनों की ठण्डी हवा खाई और पहाड़ी व्यंजनों का भी मजा लिया। अब सेव भी पककर तैयार हो गये थे और आलूबुखारे भी। जून के अन्त में जब मैं घर वापिस लौटने लगा तो मामा और मामी ने मुझे घर ले जाने के लिए एक कट्टा भरकर सेव और आलूबुखारे उपहार में दिये।
आज भी जब मामा-मामी का स्मरण हो आता है तो मेरा मन श्रद्धा से अभिभूत हो जाता है।
काश् ऐसी पिकनिक सभी को नसीब हो! जिसमें की मामा-मामी उपहार में मिल जाएँ!
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आज वो पहाड़ी मामा-मामी तो नहीं रहे मगर उनका बेटा नीलू आज भी मुझे भाई जितना ही प्यार करता है।
पहाड़ का निश्छल जीवन देखकर मेरे मन में बहुत इच्छा थी कि मैं भी ऐसे ही निश्छल वातावरण में आकर बस जाऊँ और मेरा यह सपना साकार हुआ 1975 में। मैं पर्वतों में तो नहीं मगर उसकी तराई में आकर बस गया।


संगीता स्वरूप :




रेखा जी का मेल आया कि बचपन में गर्मी कि छुट्टियाँ कैसे बितातीं थीं इस परकुछ लिख कर भेजो .... अब बताइए कल कि बात याद नहीं रहती और वो हैं किइतने पुराने दिनों कि याद ताज़ा करने को कह रही हैं ...चलिए कोशिश करती हूँस्मृति मंजूषा खोलने की ..

मेरे पापा उत्तर-प्रदेश के इरिगेशन डिपार्टमेंट में इंजिनियर थे तो हमेशा ही पोस्टिंग छोटी छोटी जगह ही हुई ..कस्बेनुमाकॉलोनी में ही रहते हुए बचपन बीता ..
गर्मियों की छुट्टियों में हमारा तो कहीं घूमने जाना नहीं होता था बस शहरों में रहने वाले रिश्तेदार ही शुद्ध वातावरण काआनन्द लेने हमारे यहाँ आ जाते थे ...इस तरह हम जाएँ या न जाएँ पर छुट्टियाँ खूब मस्ती में बीत जाती थीं ..बचपन सेही खेलों का बहुत शौक रहा है ..हर तरह के इनडोर गेम्स ..कैरम , चाईनीस चैकर .. और ताश ... और जब सब मिल करखेलते थे तो लड़ाई होना भी लाज़मी था ..सबसे ज्यादा मज़ा आता था जब दिल्ली से ताई जी आती थीं ,
क्यों कि उनके साथ आते थे हमारी उम्र के बराबर के ही तीन बच्चे .. हम सबमें एक डेढ़ साल की उम्र का ही अन्तर थाइसलिए उनके साथ बहुत मज़ा आता था ..गर्मी की दोपहर में ..पापा तो ऑफिस चले जाते थे और माँ और ताई जी हमपाँचों को ज़बरदस्ती सुला देती थीं ... पर हम लोंग सोते कहाँ थे ..जैसे ही दोनों सोयीं सब एक एक करके भाग लेते थे औरअपने ही कम्पाउंड में लगे आम अमरुद के पेड़ों पर चढ तोड़ लाते थे ..कभी करोंदे और निम्बू भी तोड़ लाते थे हांलांकिनिम्बू और करौंदे तोडने में हाथ काँटों से छिल भी जाते थे ..और यह सब देख कर कभी माँ की डांट के साथ साथ मार भीपड़ जाती थी ... क्यों कि हम कच्चे पक्के सब निम्बू और करौंदे तोड़ लाते थे ... सूरज ढलने पर आँगन में खूब छिडकावकरना ..सारे बच्चे छिडकाव के लिए पाईप लेने के लिए छिना झपटी करते थे और इस तरह एक दूसरे पर खूब पानीडालते थे .. यह स्नान क्रिया तब तक बंद नहीं होती थी जब तक कोई बड़ा आ कर पानी बंद नहीं कर देता था ...रात मेंआँगन में ही चारपाईयां बिछायी जाती थीं ..देर रात तक खुसर फुसर होती रहती थी ..तब ताई जी कहतीं थीं कि चलो एकगेम खेलते हैं .. देखते हैं कौन कितनी देर चुप रह सकता है ... जो पहले बोलेगा उसे सजा मिलेगी ...इस गेम का लॉजिकबाद में समझ आया ... ..
खैर इन सबसे इतर एक घटना मैं साझा करना चाहूंगी ...जिसको मैं ज़िंदगी भर नहीं भूल सकती .. बात तब की है जब मैं८ या ९ साल की रही होऊँगी ... पापा की पोस्टिंग रिहंद में थी ... वहाँ रिहंद बाँध बन रहा था ..ये मिर्ज़ापुर से करीब १००किलोमीटर दूर है ..कुछ लोगों को कॉलोनी में घर मिला हुआ था बाकी लोगों को जहाँ सुविधा हुई वहाँ दे दिया गया थाहमारा घर ऐसी जगह था जहाँ घर के पीछे से ही जंगल शुरू हो जाता था ..और बचपन में हम उस जंगल में बहुत घूमतेथे ..एक बार ताई जी जब आयीं तो अपने साथ मिर्जापुर की छडियां लायीं थीं ...पूरी छ: .. पूछने पर बताया कि वहाँ कीमशहूर हैं ... (अब पता नहीं कि मशहूर थीं या नहीं पर उन छड़ियों से एक दो बार पिटाई ज़रूर हो गयी हमारी ) अब हमसब बच्चों को धुन कि इन छड़ियों को लेकर जंगल की सैर की जाए ... ..
बस मौके की तलाश थी ॥और एक दिन दोपहर को मिल गया मौका ...माँ और ताई जी गहरी नींद में थीं कि हम पांचोएक एक छड़ी उठा कर घुस गए जंगल में ...शुरू में तो जंगल इतना गहन नहीं था ..और एक दूसरे को कहते हुए हम आगेही बढते गए ..इतनी दूर तक इससे पहले हम लोंग कभी नहीं गए थे ..८ साल से १२ साल की उम्र के बच्चे हर ओर सेनिश्चिन्त हल्ला गुल्ला करते चले जा रहे थे ..सामने ही एक खायी दिखाई दी ..जिसमें एक गाय का पूरा कंकाल दिख रहाथा ..हम सब ही थोड़ा डर गए ..इतने में ही बड़ी जोर से किसी जानवर की आवाज़ सुनाई दी और हम सारे के सारे उलटेपाँव भागे ... डर के मारे बुरा हाल था ...मैं और मुझसे छोटा एक मेरा कज़िन सबसे पीछे ... छड़ी थी कि और परेशान कररही थी ... वो फेंक फांक कर जो दौड लगाई है ..और साथ में हम दोनों जो सबसे पीछे थे रोते भी जा रहे थे ...फिर दोनों बड़ेभईया हमारा हाथ पकड़ कर लगभग घसीटते हुए आखिर जंगल से बाहर ले ही आए ... और हमने चैन की साँस ली ... घर जाने से पहले सबने तय कर लिया कि किसी को कुछ नहीं बताना है ..क्यों कि बताने से डांट पड़ती तो दोनों बड़ेभाइयों को ही पड़ती तो उनकी सख्त ताकीद थी कि खबरदार जो कुछ कहा .. हमने तो कुछ नहीं कहा ...पर उन छड़ियों नेकह दिया जो हम फेंक आए थे ...माँ लोग सच ही बड़ी जासूस होती हैं ..तब समझ नहीं आता था ... कि कैसे सब पता चलजाता है ..जब छड़ियाँ कम मिलीं तो खोज शुरू हुई और सबकी पेशी ...आखिर डरते डरते सब बता दिया ...लेकिन लगताहै हादसा कुछ ज्यादा ही गंभीर था तब डांट के बजाये प्यार से समझाया गया ...और तब जा कर पता चला कि वो दहाड़छोटे मोटे जानवर की नहीं शेर की थी ... .. जो अक्सर रात को घर के आस पास भी आ जाया करता था ..... आज भी इसघटना को याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं । ,,

** ये यादें सबने बड़े जतन से संजोयीं है और जिसने जैसे साझा की उसमें मैंने बिल्कुल भी क़तर व्योंत की जरूरत नहीं समझी आप भी सब पढ़े और उस बचपन के बारे में जानें जो फिर कभी आएगा नहीं ये यादें एक धरोहर है

(ये सफर अभी जारी रहेगा)

7 टिप्‍पणियां:

  1. ओह तो ऐसे खतरनाक खेल खेला करती थीं आप संगीता दी…………वैसे यही यादें तो जीवन की धरोहर बन जाती हैं।

    शास्त्री जी की यादें भी बहुत बढिया हैं।

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  2. यह यादें ही तो हमारी धरोहर हैं!
    --
    लगता है संगीता जी तो शुरू से ही
    खतरों से खेलने की आदि रहीं हैं!

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  3. बाप रे संगीता दी! इतनी एडवेंचरस हो आप....
    बहुत ही सुन्दर सुन्दर यादें हैं सबकी.

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  4. साहस और शरारत से भरपूर यह् संस्मरण बड़ा दिलचस्प लगा संगीता जी ! आपको इस रूप में जानना भी बहुत सुखद रहा ! सारे हमउम्र भाई बहन जब मिल जाते हैं तो कितना धमाल होता होगा इसकी कल्पना की जा सकती है ! शेर से मुलाक़ात होते होते रह गयी आपकी ! सचमुच रोंगटे खड़े हो गये मेरे रोमांच से ! लाजवाब संस्मरण ! बहुत आनंद आया इसे पढ़ कर !

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  5. ॒रुपचंद जी

    खाने के आप बचपन से शौकीन रहे हैं....:)

    ॒ संगीता जी,

    बच गईं आप...शेर आपको खा लेता तो यहाँ ब्लॉगजगत का क्या होता? मेरा तो यही सोच कर दिल दहल रहा है. :)

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