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गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

श्रमिक दिवस ! (कानपुर के संदर्भ में )


                 आज का दिन  कितने नाम से पुकारा जाता है ? मई दिवस , श्रमिक दिवस और महाराष्ट्र दिवस।  अगर विश्व के दृष्टिकोण  देखें तो मजदूर दिवस ही कहा जाएगा।  हम कितने उदार हैं ? हमारा दिल भी इतना बड़ा है कि हमने पूरा का पूरा दिन उन लोगों के नाम कर दिया।  सरकार ने तो अपने कर्मचारियों को छुट्टी दे दी लेकिन क्या वाकई ये दिन उन लोगों के लिए नहीं तय है जो अनियमित मजदूर हैं।  इस दिन की दरकार तो वास्तव में उन्हीं लोगों के लिए हैं - चाहे वे रिक्शा चला रहे हों या फिर बोझा ढो रहे हों।   आज के दिन मैं कानपुर की बंद मिलों और उनके मजदूरों की याद कर उनके चल रहे संघर्ष को सलाम करना चाहूंगी।         
               कभी कानपुर भारत का मैनचेस्टर कहा जाता था और यहाँ पर पूरे उत्तर भारत से मजदूर काम करने आते थे और फिर यही बस गए। कहते हैं न रोजी से रोजा होता है। यहाँ पर दो एल्गिन मिल, विक्टोरिया मिल , लाल इमली , म्योर मिल , जे के कॉटन मिल , स्वदेशी कॉटन मिल , लक्ष्मी रतन कॉटन मिल , जे के जूट मिल और भी कई मिलों में हजारों मजदूर काम करते थे। रोजी रोटी के लिए कई पालिओं में काम करते थे। सिविल लाइन्स का वह इलाका मिलों के नाम ही था। रोजी रोटी के लिए यहाँ पर काम करने वाले मजदूर या बड़े पदोंपर काम करने वाले अपने गाँव से लोगों को बुला बुला कर नौकरी में लगवा देते थे। जिस समय शाम को मिल का छुट्टी या लंच का हूटर बजता था तो मजदूरों की भीड़ इस तरह से निकलती थी जैसे कि बाँध का पानी छोड़ दिया गया हो। ज्यादातर मजदूरों का प्रयास यही रहता था कि मिल के पास ही कमरा ले लें।वह समय अच्छा था - मेहनत के बाद पैसा मिलता तो था कोई उसमें बिचौलिया तो नहीं था। 

बंद पड़ी एल्गिन मिल

                            वह मिलें बंद हुई , एक एक करके सब बंद हो गयीं। वह सरकारी साजिश थी या कुछ और मजदूर सड़क पर आ गए कुछ दिन उधार लेकर खर्च करते रहे इस आशा में कि मिल फिर से खुलेगी लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वे अपनी लड़ाई आज भी लड़ रहे हैं , कितने दुनियां छोड़ कर जा चुके हैं और कितने उस कगार पर खड़े हैं। मजदूरों की पत्नियां घरों में काम करके गुजर करने लगीं। कभी पति की कमाई पर बड़े ठाठ से रहती थीं। 
                            इन सब में लाल इमली आज भी कुछ कुछ काम कर रही है और मजदूर काम न सही मिल जाते जरूर हैं। इस उम्मीद में कि हो सकता है सरकार फिर से इन्हें शुरू कर दे. इनका कौन पुरसा हाल है।



एल्गिन मिल खंडहर हो रही है और सरकार उसकी बिल्डिंग को कई तरीके से प्रयोग कर रही है लेकिन उस बंद मिल के मजदूर आज भी क्रमिक अनशन पर बैठे हुए हैं। कितनी सरकारें आई और गयीं लेकिन ये आज भी वैसे ही हैं। यह चित्र बयान कर रहा है कि उनके अनशन का ये 3165 वाँ दिन है।बताती चलूँ मैंने भी  इस मिल के पास सिविल लाइन्स में कुछ वर्ष गुजारे हैं। वर्ष १९८२-८३ का समय मैंने इन मजदूरों के बीच रहकर गुजारा है। तब उनके ठाठ और आज कभी गुजरती हूँ वहां से सब कुछ बदल गया है। मिलें खंडहर में बदल चुकी है ।

कभी जवान थे वक्त ने हड्डी का ढांचा बना के रख दिया
                              

         
वीरान पड़ा म्योर मिल का प्रवेश द्वार


रविवार, 26 अप्रैल 2020

अक्षय तृतीया !





                         हमारे अन्दर परोपकार की भावना का ह्रास हो रहा है और निजी स्वार्थ की भावना बलवती होती चली जा रही है . सिर्फ हम आत्मनिरीक्षण करके देखें तो इनमें से कुछ खूबियाँ हमारे अपने अन्दर ही मिल जायेंगी .   भावनाओं के चलते हुए हमारे ऋषि - मुनियों ने वर्ष में कुछ ऐसे दिन रखे हैं जिनमें हम अपने संचित से कुछ दान कर पुण्य कमाते हैं . वैसे तो जरूरतमदों की सहायता करने के लिए किसी भी तिथि या पर्व की जरूरत नहीं होती है , निस्वार्थ भाव से किया गया दान और उस दान के सुपात्र का होना सबसे बड़ा पुण्य है. 
ऐसे ही पर्वों में वैशाख माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया  को अक्षय तृतीया  कहा गया है और इस दिन दान , जप - तप , हवन और तीर्थ स्थानों पर जाने का अक्षय फल देने वाला पर्व कहा गया है . 
                    ग्रीष्म ऋतु  में पड़ने वाले इस पर्व पर दान का विशेष  महत्व है लेकिन इस पर्व पर शास्त्रों में वे वस्तुएं दान योग्य बताई गयीं है जिनसे मनुष्य पशु पक्षी गरमी से प्रकोप से बच सकें . इस दिन धार्मिक प्रवृत्ति वाले लोग सड़क के किनारे पानी के लिए प्याऊ लगवाते हैं . पक्षियों के लिए पेड़ की डाल पर मिटटी के बर्तनों में पानी भर कर टांग दिया जाता है . ग्रीष्म ऋतु  में सर्वप्रथम आवश्यकता पानी और उसके बाद सत्तू को महत्व दिया गया है. इस तृतीया से ठीक पहले अमावस्या को सत्तू का सेवन आवश्यक माना  गया है (उनके लिए जो इस बात को मानते हों ) वैसे  बच्चे आज कल पिज़्ज़ा , बर्गर , चाउमीन को ही जानते हैं . ये देशी फ़ास्ट फ़ूड है जो सदियों से चलता चला आ रहा है . इस दिन सत्तू के दान का भी बहुत महत्व है क्योंकि सत्तू की स्वभाव ठंडा होता  है और इसको पानी शक्कर या गुड के साथ घोल कर खाने से भूख के साथ गर्मी भी शांत होती है. 
इसके अतिरिक्त छाता , चप्पल , सुराही आदि गर्मी से बचाने  वाले जितने भी साधन होते हैं विशेष रूप से दान करने का विशेष पुण्य मिलता है और पुण्य न भी मिले एक मानव होते के नाते इस भीषण गर्मी में नंगे पैर धूप  में चलने वाले को चप्पल या छाता  मिल जाए तो उसकी जान को तो एक राहत  मिलेगी और यही राहत किसी गरीब की आत्मा से निकले हुए भाव, उस दानकर्ता की मानवता को एक प्रणाम है .
                          इस अक्षय तृतीया का महत्व इसी  रूप में जाना जाता है कि इस दिन किया गया दान , जप - ताप सभी अक्षय होता है और इससे प्राप्त पुण्य भी अक्षय होता  है लेकिन समय के साथ और मानव की बढती हुई लालसा ने इसके स्वरूप को समय के अनुसार बदल लिया और आज चाहे इसे हम मार्केटिंग का एक तरीका कहें कि बड़े बड़े विज्ञापनों द्वारा जन सामान्य को इस दिन सोने की खरीदारी करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और इस दिन विशेष छूट और लाभ का लालच देकर स्वयं के लिए संग्रह करने की प्रवृत्ति को भी प्रोत्साहन  दिया जाने लगा है और भाव अभी वही है कि  जो इस दिन जिस वास्तु का क्रय करेगा वह भी उसके लिए अक्षय बनी रहेगी .सोना खरीदो तो वह सदैव अक्षय रहेगा लेकिन अब ये औरों के लिए नहीं बल्कि अपनी जरूरत और अपनी संपत्ति को अक्षय रखने के लिए लिया जाता है. अपनी संपत्ति या स्वर्ण आभूषणों को अक्षय अवश्य रखिये लेकिन उस धन से कुछ प्रतिशत दान के लिए भी रखा जाय तो इसका अर्थ और भाव सार्थक होता नजर आयेगा . लेकिन इस पर्व का भाव और अर्थ कल और आज बदले है लेकिन वह व्यक्ति की बढाती हुई आर्थिक उपलब्धियों के अनुसार - एक सामान्य व्यक्ति आपको दान करता मिल जाएगा लेकिन एक संपन्न व्यक्ति बड़ी बड़ी कारों में ज्वेलर्स के यहाँ आभूषण खरीदते हुए मिल जाएंगे ।
         इस बार बड़ी आफत ये है कि लॉकडाउन के कारण आम आदमी सत्तू , शक्कर और छाता दान करने में तो असमर्थ है लेकिन अमीरों के लिए ऑन लाइन सोने या जेवरात की खरीदारी करने के पूरे अवसर हैं । वह अक्षय रहेगा लेकिन सबसे बड़े पुण्य के भागीदार वे हैं जो इस समय खाना खिलाने का काम कर रहे हैं ।
             अक्षय सिर्फ पुण्य, दान और जीव सेवा ही है , भौतिक वस्तुएं अक्षय नहीं हुआ करती ।

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

विश्व पृथ्वी दिवस !



"क्षिति जल पावक गगन समीरा"
                 ये पांच तत्त्व है जिनसे मिलकर हमारा शरीर बना है , इससे ही हमारा जीवन चलता है और वापस इन्हीं में उसको विलीन हो जाना है। धरती माँ इसको ऐसे ही नहीं कहा जाता है, ये माँ की तरह से हमको पालती है लेकिन कहा जाता है न कि एक माँ अपने कई बच्चों को पाल लेती है लेकिन जैसे जैसे उसके बच्चे बढ़ते जाते हैं,  माँ की दुर्गति सुनिश्चित हो जाती है। यही तो हो रहा है न, मानव जनसंख्या बढती जा रही है और पृथ्वी का विस्तार तो नहीं हो रहा है। मानव ये भी नहीं सोच पा रहा है कि हम अपनी बढती हुई जनसंख्या के साथ कहाँ रहेंगे? उसने विकल्प खोज लिया और उसने तो बहुमंजिली इमारतें बनाने की पहल शुरू कर दी और बसने लगे बगैर ये सोचे कि इस धरा पर बोझ चाहे हम एक दूसरे के ऊपर चढ़ कर रहे या फिर अकेले बराबर बढेगा।

                  उसके गर्भ को हमने खोखला करना शुरू कर दिया। इतना दोहन किया कि भू जल स्तर बराबर नीचे जाने लगा और हमने मशीनों की शक्ति बढ़ा कर पानी और नीचे और नीचे से खींचना शुरू कर दिया। परिणाम ये हुआ कि  जब पृथ्वी के ऊपर पानी की बर्बादी बढ़ रही है तो फिर नीचे जल कहाँ से आएगा? हम अपना आज देख रहे हैं और कल जो भावी पीढ़ी का होगा उसके लिए क्या छोड़ कर जा रहे हैं? उस भविष्यवाणी , कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा, को जीवंत करने के विकल्प। उसके विषय में हम अभी भी सोचने की जरूरत नहीं समझते हैं। जो समझते हैं और इस विषय में किसी को सजग करने का प्रयास करते हैं तो ये उपदेश अपने पास ही रखें , क्या हम ही अकेले बर्बादी कर रहे है? उन्हें रोकिये जो बहा रहे हैं। ये किसी एक की जिम्मेदारी नहीं है कि उसका सारा फायदा उसी को मिलने वाला है। ये शिक्षित समाज है और ऐसा नहीं है कि इन चीजों से वाकिफ नहीं है।हम  सब जानते  हैं लेकिंन जान कर अनजान बने रहते हैं और कल किसने देखा की तर्ज पर जी रहे हैं।
                     धरती कुछ नहीं कहती लेकिन क्या उसकी क्रोध की अग्नि से बढ़ता उसका तापमान हमारे लिए घातक नहीं बनता जा रहा है। तप्त पृथ्वी की ज्वाला ने मौसम के क्रम को बिगाड़ कर रख दिया है और इसी लिए ये साल के दस महीने में तपती ही रहती है। अब तो इतनी भी बारिश नहीं होती कि उसका आँचल भीग जाये और उसको तपन शांत हो जाए। नदियाँ अपने किनारे छोड़ने लगी हैं और कुछ तो विलुप्त होने की कगार पर आ गयी हैं।
                  भूकंप आया तो हम सिहर गए, उसके वैज्ञानिक कारणों की खोज में लग गए किन्तु खुद को तब भी नहीं संभाल पाए। धरती का संतुलन नहीं बनेगा तो भूकंप आना सुनिश्चित है। समुद्र में सुनामी आई और मानव उस समय खिलौने की तरह बह गए लेकिन जो बह गया वह उसकी नियति थी हम बच गए और हम इससे कुछ सीख भी नहीं पाए । फिर अपने ढर्रे पर चलने लगे।
                        जब उर्वरक नहीं आये थे , तब भी ये धरती सोना उगलती थी और फसलें लहलहाती थी। सब का पेट भी भरती थी। हम उन्नत उपज की चाह में उर्वरकों को ले आये और धरती को बंजर बना दिया। क्या मिला? फसल खूब होने लगी लेकिन खड़ी फसल में बेमौसम की आंधी, बरसात और ओले की वृष्टि ने सब कुछ तबाह कर अपने साथ हो रहे खिलवाड़ का एक सबक दे दिया। उर्वरकों से उगी फसल खाकर हम कैंसर जैसी बीमारी के शिकार होने लगे ।
                     जंगल पर जंगल उजड़ते जा रहे हैं और कागजों में सारी सुरक्षा बनी हुई है। वृक्षारोपण के नाम पर बहुत काम हो रहा है, लेकिन एक बार लगाने के बाद कितने बचे इसकी किसी को चिंता नहीं है। कहाँ से शुद्ध वायु और वर्षा की उम्मीद करें? पेड़ लगाने की भी सोची जाती है तो वह जिसे बाद में बेच कर धन कमाया जा सके। यूकेलिप्टस  जैसे पेड़ जो पानी भी सोखते हैं और इंसान के लिए लगे हुए न छाया देते है और न ही फल।
              अपनी कमियों का बखान बहुत हो चुका है अब अगर हम स्वयं संयमित होकर अपना जीवन बिताने की सोचें तो शायद इस धरती माँ को बचाने की दृष्टि में एक कदम बढ़ा सकते हैं। हम किसी को उपदेश क्यों दें? हम सिर्फ अपने लिए सोचें और अगर कोई पूछे तो उसको भी बता दें की अगर आप ऐसा करें तो हमारे और हमारी भावी पीढ़ी के भविष्य के लिए बहुत अच्छा होगा।
                    जल का प्रयोग अपनी जरूरत के अनुसार ही करें। अगर सबमर्सिबिल  लगा ही रखा है तो उसका सदुपयोग करें न कि दुरूपयोग करते हुए उससे घर की दीवारें और सड़क धोने में उसको बर्बाद करें। घर के सभी नलों को सावधानी से बंद रखें उनसे टपकता हुआ पानी भी बर्बादी की ही निशानी है। जल ही जीवन है इस बात को हमेशा याद रखें।
                  प्रदूषण की दृष्टि से भी पृथ्वी को सुरक्षित रखना होगा। हमारी आर्थिक सम्पन्नता बढती चली जा रही है और वह इस बात से दिखाई देती है कि घर के हर सदस्य के पास गाड़ी का होना। उससे उत्सर्जित होने वाली गैस के बारे में किसी ने नहीं सोचा है कि ये पर्यावरण को कितना विषैला बना रहा है। वायु प्रदूषण हमको रोगी और अल्पायु बना रहा है। बढती हुई गाड़ियों की संख्या से ध्वनि प्रदूषण को नाकारा नहीं जा सकता है। इस लिए गाड़ियों का उपयोग करने में सावधानी बरतें । एक गाड़ी में दो लोगों का काम चल सकता है तो उसको उसी तरह से प्रयोग करें।एक घर में कई कई एसी का होना कितने प्रदूषण का कारण बन रहा है ? लोग नहीं जानते ऐसा नहीं है बल्कि अपने जीवन स्तर को ऊँचा  दिखाने के लिए भी ऐसा किया जा रहा है।
                   वृक्ष पृथ्वी का श्रंगार भी हैं तो उनको अगर रोपें तो उनको बड़ा होने तक देखें भी, ताकि ये पृथ्वी पुनः हरी भरी हो सकें। आने वाली पीढ़ी को कुछ सिखायें और खुद अपनी बताई बातों पर चलें भी ।
                     पृथ्वी दिवस को सार्थक बनायें।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

ब्लॉगिंग : कल , आज और कल !

ब्लॉगिंग : कल , आज और कल !


                       जैसे किसी चीज का आरम्भ मंदिम गति से होता है और फिर वह एक चरम पर पहुँच जाता है और फिर अवसान, लेकिन ये ब्लॉगिंग कोई ऐसी कला नहीं है कि जिसको बिना किसी के चाहे अवसान हो जाये। जब  नया नया कंप्यूटर के साथ अंतरजाल शुरू हुआ तो ब्लॉगिंग भी अपने अस्तित्व में आयी।  सबसे पहले ब्लॉग का श्रेय आलोक कुमार जी को जाता है।   2003 में "नौ दो ग्यारह " नाम से ब्लॉग बनाया था लेकिन यूआरएल की समस्या के चलते उन्होंने अंकों( 9211 में) अपना ब्लॉग को पता दिया था।   धीरे धीरे लोगों ने खोज की और ब्लॉगर के संख्या में वृद्धि होने लगी। प्रारंभिक दिनों में ये कुछ धीमी ही रही लेकिन 2007 - 2008 तक ब्लॉगर की संख्या हजारों में पहुँच चुकी थी।
                       हम उसे ब्लॉगिंग का स्वर्णिम काल भी कह सकते हैं।  सारा सारा दिन ब्लॉग ही लिखे और पढ़े जाते थे।  पढ़ने की सूचना उसे समय ऑरकुट पर मिला करती थी।  साथी मित्र सूचना देते थे कि ये लिखा है जरा पढ़ो और राय दें।  ये मैं महिलाओं की बात कर रही हूँ क्योंकि तब एग्रीग्रेटर के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। एक एक   पोस्ट पर बहस का जो माहौल बनता था तो लगता था कि युद्ध हो जाएगा।  हम उस बहसबाजी में कम  ही पड़ते थे, लेकिन पढ़ सब को लेते थे क्योंकि हम पूरे समय बारे ब्लॉगर नहीं थे।  सिर्फ ऑफिस में ही वह भी खाली वक्त में होता था।  अपना डेस्कटॉप था तो कोई समस्या  नहीं थी।  घर में न लैपटॉप था और न तब स्मार्ट फ़ोन का जमाना था यानि कि इतने सामान्य लोगों के पास मोबाइल होते भी थे तो वही छोटे वाले।  सो घर पर देखने या देख पाने की कोई गुंजाईश भी नहीं रह जाती थी।  वापस दूसरे दिन जाकर ऑफिस में जाकर ही होता था दर्शन।  फिर भी बहुत लिखा जाता था सब लिखते थे और हम भी लिखते जरूर थे।  मैंने वर्ष 2008 में ब्लॉग बनाया था और उसको भी हमारी सखियों ने एक एक चरण पर काम करना सिखाया था।  ढेर सारे ब्लॉग खुद बना डाले थे।  हर काम के लिए अलग अलग ब्लॉग।  कविता , कहानियों , सामाजिक सरोकार , निजी राय और जीवन के कटु यथार्थ को बयान करने वाली घटनाओं के लिए।  बाद में सभी को चलाती रही और अभी भी सब जीवित हैं और उन पर लेख जाते रहे।  2009 -2012 तक खूब जम कर लिखा।  2010 में लैपटॉप लिया क्योंकि  अगस्त के महीने में मेरा एक्सीडेंट हुआ हाथ और पेर दोनों ही दुर्घटनाग्रस्त हुए।  न चलना संभव था और न हाथ से टाइप करना।  एक टाइपिस्ट को दो घंटे के लिए बुला लेती और मैं बोलती जाती और वह टाइप करती जाती।  वह वर्ष था जब कि मैं बिस्तर  पर थी और  ब्लॉग में सबसे ज्यादा रचनाएँ प्रकाशित हुई थी।
                             वह सभी के लिए सक्रियता वाला वर्ष था।  करीब करीब तीन हजार ब्लॉगर उस समय सक्रिय थे।  ब्लॉगिंग का स्वर्णकाल था।  इसके साथ ही फेसबुक अस्तित्व में आई और फिर उस पर धड़ाधड़ अकाउंट बनाने शुरू हो गए और लोगों ने उस पर भी अपने विचारों लोगों को  संक्षिप्त रूप में डालना ज्यादा सुविधाजनक लगा और ब्लॉग पर लिखने के स्थान पर लोगों ने फेसबुक को अच्छा मंच समझा और यहाँ शिफ्ट हो गए।  ऐसा नहीं कि ब्लॉगिंग बिलकुल ख़त्म हो गयी लिखने वाले ईमानदार ब्लॉगर उसपर लिखते रहे और फेसबुक पर भी डालते रहे।  मैं खुद अपनी कहूँ कि इस बीच एक पत्र से जुड़कर आलेख, कहानी और कवितायेँ वहां भेजनी शुरू कर दी और गलती ये की कि उनको ब्लॉग पर नहीं डाला।
                            इस बीच एक काम और होने लगा कुछ महत्वकांक्षी ब्लॉगर साथियों ने अपने मित्रों से लेकर साझा कविता संग्रह , कहानी संग्रह , लघुकथा  संग्रह का संपादन करना शुरू कर दिया।  ये काम भी अच्छा लगा क्योंकि ब्लॉग की दुनिया ब्लॉगर तक ही सीमित होती थी।  उससे इतर लोग उसमें काम ही पढ़ने आते थे लेकिन किताब के प्रकाशन में उसके अतिरिक्त भी लोगों को पढ़ने और लिखने का मौका मिलने लगा और फिर होड़ लग गयी।  साल में कई कई संग्रह आने लगे।  जिसने रचनाएँ माँगी दे दीं और जितने पैसे माँगे दे दिए।  किताब छप गई और मिल गयी।  इसी बीच मुलाकात हुई वरिष्ठ ब्लॉगर से उनको मैंने एक साझा संग्रह दिया तो उन्होंने ज्ञान दिया कि अपनी रचनाएं भी देती हैं , पैसे  भी देती हैं  और फिर मुफ़्त में किताब बाँटी भी।  क्या मिला ? इस काम को बंद कर दीजिये।  कुछ अक्ल आ गयी लेकिन फिर बहुत आत्मीय और करीबी लोगों ने अगर रचनाएँ मांगी तो दीं और पैसे भी।  किताब भी आयीं लेकिन वो संतुष्टि नहीं मिली।
                            फिर से ब्लॉगिंग शुरू करने का विचार ठांठे मारने लगा। ब्लॉगर साथियों से मित्रता तो आजीवन की हो चुकी थी।  वे फेसबुक पर भी मिले तो आभासी मित्र से न लगे और उन्हीं  ने राय दी कि कितनी सारी परिचर्चाएं आयोजित की थीं उनको संग्रह के रूप में छपवा डालो और वैसा ही किया।  हाँ सहयोग राशि  जो कटु अनुभव था सो मैंने वह काम नहीं किया।  संस्मरण सब से लिए। कुछ और नए लोगों को भी शामिल कर लिया। जब पुस्तक छप कर आ गयी तो फिर तय किया कि गृह नगर के स्थान पर दिल्ली में ब्लॉगर साथी ज्यादा हैं तो उनकी किताब उन सबके बीच ही विमोचन रखा जाय और सिर्फ विमोचन ही नहीं बल्कि "ब्लॉगिंग : कल , आज और कल" पर परिचर्चा भी रखी गयी सभी वरिष्ठ ब्लॉगर साथियों ने भरपूर सहयोग दिया और जो विचारों का आदान प्रदान हुआ उससे ब्लॉगिंग के लिए एक नयी आशा का संचार हुआ और वहां पर सब ने फिर से ब्लॉगिंग के लिए समर्पित प्रयास करने का वचन दिया और उसको पूरा करने के लिए जुट गए।  अब हम आज गंभीर होकर कल को संवारेंगे।  अभी हमें आने वाली पीढ़ी को भी इस ब्लॉगिंग से जोड़ना है और हर लिखने वाला जो मेरे संपर्क में है अभी तक ब्लॉगर तो नहीं है लेकिन प्रतिबद्ध है।  कल जरूर सुनहरा होगा ऐसी आशा करती हूँ।
                          आने वाला कल तभी सफल होगा जब हम लिखने के साथ साथ पढ़ेंगे भी।  ब्लॉग सिर्फ लिखने के लिए नहीं होता है बल्कि पढ़ने के लिए भी होता है।  हर लेख , कहानी , कविता कुछ कहती है और हमें ज्ञान के रूप में हमारे संवेदनशील मन को कुछ दे जाती है।  कल को सवाँरने में कल और आज के साथी आने वाले कल की भूमिका बनाएंगे और नयी पौध को तैयार करेंगे तभी इस को हम अमर कर सकेंगे.
                             
                   फिर लगा कि फेसबुक , पेपर या कहीं और लिख कर हम डाल तो सकते हैं , प्रकाशन और पैसे भी मिलते हैं लेकिन ब्लॉगिंग अपनी एक निजी संपत्ति है, जिसको जब चाहे तब आप देख और पढ़ सकते हैं।  कोई खोज नहीं और कोई संकोच नहीं।  फिर वापस ब्लॉगिंग को  जारी रखने के बारे में विचार आया तो  जुट गये और नए नए विषयों पर लिखने की सोची है।  आगे हरि इच्छा।  

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

नया शिक्षा सत्र : सतर्कता और सावधानी!

                          वर्तमान समय  बच्चों , अभिभावकों , शिक्षकों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है।  वैसे तो अब शिक्षा सत्र के बदल जाने से  कुछ परिवर्तन आ ही गया है लेकिन फिर भी एक लम्बी छुट्टी के बाद बच्चों को स्कूल आने पर कुछ नया उत्साह रहता है। यद्यपि सत्र अप्रैल से शुरू होने लगा है लेकिन जुलाई का महीना भी प्रवेश की दृष्टि से , नए स्कूल की दृष्टि से और नए माहौल में नए बच्चों के लिए महत्वपूर्ण होता है।
                            अबोध बच्चों को एक नया ज्ञान और एदिशा शिक्षक को देनी होती है और बच्चों के लिए घर की चहारदीवारी से निकल कर और माँ को छोड़ कर कहीं और, किसी और के साथ रहना और रुकना थोड़ा मुश्किल होता है लेकिन समय के साथ शिक्षक माँ बन कर , दोस्त बन कर और भाई बहन की भूमिका निभा कर बच्चों को स्कूल में मन लगाने में सहायक होती है।
                            आज के सन्दर्भ में जब कि स्कूल , शिक्षा , शिक्षक , बच्चों की सुरक्षा , स्कूल वाहन , उस वाहन के चालक , स्कूल का पाठेतर कर्मचारी , स्कूल की इन चीजों के बारे  जिम्मेदारी को सुनिश्चित करना बहुत जरूरी हो गया है।  अभिभावक आपने नौनिहालों को घर से स्कूल की सुरक्षा में भेजते हैं तो घर से निकल कर घर पर आने तक की जिम्मेदारी सम्बद्ध लोगों की बनती है।  इसके लिए अभिभावकों , स्कूल , शिक्षक की जिम्मेदारियों को किस तरह से सुनिश्चित करना है , इसको एक विहंगम दृष्टि डाल कर देखेंगे।

1.  अभिभावक की सतर्कता :  स्कूल बच्चे को एक सुनहरे भविष्य को देने का वो रास्ता है जिसमें रहकर वह बहुत कुछ सीख कर आगे बढ़ता है , लेकिन आप को अपने बच्चे को प्रवेश देने से पहले इन बातों को ध्यान रखना होगा :--

(i )    स्कूल के पिछले सालों की साख के बारे में पता कर लें।  वहां के शिक्षक /शिक्षिकाओं की शैक्षिक पृष्ठभूमि के विषय में जानकारी लें। कुछ पुराने अभिभावकों से मिल लें ।और स्कूल के बारे में जान लें ।
(ii ) स्कूल का अगर अपना वाहन है तो उसके चालक और परिचालक के अतिरिक्त और उसमें  जो सहायक रहता हो , उसकी पृष्ठभूमि के विषय में जानकारी लें।  उनकी आदतों के विषय में जानकारी लें कि उनमें से कोई मादक पदार्थों का सेवन करने वाला न हो। साथ में एक महिला संरक्षिका के रहने की अनिवार्यता हो ।
(iii )  स्कूल वाहन के विषय में भी जानकारी  रखें।  वह कितना पुराना है ? उसमें आवश्यकता से अधिक बच्चे तो  नहीं ले जाए जा रहे हैं। छोटे वाहन जैसे वैन , ऑटो रिक्शा , बैटरी रिक्शा या विशेष रूप से तैयार करवाए गए स्कूल रिक्शे की भी पूरी जानकारी होनी चाहिए।  पुराने वाहन कमजोर और सुरक्षा तिथि के बाद भी आवश्यकता से अधिक बच्चे भर कर चलाये जाते हैं वे खतरे से खाली नहीं होते, इनमें दुर्घटना की संभावना अधिक होती है।।  
(vi ) आप अपने बच्चे को भी पूरी तरह से सतर्क रहने के लिए कहें।  अबोध बच्चे कभी कभी वाहन चालकों या स्कूल के कर्मचारियों के द्वारा विभिन्न तरीके से शोषित किये जा सकते हैं , अतः उन्हें इस दिशा में समझा कर रखें। 
(v ) स्कूल छुट्टी में बच्चों के जाने के बारे में कितने सतर्क हैं।  वहां के सतर्कता विभाग के मोबाइल नंबर लेकर रखें।  अपने बच्चे को छुट्टी में अगर वह स्कूल वाहन से नहीं आता है तो आने के साधन और व्यक्ति के विषय में पूरा विवरण वहां जमा कर रखें ताकि कोई गलती न हो। 

स्कूल की सतर्कता :-
                               स्कूल की भी एक गहन जिम्मेदारी होती है , उन बच्चों के प्रति जो स्कूल में आते हैं।  उनकी सुरक्षा , उनका स्वास्थ्य , उनका भविष्य और उनका चरित्र निर्माण सब उनकी जिम्मेदारी है।  इसके लिए स्कूल के जिम्मेदार लोगों को तीव्र सतर्कता बरतनी चाहिए।  वे इस देश के भविष्य को एक आकार देने के प्रति जवाबदेह होते हैं।  सिर्फ निजी स्वार्थ और लाभ का साधन स्कूल नहीं होते हैं।  

(i )  बच्चों के प्रति स्कूल वैसे तो सभी  सावधानी बरत रहे हैं कि बच्चों को स्कूल की छुट्टी से पहले या बाद में किसी भी अपरिचित के साथ न भेजा जाय।  अभिभावकों के विषय में जानकारी दर्ज करके रखते हैं कि बच्चे को वाहन न होने की स्थिति में किसके साथ भेजा जाय । बस होने की स्थिति में शिक्षक या शिक्षिका इसके लिए जिम्मेदार हों और बस में अपने सामने बच्चों को बस के अंदर बिठायें। 
(ii )  जहाँ तक संभव हो हर बस में एक शिक्षिका का होना भी जरूरी हो ताकि बच्चे अगर कोई तकलीफ या भय महसूस करें तो उनसे कह सकें। शिक्षिका के होने से बस के चालक और परिचालक पर अंकुश रहता है। न वे मादक द्रव लेते हैं और न ही बस में तेज ध्वनि में संगीत चला कर बस चलाते हैं। जो कि दुर्घटना का प्रमुख कारण बन जाता है। 
(iii )  बच्चों पर अनावश्यक पुस्तकों का बोझ न बढ़ाएं।  शिक्षण पद्धति इस प्रकार की होनी चाहिए ताकि अभिभावकों को अलग से कोचिंग का अनावश्यक भार न उठाना पड़े। होमवर्क का अनावश्यक भार भी न हो , जिससे कि बच्चों के लिए खेलने कूदने का समय भी मिल सके। 
(vi ) शिक्षकों द्वारा बच्चों के आर्थिक स्तर को लेकर भेदभाव न किया जाय।  बच्चों को  भेदभाव का सामना स्कूल में किसी भी स्तर पर न करना पड़े क्योंकि यहीं से बच्चों में हीन भावना और उच्चता की भावना का विकास होने लगता है। 
(v )  विद्यालय में नैतिक शिक्षा और शारीरिक शिक्षा को भी महत्वपूर्ण स्थान देना चाहिए।  बच्चों  के विकास में शिक्षण के साथ साथ इन गतिविधियों का भी महत्वपूर्ण स्थान भूमिका होती है
  छात्रों की भूमिका :- स्कूल में अभिभावक या स्कूल के अतिरिक्त छात्रों का भी कुछ दायित्व होता है।  वे छात्र जो ऊँची कक्षाओं में होते हैं , उन्हें छोटे बच्चों का सहयोग करना चाहिए  न कि रैगिंग जैसी निंदनीय व्यवहार का उन्हें शिकार बनाया जाय।  आपकी तरह से वे भी शिक्षा ग्रहण करने आये हैं तो उनका मार्गदर्शन करके उन्हें भी आगे का मार्ग दिखाना चाहिए।  स्कूल को एक परिवार की तरह मानना चाहिए जिसमें बड़े आदर्श  प्रस्तुत करते हैं। 
                      स्कूल चाहे छोटे हों या बड़े , सरकारी हों या फिर निजी उनका स्तर और सुविधाएँ देख कर ही बच्चों को प्रवेश दिलवाएं।  ये कल के भविष्य है , इन्हें समुचित विकास और ज्ञान वाली शिक्षा मिलनी चाहिए।  

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

कोरोना और महिलाओं की भूमिका !

           कोरोना के बारे में बहुत कुछ पढ़ रहे हैं लेकिन इसके पीछे घर , लॉक डाउन , कामकाजी लोगों का घर में सीमित हो जाना - उनकी जान बचने के लिए पर्याप्त है , लेकिन इस जान के साथ इंसान की बहुत सारी जरूरतें होती हैं और वह क्या हो सकती हैं? कल - कल क्या होगा और हम क्या करेंगे ? देश की आर्थिक स्थिति भी बहुत बड़ी करवट लेने के लिए तैयार हो चुकी है।
                     सरकार निम्न वर्ग के लिए व्यवस्था कर रही है और वे जी भी रहे हैं लेकिन कई वर्ग ऐसे भी हैं , जो करने की स्थिति में भी नहीं है और कल की चिंता में तनाव अवसाद की स्थिति में जा रहे हैं।  महिलायें भी जा रही हैं लेकिन फिर भी महिलाओं से अधिक पुरुषों को उबरने के लिए कुछ ठोस आश्वासन भी चाहिए क्योंकि वे उस उहापोह की स्थिति में आ जाते हैं कि इतने लम्बे समय के बाद वे क्या और कैसे मैनेज कर पाएंगे ?
                     कल मेरे पास एक महिला का फ़ोन आता है , जब से उसने मेरे नाती और बेटी की महीनों मालिश की थी , वह मुझे अपनी आत्मीय समझने लगी थी और फिर वह सब कुछ अपनी समस्याएं शेयर  कर लेती थी।  पति एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता है।  वह मालिश और शादी ब्याह का काम करती है।  तीन बेटियां हैं - जो हाई स्कूल , सातवें और पांचवी में पढ़ती हैं. उसको कुछ पैसों की जरूरत थी क्योंकि मालिश , शादी ब्याह सब बंद है।  कुछ कर्ज लेकर उसने मकान बनवा लिया था और हाथ खाली हो गया था।  इतने दिनों का लॉक डाउन और फिर बढ़ गया।  वैसे तो दूर दूर जाकर जच्चा और बच्चे की मालिश करके उसको एक घर से १०० रुपये मिल जाते थे लेकिन ऐसे में कोई काम नहीं है।  उसको सहायता कर दी लेकिन वह खुद्दार महिला बहुत ज्यादा लेना भी नहीं चाहती और उससे बड़ी समस्या पति की।  वह रात दिन सोचता रहता है कि अब क्या करूंगा ? फैक्ट्री वाले इसके बाद कितने लोगों को रखेंगे , उनके अगर आर्डर कैंसिल हो गए तो फिर नौकरी के भी लाले।
                      एक माध्यम वर्गीय परिवार की समस्या - एक अच्छे खासे चलते हुए व्यवसाय के लोग  आराम पसंद जिंदगी जीने के आदी होते हैं।  घर की महिलायें भी उसी वातावरण की आदी होती हैं।  इतने दिन से शोरूम बंद , आमदनी तो बंद है ही , साथ  शोरूम के कर्मचारियों को भी  पूरा नहीं तो आधा वेतन देना ही पड़ेगा।  घर के काम वालों को कम कर दिया , वह तो सुरक्षा की दृष्टि से किया गया लेकिन वेतन उन्हें देना है आखिर वह कहाँ से लायेंगे? आमदनी बंद खर्च कमोबेश वही । परिणाम कमाने वाला वर्ग तनाव और अवसाद में जा रहा है ।

अवसाद पुरुषों में :-
                           भारतीय समाज की संरचना और मानसिकता कभी बदल नहीं सकती । कमा कर लाना और खर्च पूरा करना पुरुष वर्ग की जिम्मेदारी है । व्यावसायिक वर्ग का पुरुष लॉक डाउन में अवसाद का शिकार हो रहे है । वह सुबह से रात तक शॉप या शोरूम में रहता है और आमदनी की गणना करके ही योजना बनाता है । अब आमदनी बंद और खुलने पर भी सामान्य होने में महीनों लगेंगे ।

महिलाओं की भूमिका :--   

           इस समय परिवार की महिलाओं का दायित्व बढ़ रहा है कि वे पति की काउंसलिंग करें कि वे उस अवसाद से निकल सकें । घर के खर्चे में कमी का आश्वासन दे सकती हैं , गृहस्थी वही चलाती है और स्वाभाविक है कि वे उसमें कमी करके मैनेज कर लेती है ।
            आने वाले समय में भी अपनी पार्टी, खरीदारी, सैर सपाटे पर अंकुश लगाने का आश्वासन भी पुरुषों की चिंताओं को कम कर सकता है । ये जो समय है वह वापस एक नये सिरे से बाजार के रुख को बदल देगा । इसे पुरुष से अधिक महिलायें अपने स्तर पर स्थिर स्थिति को सहजता से झेल सकती हैं ।

बच्चों की भूमिका :--
         
                              परिवार में आमदनी के जरिये कितने भी हों खर्चे के रास्ते भी उतने ही होते हैं । बच्चों के अपने अलग खर्च होते हैं । वे अपनी बाइक प्रयोग करते हैं या संस्थान की बस । वे अपने स्तर से मुखिया को आश्वस्त कर सकते हैं कि सामान्य होने तक वे अपने  मित्रों के साथ शेयर करके जायेंगे । अपने जेबखर्च को भी सीमित कर सकते हैं । पार्ट टाइम  जॉब कर अपना खर्च निकाल सकते हैं ।

          यह समय ऐसा है कि सिर्फ और सिर्फ परिवार वाले दृढ़ संबल बन सकते हैं । वक्त ये भी नहीं रहेगा । अपने परिवार का संबल बन कठिन समय निकालिये ।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

वर्तमान परिप्रेक्ष्य : साहित्यकार की भूमिका!


                 
               
                     वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहित्यकार की भूमिका बहुत  महत्वपूर्णं है क्योंकि आज जो सामाजिक और सांस्कृतिक मूूू्ल्यों  का अवमूल्यन हो रहा है, इसके लिए साहित्यकार का सृजन ही समाज में एक प्रभावी परिवर्तन या फिर उसके सही विश्लेषण के लिए सहायक हो सकता है।  साहित्य समाज का दर्पण होता है और वो हम उस काल की बात साहित्य से ही जान सकते हैं क्योंकि हम उस समय नहीं होते हैं और आने वाली पीढ़ी तो वही स्वीकार करती है , जो उसके सामने प्रस्तुत किया जाता है।  लेकिन इसकी पूरी जानकारी हमें उस काल मेेंं साहित्यकारों के द्वारा रचित साहित्य में करके रख दिया है और उस समय भी उन्होंने वही रचा जो कि उचित समझा था।  परिपाटियों और पूर्वाग्रहों का अंधभक्ति से समर्थन नहीं किया था।  वो सदैव उचित ही हो ऐसा नहीं समझा जा सकता है।   उन्होंने जो रचा वह  हमने पढ़ा और जिसे स्वीकार कर सके किया अन्यथा उसको नकार कर या फिर उसको परिमार्जित करके रच दिया।
                        साहित्य ही वह साधन है जिसके द्वारा संस्कृति और सभ्यता को एक पीढ़ी से दूसरी  पीढ़ी के मध्य हस्तांतरित करता है।  ये एक वो सत्य है जिसे हम अतीत को स्वीकार करने की बात कर सकते हैं लेकिन समय के साथ साथ हमारा दायरा बढ़ा है और हम बाहरी संस्कृतियों के संपर्क में आते रहते है जिससे साहित्यकार की भी जिम्मेदारी बढ़ जाती है।  नैतिक और सामाजिक मूल्यों के अवमूल्यन के चलते साहित्यकार की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी है।  गलत को सही रूप से व्याख्यायित करने के प्रभावी तरीके को साहित्यकार ही प्रस्तुत कर सकता है।  आज जब कि युवा ही नहीं किसी भी उम्र के लोगों की सोच दिग्भ्रमित हो रही है तो उनको सही दिशा कैसे मिलेगी ? एक ऐसे साहित्य की जरूरत है जो देेेशहित, मानवहित की विचारधारा रखने वाला हो । लेकिन उसको किसी भी पूर्वाग्रह या विचारधारा से प्रभावित नहीं होना चाहिए , उसको तो एकदम तटस्थ और समाज हित की सोचने वाला होना चाहिए। हम  कुछ भी रच कर साहित्यकार नहीं बन सकते हैं और अगर बन भी जाते हैं तो अपनी कलम के प्रति ईमानदार नहीं हो सकते हैं।
                   लेखन का कोई भी क्षेत्र हो लेकिन साहित्यकार को  अपने क्षेत्र में पूरी ईमानदारी से लिखने का दायित्व होता है। राजनीति ,  धर्म और  कोई भी वर्ग हो , सब के लिए एक नैतिक मूल्य होते हैं और जो सर्वमान्य होते हैं तो एक साहित्यकार को उनका पालन करते हुए रचना चाहिए।  आज दिशा भ्रमित होते हुए जीवन के हर क्षेत्र को आपके दिशा निर्देश की जरूरत है और भटक रही जनमानस की सोच को सकारात्मक दिशा में मोड़ने की जरूरत है और वह अनुकरणीय तभी बन सकती है , जब कि साहित्यकार का उस क्षेत्र के आधारभूत मूल्यों को हमेशा जीवित  रखने का दायित्व निभा रहा  हो । ऐसा नहीं कि हम देश के इतिहास को अपनी इच्छानुसार तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करके अपने दायित्व को पूरा नहीं कर रहे हैं। साहित्यकार के द्वारा रचित साहित्य से ही हम आने वाली पीढ़ी के लिए बनाये गए पाठ्यक्रम में शामिल करते हैं और अगर साहित्यकार ने आपने दायित्व को ईमानदारी से पूरा न किया तो हम अपने दायित्व को पूरा नहीं कर रहे हैं।
                 लेखक समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री , मनोवैज्ञानिक , विधिवेत्ता , राजनीतिशास्त्री या धर्मशास्त्री कोोई भीी हो उसका अपने क्षेत्र के प्रति एक ईमानदार सोच और लेखन के प्रति भी ईमानदारी होनी जरूरी है।  एक विखंडित और विघटित समाज की  परिकल्पना किसी भी साहित्यकार की ईमानदार भूमिका नहीं हो सकती है।  साहित्यकार भी याद किया जाता तो उसके लेखन के लिए और गलत या भ्रमित करने वाला साहित्य आलोचना का भी शिकार होता है। समाज और देश को सही दिशा में न कानून ले जाता है और न ही राजनीति बल्कि उसे संचित और वर्तमान रचित साहित्य ले जाता है ।
                 समाजशास्त्री होकर अगर साहित्यकार सामाजिक मूल्यों की अवहेलना करे या फिर ऐसे मूल्यों को बढ़ावा दे जो कि समाज हित  में ही न हो तो ऐसे साहित्यकार का दायित्व कौन निश्चित करेगा?  वो साहित्य जो सामाजिक मूल्यों और मान्यताओं का पोषक हो और गलत आचरण का समर्थक न हो , वही अपने दायित्व को पूरा कर रहा होता है। हम चाहे लेख , कहानी या कविता कोई भी प्रस्तुति करें लेकिन मानव हित में हो। हर साहित्यकार की रचना एक सुशिक्षित , सुसंस्कृत और सभ्य समाज की रचना के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी होता है।