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गुरुवार, 30 जनवरी 2020

करियर या शादी !

                                      यहाँ हम यह बात एक महिला या लड़की के लिए कर रहे हैं क्योंकि अपनी सुरक्षा , आत्मनिर्भरता और एक  अच्छे जीवन को जीने का अधिकार सिर्फ इस समाज  के अनुसार  सिर्फ पुरुष  को ही नहीं होता बल्कि ये उतना ही आवश्यक एक लड़की और महिला के लिए  होता है।
                                     आत्मनिर्भर होने का अर्थ ये बिलकुल भी नहीं होता है कि उसे लड़की के अंदर संवेदनाएं , कोमल भावनाएं या फिर एक सुन्दर जीवन जीने की इच्छा नहीं होती हैं।  वह सब कुछ चाहती है - आत्मनिर्भर होने के लिए एक नौकरी , एक सुन्दर घर और उस घर में पति और उसके अपने बच्चे। ऐसा  ऐसा सोचना स्वाभाविक भी है क्योंकि वह सब कुछ करती ही इस लिए है कि वह एक सुखमय और शांतिपूर्ण जीवन जी सके। इसके बाद भी आज कुछ परेशानियों का सामना कर रही है  - कभी रोग से लड़ने की क्षमता की कमी , कभी सामंजस्य की समस्या तो कभी घर और नौकरी के बीच पिसती हुई । इससे पारिवारिक जीवन भी प्रभावित होता है ।

शादी  की बढ़ती उम्र !

                         करियर की तैयारी के लिए वह कई बार कई साल लगा लेती हैं और फिर अपने करियर बनाने के लिए इतना समय लगाने के कारण वह अपनी मंजिल पर पहुँचाने के बाद उसको मजबूत भी करना चाहती है।  ऐसा नहीं है इस समय तक वह खुद भी शादी ले लिए तैयार नहीं  होती है , लेकिन घर वाले भी उसके लिए उचित वर खोजते रहते हैं।  इसी  जद्दोजहद में उसकी उम्र बढ़ती जाती है।  आज के समय के अनुसार जॉब के तनाव , अपने को ठीक से सेटल होने का तनाव, उसको ठीक से स्थिर नहीं होने देता है।  जब तक वो शादी करती हैं और फिर परिवार बढ़ाने के लिए प्रयास करती हैं।  तब तक शारीरिक स्थिति कई तरीके से हार्मोन असंतुलन का शिकार होने लगती  है। इससे शरीर में बहुत से परिवर्तन आने लगते हैं।  कई बार वह शरीर की समुचित देखभाल न होने  कारण भी कई समस्याओं में फंस जाती है।

माँ बनने में विलम्ब :-
                       देर से शादी करना और आज के चलन के अनुसार अभी तो जिंदगी शुरू हुई है , इस मानसिकता के अनुसार लड़कियां माँ बनने को दूसरे क्रम में रखती हैं और कभी कभी तो वे माँ बन कर अपनी जिंदगी को बांटना या कहें उसकी मुसीबतें बढ़ाना नहीं चाहती है।   कई बार माँ न बनने में देर होने के कारण शुरू होता है डॉक्टर के यहाँ चक्कर लगाने का सिलसिला।  कई बार उन्हें आईबीएफ के जरिये माँ बनने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। ये आधुनिक चिकित्सा  प्रणाली हमें बहुत कुछ ऐसा दे रही है , जो अतीत में संभव नहीं था लेकिन नए नए शोध से जो हमें उपलब्धि हो रही है , वह भविष्य पर अधिक घातक प्रभाव भी डाल रही  है।  इसमें आज कल सबसे घातक रोग जो महिलाओं के लिए सामने आता जा रहा है वह है कैंसर।  

 कैंसर के संभावित कारण :- कामकाजी महिलाएँ यद्यपि प्रसव अवकाश में अपने बच्चे को पूर्ण संरक्षण देती हैं और कभी कभी तो वह और अधिक छुट्टी लेकर भी उनको स्तनपान करवाती हैं लेकिन जैसे  ही वह ऑफिस जाना शुरू कर देती हैं , उनका यह क्रम बिगड़ जाता है।  उनके सामने फिर एक विकल्प रह जा है कि वह बच्चे को स्तनपान कराना बंद कर देती हैं।  इसके पीछे आज की आधुनिकता की मांग भी है कि वे अपने फिगर के प्रति इतनी अधिक सजग होती हैं कि  वह स्तनपान कराना बंद कर देती हैं।  लेकिन इससे उसमें दूध बनने की प्रक्रिया धीरे धीरे बंद जरूर हो जाती है और कभी कभी तो ऑपरेशन के बाद दी जाने वाली दवाओं के द्वारा माँ का दूध सूखा दिया जाता है।  यह कभी कभी एक घातक प्रभाव डालता है , इससे स्तन में गाँठ पड़ जाती है और उसके प्रति ऑफिस और घर की व्यस्तताओं के चलते ध्यान भी नहीं दिया जाता है।  यह लापरवाही या कहें कि  समयाभाव , जागरूकता का अभाव उनको एक मुसीबत में फंसा देता है।

माँ न बनने का निर्णय :- कई बार लड़कियां शादी भी विलम्ब से करेंगी और फिर माँ न बनने का निर्णय भी उनको बहुत सारी जिम्मेदारियों से मुक्त तो कर देता है लेकिन वह यह भूल जाती हैं कि प्रकृति ने जो शारीरिक संरचना बनाई है वो समय से अपने उपयोग के प्रति सक्रिय होती है और शरीर के हार्मोन्स अपने समय से संतुलन भी बनायें रखते हैं लेकिन यदि उनका समय से शरीर में उपयोग नहीं हो पता है तो वह कभी कभी विपरीत प्रभाव भी डालते हैं और वह किस रूप में और किस अंग को प्रभावित करेंगे नहीं जानते है । इसलिए दुष्प्रभावोंं से बचने के लिए  करियर की प्राथमिकता दूसरे स्थान पर  चाहिए । औरत को प्रकृति ने जो दायित्व सौंंपेे हैंं वह कोई और नहीं ककता है । प्रकृति हमें बनाती है हम 

बसंत.पंचमी !

बसंत पंचमी पर्व:-
     
                  बसंत पंचमी  हिन्दू धर्म का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व  है।  यह त्यौहार हर साल हिंदू पंचांग (कैलेंडर) के अनुसार माघ की शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है।  ऐसा माना जाता है कि  बसंत पंचमी के दिन ही ब्रह्मांड की रचना हुई तथा समस्त जीवों और मानवों का प्रादुर्भाव इसी दिन हुआ था।   ब्रह्मा जी इस सृष्टि से संतुष्ट नहीं थे क्योंकि जीव वाणी रहित थे , तब ब्रह्मा जी ने भगवन विष्णु से अनुमति प्राप्त करके अपने कमंडल से पृथ्वी पर जल सिंचित किया और इस सिंचन से एक देवी का प्राकट्य हुआ और ये देवी चार भुजाओं वाली थीं ।  इनके एक हाथ में वीणा , दूसरा हाथ वर मुद्रा में था।  , शेष दो हाथों में पुस्तक और माला थी।  ब्रह्माजी ने देवी से वीणा वादन का अनुरोध किया और जैसे ही देवी ने वीणा वादन आरम्भ किया पृथ्वी के समस्त जीवों को वाणी प्राप्त हुई।  उस देवी को ही माँ सरस्वती कहा जाता है।  माँ सरस्वती ने ही प्राणियों को विद्या और बुद्धि प्रदान की। इसी लिए बसंत पंचमी को सरस्वती पूजा की जाती है।  बच्चों का विद्यारम्भ इसी दिन करवाया जाता है।  इस दिन बसंत का भी आगमन होता है  इस दिन  को श्री पंचमी व सरस्वती पंचमी भी कहते हैं| इस दिन लोग अपने घर, स्कूल व दफ्तरों को पीले फूल व रंगोली से सजाते हैं।

              इस दिन लोग सरस्वती माता की पूजा पूरी विधि विधान से करते हैं जिससे कि उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हो सके और माता का आशीर्वाद बना रहे। माँ सरस्वती को बुद्धि, ज्ञान और कला की देवी माना जाता है और इसी लिए इस दिन गुरु के समक्ष बैठ कर उनसे शिक्षा  ग्रहण करने का शुभारम्भ  किया जाता है। पुस्तक , वाद्य आदि देवी के समक्ष रख कर पूजा की जाती है।

                बसंत  ऋतु को सभी छह ऋतुओं  का राजा माना जाता है , इसी कारण इस दिन को बसंत पंचमी कहा जाता है तथा इसी दिन से बसंत ऋतु की शुरुआत होती है | इस ऋतु में खेतों में फसलें लहलहा उठती है और फूल खिलने लगते है।  जब धरती पर फसल लहलहाती है तो चारों तरफ पीले रंग की बहार नजर आती है।  खासतौर पर सरसों के फूलने पर जो छटा निखरती है , वही बसंत शब्द को चरितार्थ करती है।  ।

        बसंत पंचमी का त्यौहार बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है | इस दिन देवी सरस्वती की पूजा करने के पीछे एक पौराणिक कथा है | सर्वप्रथम श्री कृष्ण और ब्रह्मा जी ने देवी सरस्वती की पूजा की थी | देवी सरस्वती ने जब श्री कृष्ण को देखा तो वो उनके रूप को देखकर मोहित हो गयी और पति के रूप में पाने के लिए इच्छा करने लगी | इस बात का भगवान श्री कृष्ण को पता लगने पर उन्होंने देवी सरस्वती से कहा कि वे तो राधा के प्रति समर्पित है परन्तु सरस्वती को प्रसन्न करने के लिए भगवान श्री कृष्ण देवी सरस्वती को वरदान देते है कि प्रत्येक विद्या की इच्छा रखने वाले को माघ महीने की शुल्क पंचमी को तुम्हारा पूजन करेंगे | यह वरदान देने के बाद सर्वप्रथम ही भगवान श्री कृष्ण ने देवी की पूजा की |

 |               देवी सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, माँ शारदा, वीणावादिनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है ।

बसंत पंचमी का महत्व !

                बसंत पंचमी फूलों के खिलने और नई फसल के आने का त्योहार है।  ऋतुराज बसंत का बहुत अत्यधिक महत्व है।  सर्दी के बाद प्रकृति की छटा देखते ही बनती है।  इस मौसम में खेतों में सरसों की फसल पीले फूलों के साथ , आम के पेड़ पर आए बौर , चारों तरफ हरियाली और गुलाबी ठण्ड मौसम को और भी खुशनुमा बना देती है।  यदि सेहत की दृष्टि से देखा जाए तो यह मौसम बहुत अच्छा होता है।  इंसानों के साथ-साथ पशु पक्षियों में नई चेतना का संचार होता है।  इस ऋतु  को कामबाण के लिए भी अनुकूल माना जाता है।  हिन्दू मान्यताओं के अनुसार प्रमुख हिन्दू त्यौहार में पवित्र नदियों में स्नान किया जाता है। बसंत पंचमी पर भी पवित्र नदियों में स्नान किया जाता है।   कुम्भ और अर्धकुम्भ होने पर भी बसंत पंचमी को विशेष स्नान पर्व होता है। 

                 बसंत पंचमी के दिन को बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के आरंभ के लिए शुभ मानते हैं। इस दिन बच्चे की जीभ पर शहद से ॐ बनाना चाहिए। माना जाता है कि इससे बच्चा ज्ञानवान होता है व शिक्षा जल्दी ग्रहण करने लगता है । 6 माह पूरे कर चुके बच्चों को अन्न का पहला निवाला भी इसी दिन खिलाया जाता है । अन्नप्राशन के लिए यह दिन अत्यंत शुभ है । बसंत पंचमी को परिणय सूत्र में बंधने के लिए भी बहुत सौभाग्यशाली माना जाता है इसके साथ-साथ गृह प्रवेश से लेकर नए कार्यों की शुरुआत के लिए भी इस दिन को शुभ माना जाता है ।

विभिन्न राज्यों में बसंत पंचमी !

                  बसंत पंचमी भारत के  विभिन्न राज्यों में धूमधाम से मनाया जाता है।  पीले रंग के कपड़े , पीले रंग का भोजन और पीले फूलों से देवी सरस्वती का पूजन विशेष रूप से किया जाता है।  यह सब तो सामान्य विधि है लेकिन कुछ राज्यों में बसंत पंचमी अलग अलग ढंग से मनाई जाती है। 

1. राजस्थान और उत्तर प्रदेश :                                           

         यहाँ पर स्कूलों में बच्चों को पीले कपड़ों में और पीले फूलों की माला या फिर फूल लाने को कहा जाता है और वहां पर माँ सरस्वती की पूजा करवा कर , सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।  विभिन्न प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाती हैं। 

2. बिहार :-
                   बिहार में लोग भी पीले वस्त्र पहन कर माथे पर हल्दी का टीका लगा कर मंदिर दर्शन के लिए जाते हैं और खूब  नाच गाने के साथ पर्व को मनाते  हैं। यहाँ पर केशर डाल कर चावल की खीर बनाई जाती है।  बेसन की बूंदी भी बनाई जाती है और उसकी चाशनी में केसर डाली जाती है। मालपुआ के बगैर बिहार का कोई पर्व नहीं मनाया जाता है। 

   3. बंगाल :-
                      ललित कलाओं के अतिरिक्त बंगाल में देवी पूजन को विशेष महत्व दिया जाता है।  दुर्गा पूजा और काली पूजा की तरह सरस्वती पूजा में भी पंडाल लगाए जाते हैं और वहां पर मूर्ति की विधिवत् पूजा कर प्रसाद बाँटा जाता है। प्रसाद में बूंदी के लड्डू , खिचड़ी ( इससे देवी का भोग भी लगाया जाता है।) केशरी राजभोग में चाशनी में केशर डाल दिया जाता है।   राजभोग विशेष रूप से बनाये जाते हैं।   इसके अतिरिक्त नृत्य समारोह और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं का आयोजन भी होता है। 

4. उत्तरकशी  : -
                                       उत्तरकाशी में लोग अपने घरों के दरवाजे पर पीले फूल उगाते हैं और पीले वस्त्र पहन कर और मिष्ठान्न के साथ पूजा अर्चना करके पर्व मानते हैं।

5. पंजाब और हरियाणा :-
                                            देश के इन दो राज्यों में बसंत पंचमी  के अवसर पर पतंगे उड़ाई जाती हैं।  नृत्य आदि का आयोजन होता है। यहाँ पर मक्के की रोटी और चने के साग के साथ मीठे चावल केशर डाल कर बनाये जाते हैं।    गुरुद्वारे में सार्वजनिक उत्सव आयोजित किये  जाते हैं।  लंगर  का प्रबंध होता ।

मंगलवार, 14 जनवरी 2020

मकर संक्रांति !

                    मकर संक्रान्ति हिंदु धर्म में एक प्रमुख पर्व है।  पौष मास में जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है तभी यह पर्व मनाया जाता है। यह वह पर्व है जबकि इसको अंग्रेजी माह जनवरी की दिनाँक  13 - 14 को ही पड़ता है लेकिन कभी कभी ग्रहों की गति या सूर्य के प्रवेश के समय में कुछ अंतर होने पर यह 15 जनवरी को भी पड़ती है  क्योंकि मकर संक्रान्ति के दिन से ही सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। इसलिये इस पर्व को उत्तरायणी भी कहा जाता है।  इसको उत्तरायणी गुजरात राज्य में ही कहा जाता है।
                       मकर संक्रांति एकमात्र ऐसा पर्व है जिसका निश्चय सूर्य की गति की अनुसार होता है क्योंकि शेष सभी पर्व चन्द्रमा की गति के अनुसार निश्चित होते हैं।  इसका अपना पौराणिक महत्व माना  जाता है।
पौराणिक सन्दर्भ में प्रमुख तीन घटनाओं को उल्लिखित किया गया है --
१. ऐसी मान्यता है कि इस दिन सूर्यदेव अपने पुत्र शनिदेव से मिलने स्वयं उसके घर जाते हैं। चूँकि  शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं , इसी लिए सूर्य धनु राशि से मकर में प्रवेश करते है ,तभी इसको मकर संक्रान्ति कहा जाता है।
२.  महाभारत काल में भीष्म पितामह सूर्य के दक्षिणायन होने के कारण शरशय्या पर रहे , जब तक कि  सूर्य उत्तरायण नहीं हुए और इसी दिन उन्होंने अपने प्राण त्यागे थे।
३. मकर संक्रान्ति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर  कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर  में जाकर मिली थीं।
                  यह एक ऐसा पर्व है जो सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है और अपने अपने रिवाजों के अनुरूप उसके स्वरूप को निश्चित कर लिया है।  एक दृष्टि देश के सभी राज्यों में मनाये जाने वाले ढंग पर डाले

पश्चिम  बंगाल -- बंगाल में इसको पौष माह के अन्तिम दिन पड़ने के कारण ही 'पौष पर्व ' नाम दिया गया है।  इसमें खजूर , खजूर के गुड़ को मिठाई बनाने में  प्रयोग  किया जाता है और माँ लक्ष्मी की पूजा की जाती है।  दार्जिलिंग में भगवान् शिव की पूजा होती है। इस पर्व पर स्नान के पश्चात तिल  दान करने की प्रथा है।

तमिलनाडु एवं आंध्र प्रदेश --   पोंगल - ये चार दिनों का त्यौहार होता है -- प्रथम  भोगी-पोंगल जिसमें दिवाली की तरह ही घर की सफाई करते हैं , दूसरा  सूर्य-पोंगल  मनाने के लिये स्नान करके खुले आँगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनायी जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है।इस दिन लक्ष्मी जी की पूजा भी की जाती है। तीसरा  मट्टू अथवा केनू-पोंगल  जिसमें पशुओं की पूजा की जाती है ,उसके बाद खीर को प्रसाद  के रूप में सभी ग्रहण करते हैं।,  और चौथे  दिन कन्या-पोंगल- इस दिन बेटी और जमाई  का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है।

 पंजाब --   लोहड़ी  १३ जनवरी को ही मनाया जाता है। इस दिन सुबह स्नान करके तिल के तेल का दीपक जलाते हैं ताकि  घर में खुशियां और समृद्धि आये।  इस दिन अँधेरा होते ही आग जलाकर अग्निदेव की पूजा करते हुए तिल , गुड़ और मूंगफली और भुने हुए मक्के (तिलचौली ) की आहुति दी जाती है। इसमें भाँगड़ा और गिद्धा  नृत्य की  विशेष रूप से धूम होती है।   लोग  तिल की बनी हुई गजक और रेवड़ियाँ आपस में बाँटकर खुशियाँ मनाते हैं। नई बहू और नवजात बच्चे के लिये लोहड़ी का विशेष महत्व होता है।

महाराष्ट्र --इस दिन सभी विवाहित महिलाएँ अपनी पहली संक्रान्ति पर कपास, तेल व नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं। तिल-गूल नामक हलवे के बाँटने की प्रथा भी है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं -'तिल गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो।' इस दिन महिलाएँ आपस में तिल, गुड़, और हल्दी कुमकुम बाँटती हैं।

उत्तराखण्ड -- यहाँ पर यह घुघूती या काले कौवा के नाम से जाना जाता है और इसको चिड़ियों के अन्यत्र प्रवास को ख़त्म होने का पर्व मनाया जाता है।  इसमें खिचड़ी और अन्य चीजें दान की जाती हैं।  जगह जगह मेले लगते हैं और मीठे व्यंजन बना कर चिड़ियों को खिलाये जाते हैं।  

कर्नाटक -- यहाँ पर इसे  कृषि से सम्बद्ध मानकर मनाया जाता है।  वे अपने घरों को रंगोली से सजाते हैं और अपने पशुओं को भी  सजाते हैं।  उनके सीगों को रंगों से सजाते हैं।  महिलायें एक दूसरे के यहाँ एक थाली में तिल , गुड़ , गन्ने और अन्य मिष्ठान भर कर आदान प्रदान करती  हैं।

गुजरात -- मकर संक्रांति या उत्तरायण गुजरात का प्रमुख त्योहार है। पहले दिन 14 जनवरी को  उत्तरायण  मुख्य रूप से पतंगबाजी के रूप में मनाया जाता है। पतंग उड़ाने प्रतियोगिताएं राज्य भर में आयोजित की जाती है. अगले दिन बासी  उत्तरायण कहा जाता है , इसमें सर्दियों में उपलब्ध सब्जियों और चिक्की, तिल के बीज, मूंगफली और गुड़ से बने का एक  विशेष व्यंजन तैयार करते है, जिसका प्रयोग इस अवसर का जश्न मनाने के लिए किया जाता है।

 बिहार व झारखण्ड -- बिहार / झारखंड में इसे सकरात  या खिचड़ी  कहते हैं। पहले दिन मकर संक्रांति के दिन, लोग तालाबों और नदियों में स्नान करते हैं और मीठे व्यंजनों में तिल गुड़ के लड्डू और चावल की लाई 
 के लड्डू भी बनाये जाते हैं। खाने में चिवड़ा और दही  को प्रमुख रूप प्रयोग करते हैं।  खिचड़ी और काले तिल का दान विशेष रूप से किया जाता है।  

हिमांचल प्रदेश -- इसको माघ साजी  कहा जाता है , साजी  संक्रांति का प्रतीक शब्द है।  शरद के समापन बसंत के आगमन पर मनाया जाता है।  इसमें पवित्र जल में स्नान करके मंदिरो  में जाते हैं।  गरीबों में खिचड़ी , मिठाई दान करते हैं।  आपस में भी खिचड़ी और गुड़ तिल की चिक्की का आदान प्रदान करते हैं और शाम को लोक नृत्य आदि का आयोजन होता है।  

आसाम --  आसाम में इसको बिहू कहा जाता है।  इसमें रात में ही बांस और सूखे पत्तों से झोपड़ी नुमा तैयार करते हैं और सुबह स्नान करके उस झोपड़ी को जलाते हैं फिर चावल की रोटी बनाते हैं पीठा बनाकर देवता को अर्पित करते हैं और फिर आपस में बाँटते हैं।  इसी के साथ अच्छी फसल की कामना करते हैं।  

राजस्थान -- इस पर्व पर सुहागन महिलाएँ अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। साथ ही महिलाएँ किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन एवं संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं।

 उत्तर प्रदेश -- यहाँ पर भी इसको संक्रांति या खिचड़ी के नाम से जाना जाता है , यह दो दिन मनाया जाता है - पहले दिन शाम दाल की नयी फसल आने के उपलक्ष में मूंग दाल के मगौड़े और उडद दाल के बड़े बनाये जाते हैं और दूसरे दिन सुबह लोग पवित्र नदी अगर उपलब्ध है तो उसमें स्नान करते हैं और फिर काले तिल और खिचड़ी का दान करते हैं।   उस दिन खाने में खिचड़ी ही खायी जाती है।  इसके साथ ही तिल के लड्डू के साथ साथ अन्य धान्य के लड्डू जैसे भुने चने के , लाइ के , रामदाना के का भी सेवन करते हैं और दान करते हैं।  इस पर्व पर संगम के साथ साथ गंगा , यमुना आदि नदियों में स्नान करने लाखों की संख्या में लोग आते है।

 कश्मीर घाटी -- में इसको नवजात शिशु या नववधू के आगमन पर उत्सव के रूप में मनाया जाता है और इसको शिशुर संक्रात  कहते हैं। 

                                भारत के अतिरिक्त यह पर्व अलग अलग नामों से बाहर भी मनाया जाता है।  इसमें पडोसी देशों में  --
नेपाल  --  मकर संक्रान्ति को माघे-संक्रान्ति, सूर्योत्तरायण  कहा जाता है। थारू समुदाय का यह सबसे प्रमुख त्यैाहार है। नेपाल के बाकी समुदाय भी तीर्थस्थल में स्नान करके दान-धर्मादि करते हैं और तिल, घी, शर्करा और कन्दमूल खाकर धूमधाम से मनाते हैं। वे नदियों के संगम पर लाखों की संख्या में नहाते हैं।
 बांग्ला देश -- शंकरेण / पौष सांगक्रान्ति
थाईलैंड  -- सोंगक्रान
लाओस  -- गड़बड़ी मा लाओ
म्यांमार -- थिंज्ञान
कंबोडिया  -- मोहां / सांगक्रान
 श्रीलंका  -- पोंगल / तिरुनल


बुधवार, 1 जनवरी 2020

वो सर्दी और ये सर्दी !

संस्मरण
          
 
      आज के तापमान को देखते हुए अखबार में 1961- 62 की सर्दियों का जिक्र किया गया तो याद आया कि वह सर्दियां आज की तरह साधनों से सम्पन्न न थी और न ही उस समय  तापमान नापा जा सकता था । ना इतने सारे साधन थे कि इंसान सर्दी से अपने को सुरक्षित रख सके।
             मुझे अच्छी तरह याद है उस समय मेरी दो बहनों का जन्म हुआ था। 1 महीने पहले मेरे चाचा की बेटी मंजू और एक महीने बाद मेरी बहना सुनीता का जन्म हुआ था। जहाँ माँ और चाची को लिटाया जाता था एक बड़ा हॉल था।  घर में छोटा बच्चा होने के कारण हॉल में जिसमें कि जच्चा और बच्चा रहते थे पापा लकड़ी के बड़े-बड़े जड़ों वाले टुकड़े ले आते थे और उस कमरे में 24 घंटे आग जला करती थी। प्रसूता और नवजात के पास एक बोरसी में कंडे की आग जलाकर रखी जाती थी । मुझे नहीं याद लकड़ी उस दौरान कब तक  जलाई गई होगी और भयंकर सर्दी में किस तरह से छोटे बच्चे और उसकी मां को बचाया गया होगा।
         उस समय सर्दी में स्कूल की छुट्टियाँ नहीं होती थीं । दादी तैयार कर देती और हम स्कूल चले जाते । बाहर खुले में रखी बाल्टियों में बर्फ जम जाती थी ।
     उसी समय चीन के साथ भारत की लड़ाई हुई थी और घर में यह चर्चा हुआ करती थी कि सीमा पर लड़ने वाले सैनिकों को किन हालातों का सामना करना पड़ रहा होगा। देश के मैदानी इलाकों में यह हालात थे और वहां पर हालातों की सिर्फ कल्पना की जा सकती थी ।
       दादी हम भाई बहनों से कहती कि भगवान का कीर्तन करो तो ये सर्दी खत्म होगी । हम सब उनकी बात मानकर सुबह शाम आरती में शामिल होते । आज बहुत सारे साधन है लेकिन वह परिवार का सुख नहीं है ।