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रविवार, 9 दिसंबर 2012

विश्व मानवाधिकार दिवस !

                         
 
चित्र गूगल के साभार
              आज 10  दिसम्बर को विश्व मानवाधिकार दिवस के रूप में जाना जाता है . इस दिवस की नींव विश्वयुद्ध की विभीषिका से झुलस रहे लोगों के दर्द को समझ कर और उसको महसूस कर संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने 10 दिसंबर 1948 को सार्वभौमिक मानवाधिकार  घोषणापत्र अधिकारिक मान्यता प्रदान की। तब से यह दिन इसी नाम से यद् किया जाने लगा। 
                   अगर हम आज ही पेपर उठा कर देखे तो पता चलेगा की कितने मानवाधिकारों का हनन मानव के द्वारा ही किया जा रहा है। मानव के द्वारा मानव के दर्द को पहचानने और महसूस करने के लिए किसी खास दिन की जरूरत नहीं होती है . अगर हमारे मन में मानवता है ही नहीं तो फिर हम साल में पचासों दिन ये मानवाधिकार का झंडा उठा कर घूमते रहें कुछ भी नहीं किया जा सकता है। ये तो वो जज्बा है जो हर इंसान के दिल में हमेशा ही बना रहता है बशर्ते की वह इंसान संवेदनशील हो। क्या हमारी संवेदनाएं मर चुकी है अगर नहीं तो फिर चलें हम अपने से ही तुलना शुरू करते हैं कि  हम मानवाधिकार को कितना मानते हैं?  क्या हम अपने साथ और अपने घर में रहने वाले लोगों के मानवाधिकारों का सम्मान करते हैं ? 

                                   जब हम खुद ही अपने अधिकारों से वाकिफ नहीं हैं तो फिर मानवाधिकार का प्रयोग कैसे जान सकते हैं? जब हम अपने अधिकारों से परिचित होते हैं तभी तो उनको हासिल करने के लिए प्रयास कर सकते हैं . जब हमने अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए संकल्प लिया तो वह  दूर नहीं होता कि साथ  हम अपने लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं। जब एक आवाज अपने हक को पाने की लिए उठती है और उस आवाज में बुलंदी होती है तो लोग खुद ब खुद उस आवाज का साथ  देने  लगते हैं। इसके लिए अब अकेले लड़ने की जरूरत भी नहीं है बल्कि विश्व स्तर पर ही नहीं बल्कि हर देश और राज्य में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए आयोग बने हुए हैं। अब देखना यह है की इन आयोगों को किस आधार पर मानव को न्याय पाने के लिए सहायता करनी होती है। 
               मानवाधिकारों का औचित्य और स्वरूप 
           मानव के जन्म लेने के साथ ही उसके अस्तित्व को बनाये रखने के लिए कुछ अधिकार उसको स्वतः मिल जाते हैं और वह उनका जन्मसिद्ध अधिकार होता है। इस दुनियाँ में प्रत्येक मनुष्य के लिए अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिकार एक मनुष्य होने के नाते प्राप्त हो जाता है। चाहे वह अपने हक के लिए बोलना भी  जानता हो या नहीं . एक नवजात शिशु को दूध पाने का  अधिकार होता है और तब वह बोलना भी  नहीं जानता  लेकिन माँ उसको स्वयं देती है और अगर नहीं देती है तो उसके घरवाले , डॉक्टर सभी उसको इसके लिए कहते हैं क्योंकि  ये उस बच्चे का हक है और ये उसे मिलना ही चाहिए। एक बच्चे के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए ये  जरूरत  सबसे अहम् होती है। लेकिन उसके बड़े होने के साथ साथ उसके अधिकार भी बढ़ने लगते हैं . बच्चा पढ़ने लिखने अपनी परवरिश के लिए उसको समुचित सुविधाएँ और वातावरण भी मिलना भी उनके जरूरी अधिकारों में आता है। उन्हें आत्मसम्मान के साथ जीने के लिए , अपने विकास के लिए और आगे बढ़ने के लिए कुछ हालत ऐसे चाहिए  जिससे की उनके रास्ते  में कोई व्यवधान न आये . पूरे विश्व में इस बात को अनुभव किया गया है और इसी लिए मानवीय मूल्यों की अवहेलना होने पर वे सक्रिय  हो जाते  हैं।   इसके लिए हमारे संविधान में भी उल्लेख किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 14,15,16,17,19,20,21,23,24,39,43,45 देश में मानवाधिकारों की रक्ष करने के सुनिश्चित हैं। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि इस दिशा में आयोग के अतिरिक्त कई एनजीओ भी काम कर रहे हैं और साथ ही कुछ समाजसेवी लोग भी इस दिशा में अकेले ही अपनी मुहिम चला रहे हैं। 
                        सामान्य रूप से मानवाधिकारों को देखा जाय तो मानव जीवन में भोजन पाने का अधिकार , शिक्षा का अधिकार , बाल शोषण , उत्पीडन पर अंकुश , महिलाओं के लिए घरेलु हिंसा से सुरक्षा, उसके शारीरिक शोषण पर अंकुश , प्रवास का अधिकार , धार्मिक हिंसा से रक्षा आदि को लेकर बहुत सरे कानून बनाये गए हैं . जिन्हें मानवाधिकार की श्रेणी में रखा गया है . 

                                               मानवाधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाये गए और उनको लागू करना या करवाने के लिए प्रयास भी हो रहे हैं लेकिन वह सिर्फ  कागजी दस्तावेज  बन कर रह गए हैं। समाज में होने वाले इसके उल्लंघन के प्रति अगर मानव ही जागरूक नहीं है तो फिर इनका औचित्य क्या है? हम अपने घरों में काम करवाने के लिए छोटे छोटे बच्चों बच्चों को रखना पसंद करते हैं क्योंकि उनकी जरूरतें कम होती हैं , वे गरीब परिवार से होते हैं इसलिए उन्हें कुछ भी कहा जाय या दिया जाय वे आपत्ति करने की स्थिति में नहीं होते हैं। छोटी छोटी बच्चियां घरों में भारी भरकम काम करती   मिल जायेंगी। सिर्फ घर में ही नहीं बल्कि कारखानों में काम करने के लिए महिलायें 10 से 12 घंटे काम करती हुई मिल जायेंगी। भवन निर्माण में लगी महिलायें अपने छोटे छोटे बच्चों को कहीं जमीन पर लिटा कर काम करती हुई मिल जायेंगी और उन्हें अपने बच्चे को दूध पिलाने की भी छुट्टी नहीं दी जाती है। पैसा उन्हें पुरुषों की अपेक्षा कम मिलते हैं। इस दिशा में कहाँ हैं मानवाधिकार? 
                         छोटे छोटे बच्चे कारखानों में काम करते मिल जायेंगे , वे बच्चे जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा है। गरीब है तो घर में पैसे लाने के लिए घर वालों के द्वारा काम पर भेज दिए जाते हैं। सड़क पर नशे की चीजों को बेचते हुए बच्चे किस दृष्टि से मानवाधिकार के उल्लंघन का प्रतीक नहीं है।
                     घर में महिलाओं के साथ हो रहे घरेलु हिंसा की घटनाएँ  क्या हैं?  हम दंभ भरते हैं कि  नारी सशक्तिकरण हो रहा है, महिलायों की स्थिति सुधर चुकी है , वे आत्मनिर्भर हो अपने स्थान को सुरक्षित कर रही हैं लेकिन सच इसके विपरीत है  सिर्फ कुछ प्रतिशत महिलायें हैं जो आत्मनिर्भर हो कर अपने बारे में सोचने और करने के लिए स्वतन्त्र है, नहीं तो उनकी कमाई  भी घर के नाम पर उनसे ले ली जाती है और उनको मिलता है सिर्फ अपने खर्च भर का पैसा।
                     महिलाओं और बच्चियों के यौन शोषण के प्रति क़ानून बने है लेकिन फिर भी इसकी घटनाओं में कोई भी कमी नहीं आ रही है . उन्हें सुरक्षित रहने और इज्जत से जीने का अधिकार तो मानवाधिकार दिलाता ही है लेकिन उन्हें मिलता कब है? जिन्हें उन सबकी डोर थमाई गयी है वे ही कभी कभी उसका हनन करते हुए पाए जाते हैं।
                                        
           आज भी बचपन भूख से बिलखता हुआ और शिक्षा से बहुत दूर जी रहा है . प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन वे अभी तक अपर्याप्त हैं। उनका लागू होने में बहुत देर है अभी। अभी देश का बचपन अपने लिए जमीन तलाश कर रहा है . उनके अधिकारों का हनन हम कर रहे हैं। 
                    बड़े बड़े समाजसेवी लोगों के घर में महिलाओं के शोषण , बाल शोषण  की घटनाएँ हुआ करती हैं . वे सफेदपोश लोग ही मानवाधिकारों का हनन कर रहे होते हैं। हम उन्हें उसके रक्षक समझ रहे होते हैं लेकिन वे न्याय नहीं कर रहे होते हैं। उनके खिलाफ बोलने का साहस भी लोग नहीं कर पते हैं।
                हम और दिनों की तरह से इस दिन को भी एक रस्म समझ कर निभा लेते हैं लेकिन खुद को नहीं बदल पते हैं।  किसी के प्रति न्याय करने के लिए पहल भी अगर कर सकें तो एक एक कदम कुछ तो सुधर ला सकता है। बस हमेशा के तरह से ये संकल्प तो ले ही सकते हैं कम से कम हम तो इन मानवाधिकारों का हनन करने की कोशिश नहीं करेंगे 

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

दफन होने का अधिकार !

                      हमारे देश के संविधान में सभी को कुछ मौलिक अधिकार मिले हैं, जिनमें जीवन में होने वाली सभी जरूरतों को शामिल किया गया है। कमोबेश सभी किसी न किसी तरह से जी भी रहे हैं . घर नहीं तो सीमेंट के बड़े बड़े पाइप में घर बसा कर बरसात और सर्दी से बचने के लिए जी रहे हैं। मलिन बस्तियों में बांस और पालीथीन के सहारे टेंट की तरह बनाये घरों में अपने परिवार के साथ जीवन गुजार  रहे हैं। लेकिन वे जी रहे हैं चाहे एक छोटे से कमरे में 20 लोग जी रहे हों। जी रहे हैं घर में जगह नहीं है तो पार्क में , फुटपाथ पर , पेड़ों के नीचे रात गुजार ही लेते हैं और दिन में तो कोई मुकम्मल जगह की जरूरत ही नहीं है . इंसान कहीं भी काम पर जाकर या अपने लिए रोजगार खोजने या करने के लिए कहीं न कहीं तो चला ही जाता है।  जीने के लिए समस्या नहीं है - हम जिस समस्या की बात करने जा रहे हैं वह मेरी दृष्टि में तो आज तक नहीं गुजरी है क्योंकि मरने के बाद भी इंसान को दो गज जमीन की जरूरत को हम सदियों से स्वीकार करते चले आ रहे हैं। जिन्दगी में उसे रहने की अपनी जमीन न मिले लेकिन मरने पर तो उसके लिए वे लोग उसे जमीन मुहैय्या कराते  हैं वह भी तब जब कि  वह उसकी मांग नहीं कर रहा होता है,  लेकिन ये हमारा नैतिक दायित्व होता है कि  उस दिवंगत को दफन होने की जगह दी जाये 
                      अगर हम ये कहें कि  अब हमारे देश में ही बल्कि देश ही क्यों कहें ? उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के गृह जनपद में ऐसे जगह है जहाँ पर लोगों को दफन होने की जगह नहीं है। ये जगह है इटावा  जिले में चकरनगर के तकिया मोहल्ला . जहाँ पर दो परिवारों के रहने से शुरुआत हुई थी और धीरे धीरे आबादी बढती गयी और अब उन्हें अपने परिवार वालों को दफनाने के लिए जगह नहीं मिल रही है . हकीकत ये है कि  यहाँ पर हर घर में एक कब्र बनी हुई है। और कब्र के होने पर उसके साथ कुछ धार्मिक आस्थाएं भी जुडी होती हैं . उसको कोई लांघें नहीं और उसके  कुछ बनाया भी नहीं जाना चाहिए . यहाँ पर लोग घर के कमरों में , गुसलखाने में , दरवाजे के पास हर जगह कब्र बनाये हुए हैं . कब्र के बगल में बैठ कर खाना बना रहे होते हैं , सो रहे होते हैं। बच्चों की कब्र दरवाजे के पास बना देते हैं क्योंकि बच्चों के लिए जगह कम  लगती है। यहाँ घर वालों को घर में ही दफन करने के लिए मजबूर लोग कहाँ जाएँ? और कैसे जियें ? 
                      क्या सरकार मीलों लम्बे जंगल में से कुछ जगह भी इन दिवंगत लोगों के दफन होने के लिए देने की व्यवस्था नहीं कर सकती है ?  बड़े बड़े स्टेडियम, पार्क और गाँव को राजधानी बना देने वाले शासक अपने ही जनपद में लोगों के दफन होने के अधिकार को बहाल  नहीं कर  सकते हैं। अभी धरती इतनी छोटी नहीं है कि मरने के बाद इंसान के लिए दफन होने की जगह भी न मिल सके वे भी इंसान ही है  अपने ही घर में दफन करके उनके साथ ही जीने के लिए लोग मजबूर हैं। बड़ी बड़ी बातें और बड़े बड़े वादे  करने वाले ये सरकार के नुमाइंदे आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को समझने के लिए तैयार ही कहाँ है? यहाँ पर कोई एकडों जमीन पर बने बंगले  को सिर्फ अपने परिवार के रहने के लिए छोटा बता कर बड़े की मांग कर रहा है और कहीं वे अपने घर के सदस्य को मरने के बाद भी कहीं दो गज जमीन मुहैय्या नहीं करवा पा  रहे हैं।
                  हम लोकतंत्र में जी रहे हैं लेकिन जीने के अधिकार को खोने के बाद अब मरने के बाद दफन होने का हक भी खो रहे हैं।

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

ये कैसे सुधारगृह ?

एक संरक्षा गृह (चित्र गूगल के साभार )
                  


                      करीब करीब हर शहर में नारी सुधार  गृह , नारी निकेतन , बालिका गृह या अनाथालय जैसे संस्था सरकारी और अर्ध सरकारी स्तर के संस्थान मिल जायेंगे . जिनमें कभी कभी न्यायलय द्वारा विशेष स्थितियों में फँसी हुई लड़कियों और महिलाओं को रखने का आदेश दिया जाता है . कुछ घर से भागी हुई , अनाथ , पहली बार अपराध में लिप्त पाई जानेवाली नाबालिग लड़कियाँ या फिर परित्यक्ता लड़कियाँ जिन्हें किसी भी परिवार में शरण नहीं मिलती है उनको इन संस्थाओं में रखा जाता है। 
                  संस्थाओं को सम्बद्ध मंत्रालय द्वारा पूर्ण सहायता प्राप्त होती है। राज्य सरकार के द्वारा भी अनुदानित राशि मिलती है। कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस तरह के गृह खोल कर संरक्षण प्रदान करती हैं . वहां पर भी  सरकार के द्वारा अनुदान प्राप्त होता है . इन  संरक्षा गृहों में  क्या होता है कि  वहां से मौका मिलने पर लड़कियाँ भाग जाती हैं या फिर भागने के प्रयास में पकड़ी जाती हैं। उन्हें पकड़ लिया जाता है और फिर पुलिस और वहां का स्टाफ मामले पर लीपापोती करके मामले को दबा देती हैं लेकिन किसी एक ही संस्था में ऐसी घटनाओं की पुनरावृति किस और संकेत करती  है ? क्या इन संरक्षा गृहों में ये अनियमितताएं पायीं जाती हैं --
*क्या  सरक्षा गृह सिर्फ एक कैद बना कर छोड़ दिए जाते हैं , जिनके अन्दर ही उन्हें किसी भी हाल में रहने के लिए मजबूर किया जाता है ?
* क्या बाहरी दुनियां से उनका संपर्क नहीं होता है . अगर होता है तो फिर उस स्थान की संरक्षिका के आदेश पर ही। 
*क्या उनको काम के नाम पर संस्था के द्वारा बाहर  भेजा जाता है और वह भी वहां के कर्मचारियों की इच्छा के अनुसार .
*क्या उन्हें वहां के अधिकारीयों , कर्मचारियों के द्वारा उत्पीडित  किया जाता है जिससे ऊब कर भागने का प्रयास करती हैं ? 
*हो सकता है काम के नाम पर उनका शोषण किया जाता हो।
*क्या इन संरक्षा गृहों में कभी सरकारी निरीक्षण किया जाता है और निरीक्षण के समय वहां की संवासनियों को अपनी बात को निर्भीक रूप से कहने का अधिकार है। 
*क्या उनको अपनी इच्छानुसार पढ़ने , काम करने या फिर कुछ समय के लिए उस गृह से बाहर जाने की अनुमति प्राप्त होती है ? 
*क्या वहां पर सारे कर्मचारी सहयोगपूर्ण रवैया अपनाते हैं?
*क्या इन संरक्षा गृहों में पुनर्वास के द्वारा वहां रहने वाली लड़कियों को एक नया जीवन जीने का अवसर प्रदान करने के बारे में पहल जैसे कोई प्रयास भी किया जाता है।
*क्या उनके रहने , खाने और काम करने के लिए स्वस्थ वातावरण प्रदान किया जाता है?
                           फिर अगर किसी एक ही संस्थान से लड़कियों के भागने की घटना बार बार होती रहे और वह भी कुछ ही महीने के अनंतर में तो फिर संस्थान के ऊपर प्रश्नचिह्न उठ खड़े होना स्वाभाविक है। सारी  दुनियां से उपेक्षित या फिर अनाथ नारी एक सुरक्षित छत की कामना  करती है लेकिन जहाँ वह छत ही उनके मन में पलने वाली  सम्मान के जीवन जीने की तमन्ना चूर चूर हो जाये तो फिर वे अपने जीवन को दांव पर लगा कर कुछ भी करने के लिए मजबूर हो जाती हैं वे इस बात से भी वाकिफ होती हैं कि  अगर वे पकड़ी गयीं तो उनका जीवन और भी अधिक नरक बना दिया  जाएगा . इस  लेख को लिखने के लिए आधार  बना एक समाचार  -- मुंबई में मानखुर्द स्थित नवजीवन नारी सुधार गृह से कल 8 लड़कियाँ भाग निकली सिर्फ कल ही नहीं बल्कि इससे पूर्व 10 सितम्बर को भी 17 लड़कियाँ फरार हो गयीं थी 20 अक्टूबर को 35 लड़कियों ने भागने का प्रयास किया और 22 उसमें सफल हो गयीं।  कल भागी हुई लड़कियों को बार, पब और मसाज पार्लर से पकड़ा गया . 
                  इससे बहुत सारे  सवाल उठ खड़े होते हैं - क्या लड़कियों को पब, बार या मसाज पार्लर में पहले भी भेजा जाता रहा है या फिर वहां से जुड़े हुए लोग उनके संपर्क में रहे होंगे ताकि वे यहाँ से भाग कर वहां पहुँच गयीं। लड़कियों को एक सामान्य जीवन जीने लायक सुविधाएँ भी मुहैय्या नहीं हो रही हैं, जिससे कि वे उसके लिए लालायित रहती हैं और अवसर मिलने पर भागने का प्रयास करती हैं। कभी उन लड़कियों से भी यह जानने  का प्रयास किया जाता  है कि  वे चाहती क्या है?  अगर नहीं तो उस बंदीगृह जैसे संरक्षा गृहों में ऐसे ही भागने का प्रयास करती रहेंगी .  जब ऐसे गृहों में ऐसी कोई घटना हो जाती है तो महिला आयोग भी सक्रिय  दिखलाई देता है कभी उसने ऐसे संरक्षा गृहों की गतिविधियों और जीवनचर्या के जीवन के बारे में जानने के विषय में कोशिश की शायद नहीं . कितने ऐसे संरक्षा गृहों में लड़कियों को होटलों और तथाकथित समाजसुधारकों और सफेदपोशो के के दिल बहलाने के लिए होटलों और बंगलों में भेजा जाता है . वे निराश्रित , असहाय और मजबूर लड़कियाँ इसके खिलाफ बोलने का साहस  भी नहीं रखती हैं।  हाँ ऐसे ही जीवन जीने के लिए मजबूर होती हैं। ऐसे गृहों को अनुदान की लम्बी चौड़ी राशि  भी मिलती रहती है और कर्मचारियों और अधिकारियों की जेबें भी गर्म होती रहती हैं। 
                      कहीं कहीं तो ऐसे संरक्षा गृहों में वहां के कर्मचारियों के द्वारा ही नाबालिग लड़कियों का यौन शोषण होता रहता है और वे बच्चियां जो इसका अर्थ भी नहीं जानती है इससे त्रसित जीती रहती हैं और तारीफ की बात ये है कि  नारी संरक्षा या बालिका सुधर गृहों में पुरुष कर्मचारियों की नियुक्ति दिन और रात  दोनों में ही गृहों के भीतर दर्ज होती रहती है। वहां की संरक्षिका भी इससे बेखबर रहती हैं क्योंकि रात में वे अपने घर में रहती हैं। संरक्षा गृह ऐसे ही लोगों के सुपुर्द करके। बच्चियां या कहें  इसके विपरीत नारी भी घर में सुरक्षित नहीं , संरक्षा गृहों में सुरक्षित नहीं ,  बाहर निकालने पर भी नहीं फिर हम अपने देश में क़ानून के द्वारा नर और नारी दोनों को समान जीवन जीने के अधिकार का अतिक्रमण होते हुए क्यों देख रहे हैं? कोई भी सरकार ये कोशिश नहीं कर पाती  है कि ऐसी घटनाओं को त्वरित रूप से न्याय के लिए समय सीमा निर्धारित कर सके . जब तक न्याय और कानून व्यवस्था इसकी और सार्थक कदम नहीं उठाएगी इसी तरह से लड़कियाँ त्रसित होकर भागती रहेंगी या फिर अपना शोषण करवाती रहेंगी। वे वहां से भाग कर भी सुरक्षित कहाँ होंगी ? वे या तो ऐसे ही बार पब या मसाज पार्लर में पहुच कर अपने शोषण के दूसरे रास्ते  पर चल कर किसी और गिरोह के चंगुल में फँस कर शोषित होती रहेंगी और एक जगह से निकल कर दूसरी जगह कैद हो जायेंगी। 
                  इन संरक्षा गृहों में उन्हें रख कर आत्मनिर्भर बनाने का काम सिर्फ कागजों में हो रहा है और वास्तव में ऐसे गृह है भी जहाँ पर इनसे विभिन्न काम लिए जाते हैं और फिर उसको बाजार में रख कर उस लाभ से इन्हें  भी हिस्सा दिया जाता है। वे आत्मविश्वास से भर कर आत्मसम्मान के साथ जीवन जीने का सपना देख सकती हैं . इन्हें एक नया जीवन जीने का अवसर भी प्रदान किया जाता है , उनका घर  की भी व्यवस्था के जाती है। यहाँ पर लड़कियों को बेटी की तरह से ही रखा जाता है और  ही उन्हें वर के साथ विदा भी कर दिया जाता है। काश!  देश के सारे संरक्षा गृहों को वास्तव में घर बना दिया जाय ताकि जिस उद्देश्य से इन्हें बनाया गया है वे वास्तव में उन्हें  कर सकें