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गुरुवार, 21 जून 2012

विदेश में धन संचय !

           पिछले पिछले  वित्त मंत्री महोदय ने एक वक्तव्य दिया था कि  विदेशों में जमा सारा धन काला  धन  नहीं है ।
                       माननीय मंत्री जी ये आप हमें बतलाइए कि विदेशों में सफेद धन जमा करवाने का औचित्य क्या है? काला  धन तो मान सकते हैं कि दुनियां के नजर से बचाना ही पड़ता है और घर वालों से भी। फिर ये तो बड़े बड़े नौकरशाहों और माननीयों के ही वश की बात है कि वे अपने धन को कहाँ छुपा कर रखें? लेकिन ये काला  धन सदैव काला  ही रह जाता है क्योंकि उनके पास इतना सफेद धन होता है कि उसको ही खर्च नहीं कर पाते है, फिर काले  धन की बात कौन करे? 
      
                 सफेद धन के विदेश में संचित करने की बात पर   कुछ सवाल तो पूछे ही जा सकते हैं --
-- क्या हमारे देश से अर्जित किया गया धन देश में संचित न करके विदेशों  में संचयन देश के साथ गद्दारी नहीं है?
              जिस देश की जमीन पर रह  कर आप अपने को जीवित रखे हुए हैं। यहाँ के लोगों के विश्वास पर देश के शासन में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर रहे हैं और यहाँ से धन अर्जित कर रहे हैं . उस धन को आप अपने व्यक्तिगत  उपयोग के बाद  देश की बैंक में संचित न करके बाहर  भेज रहे हैं। देश में संचित धन देश के विकास में काम आता है और देश के बाहर  जाकर उनके पास सुरक्षित रखने का आप दाम भी चुकाते हैं और वह भी इसी देश से कमा कर। आपकी दृष्टि में ये उचित हो सकता है लेकिन मेरी दृष्टि से ये देश के साथ गद्दारी है।  आप को देश से कमाए हुए धन यही पर रखना चाहिए।

--क्या देश की बैंक इस काम के लिए सक्षम नहीं है कि  आप अपने धन को बाहर अधिक सुरक्षित समझ रहे हैं ? 

         जिस देश में बैंकों की कमी नहीं  है और इस देश के नागरिक इन्हीं बैंकों में अपनी गाढ़ी कमाई  जमा करके देश के विकास में कुछ तो अपना सहयोग दे ही रहे हैं . विदेश में धन जमा करने वाले लोग इसा देश में रहकर क्या कर रहे हैं? सिर्फ धन की उगाही के लिए यहाँ पर हैं या फिर उनका कोई और भी उद्देश्य है। देश के बैंक देश के करोड़ों नागरिकों के धन को सुरक्षित रख सकते हैं और उनके संचित  धन से और लोगों की जरूरत के अनुरूप सहायता भी कर रहे हैं फिर आपके धन को सुरक्षित रखने में वे आपको अक्षम कैसे लग रहे हैं? 
--आपका का ये कृत्य क्या एक जिम्मेदार नागरिक साबित कर रहा है? 
                            आप जनप्रतिनिधि हो या फिर नौकरशाह पहले आप इस देश के प्रति जवाबदेह है , उस पर लीपापोती करके आपके बरी नहीं हो सकते हैं। देश के नागरिकों को महंगाई और भुखमरी के कगार पर लाकर आप खुद का सुरक्षित भविष्य विदेशों में जमा कर रहे हैं। आप अपने पद से कोई भी हों सबसे पहले आप इस देश के नागरिक हैं और एक नागरिक होने के नाते आपका ये कृत्य आपको गैरजिम्मेदार ठहरा रहा है।
             

मंगलवार, 12 जून 2012

ऐसा हुआ मेरे साथ !

            इस घटना को लिखने की वजह पिछले अनुभव "रिश्वत ऐसे ली जाती है" के सन्दर्भ में दिनेश राय द्विवेदी जी और काजल कुमार जी के कथन पर ही लिख रही हूँ।


                      ये बात कई साल पुरानी  है। समझौता और गलत बात से मैंने कभी नहीं किया है। मैं उस समय इंदिरा नगर में रहती थी और मेरे पतिदेव के प्रोमोशन का टेलीग्राम  आया . उस समय मोबाइल का चलन नहीं था और फ़ोन भी किराये के मकान  होने के नाते नहीं था। तब त्वरित सूचना का एक मात्र साधन टेलीग्राम ही थे। पोस्टमैन  ने टेलीग्राम देने के एवज में इनाम माँगा जिसको देने से मैने इंकार कर दिया और वह भी इनाम नहीं तो टेलीग्राम नहीं कहते हुए वापस लेकर चला गया। 
                    इस बात को मैंने दैनिक जागरण के "जनवाणी " में भेज दिया और "जनवाणी" से उसको विभाग में भेज दिया जाता है। इत्तेफाक से उसपर कार्यवाही शुरू हो गयी। ठीक होली वाले दिन पोस्टल विभाग के कुछ लोग जिनमें एक अधिकारी था 3-4 पोस्टमैन  को लेकर मेरे घर आये और बोले कि  इनमें आप पहचान लीजिये किसने ये बात कही थी?  उन लोगों में वह पोस्टमैन था। उस दिन मेरे पहचानने से वह कम से कम सस्पेंड होने वाला था या नौकरी ही चली जाएगी ऐसा उन लोगों ने कहा। 
                    मैंने सोचा कि बेकार त्यौहार के दिन इसकी नौकरी चली जायेगी घर में इसके पत्नी और बच्चे इसी पर  निर्भर हों, इसके कर्मों की सजा वे क्यों भोगें? । इसलिए मैंने पहचानने से इनकार कर दिया और कहा कि इनमें से ही कोई था। ऑफिसर ने कहा कि  आप बतलाइए क्या कार्यवाही आप चाहती हैं ? कार्यवाही तो होगी फिर चाहे सब पर हो। मैंने अपने विवेक से उनको लिखा कि  -- 'मेरे द्वारा सही गई असुविधा को आप लोगों ने संज्ञान में लिया इसके लिए मैं आभारी हूँ  लेकिन मैं इनमें से किसी पर भी कोई अनुशासनहीनता के एवज में कार्यवाही नहीं चाहती हूँ। इस कार्य के लिए इतनी चेतावनी ही काफी है ताकि भविष्य में कोई ऐसा वाकया  दुबारा न हो। '
                   हर व्यक्ति की अपनी एक छवि होती है और उसके बारे में विभाग में सभी जानते हैं इसलिए उस पोस्टमैन को वहां ट्रान्सफर कर दिया गया। मैं इस बात को भूल भी गयी लेकिन जब हम अपना मकान  बनवा कर यहाँ आये तो इस इलाके में वही पोस्टमैन था। लेकिन वह नहीं भूला था। जब भी मेरा कोई पत्र आये मिले ही नहीं , यहाँ तक कि  मेरे पापा के निधन होने पर भाई साहब ने टेलीग्राम भेजा तो वह मुझे आज तक नहीं मिला। मैंने तो अपनी डाक अपने ऑफिस के पते पर मंगाना  शुरू कर दिया।
                  जब उसका ट्रान्सफर यहाँ से भी हुआ तो वह नए पोस्टमैन को इलाके में लेकर बता रहा था तो उसने बताया की इस घर के लोग बहुत ही ख़राब हैं पता नहीं कब किसकी नौकरी खा जाएँ? मैं तो इनके पत्र फाड़ कर भेज देता था। अब आगे तुम जानो . जब नया पोस्टमैन हमसे परिचित हो गया तब उसने ये बात बतलाइ । और मैंने उसको सारा माजरा बताया।  ये सजा पायी थी मैंने अन्याय के खिलाफ  आवाज उठा कर कि  मैं अपने पापा के अंतिम दर्शन भी नहीं कर सकी। लेकिन अन्याय के साथ समझौता अब भी नहीं सीखा है। 
                  

सोमवार, 11 जून 2012

रिश्वत ऐसे ली जाती है !

                  'सत्यमेव जयते ' में एक एपिसोड में यह कहते सुना था कि रिश्वत माँगने वाले की तरह रिश्वत  देने वाला भी उतना ही अपराधी होता है , ठीक उसी तरह से जैसे कि  दहेज़ देने और लेने वाले दोनों अपराधी होते हैं . लेकिन एक घटना ऐसी मैंने अपने आँखों से देखी कि  कह नही सकती कि  अमन चैन पसंद आदमी और जो गलत कामों के झमेले से दूर  है उससे ये घूसखोर डरा धमाका कर वसूल कर लेते है। 
                  बस चार दिन पहले की घटना है - मैं सुबह पौने पांच बने मोर्निंग वॉक के लिए निकलने वाली थी कि देखा  मेरे सामने वाले पोल के पास करीब 5-6 लोग खड़े हुए हैं और पोल की फोटो ले रहे थे। मेरे बाहर  निकलते ही पूछा - 'क्या आपके पड़ोस में दो मीटर  लगे हुए हैं?'
 मैंने कहा - ' मुझे नहीं मालूम वैसे मीटर तो एक ही लगा है.'
 'इनके घर में कोई जगा होगा?'
 मैंने कहा  - ' नहीं देर से उठते हैं।'
'अच्छा फिर हम थोड़ी देर बाद आते हैं। ' कह कर वो दूसरी तरफ  चले गये और मैं वॉक के लिए. करीब के  एक घंटे  के बाद जब मैंने लौट कर आई तो वे लोग बाहर बैठे हुए थे और उनमें से कुछ अन्दर भी थे। 
             पता चला माजरा यह है की पड़ोस में पहले की पड़ी हुई केबिल  डैड हो चुकी थी और उन्होंने दूसरी केबिल डलवा कर सही करवाया था . वह डैड केबिल ऐसे ही लटकी हुई थी न पोल से जुडी थी और न ही कहीं उनके मीटर से जुडी थी। लेकिन वह इस बात के पीछे पद गए कि  हमने इस केबिल की फोटो ले ली है , इसके चलते आप की ऍफ़ आई आर करवा सकते हैं। और पेनाल्टी में आपको सत्तर अस्सी हजार  देने पड़ेंगे . पुलिस और कचहरी का अलग चक्कर पड़  जायेगा . 
           पड़ोस में जो परिवार रहता है , उसके बेटे झाँसी में काम करते हैं और उनके पत्नी बच्चे रिटायर्ड पिता और माँ  यहाँ पर रहते हैं। वह कभी कभी आ पाते  हैं। उनकी समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या करे? या तो ये लेकर ही टलेंगे या फिर रोज रोज आ कर पिता जी को परेशान  करेंगे । इसलिए उन्होंने इसका रास्ता उन्हीं से पूंछा . शायद उनमें से जो सीनियर थे अपने हाथ में नहीं लेना चाहते थे इसलिए वे बाहर निकल गए और उनके रिश्वत लेने में माहिर जूनियर आया  -' देखिये हम इतने लोग हैं कोई एक तो इस मामले को अकेले निबटा नहीं सकता है इसलिए सबकी सहमती से ही कुछ काम किया जाएगा। मैंने बात करता हूँ मामला 15 हजार तक निबटा दूंगा। उन्होंने साफ मना  कर दिया कि  मैं न तो इतने  घर में रखता हूँ और न ही मैं दे पाऊंगा। आपको जो भी करना हो कर लीजिये। 
'ये मीटर किसके नाम है? '
मेरे पिताजी के नाम ' पडोसी ने कहा .
'तब आपके पिताजी के नाम ही कार्यवाही होगी, कुछ तो सोचिये ये वृद्ध आदमी कहाँ भागते फिरेगे? सरकारी काम तो भागने और दौड़ने से ही निबटते हैं। मैं फिर से बात करता हूँ शायद कुछ कम में मामला निबट जाए। 
                      पडोसी बेचारे इस झंझट से मुक्त होना चाहते थे क्योंकि यहाँ पर उनके पिता जी अकेले पुरुष मेंबर थे और शेष घरेलु औरतें थी। इसलिए वह  हम लोगों से विचार विमर्श कर कुछ देने के लिए  तैयार हो गए। बात 5 हजार रुपये में तय हुई और वे लोग उन्हें दूसरी जगह आकर  पैसे देने के लिए कह कर चले गए और एक घंटे बाद उन्होंने कहीं और जाकर उन लोगों को पैसे दिए। 
                      ऐसी हालत में कौन दोषी है? वह जो इन सब झंझटों से दूर रहता है। हमेशा समय से बिल जमा करना और कोई भी नियम विरुद्ध काम करने की कौन कहे वह तो  यहाँ पर आकर परिवार के दायित्वों को निबटा कर वापस अपने काम पर भाग जाते हैं। ऐसे लोगों को ऐसे रिश्वतखोर डरा कर वसूली कर लेते हैं।

रविवार, 3 जून 2012

जनप्रतिनिधियों की पोल !

          हमारे देश की लोकतान्त्रिक प्रणाली के शासन को जिस तरह से चलाया जा रहा है , उसकी आधी सच्चाइयाँ उस जन मानस की जानकारी से दूर है और उनके पास इसको जानने के कोई स्रोत भी नहीं है क्योंकि इसकी जानकारी आम आदमी तक आएगी कैसे?  इसके अधिकार को प्रयोग नहीं कर पाती है. वह तो इसके बाद सिर्फ झेलती है वर्तमान सरकार की सही और गलत नीतियों को और उसके द्वारा किये जा रहे मनमाने कामों को.
                         पिछले वर्ष संसद में उपस्थित सांसदों के विषय में कुछ जाना था कि बड़े बड़े सांसद संसद में कितने दिन उपस्थित रहे ? वे सांसद होने के कारण है लाखों रुपये वेतन और भत्ते के रूप में ले रहे हें फिर भी लगता है कि उनका जमीर उन्हें इस बात के बाध्य नहीं पर पाता  कि जिस लिए वे लाखों रुपये ले रहे हें उस संसद में उपस्थित होने की उनकी नैतिक जिम्मेदारी बनती है लेकिन ये बात तो एक आम आदमी के लिए पता होती है. वह जो सरकारी पद पर काम कर रहा है या फिर कहीं निजी संस्थान में काम कर रहा है . उसे उपस्थित रहना होता है और अगर छुट्टी भी लेनी है तो उसको उन नियमों के अनुसार ही मिलेगी जो उसकी सेवा शर्तों में शामिल है. उनका वेतन कितना होता है? और उनके कार्यकाल कितना होता है? इसके बारे  में इन  सांसदों को पता नहीं होता है. इन  लोगों  को पांच  सालों  में कितने दिन संसद के सत्र  में आना  होता है. उस पर भी ये कि उनमें  कितनों को संसद में कभी  आना  ही नहीं होता है क्योकि  इसमें  छुट्टियों  और उपस्थिति  का  कोई लफडा  होता ही नहीं है. वेतन भत्ते इतने कि सारी जिन्दगी के लिए कुछ करना ही न पड़े और फिर उसके बाद न भी चुने गए तो जीवन भर के लिए पेंशन तो मिलेगी ही. बस पांच साल के लिए एक बार चुन लिए जाओ फिर इनमें से कुछ तो साम दाम दंड भेद इतना कमा लेते हें कि उन्हें रखने के लिए देश में जगह ही नहीं मिलती है और उन्हें उसे विदेशों में छिपा कर रखना पड़ता है. ये जनता के प्रतिनिधि होते हें और जनता के ही हक़ में बोल नहीं पाते और जरूरत भी क्या है? बोलेंगे तब भी वेतन और भत्ते आने और न बोलेंगे तब भी इनमें कोई धोखा नहीं है. सब अपनी अपनी किस्मत का खाते हें.
                    ये सिर्फ संसद की हालात नहीं है बल्कि ये तो राज्य की विधान सभा में चुने गए विधायकों का भी यही हाल होता है. उत्तर प्रदेश राज्यों में आकार की दृष्टि से काफी बड़ा राज्य है और इसकी विधान सभा में लगभग ४०३ विधायकों को चुन कर लाया जाता है . इनमें से कई तो शपथ ग्रहण समारोह में भी अनुपस्थित होते हें जिन्हें बाद में शपथ  दिलाई जाती है. कैसे एक राज्य सरकार अपनी मनमानी करने सफल होती है क्योंकि सदन में विपक्ष के नाम पर कोई उपस्थित होता ही नहीं है . हाँ सत्ता पक्ष के विधायक भी सदन में उपस्थित होने के बारे में संजीदा नहीं होते हें. इस विषय में नेशनल इलेक्शन वाच और ए डी आर की एक रिपोर्ट के अनुसार १५ वीं   विधानसभा जिसका कार्यकाल २००७ - २०११ तक रहा और इस में सदन की कार्य वही महज ८९ दिन चली . इसमें पूरे ८९ दिन सदन में उपस्थित रहने वाले विधायकों में सिर्फ सिर्फ ५ विधायक हें जो शत प्रतिशत उपस्थित रहे और ८८ दिन उपस्थित रहने वाले विधायकों की संख्या २०  रही.  जिनमें से १९ सत्तापक्ष के थे और १ विरोधी दल सपा के विधायक थे.
                                कितना गर्व करने वाली बात है और जनाधार देने वालों को ठगा जाने का अहसास  कराने  वाली बात. अगर सत्तापक्ष निरंकुश होकर बेकार के निर्णय ले और राजकोष को बर्बाद करे तो उस पर कोई एतराज करने वाला कहाँ है? वैसे भी बहुमत लेकर सरकार बनाने वाली बसपा का शासन काम और उसके कामों में सजीव इंसान के लिए नहीं बल्कि वे जो नहीं रहे उनको जिन्दा करने के लिए बुतों और पार्कों का निर्माण कराया गया . जिन्दा लोग तो सिर्फ मत देने के लिए होते हें और एक बार उन्होंने विश्वास किया उसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और आगे की सरकार की बात अब आगे सामने आएगी.
                            मेरे मत के अनुसार चाहे सांसद हों या फिर विधायक इनके कार्यकाल में इनके उपस्थित रहने के लिए उपस्थिति भी अनिवार्य की जानी चाहिए . उनके लिए भी कुछ आचार संहिता होनी चाहिए ताकि वे सिर्फ उस जिम्मेदारी के लिए जिसके लिए उन्हें चुन कर भेजा गया है . उस कार्य को करें. अपनी विधायक राशि को जनहित में प्रयोग लायें न कि कुछ उन विधायकों और सानासदों की तरह जिन्होंने आजतक अपनी राशि उठाई तक नहीं है और न अपना कोई खाता उस राशि के लिए खोला है. उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने वेतन और भत्ते से मतलब होता है और बाकी माननीयों वाली सुविधाएँ तो उन्हें प्राप्त हैं हीं . अब एक संशोधन  संविधान में इस बारे में भी जरूरी है. जिन्हें जनता ने चुन है उनके लिए भी कुछ क़ानून होने चाहिए और वे बाध्य होने चाहिए उनको पालन करने के लिए.

शनिवार, 2 जून 2012

ये कैसा महिला आरक्षण !

  कल  शाम  गेट  खटखटाया गया साथ ही गेट के बाहर कुछ अधिक लोगों के बोलने की आवाजें आ रहीं थी. कुछ समझाने की कोशिश कर रही थी कि अभी तो कोई त्यौहार भी नहीं है (किसी भी धर्म का) और न ही इन दिनों को सामूहिक धार्मिक कृत्यों के होने का अवसर है कि लोग चंदा लेने के लिए आये हों. जाकर गेट खोल कर देखा तो पता चला कि ये निकाय चुनाव की घोषणा होने के बाद अभी उसके नामांकन के लिए आवेदन फॉर्म मिलने की घोषणा की गयी थी. मैंने उन  लड़कों से पूछा  कि क्या बात है? वह बोले वह चुनाव के लिए आये हें - चाची खड़ी हो रही हें वह आप लोगों से मिलने के लिए आयीं हैं. वह सामने  आयीं तो मुझे  कुछ चेहरा  पहचाना  हुआ  लगा  लेकिन  फिर  भी मैं  ये सोच  रही थी कि इनको  मैंने देखा कहाँ  है? मेरी  असमंजस  देख  कर वह खुद  ही बोलीं  - अरे  दीदी  पहचाना  नहीं , अभी हम    बरगद  पर   मिले  थे   और हर  साल  ही मिलते   हैं. ओह  तभी  मुझे  याद  आया  कि वट  सावित्री  व्रत  में  जब  हम  लोग बरगद  पर  पूजा  के लिए जाते  हैं तो वहाँ  पर  ये पूजा  का समान  लेने के लिए उपस्थित  होती  हैं यानि  कि वे  माली  का  काम  करने  वाली  हैं.
                          हमारे  वार्ड  की सीट  पिछड़ी  जाति  की महिला  के लिए आरक्षित  है. अब  दलों  में  होड़  है कि किसको  खड़ा  किया  जाय ?  इसमें  सबसे  बड़ी  चीज  जो  मैंने देखी  कि वह जो  पम्फलेट  हमें  देकर  गयीं  थीं  उसमें  उनकी  फोटो  थी और साथ ही उनसे  बड़ी  उनके  पति  की फोटो  थी जिसमें  लिखा  था  पति  अमुक  अमुक  . ये बात  स्पष्ट  थी कि इन्हें  खड़ा  तो किया  जा  रहा  था  लेकिन  इसके  पीछे  सारा  काम  इनके  पतिदेव  ही देखने  वाले  थे  क्योंकि  किसी भी नेता  के साथ उसकी  पत्नी  की  तस्वीर  तो कभी  नहीं छपती और न ही नेताजी  अपनी  पत्नी  को साथ लेकर  चलते  हैं. नहीं ये निकाय चुनाव में  महिला  को आरक्षण  देकर  उसका  सम्मान नहीं किया जा रहा है बल्कि उसको मोहरा  बना कर मतदाताओं को बेवकूफ बनाने का खेल खेला जा रहा है . उसके सामने कोई विकल्प तो हैं नहीं . ऐसा नहीं है कि इस वार्ड में कोई पढ़ी लिखी पिछड़े वर्ग की महिला नहीं होगी क्योंकि शिक्षा ने अब इस वर्ग में भी एक ऐसा समूह तैयार कर दिया है कि वे भी अपने अधिकारों और सामाजिक जिम्मेदारियों से पूरी तरह से वाकिफ हैं और एक सामान्य जन होने के नाते स्थानीय समस्याओं से भी पूरी तरह से वाकिफ भी हैं. फिर इन अशिक्षित या अल्प शिक्षित महिलाओं को इस क्षेत्र में आगे लाने का एक मात्र उद्देश्य यही है कि इनको आगे करके कुछ दलों और उनके पति को आगे करके अपमी मर्जी से काम किया और कराया जा सके. अभी तक हम उस व्यामोह से बाहर नहीं आये हैं कि जहाँ पर पत्नी कितनी भी आगे बढ़ जाए जब लिखा जाएगा तो पति का ही नाम होगा लेकिन उसकी पहचान करने के लिए साथ में पति का फोटो भी हो ऐसा कुछ समझ नहीं आता है.
                        वह जो अभी तक सिर्फ अपनी दुनियाँ फूलों की माला बनाने और फूल बेचने में ही देखती चली आ रहीं थी क्या उनको राजनीति के गलियारों में चल कर कुछ प्राप्त  करने का प्रयास करेंगी उसके पेचदगियों   को समझ भी पाएंगी लेकिन उन्हें समझना किसे है? पढ़ी लिखी महिला को अगर वे इस काम के लिए चुनेंगे  तो फिर अपनी मर्जी कैसे चलेगी? इस लिए किसी कठपुतली को इस काम के लिए खड़ा कर दिया जाय बस फिर अपना राज है. ऐसे नहीं है इससे पूर्व यानि कि वर्तमान सत्र के पूर्व के सत्र में भी एक पिछड़े वर्ग की महिला को आरक्षित सीट के लिए चुन गया. उसे मैं व्यक्तिगत रूप से भी जानती हूँ. बस वह खड़ी हुई नामांकन किया और चुनाव जीत गयी इसमें कोई शक नहीं कि इसके लिए उनके पति ने बहुत मेहनत की होगी. लेकिन वे सिर्फ शपथ  लेने के लिए गयीं थी और उसके बाद उनके हस्ताक्षर किये हुए कागज़ उनके पति लिए रहते थे जहाँ काम पड़ा उनको प्रयोग कर लिया. घर में वह एक प्रताड़ित महिला के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है. उनके पति सभासद ही कहलाते थे. उनकी पत्नी सभासद हें इस बात को लोग भूल ही गए थे. जो औरत अपने घर में अपने अधिकारों के लिए न लड़ पा रही हो , उसके अपने वार्ड की समस्याओं और विकास के लिए आवाज उठाने का साहस कहाँ होगा?
                        यहाँ तो ये सोचा जाता है कि महिला आरक्षण मिला नहीं और रातों रात नेत्रियाँ पैदा हो जायेंगी. वे राजनीति में आकार सक्रिय भाग लेने लगेंगी और अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने लगेंगी. ये आरक्षण भी एक चाल है . ये एक उदाहरण नहीं है बल्कि जितनी भी महिलायें खड़ी हो रही हें उनके उनके पीछे उनके पति या फिर पति को जिन लोगों ने इस काम के लिए मोहरा बनाया है उनकी सत्ता चलने वाली है. ऐसे महिला आरक्षण की हिमायती तो कोई भी नहीं होगा विशेष रूप से कोई भी महिला. ये राजनीतिक चालें हें जो आगे आम मतदाता को बेवकूफ बनाने के लिए चली जा रही हें और मतदाता इसके लिए मजबूर है.