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बुधवार, 30 जून 2010

मेरा एक सफरनामा (त्रयम्बकेश्वर मंदिर) !

                                              ऐसी सफर और सैर मैंने परिवार और कुछ आत्मीय लोगों के साथ शायद पहली बार की और उसको पूरा पूरा एन्जॉय किया. बस दुःख इस बात का रहा कि मेरी छोटी बेटी अपने exam के कारण इसमें शामिल नहीं हो पायी. इसमें अलग अलग राज्यों के मौसम से परिचय भी हुआ और उसका सुखद अनुभव भी अविस्मरणीय रहा.
                                             वैसे तो मेरा पड़ाव पहले नासिक ही रहा लेकिन मैंने सबसे पहले त्रयम्बकेश्वर  से ही अपनी यात्रा आरम्भ करती हूँ. नासिक रोड स्टेशन से लगभग २८ किलोमीटर कि दूरी पर पहाड़ियों के बीच में स्थित है. यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता देखते ही बनती है.

इस स्थान का विहंगम दृश्य देख कर ही पता चलता है कि इसकी सुन्दरता तो  अद्भुत ही है, साथ ही इसके लिए हिन्दू धर्म में जो आस्था जुड़ी है उसने इसको और अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है. भारत भूमि पर स्थित १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक यहाँ पर है. यहाँ पर दर्शन के लिए लाइन में लगे लोगों को देख कर ही वहाँ के लोग बता देते हैं कि अभी ४ घंटे की लाइन लगी है. यहाँ पर सिर्फ त्रयम्बकेश्वर का ही महत्व नहीं हैं बल्कि गोदावरी नदी और ब्रह्मगिरी पर्वत को भी उतना ही महत्वपूर्ण मना जाता है.
त्रयम्बकेश्वर मंदिर का निर्माण नासिक  के  समीप  त्रयम्बक नामक  स्थान पर  श्रीमंत बालाजी बाजीराव उर्फ नानासाहिब  पेशवा द्वारा १७५५ में आरम्भ किया गया था और १९८६  में इसका कार्य पूर्ण हुआ था. . उस समय इस मंदिर के निर्माण में १६ लाख मुद्रा और ३१ वर्ष का समय लगा था. 
इसमें जो ३ लिंग स्थापित है , वे ब्रह्मा (सृष्टि के सृजक), विष्णु ( सृष्टि के पालक ) और महेश (सृष्टि के संहारक) के प्रतीक माने जाते हैं. शेष ज्योतिर्लिंगों में सिर्फ भगवान शिव के लिंग को ही देखा जा सकता है.  ये लिंग प्राकृतिक हैं और गंगा का पवित्र जल शिवलिंग के ऊपर बहता है. ये लिंग जल के नीचे ही रहते हैं. पुजारी यहाँ पर दिन में तीन बार पूजा करते हैं और इसके लिए उनको १००० रुपये का प्रतिदिन का अनुदान प्राप्त होता है. प्रदोष काल  में विशेष पूजा का प्रावधान है. 

इस मंदिर कि वास्तु काला और प्राचीन स्थापत्य काल को देख कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि पत्थरों पर की गयी उत्कीर्णन का कार्य कितना उत्कृष्ट और अनुपम होता था. सदियों से खड़ा ये मंदिर आज भी अपनी  कथा स्वयं कह रहा है . 

मंदिर  की स्थापत्य  काला  का  नमूना यहीं  देख  सकते  हैं .
  
त्रयम्बक में स्थित ये कुण्ड गोदावरी नदी के उद्गम से बना स्थल मान  जाता है. गोदावरी नदी का उद्गम ब्रहाम्गिरी पर्वत से ही माना जाता है और इसको गंगा की  तरह ही पवित्रतम नदी माना जाता है. रामायण युग में सीता के इस गोदावरी में स्नान के लिए विशेष प्रेम की कथाएं सुनने को मिलती हैं. 
इस बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अगर देर रात्रि नासिक से त्रयम्बक पहुंचना हो तो वहाँ के रास्ते इतने सुनसान हैं कि किसी भी दुर्घटना से इनकार नहीं किया जा सकता है. चारों ओर पहाड़ियों के बीच होने के कारण वहाँ पर जन जीवन भी बहुत अधिक नहीं है. वहाँ पर पूजा और धार्मिक संस्कारों से जुड़े कार्यों के लिए विशेष महत्व का स्थान माना जाता है.

सोमवार, 21 जून 2010

उ. प्र. में बी टी सी का यथार्थ !

                            
आजकल मैं भी और माँओं  की तरह से वर की खोज करने में लगी हूँ और जब भी अखबार का matrimonial देखती हूँ. तो खासतौर पर हिंदी पेपर में आज कल लड़की की योग्यता में एक लाइन अक्सर देखने को मिल जाती है  - 'विशिष्ट बी टी सी को प्राथमिकता' .
                          सबसे पहले तो मैं ये बता दूं कि ये विशिष्ट बी टी सी है क्या? उ. प्र. में बी. एड . करने वालों की संख्या इतनी हो चुकी थी कि उनको जॉब नहीं मिल पा रही थी तो यहाँ की सरकार ने सब बी. एड. डिग्री धारियों को एक अल्प प्रशिक्षण के बाद विशिष्ट बी. टी. सी. का नाम लेकर प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्त करने का प्रावधान किया है. अब ये बी एड धारी गाँव में पढ़ाने के उद्देश्य से तो पढ़े नहीं थे और न ही इसके इच्छुक होते हैं लेकिन फिर भी सरकारी नौकरी के मजे तो सभी को पता हैं और फिर क्यों इधर उधर भटकें सो इसी में लाइन में लग जाओ . आज नहीं तो कल नौकरी पक्की हैं.
                         इनमें से अधिकतर लोग जुगाड़ वाले होते हैं और फिर अगर जुगाड़ न चली तो और रास्ते खोज लेते हैं. जिसकी पोस्टिंग हो गयी जाकर वहाँ ज्वाइन जरूर कर लेंगे और फिर शुरू होती हैं इसकी हकीकत से दो चार होना.
                          इस बार बी टी सी के आवेदन पत्र भरने वालों में २० प्रतिशत वे हैं जो कि एम बी ए, एम सी ए. , बी एम एस, बी ए एम एस और बी टेक हैं. ये आंकड़े क्या दर्शाते हैं कि हमारे यहाँ शिक्षा का व्यापारीकरण इतना हो चुका है कि कुकुरमुत्तों कि तरह खुलते जा रहे इंजीनियरिंग कॉलेज, मैनेजमेंट  कॉलेज, मेडिकल कॉलेज ने शिक्षा कि उपयोगिता पर प्रश्न चिह्न लगा दिए हैं.
                          हम इस दिशा से आ रहे बी टी सी करने वाले लोगों से क्या ये अपेक्षा कर सकते हैं कि वे गाँव में जाकर गरीब बच्चों को पढ़ाएंगे और सही शिक्षा दे पायेंगे. कभी नहीं, वे सिर्फ सरकारी नौकरी के लालच में ऐसा करने के लिए इच्छुक हैं. जहाँ कोई पुरसाहाल नहीं होता, आप हफ्तों स्कूल न जाएँ - चाहे जब चले जाएँ या न जाएँ  - हाँ जब निरीक्षण हो तो आप उपस्थित हो जाएँ आपका रिकार्ड एकदम सही रहेगा.
और हम ऐसे शिक्षकों से आशा भी क्या कर सकते हैं?
कितने पैसे भर कर उन्होंने प्राइवेट संस्थायों से ये उपाधियाँ ली होंगी?
कितने सपने इतने  सालों तक उनके मन में सजे रहे होंगे? लम्बे पॅकेज और बढ़िया कंपनी में जाने का सपना, किसी बड़े शहर में रहकर नौकरी करने का सपना, दो चार साल के बाद विदेश जाने का सपना, बढ़िया कार और बंगले में रहने का सपना.
                   एकाएक सब छोड़ कर बी टी सी करके नौकरी करने का निर्णय - जिसमें न पढ़ने वालों का कोई स्तर और न स्कूल का. हाँ एक सुरक्षित भविष्य का सपना जरूर है. चाहे जाएँ या न जाएँ हर महीने मोटी पगार तो बैंक में जाने वाली है.
                   इस उपाधियों के लेने के लिए उन्होंने बड़े शहर में रह कर ही पढ़ाई की होगी , फिर अब  गाँव और वह भी कभी कभी तो एकदम सड़क से बहुत दूर , जहाँ पर सवारी भी उपलब्ध नहीं है , नौकरी करने क्यों जायेंगे? कैसे तैयार कर रहे हैं उस काम के लिए. क्योंकि  उनको यह पता है कि बस पोस्टिंग लेनी हैं बस फिर सब अपनी मर्जी.
                   कुछ उदाहरण - मेरी एक बहुत खास बी एस सी और कंप्यूटर में डिप्लोमा के बाद अचानक बी टी सी करने चली जाती हैं क्योंकि उनके ससुर उसी इलाके में मास्टर साहब हैं और फिर नियुक्ति भी मास्टर साहब के अनुकूल ही मिल गयी. ये सर्वविदित हो गया कि ये मास्टर साहब की बहू हैं आये या न आयें उपस्थिति तो लग ही जानी हैं . फिर कभी कभी जाना पड़े तो शहर की रहने वाली लड़की कैसे गाँव  की नौकरी पर समय से पहुंचे. उनके पतिदेव स्कूल पहुँच कर प्रार्थना करवा देते हैं और बच्चों को बिठा देते हैं और वे बाद में तैयार होकर पहुँच जाती तो पतिदेव घर आ जाते.
                         दूसरे महिला भी मेरे बहुत करीब लेकिन उन्हें नहीं मालूम कि ये पोल मैं ही खोलने वाली हूँ. वे पति के साथ पुणे में रहती हैं और नौकरी उनकी यहाँ चल रही है. कैसे? उन्होंने अपनी जगह एक बेकार युवती को नियुक्त कर दिया है और उसको २-३ हजार रुपये हर महीने दे देती हैं . खुद महीने में एक बार आकर पूरे महीने के हस्ताक्षर करके चली जाती हैं. हाँ बाकी काम वह लड़की संभाल  लेती हैं. इनकी तरह से एक नहीं कईयों लड़कियाँ और लड़के हैं जो ठेके पर अपना काम करवा रहे हैं और खुद वेतन उठा रहे हैं. सौदा क्या बुरा है? २-३ हजार दे भी दिए तब भी १५ तो अपनी जेब में आ ही रहे हैं. कुछ जरूरत हुई तो विभाग में खिला पिला दिए.
                         अब हर जगह ये किसी तरह से बी टी सी में हो जाये, फिर तो भविष्य सुरक्षित. लेकिन ये सुरक्षित भविष्य क्या देश के भावी भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहा है. ये यथार्थ है उ. प्र. कि बी टी सी की.

शुक्रवार, 18 जून 2010

दाम्पत्य जीवन में दरार और मनोग्रंथियाँ !

                      सबसे पहले मैं बता दूं कि मेरी ये लेख आज से २४ साल पहले जुलाई १९८६ में  "सरिता" में प्रकाशित हुआ था. मेरी लेखन के सफर में इसका जिक्र किया था तो कुछ शुभचिंतकों ने ये सुझाव दिया कि मैं अपने उन लेखो और कहानियों को ब्लॉग पर डालूँ ताकि उन्हें पढ़ा जा सके . 

            डॉ. प्रशांत मेरे पड़ोसी हैं, उनसे हमारी पारिवारिक अंतरंगता है. डॉ. प्रशांत  और उनकी पत्नी दोनों ही उच्चशिक्षित एवं सुसभ्य व्यक्ति है. पति एम.एस.सी, पीएच.डी. और  उच्च पदस्थ अधिकारी हैं. पत्नी भी किसी महाविद्यालय में प्रवक्ता हैं , साथ ही साथ अच्छी गायिका और मंच से लेकर रेडिओ तथा टीवी तक एक जाना पहचाना व्यक्तित्व है. ३ साल से अपने पिता के घर रह रही हैं, क्योंकि वह अपने में यह उच्चता की भावना पाले हुए हैं कि वे इतनी अच्छी कलाकार हैं तो उन्हें उसी तरह से घर में भी हाथोंहाथ  लिया जाय और जैसे उनके मायके में सभी तारीफों के पुल बांधा करते थे यहाँ भी उनका ही गुणगान होता रहे. .
                      हर नारी के लिए शादी से पहले और  शादी के बाद दायित्वों में अंतर आ ही जाता है . नारी चाहे कलाकार हो, या नेता अथवा प्रशासक - घर के अन्दर वह माँ, पत्नी और बहू तीनों व्यक्तित्व एक साथ जीती है और परिवार के हर सदस्य के प्रति उसके अलग अलग दायित्व हैं और वह उनको पूर्ण रूप  से न सही कुछ अंश तक तो पूर्ति की अपेक्षा तो अवश्य ही की जा  सकती है. जहाँ इन दायित्वों की उपेक्षा हुई नहीं कि परिवार विघटन के कगार पर आ खड़ा होता है. डॉ. प्रशांत की पत्नी अपने दायित्वों को निभा नहीं सकीं या कहिये कि वे निभाना नहीं चाहती थी और एक खुशहाल परिवार आपसी कलह का शिकार हो गया. 
                     शकुंतला मेरी बहुत अच्छी सहेली है और अपनी हर बात मुझसे शेयर करती है. जब हम इंटर में पढ़ रहे थे तभी उसकी शादी कर दी गयी थी. उसके पति भी उस समय पढ़ ही रहे थे लेकिन आज से 16 साल पहले और आज के माहौल में जमीं आसमान का अंतर है. पतिदेव तो पढ़ लिख कर नौकरी करने लगे और अच्छी जगह पर हैं. लेकिन वे पत्नी अपने समय के अनुसार आगे नहीं पढ़ सकी और घर को बखूबी संभाल रही हैं. अब पतिदेव अपनी पत्नी को लेकर हीन भावना से ग्रस्त हैं और बात बात पर ताना देते हैं कि मेरे भाग्य में तो ये ही  फूहड़ लिखी थी. वह भी बेचारी अपने दो बच्चों का मुँह देखकर चुपचाप सब सहती रहती है. 
                    ऐसे ही कई अन्य दम्पति मेरी नजर में है . पति बहुत ही खूबसूरत और पत्नी साधारण भी नहीं बल्कि उससे भी कम स्तर की है. यह तो संयोग की बात है कि उनका संबंध हो गया. पत्नी अपने रंगरूप  को लेकर बड़ी हीन भावना रखती है. और अपने पति को हमेशा शक की दृष्टि से देखती रहती हैं. किसी स्त्री से यदि हँस कर बातें करते हुए देख लिया तो तुरंत उससे सम्बन्ध स्थापित कर यह जानने का प्रयत्न करेगी कि कहीं दाल में काला तो नहीं है. यदि जानपहचान की स्त्री ने उसके सामने उसके पति की प्रशंसा कर दी तो उसकी निगाह में निश्चित ही उसके पति के साथ कोई सम्बन्ध है या  रहा है. उसकी दृष्टि  में  पति खूबसूरत होना और स्वयं का न होना हमेशा ही एक तनावपूर्ण वातावरण बनाने में सहायक होता है.
                      दाम्पत्य जीवन में चाहे हम परंपरागत रीति समझें या मानव की नैसर्गिक आवश्यकता, दोनों ही हालत में पति और पत्नी के मध्य सामंजस्य आवश्यक है. सामान्य जीवन में हीनता या उच्चता की भावना या किसी तरह के अहम् की भावना एक मनोवैज्ञानिक व्याधि है. यह व्याधि यदि पति और पत्नी के मध्य आ जाती है तो निश्चित ही दांपत्य जीवन को कटुता की ओर ले जाती है. दाम्पत्य जीवन में अपने  दायित्वों से विमुख होना , एक दूसरे को संशय की दृष्टि से देखना या बेवजह किसी पर दोषारोपण करना - यह  सब  जिस पृष्ठभूमि को तैयार करते हैं वह है पारिवारिक विघटन. 

विजय पाने की कोशिश करें 
                      इस मनोग्रंथियों से ग्रस्त होकर कोई भी अपने को दोषी नहीं मानता. जैसे डॉ. प्रशांत की पत्नी को ही लें - उनका कहना है कि  वो जाहिलों का परिवार है और वहाँ उसके गुणों की क़द्र नहीं है. वे अपने को उच्चता की भावना का शिकार नहीं मानती. 
शकुंतला  का पति जब अपने सहकर्मियों की पत्नियों को अपटूडेट  देखता है तो उसको उसकी कमियां नजर आती हैं. 
                 मान लीजिये आप अपनी इन ग्रंथियों के वशीभूत होकर तलाक लेने की बात भी सोचते हैं तो यह कोई आपकी समस्या का समाधान नहीं है. यह बात तो पुनर्विवाह के बाद भी हो सकती है. सम्पूर्ण कोई भी नहीं होता वहाँ कोई और कमी मिल सकती है. हो सकता की आपकी उच्चता की भावना को दूसरा भी पसंद न करे और आपकी उपेक्षा शुरू कर दे तब क्या करेंगे? इससे बेहतर है की आप इसका निदान खोजें.
                  यह नहीं की मानव में जो ग्रंथि बन गयी वह मिट नहीं सकती या उसका कोई निदान नहीं है. उन पर विजय पाई जा सकती है. अपने आसपास दृष्टिपात  करें तो किन्हीं लोगों को ऐसा पायेंगे जो आपके लिए प्रमाण हो सकते हैं, व्यक्ति  के रंगरूप की नहीं बल्कि उसके गुणों की क़द्र करनी चाहिए. हम कवि , कलाकार या नेता कोई भी हों उनके साथ परिवार में पति - पत्नी, पिता-संतान या माँ संतान , बहू और सास ससुर के रिश्ते कमतर नहीं होते हैं. यदि आप अपनी हीन भावना या उच्चता की भावना इस हद तक ग्रस्त हो चुके/चुकी हैं तो आप मनोचिकित्सक से सलाह ले सकते हैं. इसका बेहतर निदान उसके पास हो सकता है. 
                              कभी कभी इसके परिणाम इतने घटक हो जाते हैं की व्यक्ति किसी गंभीर मानसिक रोग का शिकार या आत्महत्या तक कर सकता है. 
                     एक  अभिभावक मेरे पास आये और अपने बच्चे के बारे में बोले की इस बच्चे को पढ़ाई के दौरान डांटा न जाये, क्योंकि इससे बच्चा एकदम सहम जाता है. कारण पूछने पर पता चला कि  बच्चे की माँ नौकरी करती है, पिता संयुक्त परिवार में हैं, माँ बाप और तीन कुंवारी बहने हैं. बच्चे की  माँ हर समय आक्रोश से भरी रहती है और अपना  गुस्सा बच्चे पर पीट कर निकालती है. परिणामतः पिता का व्यक्तित्व अंतर्मुखी हो गया और बच्चे भी अन्तर्मुखी हो गए. 
                    परिवार का एक सदस्य भी यदि किसी मानसिक व्याधि का शिकार है , तो यह नहीं कि पूरा परिवार अप्रभावित रहता हो, सब उसके ग्रसित रहते हैं. यदि पुरुष इसका शिकार है तो वह अपनी पत्नी और बच्चों पर अनावश्यक दबाव डालेगा या बात बेबात उन्हें प्रताड़ित करेगा. यदि पत्नी इसका शिकार है तो वह अपनी कुंठाओं को बच्चों पर ही किसी न किसी रूप में व्यक्त करेगी. परिणाम यह होगा कि बच्चे भी कुंठित हो जायेंगे, उनका व्यक्तित्व अन्तर्मुखी जो जाएगा. ऐसे बच्चे कभी  कभी अपराध प्रवृत्ति की ओर भी उन्मुख  हो जाते हैं. 
                         परिवार की सुख शांति की जिम्मेदारी दोनों पर ही होती है, हर परिवार पर ये बात लागू  होती  है. ये मनोवैज्ञानिक समस्याएं अस्थायी होती हैं और हर समस्या का कोई न कोई समाधान  होती है. यदि इन मनोग्रंथियों का कारण जीवनसाथी हो तो उसकी बुराइयों को नजरअंदाज करके उसमें अच्छाइयों को खोजें.
                       समायोजित परिवार को बिखरने से बचाने का दायित्व आप पर ही है. परिवार कोई ऐसी अस्थायी संस्था नहीं है कि  जीवन की समस्याओं के हल्के से थपेड़ों में उड़ जाए. पति और पत्नी दोनों  का ही ये दायित्व है कि वे अपनी मनोग्रंथियों पर नियंत्रण करके परिवार को मानसिक शांति और सुरक्षा प्रदान करें.

मंगलवार, 15 जून 2010

मेरे लेखन का सफर : स्मृतियाँ कुछ तिक्त कुछ मधुर (७)

                              मैं नेट से जुड़ कर भी  ब्लॉग से परिचित न थी . ऑरकुट पर ब्लॉग का विकल्प देखती और किसी किसी के प्रोफाइल में उसको देखती तो मेरी कुछ समझ नहीं आता था. फिर एक दिन कमांड के सहारे सहारे मैंने  "hindigen " नाम से अपना ब्लॉग बना लिया . फिर वह कहीं खो गया. मैंने उसको खोजने की बहुत कोशिश की लेकिन मिला नहीं. और मैं भी उसको भूल गयी अपने काम में व्यस्त हो गयी. कई महीने बाद फिर सोचा कि चलो दूसरा ब्लॉग बना लें फिर देखें कि इसमें कैसे काम किया जाता है? दूसरा बनाने चली तो जैसे ही ईमेल ID डाला hindigen भी मिल गया. बस बना लिया था उसमें डाला कुछ भी नहीं.
                            इसी बीच अजय ने कहा कि मैं उसके चवन्नी चैप के लिए अपने युवाकाल के फिल्मी माहौल पर कुछ लिखूं. मैंने उसके लिए लिखा लेकिन मुझे उसको अजय तक पहुँचने में बहुत पापड़ बेलने पड़े खैर वह किसी तरह से पहुँच भी गयी और publish भी हो गयी. उसके बाद मैंने उसी को "hinidgen " पर सबसे पहले डाल दिया. अब मैंने अपनी कविताओं को इस पर डालना शुरू कर दिया. पर मैं यह नहीं जानती थी कि कैसे और लोगों के ब्लॉग पर जाऊं और कहाँ से उसके बारे में जानकारी मिलेगी. मुझे सिर्फ अपने काम में ही महारत हासिल थी शेष कुछ भी नहीं पता . मैं ऑरकुट पर ही व्यस्त रहती थी. 
                            ब्लॉग से ही मेरा परिचय रचना सिंह से हुआ और मैंने "नारी" और "नारी की कविता " सबसे पहले ज्वाइन  किया.
मैं आरम्भ से ही नारीवादी हूँ क्योकि  मैंने इतने करीब से इतने सारे जीवन देखे हैं तभी तो उसके प्रति न्याय और अन्याय  या प्रगति सभी के प्रति संवेदनशील रही. पहले भी मेरे लेखन का विषय यही था अब तो क्षेत्र विस्तृत हो चुका है. मैं अपनी नारी सम्बन्धी कविता सिर्फ "नारी की कविता" पर ही देती थी. ब्लॉग्गिंग की  प्रारंभिक बातें मुझे रचना ने ही सिखाई थी.
                            इसके बाद मुझे मिली "रश्मि रवीजा" हम ब्लॉग के सहारे नहीं बल्कि और स्रोतों से मिले. वह बहुत अच्छी चित्रकार और अब ब्लॉगर भी है. जब हम मिले थे तब वह ब्लॉगर नहीं बनी थी. उसकी कहानियां रेडिओ पर प्रसारित होती थी. फिर उसने ब्लॉग बनाया और उसके ब्लॉग बनाने से उसका तो हुआ मेरा भी बहुत फायदा हुआ कि ब्लॉग के लिए कैसे कैसे रास्तों से गुजरते हुए हम सबके संपर्क में आ सकते हैं ये उसी ने सिखाया. कैसे ब्लोग्वानी और चिट्ठाजगत  में अपनी पोस्ट को दिखाना है ये सारे गुर उसी ने सिखाये हैं. वह मेरी छोटी गुरु है. उसने मेरा परिचय वंदना दुबे अवस्थी से कराया और बात की तो पता चला की हम लोग रिश्तेदार हैं. चौंकिए मत कहाँ हम कायस्थ और कहाँ वह ब्राह्मण  फिर रिश्तेदारी का क्या सवाल ? सवाल है -  हमारी कस्बाई संस्कृति में रिश्तेदार सिर्फ रक्त सम्बन्धी ही नहीं होते बल्कि गाँव और पड़ोस के लोग भी रिश्तेदार होते हैं और हमारे कुछ ऐसे रिश्ते हैं कि हम रिश्तेदार ही हैं. 
                            रश्मि के प्रयास से मेरा ब्लॉग जगत में दायरा और समर्पण कि अवधि कुछ बढ़ी.  उसने कई लोगों से मेरा परिचय कराया. मुझे अपने काम के कारण समय काम ही मिल पाता है इसलिए लेखन के बाद और ब्लॉग पर जाना कम  ही संभव हो पाता है लेकिन मैंने अपनी सखियों से अनुरोध किया है कि अच्छी अच्छी पोस्ट की लिंक मुझे भेज दिया करें ताकि पढ़ सकूं.  इस कार्य के लिए मैं सबकी शुक्रगुजार हूँ कि मुझे लिंक  भेज देती  हैं. ब्लॉग्गिंग के कुछ गुर मैं संगीता स्वरूप, वंदना गुप्ता से भी सीखे क्योंकि  मैं तो बिल्कुल अनाड़ी हूँ. 
                            फिर तो मुझे और भी ब्लॉग के आमंत्रण मिले और मैं उनमें सम्मिलित हो गयी और अब तो इसमें मेरी सक्रियता बढ़ गयी है. ऑफिस में बैठ कर डग्गामारी कर लेती हूँ. जब सब लोग चाय पीने  और लंच में अपना समय निकल रहे होते हैं तब मैं अपनी ब्लॉग्गिंग में लगी होती हूँ. अब तो ऑफिस आने के बाद सबसे पहले मेल चैक  की और सबके कमेन्ट पढ़े और फिर अपना काम. समय निकल कर कमेन्ट का जबाव दे देती हूँ और कई बार तो सिस्टम ही हँग कर जाता है और कुछ भी नहीं हो पाता है. 
                            मैंने अपने  ५ ब्लॉग बना रखे हैं और इनकी सार्थकता मैंने अपने ही अनुसार बना रखी है. 

१. यथार्थ : वह भोगा हुआ यथार्थ जिसे मैंने जिया है चाहे अपने रूप में या दूसरों के रूप में या फिर किसी और के दर्द के रूप में वही सत्य इसका विषय बनाता है.
http://kriwija.blogspot.com


२. मेरी सोच : किसी भी मुद्दे पर मेरी अपनी सोच या राय या विचार इस पर रखती हूँ. कहीं लगता है कि इसकी परिभाषा गलत हो रही है लेकिन नहीं.
http://rekha-srivastava.blogspot.com


३. मेरा सरोकार: समाज और देश के परिवेश से जुड़ी या घटित होने वाली घटनाओं का विवरण या फिर उससे मेरी सम्बद्धता को उजागर करने वाला मेरा ब्लॉग. 
http://merasarokar.blogspot.com


४. "hindigen  : मेरी कविताओं का ब्लॉग जिसपर सिर्फ कविताएँ ही रहती हैं. 
http://hinidgen.blogspot.com


५. कथा सागर:  इसको अलग क्यों बनाया? मैं जितने वर्षों से यहाँ हूँ, मेरी डायरी यहाँ रखी है जिसमें  १९९५ से लेकर आगे तक के कथानक लिखे हुए हैं, यहीं बैठकर जिया और सुना और लिख कर हलके हो लिए लेकिन ये धरोहर अभी भी यही रखी है सो सोचा कि इसको अलग ही रखूँ जो कहानी के रूप में ढल रही है.  सिर्फ कहानियों के लिए ही बनाया है इस ब्लॉग को. 
http://katha-saagar.blogspot.com


                   बस अब जो भी हूँ, जैसी भी हूँ सारी कहानी आप लोगों के सामने खोल कर रख दी और सबसे ऐसे ही स्नेह की आकांक्षी  हूँ. 
                            (इति)

गुरुवार, 10 जून 2010

मेरे लेखन का सफर : स्मृतियाँ कुछ तिक्त कुछ मधुर (६) !

                                  आई आई टी में भी सितम्बर माह में हिंदी सप्ताह मनाया जाता है और उसमें विभिन्न प्रतियोगिताएं भी हुआ करती हैं. मैंने उसमें कभी भाग नहीं लिया जब कि  मेरी सहेलियां जो यहाँ पर मेरे साथ थी कई बार कहा. एक बार तो वह पीछे ही पड़  गयी और उसने २००५ में मेरी डायरी से कविता निकाल  कर हिंदी प्रकोष्ठ में भेज दी. वहाँ से मेल आ गयी कि  आपको इस लेक्चर हाल में पहुंचना है.
                         दरअसल बात यह है कि  मैं इतने लम्बे समय से हूँ यहाँ लेकिन पूरी आई आई टी के परिसर से मेरा सरोकार कभी नहीं रहा. मैं आकर अपने कमरे में और बस जाते समय ही निकलती हूँ.
                                 एक  लड़के ने मुझे उस लेक्चर हाल तक पहुँचाया. और यहाँ पर मैंने पहली बार अपने लेखन की प्रस्तुति की. मेरी कविता थी -' पूजिता  या तिरस्कृता ' 









सीता पूजिता
क्यों?
मौन, नीरव, ओठों को सिये
सजल नयनों से
चुपचाप जीती रही।
दुर्गा
शत्रुनाशिनी
क्रोधित, सबला
संहारिणी स्वरूपा
कब सराही गई
नारी हो तो सीता सी
बनी जब दुर्गा
चर्चा का विषय बनी
समाज पचा नहीं पाया
उंगली उठी और उठती रही।
सीता कब चर्चित हुई                          
प्रशंसनीय , सहनशील
घुट-घुट कर जीने वाली
जब खत्म हो गई,
बेचारी के विशेषण से विभूषित हो
अपना इतिहास दफन कर गई।
समाज पुरूष रचित औ'
नारी जीवन उसकी इच्छा के अधीन,
स्वयं नारी भी
सीता औ' दुर्गा के स्वरूप को
पहचान कर भी
अनजान बनी जीती रहती है
पुरूष छत्रछाया में मंद मंद विष पीती रहती है।
    


  इस कविता को पहला पुरस्कार मिला. पुरस्कार में पहली बार पुस्तकों को देने का निर्णय लिया गया था और पुरस्कार में  मुझे हरिवंश राय बच्चन  की 'मधुशाला 'और कमलेश्वर की 'कितने पाकिस्तान ' मिली थी.
                   फिर हमारे जजों में से एक ने मेरे से पूछा की आप यहाँ कब से है? मैंने बताया की १८ साल से तो बड़े आश्चर्य से कहा - 'आपको पहले देखा नहीं कभी?'  वाकई नहीं देखा होगा क्योंकि मेरी परिधि मेरे अपने कमरे से अधिक कहीं नहीं होती है.
       दूसरे दिन मेरे साथ काम करने वाले लोगों ने बताया की कल तो बसों में आपकी ही चर्चा हो रही थी कि  क्या कविता पढी? इस तरह से मुझे आई आई टी में पहली बार पहचान मिली और इसका श्रेय मैं अपनी सहकर्मी या कहिये आत्मीय नीलम त्रिपाठी को ही देती हूँ.  मुझे दूसरे वर्ष  भी कविता पाठ में पुरस्कार मिला . लेकिन उसके बाद मैंने भाग लेना बंद कर दिया क्योंकि एक दिन मैंने बस स्टॉप पर सुना कि  जब तक ये रहेंगी  कविता का पुरस्कार नहीं मिलने वाला. हो सकता है कि  मुझे सुना कर रही हों वे, लेकिन मैंने फिर जाना बंद कर दिया.
          यहाँ पर रह कर मेरा परिचय नेट से तो पूरा पूरा था. लेकिन अन्य विधाओं से मेरा कोई परिचय नहीं था. यही पर मेरे साथ काम कर रही एक इंजीनियर ने मेरा ऑरकुट पर खाता खोल दिया तो मेरा दायरा और बढ़ गया.
                  आरम्भ में जब मैंने अपने लेखन से मिले भाइयों का जिक्र किया था तो उनमें से एक था बिहार से 'अजय' . वह उस समय शायद हाई स्कूल में रहा होगा  और मैं बी ए में थी. कई साल पत्राचार के बाद बंद हो गया लेकिन मुझे ये नहीं याद कि  मैं किसको क्या दिशा निर्देश दिया करती थी. ये तो है कि मैं काउंसलर  पैदाइशी थी. नेट करने पर कई बार उसका नाम देखने को मिला वह अब पत्रकारिता के क्षेत्र में आ चुका था. और नामी गिरामी पत्रकार भी है. लेकिन उससे संपर्क का कोई साधन नहीं था. फिर सोचा हो सकता है कि भूल भी गया हो, सब मुझ जैसे नहीं होते.  एक दिन उसके लेख के साथ उसका ईमेल आई डी भी मुझे मिला. कई हफ्तों तक सोचती रही कि इसको एक मेल डालूँ फिर संकोच कर गयी कि इतना बड़ा पत्रकार हो चुका है पता नहीं पहचाने या नहीं.  फिर भी मैंने उसको एक मेल लिखी - 'अगर याद हो तो मैं तुम्हारी उरई वाली रेखा दीदी हूँ, और अगर न हो तो इस मेल को इग्नोर कर देना. '
                    मुझे उसका उत्तर तुरंत ही मिला और उसका जबाब था - ' दीदी मैं आपको कैसे भूल सकता हूँ?  '


        फिर तो हमारा मेल व्यवहार फिर से हो गया . मेरे उस भाई का नाम है "अजय ब्रह्मात्मज" . फिर उसके साथ ही मुझे एक भाभी भी मिल गयी - ' विभा रानी' .
                    कुछ ऐसा इत्तेफाक हुआ कि कुछ ही महीनों के बाद ही अजय को यहाँ पर एक फ़िल्म कि टीम लेकर आना पड़ा. उसने मुझे फ़ोन किया कि मैं कानपुर आ रहा हूँ और आपसे मिलना चाहता हूँ.  शाम को पता चला कि वह आ तो गया लेकिन मेरे पास तक नहीं आ पायेगा. अतः मैंने कहा कि मैं ही आ जाती हूँ. वह उस समय 'आहिस्ता-आहिस्ता ' कि टीम लेकर आया था. फ़ोन से संपर्क हुआ और मैं पतिदेव थे नहीं तो पडोसी के बेटे के साथ रेव थ्री पहुँची. चूँकि फ़िल्म वाले थे तो बहुत ही सुरक्षा थी. मेरे को तो ऊपर जाने से मना कर दिया. आप नहीं जा सकती हैं. मैंने नीचे से ही फ़ोन किया तो गार्ड समझा कि कोई खास हैं तो उसने मुझे ऊपर भिजवा दिया.  मैं अजय को नहीं पहचानती थी और अजय मुझे नहीं. कभी देखा ही नहीं था. मैं इतने बड़े हाल में किसको पूंछू.  खैर मैंने उसके मोबाइल पर कॉल की तो वह खुद ही मेरे पास आ गया. आकर सबसे पहले उसने मेरे पैर छुए थे. उस क्षण मैं कितनी अभिभूत हुई थी उसका बयान नहीं आकर सकती . वह बचपन का रिश्ता आज भी कितना गहरा और सम्मान दे रहा है.
और उससे से बड़ी बात उसने तब कही - जो मेरे साथ लड़का गया था उससे ही कहा कि आज मैं जो कुछ भी दीदी कि बदौलत ही हूँ.
और बस  हम भाई बहन इस तरह फिल्मी अंदाज में ही मिले . उसने मेरे 'अभय देओल'  से भी इंट्रो करवाया कि ये मेरे दीदी है यही रहती है और मुझसे मिलने आयीं है. सबसे बड़ी बात ये रही कि मैं अभय देओल को पहचानती नहीं थी. बाद मैं जो लड़का मेरे साथ गया था उसने पूछा कि आंटी जिससे आपका परिचय मामाजी ने करवाया था उसको नहीं जानती . मैंने कहा नहीं तब उसने कहा कि वो अभय देओल था.
                कुल मिलाकर मेरी छोटी सी मुलाकात थी लेकिन थी बहुत यादगार.  दुबारा जब उसका कानपुर आना हुआ तब भी मैंने कहा कि मैं आ जाती हूँ, उसने कहा नहीं अब कि बार मैं ही घर आऊंगा और फिर वह घर भी आया सबसे मिला. मुझे नहीं लगा कि ये हमारे रिश्ते कहीं से भी अपने खून के रिश्ते  से अलग हैं.
             अब मेरी भाई से तो कम भाभी से अधिक बात हो जाती है. हम ऑरकुट पर हैं , पता नहीं कुछ लोगों ने इस पर भी रिसर्च की और हमारे आपस के स्क्रैप पढ़े . फिर घुमा कर पूछना शुरू किया कि आप कहाँ से है?  मैंने कहा UP से , तो फिर दूसरा सवाल कि फिर विभा रानी आपकी भाभी कैसे हैं? अब मैं किसको किसको कहानी सुनाऊं ? इस लिए इस जगह सब खोल कर बता दिया कि ये मेरे रिश्ते भी वही से मिले हैं .

मंगलवार, 8 जून 2010

मेरे लेखन का सफर : स्मृतियाँ कुछ तिक्त कुछ मधुर (५)

                               खैर शादी के तय होने तक सब सही रहा, मेरे प्रकाशन को सबसे अधिक गति १९७८-७९ में ही मिली. खूब लिख और प्रकाशित भी हुआ. पर शादी एक ऐसा बैरियर साबित हुआ कि गति को विराम लग गया. कुछ तो नए घर में आकर अपने को समायोजित करने का समय था और कुछ विरोध के बाद भी शादी होने का आक्रोश था. उसके बीच जीना और खुद को स्थापित करना भी एक बड़ा काम था.
                     खैर कलम तो उठा कर रख दी, करीब एक साल बाद अपनी सारी पूँजी मैं उरई से उठा कर कानपुर ले आई. जिनमें मेरी प्रकाशित रचनाएँ थी , सभी पत्रिकाएं और भी जिनमें कभी पूरा उपन्यास छपा था, कहानी विशेषांक थे, कुछ ऐसे धारावाहिक थी - आज दुर्लभ है. - ललिता शात्री का : मेरे पति मेरे देवता ' नाम से प्रकाशित पूरी गाथा. राजेंद्र राव की प्रस्तुति - सूली ऊपर सेज पिया की / कोयला भाई न राख . सभी मेरी अनमोल निधि थी. इस के साथ ही प्रकाशित और अप्रकाशित सभी रचनाएँ भी थी.
                    एक बार मैं कुछ दिनों के लिए बाहर गयी और वो सारी रद्दी में बेच दी गयीं. जब मैं वापस आई तो मेरी अलमारी खाली थी. पूछा तो पता चला की रद्दी वाले को बेच दिया. बेकार का कूड़ा इकठ्ठा था. अब मैं किससे  क्या कहती? कैसे समझाती कि वो मेरी जीवन की अनमोल निधि थी - जो एक बार लिख जाता है वो दुबारा नहीं लिखा जाता. ये मेरी जिन्दगी का सबसे बड़ा सदमा था . मैं उस दिन बहुत रोई थी और पतिदेव सांत्वना देते रहे किन्तु हो कुछ भी नहीं सकता था.
                  घर में कुछ विद्वेषक भी बन गए. सुनने को मिल जाता कि अगर ये लिख सकती है तो तुम क्यों नहीं? तुम भी कविता लिख करो आखिर तुमने तो हिंदी में M .A . किया है. पतिदेव तो थे टूरिंग जॉब वाले सो हफ्ते में २ या ३ दिन उनके बाहर होते और तब सारे काम के बाद मैं अपने लेखन के लग जाती थी. लेकिन वे बस लिख भर पाती उनको फिर से लिख कर भेजने का काम नहीं कर पाती थी. फिर भी कभी कभी तो कर ही लेती थी.
                  अब  घर में यह भी सुनाई देने लगा की क्या ये लिखने विखने की हवा फैला रखी थी. छपा तो आज तक कुछ भी नहीं. क्या शादी के लिए हवा उड़ा रखी थी.  समझा जा सकता है कि इस तरह के व्यंग्य कोई नई बात नहीं होती.
                   इत्तेफाक से उसी महीने 'सरिता' में मेरा लेख छपा सो लाकर मैंने पत्रिका उनके सामने रख दी. जब पढ़ा तो शांत हो गए.
इस लेख में एक दंपत्ति  का उल्लेख था . जिसमें पहले हमारा परिचय उनकी पत्नी से हुआ था और बाद में पता चला कि पतिदेव तो हमारे घर के ठीक पीछे वाले मकान में रहते हैं. हमने उनका विवाद सुलझाने के लिए सोचा और दोनों लोगों से बात हुई. दोनों ने अपनी सहमति जताई कि विवाद को सुलझा लिया जाय. पत्नी ने कहा कि मैं उनकी ओर से बोलूगीं  और मेरे पतिदेव उनके पतिदेव कि ओर से. जब मैं दिन नियत करने के लिए उनके घर पहुंची तो उनके पिता ने हमसे कहा - 'देखिये इसका नॅशनल टीवी से अभी कॉल आई है और अगर इसका मूड ख़राब हो गया तो इसका प्रोग्राम बिगाड़ जाएगा. इसलिए बेहतर होगा कि आप उसी पागल को समझाये मेरी बेटी को  नहीं. '
मुझे उनके शब्द आज भी याद हैं और फिर मैं समझ गयी कि बेटों से उपेक्षित ये सोने के अंडे देने वाली बेटी को उसके घर नहीं जाने देना चाहता. और फिर मैंने उस अध्याय को वही बंद कर दिया.
                    मेरे लेखन  को एक बड़ा सार्वजनिक ब्रेक तब मिला जब मैं एम.एड. कर रही थी. अपने लघु शोध के लिए मैं जो भी लिखती और अपनी गाइड को चैक कराने जाती तो उन्होंने पढ़ा तो पूछा कि  कविता लिखती हो क्या? मैंने स्वीकार किया तो उन्होंने एक दो कविताएँ मांगी.
           उसी वर्ष कानपुर विश्वविद्यालय में नए उपकुलपति की नियुक्ति हुई और उन्हें कालेज में आमंत्रित किया गया. गाइड ने प्रिंसिपल से बता दिया कि रेखा कविता लिखकर बोल सकती है. मुझे कविता लिख कर पढ़ने को कहा गया. आज तक मैंने कभी इस तरह से फरमाइश पर कविता नहीं लिखी थी. लेकिन लिखने को कहा गया तो लिखा और फिर समारोह में मंच पर जाकर पढ़ा भी. ये मैंने जीवन में पहली बार किसी मंच पर जाकर कविता पढ़ी थी. मैं विश्वविद्यालय कैम्पस में ही रहती भी थी तो ये बात पूरे कैम्पस  में फैल  गयी. अब तो कैम्पस के बच्चे आ जाते कि मेरी टीचर जा रही हैं एक कविता लिख दीजिये. किसी को कॉलेज कि मैगजीन में देनी है तो कुछ लिख दीजिये. इतने दिन बाद मेरे ससुराल वालों को लगा कि ये कुछ अलग है. मेरे पास कवि सम्मलेन के प्रस्ताव आने लगे लेकिन मेरे ससुर जी को ये पसंद न था तो मैंने जाने से मना कर दिया.


इसके बाद मुझे आई आई टी में नौकरी का अवसर मिला. आरम्भ में तो मानविकी विभाग में समाजशात्र में मिला किन्तु वहाँ सिर्फ एक वर्ष का अनुबंध था. वहाँ पर सभी विषयों के प्रोफेसरों से मेरी जान पहचान हो गयी थी. उनमें ही थी डॉ. बी. एन . पटनायक जो अंग्रेजी भाषा में थे और वे इस बात से वाकिफ हुए कि मैं लिखती हूँ और हिंदी का अच्छा ज्ञान है . वह कंप्यूटर साइंस विभाग में आरंभ होने जा रहे 'मशीन अनुवाद' परियोजना में भाषाविज्ञ की हैसियत से सहयोगी थी. उन्होंने ही मुझे यहाँ आने का आमंत्रण दिया और फिर इससे जुड़ी हूँ तो ये सफर जारी है १९८७ से लेकर आज तक और आज हम गूगल और अन्य अनुवाद के साधन को टक्कर देने के लिए तैयार हैं . आज भी इसको और सटीक और ग्राह्य अनुवाद प्राप्त करने के लिए प्रयास कर रहे हैं. ये वह क्षेत्र है जो कभी ख़त्म नहीं होने वाला. और ये भी मेरे लिए मेरे लेखन की ही देन है.
                                 बहुत वर्षों तक मैं यहाँ भी गुमनाम ही रही, सिर्फ मेरी सहयोगी जो आरम्भ से ही मेरे साथ रही . उनको पता था की मैं लिखती हूँ और मेरी डायरियां यहाँ पर रही रहती थी. जिनमें कविताएँ और आलेख होते थे. घर में लिखने का समय कम ही मिल पाता था.

               

शुक्रवार, 4 जून 2010

मेरे लेखन का सफर: स्मृतियाँ कुछ तिक्त कुछ मधुर (४)

                                       मेरे रोज के लेखन में ऐसी ही समस्याएँ  और उससे जुड़ी कहानियां ही थी. लेकिन ये अवश्य था कि इससे  लोगों पर प्रभाव पड़ता था. बड़ा रुतबा रहता था और साथ ही ये भी ऐसी लड़की से शादी नहीं करेंगे ये तो घर कि बाते बाहर भेज देगी.  खैर ये तो मेरी चिंता का विषय नहीं था. मेरे पापा का एक वादा था कि जब तक मैं पास होती रहूंगी वे मुझे पढ़ने से नहीं मना करेंगे.  मैं एक  M . A . कर चुकी थी और दूसरे में कर रही थी. कविताओं के ढेर हो चुके थे लेकिन कहीं भेजने कि हिम्मत नहीं होती थी या ये कहो कि साहस नहीं कर पा रही थी. तभी सोचा कि क्यों न कादम्बिनी में भेजा जाय  और मैंने अपनी एक कविता के साथ फोटो रख कर भेज दी. ये काम मैं किसी को बाद में बताती थी जब कि स्वीकृति आ जाती . पता चला कि कादम्बिनी से कविता इस आदेश के साथ लौटकर आ गयी कि आप अपनी २-३ कविताएँ और साथ ही फोटो ग्लोसी पेपर पर बनवा कर भेजे. मुझे तो पता नहीं था कि ये ग्लोसी पेपर होता क्या है? फिर पापा से बोला तो पापा ने बनवा कर दी.
                         १९७५ में मेरी पहली कविता प्रकाशित हुई. मैंने पहली कविता रेखा 'भावना'  के नाम से लिखी थी. मेरी सहेली प्रतिमा ने यही नाम सुझाया था . पहले हम यही सोचा करते थे कि जब कविता लिखते हैं तो पीछे कुछ उपनाम लगते हैं. मेरे पापा 'सुमन' के नाम से लिखते थे. तारीफ की बात ये है कि मैंने आज तक कभी अपने पापा का लिख हुआ नहीं पढ़ा. तब जिस तरह से मैं लिखती थी. आज भी मुझे लगता है कि मेरी भाषा और शैली और सोच में कहीं भी बदलाव नहीं हुआ है.
  इस कविता के प्रकाशित होने के साथ ही फिर फैन मेल का सिलसिला शुरू हो गया क्योंकि मनोरमा में पता प्रकाशित नहीं होता था और इससे सिर्फ नाम और शहर ही रहता था. उससे फैन मेल का खतरा कम होता था. अब फिर वही सिलसिला शुरू हो गया . इसमें प्रबुद्ध और संवेदनशील  लोगों के पत्र अधिक होते थे. कई पत्रिकाओं के कविता भेजने के प्रस्ताव और फिर मित्रता और शादी के प्रस्ताव आने बहुत ही मामूली बात थी. हम सभी भाई बहन इस पत्रों को मजे लेकर पढ़ा करते थे. इससे मेरी माँ को बहुत उलझन होती थी लेकिन कहती कुछ न थी.  एक प्रतिष्ठित पत्रिका में स्वरचित रचना को स्थान मिलना मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी. अब कदम आगे बढ़ाने की सोची तो धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान पर हाथ आजमाना शुरू किया.   इस काम में किसी को हमराज नहीं बनाती थी, सिर्फ मेरी छोटी बहन थी जिससे मैं अपने लैटर पोस्ट करवाती थी . उसको सब पता रहता कि मैं क्या कहाँ भेज रही हूँ? इस दिशा में मुझे न कोई गाइड करने वाला था और न ही मुझे कोई नियम क़ानून पता थे. बस हाथ से लिखा ( राइटिंग मेरी अच्छी थी) और लिफाफे में रख कर पोस्ट कर दिया. फिर भूल गयी जब स्वीकृति आ गयी तो समझ गए कि अब छप जाएगा. मेरी सबसे पहली कमाई मुझे मनोरमा से हुई थी तब एक पत्र के २५ रुपये पारिश्रमिक मिलता था. और उस समय इसकी बहुत कीमत होती थी. मैं अपने लिखे हुए को भेजने , मित्रों और भाइयों को पत्र लिखने सब का खर्चा खुद उठने में सक्षम थी.         
                       उसी समय साप्ताहिक हिंदुस्तान में "टूटी हुई जिन्दगी" नाम से महिला पृष्ठ पर एक श्रंखला शुरू की गयी. मैंने भी लिख कर भेज दिया और इत्तेफाक से वह स्वीकृत हो गया और छप कर आ गया. ये सच कहानी पर ही आधारित होती थी और कहानी मेरे एक खास रिश्तेदार  , जो कि मेरे घर अक्सर आते रहते थे,  पर आधारित थी.  साप्ताहिक हिंदुस्तान आया ही था और चूंकि उसमें मेरी कहानी थी तो बाहर कमरे में रखा था. इतने में वे आ गए और मुझे काटो तो खून नहीं क्योंकि मेज पर पत्रिका रखी है और अगर उन्होंने उठ कर कहानी पढ़ ली तो क्या होगा? आखिर मैं भी इंसान थी. डर लगा और मैंने छोटी बहन से कहा कि तुम वहीं रहना जैसे ही साप्ताहिक ये मेज पर वापस रखें तुरंत ले आना. खैर ऐसा कुछ नहीं हुआ उन्होंने उलट पलट कर रह दिया और मैं चिंता से मुक्त हुई. जब मैंने ये बात माँ को बतलाई तो माँ लगी डांटने- मैंने कहा था कि ये काम मत करो , बेकार कि बुराई हो जायेगी.   उनका भी कहना सही था क्योंकि भले हम गलत करें लेकिन अगर किसी ने कह दिया तो वह हमारा सबसे बड़ा दुश्मन होता है.
           मैंने कहा बुराई हुई तो नहीं न, बस ऐसे ही डर कर रहे तो लिख चुके हम तो. इसके बाद और दो कहानियां इस कालम में प्रकाशित हुई .  अब मैं स्थापित लेखक बन चुकी थी. और साप्ताहिक में छपना आसन काम नहीं था लेकिन मैंने तो कुछ किया भी नहीं. यहाँ तक कि मैं संपादक के नाम उसके साथ पत्र लिख कर भी नहीं रखती थी.  इस कहानी से मुझे उस समय १२५ रुपये का चैक मिला. मेरा बैंक में कोई अकाउंट तो था नहीं, अभी तक तो मनी आर्डर से पैसे आ जाते थे. कभी जरूरत ही नहीं पड़ी. पहली बार मैंने बैंक में अकाउंट खुलवाया. और तारीफ की बात ये थी कि मैं उस बैंक में न उस समय न आज तक कभी गयी ही नहीं. अकाउंट खुल गया, पैसे आ गए और निकलवा भी लिए. मैंने बैंक की शक्ल नहीं देखी. इतनी जानपहचान थी कि जाने की जरूरत नहीं पड़ी  .
                                      सामाजिक रूढ़ियों, नारी शोषण , अंधविश्वास और अन्याय के प्रति ही मैंने हमेशा लिखा . कौन क्या कहता है? इसके बारे में मैंने कभी नहीं सोचा. लेकिन हाँ कहीं ये बात सामने आई कि लड़की लिखती है तो कहीं घर की बातें बाहर न चली जाएँ. मैंने सुन लिया और सोचा कि ऐसे लोग जरूर कुछ गलत करते होंगे तभी तो उन्हें घर की बातें बाहर जाने का डर है.  वे मेरी सोच के अनुरुप नहीं हो सकते और इससे पहले वे मेरे पापा और भाई साहब के द्वारा लिस्ट से हटा दिए जाते .
                                      मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. डबल M .A .  राजनीति और समाजशास्त्र में कर चुकी थी.  अपने करार के अनुसार पापा ने पूछा कि अब किया इरादा है? मैंने कहा कि अब LLB  करना चाहती हूँ, लेकिन वह उस समय उरई में थी  नहीं सो नहीं हो सकी. वैसे मेरा सपना जज बनाने का था.  ताकि मैं अन्याय के खिलाफ खड़ी हो सकूं. वह  नहीं हो पाया. मैं मस्त इंसान नहीं हुआ तो कोई बात नहीं अपनी कलम जिंदाबाद फुरसत किसे थी कि सोचें कि अब क्या करें? 
                                      मेरी शादी कि बात मेरे एक रिश्तेदार ने अपने ही रिश्तेदार के साथ चलाई. उन लोगों को पता चला कि लड़की लिखती है और पत्रिकाओं में छपता है. उनके लिए ये नयी बात थी , खैर वह तैयार नहीं हुए, मेरे भाई साहब सुबह वापस आने वाले थे कि रात में लड़का अपने  टूर से वापस आ गया , रात में भाई साहब से बात करता  रहा  और जब लड़के को पता चला कि ऐसा है तो भाई साहब तो सुबह वापस आ गए,   लेकिन उसने घोषणा कर दी कि जब शादी करनी ही है तो इसी लड़की से क्यों नहीं? घर वाले चाहते थे कि कहीं इकलौती लड़की से करें जहाँ दान दहेज़ और मकान भी मिल जाए. और भी कई प्रस्ताव थे उनके पास. अब अगर लड़का ही अड़ जाए तो कोई क्या करे?  लड़के ने अपने रिश्तेदार के द्वारा कहलाया कि फिर से आये बात करने. भाई साहब फिर पहुंचे तो उनके बड़े भाई और पिताजी ने बहुत नखरे दिखाए आखिर रात १ बजे बात बनी और भाई साहब शगुन करके चले आये.  मेरे लिखने से प्रभावित हो कर ही इन्होने शादी की जिद पकड़ी थी और आज वही मेरे पतिदेव आदित्य जी हैं.

बुधवार, 2 जून 2010

मेरे लेखन का सफर : स्मृतियाँ कुछ तिक्त कुछ मधुर (३) !

                     कभी फिल्मी पत्रिका के लेख और कभी कोई और आलेख चर्चा का विषय बनाये ही था.  लेखन में  समाज और अन्याय  के प्रति आक्रोश शुरू से ही था और मेरी सारी रचनाएँ ऐसी ही होती थी. मैं कोई बहुत बड़ी तो थी नहीं और न ही बड़े शहर की रहने वाली एक क़स्बा  है ( अब नहीं रहा क़स्बा)  सब एक दूसरे को जानने वाले , फिर मेरे पापा उरई में सम्मानित व्यक्तियों में थे और भाई साहब भी B .Sc . करके इंटर कॉलेज में अध्यापक हो गए थे. वह भी बड़े सिद्धांतवादी थे क्या,  आज भी वैसे ही हैं? उन्हें कोई बात गलत पता चलती तो कहते -  'रेखा इस पर ऐसा लिखो कि पढ़ कर ये ऐसे काम करना भूल जाए.'
                    जो आलेख मेरे को लगते कि कोई वबाल खड़ा हो सकता है वह मैं 'भावना' नाम से लिखने लगी. सिर्फ मेरी बहनों बाकी किसी को नहीं. उस समय कुछ विषय ऐसे थे जिनपर सबके सामने बात नहीं होती थी और उन पर लिखना भी अच्छा नहीं समझती थी . इस लिए ऐसे हॉट विषय पर उस समय ये हॉट कि श्रेणी में ही आते थे.


उसी समय भोपाल  के प्रतिष्ठित लेखक जगदीश किंजल्क से संपर्क हुआ. उनहोने एक परिचर्चा आयोजित की.
"विवाह में वैदिक रीति अधिक उचित या अन्य" ऐसा ही कुछ विषय था . मैंने वैदिक रीति का समर्थन किया और आज भी करती हूँ, वैदिक मन्त्रों की महत्ता को मैं बहुत मानती हूँ और इसको अनुभूत किया है. बस उसका छपना था की शादी के प्रस्ताव आने शुरू हो गए. हर दूसरे पत्र में प्रस्ताव. हम भाई बहन मजे ले लेकर पढ़ते और फिर रख देते.
                 अब तो मोहल्ले वालों को भी चिंता होने लगी की लड़की के नाम इतने सारे ख़त आते हैं, जरूर कुछ गड़बड़ है इसकी शादी हो जानी चाहिए. अब मोहल्ले की महिलाओं ने आकर मेरी माँ को समझाना शुरू किया कि  अगर कहीं बदनाम हो गयी तो कोई शादी भी नहीं करेगा. कहीं कुंवारी लड़कियों के नाम इतने ख़त आते हैं. मेरे घर में भी तो हैं, रिश्तेदारों  के भी इनके ही नाम आते हैं. मैं उस मंडली में कोई रूचि नहीं रखती थी. हाँ माँ ने कहा तो चाय नाश्ता बना कर दे दिया . मेरी छोटी बहने ये काम करती थी. पहले सुनती और फिर जाकर मुझे बताती. मेरी माँ भी गाँव की थी फिर इन सबसे उनका कोई वास्ता नहीं था. फिर एक दिन ऐलान हुआ कि ये लिखना  विखना बंद करो. ये सब अपने घर में जाकर करना. वो ऐसे कह रही थी, वो ऐसे कहती है. मुझे इज्जत से शादी कर लेने दो मेरी अभी और भी लड़कियाँ हैं. मेरे बाद मेरी ३ बहने छोटी थी. बात पापा के पास तक गयी क्योंकि माँ के हथियार तो वही थे.
                       पापा मेरे प्रबुद्ध व्यक्ति थे और वे खुद भी लिखते थे. उन्होंने माँ को समझाया की ऐसा नहीं होता है, ये औरतें तो बिना  पढ़ी लिखी हैं तो क्या तुम भी ऐसे ही करोगी? वो जो कर रही है उसको करने दो. शादी भी हो जायेगी अभी उसको पढ़ने दो.
इस समय तक मेरे आलेख  मनोरमा में छपने लगे थे. मनोरमा ऐसी पत्रिका थी कि महिलाओं की पत्रिका करीब सभी के घर तो नहीं आती लेकिन हाँ आम घरों तक आती ही थी और उसमें लिखा हुआ सब पढ़ते थे.  उस समय भी नारी, सामाजिक मुद्दे ही मेरे लेखन के  विषय थे.
            मनोरमा में "आपके पत्र' नाम से कालम आता था और मैं उसी में अपनी बात कह पाती थी , सब उसको चाव से पढ़ते थे. मेरे एक बहुत दूर के रिश्तेदार थे, उनकी तीन बहुएं जलकर  मरी और दो बेटों की.  एक दिन बताने चली आई कि उसकी शादी वाले आ रहे हैं लोग भड़का देते हैं, अगर हमारे पास पैसा है तो हम अभी चार शादियाँ और कर लेंगे. मुझे सुनकर बहुत बुरा लगा कि एक तो जल कर मार डाला और फिर ये तुर्रा. मैंने उनको लक्ष्य करके मनोरमा में भेज दिया और जब प्रकाशित हो गया तो समझा ही जा सकता कि वो दनदनाती  हुई मेरे घर आ गयी कि कैसे रिश्तेदार हो तुम ? बात को ऐसे फैलाया जाता है, हम भी देख लेंगे अभी तुम्हें ४-४ लड़कियों की  शादी करनी है. मेरी माँ तो बैठ कर रोने लगी , मुझे भी डर लगा कि कहीं पापा कुछ न कहें. भाई साहब आये तो पता चला. मैंने अन्दर कमरे में जाकर लेट गयी. मुझे बुलाया गया. माँ इस आशा में कि भाई साहब अब मुझे डांट लगायेंगे बिल्कुल एलर्ट बैठ गयी.
    'हाँ , रेखा किसपर लिखा था तुमने?'
    'उन्हीं की बहुयों के जलाने पर लिखा था.' मैं डांट पड़ने के डर से बहुत धीमे धीमे बोल रही थी.
    'ये तो तुमने बहुत अच्छा किया , ऐसे लोगों को चौराहे पर खड़ा करके जूते भी लगाये जाएँ तो कम है.'
    मेरी तो आँखे चमक उठी और माँ शांत हो गयीं की अब तो ये मानने वाली नहीं. पापा और भाई साहब की शह मिल रही है.


 मेरा काम अपनी गति से चलने लगा. अब मुझे किसी कि भी परवाह नहीं थी. मेरी अभिव्यक्ति और विचारधारा वैसे ही आज भी है, आदर्शों और सिद्धांतों पर चलाने वाली अगर कुछ गलत है तो गलत है चाहे उसके करने वाला मेरा अपना खास ही क्यों न हो. मेरी लेखनी के शिकार मेरे अपने बहुत करीबी भी बने और मैंने बेबाकी से ही लिखा. वह बात और है कि उ सा बात का उलाहना मेरे पापा या भाई साहब को सुनने को मिला हो. मिलता रहता था और वे अपने ढंग से उससे निपटते रहते थे. बस मुझे बता देते कि आज तुम्हारे इस लिखने से ये हुआ.
          इन्हीं के साथ एक कटु अनुभव ये भी हुआ कि मेरी एक शिक्षिका थी अब रिटायर हो चुकी थी लेकिन उन्होंने मुझे बचपन में पढ़ाया था और हम उनको 'चाची बहनजी ' कहते थे. घर से बहुत दूर नहीं रहती थी. पता चला कि उनकी पुत्रवधु उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार करती है. सबसे बुरी बात जो मेरे दिल को लगी वो ये थी. कि चाची बहनजी हमेशा एकदम सफेद साड़ी पहनती थी. अब सुना कि बहू अपने कपड़े धो कर उससे निकले साबुन में कहती कि अब अपनी साड़ी इसमें धो लेना. हो सकता है कि ये आपको कहानी लगती हो लेकिन ऐसा ही था और इससे भी बहुत अधिक सुना. मेरा मन तो रो दिया. हमेशा स्मार्ट रहने वाली मेरी वो शिक्षिका आज इस हाल में. फिर क्या था मेरी वेदना बह निकली और निकल कर इस रूप में आ गयी.
              मनोरमा आई नहीं कि ये खोज शुरू हो गयी कि ये रेखा श्रीवास्तव है कौन? मेरा घर बहुत दूर नहीं था और सब आपस में परिचित भी थे. इत्तेफाक से उनके पुत्र मेरे भाई साहब के कालेज में ही टीचर थे.  कैर उनको पता चल गया कि ये रेखा श्रीवास्तव है कौन? फोटो उसमें बहुत साफ नहीं छपा था फिर भी पता चलना कोई बड़ी बात नहीं थी . फिर क्या था? एक दिन कॉलेज में स्टाफ रूम में भाई साहब से बोले - 'विनोद तुम्हारी सिस्टर ने ये ठीक नहीं किया?'
'क्या ठीक नहीं किया? क्या किया है उसने? ' भाई साहब को पता था लेकिन उन्होंने भी नाटक किया.
'यही जो मनोरमा में निकाला है, कितनी बदनामी हो रही है?' वे गुस्से में थे.
उसमें उनका नाम कहीं भी नहीं दिया था. लेकिन कहानी अपनी हो तो सबको पता चल जाता है.
'देखो, मेरी सिस्टर लिखती है, और वह क्या लिखती है इससे मेरा कोई सरोकार नहीं. वह लिखने के लिए फ्री है. अगर तुम्हें लगता है तो जाकर उस पर मानहानि का मुकदमा कर दो.' भाई साहब ने दो टूक जबाव दिया था.
                      अब तो स्टाफ रूम में सभी टीचर ' अरे विनोद रेखा ने क्या लिखा है? यहाँ लाओ हम भी पढ़ें?' लोगों को तो मजा आता है किसी कि बात का बतंगड़ बनाने. भाई साहब ने आकर मुझे बताया मैंने कहा - ' ये स्टाफ रूम में नहीं जायेगी , अगर उनमें जरा सी भी गैरत होगी तो वे अपने व्यवहार को सुधारने का प्रयास करेंगे.'                                                                     (क्रमशः)

मंगलवार, 1 जून 2010

मेरे लेखन का सफर : स्मृतियाँ कुछ तिक्त कुछ मधुर (२)

          माधुरी जैसी फिल्मी पत्रिका में कुछ भी छप जाना इतना महत्वपूर्ण होता है, ये मुझे पता नहीं था. कुछ और बहुत प्रसिद्ध तो नहीं लेकिन फिल्मी पत्रिकाओं से लेख लिखने के प्रस्ताव आने लगे. मैं कोई फिल्मी दुनियाँ से तो जुड़ी नहीं थी  बस रूचि थी उसमें और जानकारी भी बहुत अच्छी थी. मेरठ से प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका ने लेख माँगा और मैंने " फिल्मों में महिलाओं कि भागीदारी " विषय पर लेख लिखा और भेज दिया. प्रकाशित होने के बाद पत्रिका मेरे घर आ गयी. मेरठ में मेरे भाई साहब के एक मित्र थे , उन्होंने पढ़ा होगा और तुरंत ही उनका पत्र आया कि मैंने रेखा का लेख और फोटो देखी. मुझे ये कुछ जंचता नहीं है कि लड़की ऐसे फिल्मी दुनियाँ पर लेख लिखे. खैर फतवा जारी हुआ कि फिल्मी विषयों पर नहीं लिखना है और विषय चुनो. तब फ़ोन और मोबाईल तो होते नहीं थे कि घर आम घर में लगे हों. सो पत्र एक सशक्त माध्यम था. उस समय न भाई साहब बहुत बड़े थे लेकिन बड़े भाई का रुतबा होता था. सो बंद कर दिया. पर कलम तो कहीं न कहीं रास्ता खोज ही लेती है उस पर तो फतवा जारी नहीं किया जा सकता है. 
                       अपनी पत्र मित्रों में एक रोचक घटना याद है , लखनऊ  की एक लड़की थी (वास्तव में वह लड़का था)  कृष्णा लाठ  ने मेरे लेखों से प्रभावित हो कर पत्र लिखा और मित्रता की बात हुई. लखनऊ मेरी हद में था सो मैंने दोस्ती कर ली. करीब ३ साल तक हम सहेलियों की तरह सब बाते शेयर करते रहे. मेरे चाचा लखनऊ आ गए और मुझे जाना हुआ तो मैंने उसको लिखा . बस उसके बाद उसने पूछा कि क्या मैं किसी लड़के से दोस्ती करना पसंद करूंगी तो मैंने मना कर दिया. उसके बाद उसने स्वीकार किया कि वह वास्तव में लड़का है लेकिन उसे मेरी दोस्ती अच्छी लगी इसलिए वह लड़की के नाम से पत्र लिख रहा था. अब आगे से नहीं लिखेगा लेकिन वह एक अच्छी दोस्त खो रहा है.  मुझे उसका पता अभी भी याद है , कहीं गणेश गंज में रहता था. 
                     प्रतिमा मेरी कविता की प्रेरणा बनी हम लोग अपने पत्रों में शेर और कविताएँ लिखा करते थे. हमारे पत्र १२ -१४ पन्नों के होते थे. सभी के चाहे उमा हो या प्रतिमा या कृष्णा.  मुझे अपना पहला शेर  याद है और मुझे आज भी बहुत पसंद है.

         मैयत उठ दी दो अश्क भी गिरा न सके
         दफनाया इतना गहरा कि  आवाज भी आ न सके
         कब्र पर फूल चढाने से क्या फायदा

         मेरे जनाजे के साथ तुम दो कदम भी  आ  न सके. 


                मैंने एक डायरी बना रखी थी, उसके बाएं पेज पर  चार लाइनों  के शेर या कवित्त  और दायें पेज में कविता लिखती थी. बाद में इस डायरी का जो हश्र हुआ - इस राज को आगे बताएँगे. मैं मेज पर बैठ कर नहीं पढ़ती थी. बस काम सेफ्री होकर अन्दर कमरे में जमीं में दरी डाली और एक तकिया लिया अपनी डायरी और कॉपी लेकर चले गए . पेट के नीचे तकिया लगा लिया और उलटे लेट कर ही लिखना और पढ़ना करती थी. मेरा ट्रांसिस्टर पास में होता था और साथ साथ गाने सुनने का सिलसिला भी चलता रहता था.
               एक दिन तो हद हो गयी मुझे अपने पर शर्म भी आई. मेरी छोटी बहन की सलेहियाँ आई तो कमरे में मेरी डायरी रखी थी. वे उठ कर पलटने लगी तो उन लोगों ने कविताएँ देखी.  फिर वे बहन से बोलीं , " गीता ये किस फिल का गाना है?"
बहन ने कहा कि 'ये फ़िल्म का गाना नहीं है मेरी दीदी की कविता है वो कविता लिखती हैं. ' 
वह तुरंत बोली कि 'क्या तुम्हारी दीदी पढ़ी लिखी भी हैं?' 
                   मैं उस समय बी. ए. में पढ़ रही थी. मुझे अपने पर बड़ी शर्म आई कि क्या मैं बिल्कुल बिना पढ़ी लिखी नजर आती हूँ?  लेकिन मैं तो जैसी आज हूँ, वैसे ही थी. दिखावे से कोई मतलब नहीं था. मैं तो ऐसी ही हूँ. 
                                                                                                                                                    (क्रमशः)