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सोमवार, 6 जून 2011

गर्मियों की छुट्टियाँ और अपना बचपन (12)

कितने जतन से सब अपना अपना बचपन याद करके उन यादों को संजो कर मुझे दे रहे हैं और फिर इसका आननद तो सभी को मिल ही रहा हैजो मुझे भेज चुके हैं या फिर भेज ने वाले हैं उनसे कोई शिकायत नहीं लेकिन जो अभी तक सिर्फ सोच रहे हैं उनसे आग्रह करती हूँ कि अपने दिमाग के साथ साथ हाथ को भी गति दें और लिख डालें ताकि ये श्रृंखला इसी तरह से जारी रहे





मनोज कुमार :

सबसे अलग कहानी


हमारे ज़माने अर्धवार्षिक परीक्षा जून में और वार्षिक परीक्षा दिसंबर में होती थी दिसंबर के आखिरी सप्ताह तक परिणामभी जाते और हम इतना परेशान में नई कक्षा कभी नहीं किया उसके बाद वही क्रम स्कूल जाना आना लगा रहता गर्मियों में हमें आगे की पढ़ाई के लिए हिदायत दी जाती दी जाती की अगर इस समय पढ़े तो फिर पढ़ने का समय नहींमिलेगा।

पिताजी जब काम में काफी व्यस्त होते तो जो भी हमारी थोड़ी बहुत जमीन बची उसके इंतजामात के लिए हमें गाँव भेजदिया करते थे। गर्मी के छुट्टियों के दिन थे, क्लास की कोई हानि होनी नहीं थी इसलिए उस साल जून के महीने में हमेंआदेश मिला कि गाँव जाकर पानी वाणी पटवा आयें हम अपने सारे ग्राम प्रेम को दिन में बांधे मुजफ्फरपुर से ट्रेन केद्वारा समस्तीपुर पहुँच गए और स्टेशन पर bu दरदास आये थे रिक्शा लेकर। उनकी रिक्शा कि सवारी से हम दो ढाई घंटेमें सुषमा सम्पन्न तिरहुत के हरे भरे गाँव रेवाड़ी में थे।गाँव की chhata निराली थी। दूर तक पसरी हुई शस्य श्यामलाधरती ज्यादातर कच्चे घरों के बीच एकाध पक्क्के मकान और दो हवेली। तिरछी, टेढ़ी, संकरी और कहीं कहीं थोड़ी चौड़ीकच्चीसड़क सड़कों पर बैलों के गले में घूघुर की आवाज पर दौड़ लगते बच्चे और सड़कों के किनारे हाथ में लकुटियालिए भैस चरते अहीर।
सज्जन , हमारे बड़े चाचा का लड़का , सिर्फ मेरी क्लास में पढता था बल्कि मेरा सबसे अच्छा मित्र भी था। हम दोनोंअगले कुछ दिनों कि योजनायें बनाने लगे शाम तक हमारी योजना बन चुकी थी। अपनी योजना को अमल देने के लिएहम बाहर निकले ही थे कि बाबा हमें दालान में मिल गए उनका आदेश हुआ कि इस भयंकर गर्मी में शाम को भी लूचलाती है, इसलिए पछिबरी गाछी से दो बेल लेते a बेल का शरबत पीकर ही जाना चाहिए। उससे पेट ठंडा रहेगा औरसुबह पेट भी साफ रहेगा। जिस तन्मयता से बाबा ने बेल का शरबत बनाया उसमें नीबू निचोड़ा और अपनी गमछे सेछान से हमें पिलाया, फिर खुद भी पिए। वह इतने वर्षों के बाद भी आँखों के आगे सजीव है।
रोज बेल का शरबत गटकने के बाद हमारा अगला पड़ाव था झींगुर दस का काली स्थान। उनका घर उसी के बगल में थावो वहीं मिल गए। आरंभिक हाल चाल के बाद हम अपने मंतव्य
पर गए। बोले कि आज भैस चराने नहीं गए तो वोबोले कि उनका बेटा केशो गया है आज खलिहा चर में भैंसा चराने के लिए बगैर एक क्षण गवाएं हंम खलिहा पहुंचे।केशो दूर से ही दिख गया। हमने उसे भैंस पर से लगभग धकियाते हुए हटाया और खुद छलांग लगा कर चढ़ गए। अगलेएक घंटे हमने भैंस की सवारी की। वो भी बेचारी सोचती होगी किससे पाला पड़ा है चैन से खाने भी नहीं देता। हम कभीउसे बर्कुरवा की तरफ ले जाते और कभी डोरा की तरफ।
शाम हो चली। साये आकाश से उतारकर गाँव की धरती पर पढ़ने लगे। डिबरी और लालटेन अधिकांश घरों में जल उठे थे।पुरबिया मैदान में बच्चों का डोल - पट खेल बंद हो चुका था। भुनिया का तांगा खर्रा खर्रा करते हुए काली ठान की ओर जारहा था चौ बजिया शटल केए सीटी की आवाज गाँव में स्पष्ट सुनाई पद रही थी। चौपाल की गहमा गहमी शांत होने वालीथी। गाय - गोरु वाले बन्थक में उन्हें बाँध चुके थे। पूरे गाँव में एक निपट सन्नाटा पसरा हुआ था। खुर सैर सपाटा करनेके बाद हम अपने दालान में कदम रखते उसके पहले ही हमारी हरकतों की खबर पहुँच चुकी थी। बाबा कुछ गंभीर मुद्रा मेंहमें हमारी हरकतों के लिए दाँत डपट का मूड बना चुके थे। पर हमारी 'रेस्क्यू' के लिए अईया (
दादी को हम यही कहतेथे।) गयीं। क्या हुआ, थोड़ा चढ़ा गया तो सब मुजफ्फरपुर में थोड़े ही मिलेगा। अईया के हाथ की मक्के के रोटी दूधमें गुड कर खाने का जो आनंद उस रात आया वह सिर्फ खाकर ही जाना जा सकता है।
दूसरे दिन जब हम उठे तो मालूम हुआ पिछ्बरी गाची में आम तोडा जा रहा है। हम भी पहुंचे। झीगुर दास के नेतृत्व में दोतीन जान लगे थे आम तोड़ने में। हमने इस अवसर को गवाना उचित नहीं समझा, र्मियों गए पेड़ पर और लगे फतापह्तआम तोड़ने। हमें क्या मालूम की आम की से जो रस निकलता है वह बड़ा ही खतरनाक होता है। रस की कुछ बूँदें हमारेचेहरे पर गिर गयी। जब जलन हुआ तो हमने mलिया और वहां एक बड़ा बरगद का पेड़ गए।
हमारे इस में चलते हैं पोखर में स्नान करने। सज्जन ने कहा chalte hain pokhar men snaan karne विशालपोखर है हम वहाँ नहाने के लिए पहुंचे। vahan ek bada bargad ka ped पेड़ से पोखर में चपचप सफर बही जारी हैंको नहलाते किसान और पल्लू को दांतों में दबाये घुटने भर पानी में अध्परे पात पर पटक पटक कर कपड़े ढ़ोती रजककन्यायें गाँव के सौहाद्र। और समरसता के प्रतीक थे इसी पोखर के दूसरे किनारे पर महादेव का मंदिर है जी भर करस्नान करने। के बाद भोला बाबा पर जल चढ़ाये और घर गए


*इस क्षमा याचना के साथ कि इसमें aane vali सारी त्रुटियाँ meri hi हैं क्योंकि नेट ने हमें itana pareshan kabhi nahin kiya। isamen na edit karne दिया aur kabhi टाइप कर rahe hain aur kabhi vah likha ja raha है।
saphar bahi jari hain।


4 टिप्‍पणियां:

  1. दीदी, दो दिन पहले ही बाहर से लौटी हूं. अब फ़ुरसत से पढती हूं, सबके संस्मरण.

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  2. गाँव के खूब मजे ले लिये। भैंस की सवारी भी कर ली! वाह क्‍या आनन्‍द है?

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  3. गांव का असली आनंद उठाया ..बढ़िया संस्मरण

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  4. गांव का असली आनंद उठाया ..बढ़िया संस्मरण

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