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बुधवार, 18 सितंबर 2024

श्राद्ध और श्रद्धा !

 

                   श्राद्ध और श्रद्धा !

 

                                   हर बार श्राद्ध के पंद्रह दिनों में खूब चर्चा होती है कि जीते जी माता-पिता की सेवा कर लेनी चाहिए फिर श्राद्ध का कोई महत्व नहीं है। ऐसा नहीं है, ये पंद्रह दिन अगर शास्त्रों में विशिष्ट माने गए हैं तो हैं, कितने माता-पिता संतान को बचपन में ही छोड़कर चले जाते हैं तो क्या उनका श्राद्ध ही होना चाहिए क्योंकि बच्चे सेवा कर ही नहीं पाते हैं।

                                 श्राद्ध के इन दिनों की आलोचना किसी भी रूप में हो, होती जरूर है और  करने वाले होते हैं वही जिनके मत में श्राद्ध को महत्व दिया जाता है। ये आलोचना क्यों? जो करता है अपनी श्रद्धा और विश्वास के साथ , आप नहीं करते हैं तो मत करिये और मत मानिये। ये अवश्य है कि जो जीते जी माता-पिता को सम्मान न दे पाया, सेवा का मौका तो बहुत बाद में आता है,  उसको न श्राद्ध करने की जरूरत है और न ही आलोचना करने की। ये उनके कर्म हैं कि उन्होंने ऐसी संतान को जन्म दिया। 

                               पुनर्जन्म के बाद भी आत्माएँ श्राद्ध कर्मों का फल पाती हैं। हर आत्मा को जन्म भी अपने कर्मो के अनुसार मिलता है। मनुष्य योनि सबको मिले जरूरी नहीं है, फिर इस जन्म में अगर उनके अंश श्राद्ध करते हैं और वह जिस भी योनि में हों उनको भोजन मिलता है। अगर नहीं मिलता होता तो ये परम्पराएँ यूँ ही न बनी रहती। इसकी मैं खुद अनुभवी हूँ कि पितृ होते हैं और अपनी संतान से कुछ चाहते हैं। अनुभव फिर शेयर करूँगी। इतने विश्वास के साथ इसीलिए लिख रही हूँ।

                              पूर्वजों के लिए हर धर्म और मत में एक दिन या कई दिन निश्चित होते हैं। अगर पूर्वजों की आत्मा का अस्तित्व न होता तो फिर वे क्यों ? हाँ तरीका सबका अलग अलग होता है। ईसाई धर्म में " SOUL'S DAY" मनाते हैं किस लिए अपने पूर्वजों के सम्मान में या याद में। उनका अस्तित्व वे भी स्वीकार करते हैं। 

                              इस्लाम में भी एक दिन ऐसा होता है जबकि "शब-ए -बारात" ऐसा ही मौका होता है , जबकि सब लोग अपने पूर्वजों की कब्र पर जाकर रौशनी करते हैं और घर में पकवान बना कर उनको अर्पित करने की भावना से सबको खिलाते हैं और बाँटते भी हैं। पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ ये काम किया जाता है लेकिन कभी भी उन सबके बीच इस पर टीका टिपण्णी या आलोचना नहीं होती है। 

                              अगर किसी को श्रद्धा और विश्वास नहीं है तो आप मत कीजिये लेकिन आलोचना, ब्राह्मणों पर लांछन या फिर लूटने जैसे आरोप मत लगाइये। आप अपनी श्रद्धा से जो भी दान कर सकते हैं और कितने तो अपनी सामर्थ्य के अनुसार सिर्फ "सीधा" जिसे कहते हैं वह निश्चित तिथि पर निकाल कर दान कर देते हैं। कौन कहता है कि आप पूरी दावत कीजिये। 

                            भगवन के लिए आलोचना मत कीजिये। सब अपने अपने विचार और मत के अनुसार काम करिये और करने दीजिये।

शनिवार, 14 सितंबर 2024

हिन्दी का स्वरूप !

                     

                                                  हिन्दी  का स्वरूप !  

 

              हिन्दी दिवस पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है और शायद इसी विषय में हम भी लिखने जा रहे हैं। बात वही है कि हिंदी के अस्तित्व को किस तरह बचा सकते हैं। जो प्रयास सरकारी तौर पर किये जा सकते हैं वे तो फाइलों और दस्तावेजों की शोभा बढ़ा रहे हैं।  ऐसा नहीं है कि सब जगह मात्र फाइलों में ही दबे पड़े हों, फिर भी बहुत सारे क्षेत्रों में इसको प्राथमिकता दी जा रही है और प्रगति भी हो रही है, लेकिन इसके स्वरूप को भी हम ही संरक्षित कर सकते हैं। देवनागरी में  के हिन्दी अतिरिक्त और भी कई भाषाएँ और बोलियाँ  भी हैं, जिनके अस्तित्व के लिए भी संघर्ष अभी जारी है और शायद जारी रहेगा भी। 

                         एक सबसे अलग मुहिम जो हमें जारी रखनी है, वह है हिंदी भाषा के स्वरूप के लिए लड़ाई। ये मेरा अपना व्यक्तिगत विचार भी हो सकता है लेकिन ये स्वरूप हम से ही रचा जाता है, भले ही इसका उद्गम संस्कृत से हुआ हो लेकिन संस्कृत से ही इसकी व्याकरण भी ली गयी है और उसके स्वरूप को निश्चित किया गया है। जब हम कागज़ और कलम से लिखते थे तब भी यही भाषा थी और आज भी वही भाषा है।  अगर बदला है तो सिर्फ इतना कि हमने कागज़ कलम की जगह पर कम्प्यूटर को अपने लेखन का साधन बना लिया है। इसके लिए कंप्यूटर को भी बहुत कुछ सिखाया गया है , भले ही सिखाने वाले हम ही हैं। हमने रोमन से देवनागरी को लिखने का एक सशक्त तरीका चुन लिया है। अपनी सुविधाओं के अनुसार हम इसके स्वरूप को बदलने लगे और फिर कहने लगे कि यही हमें कंप्यूटर से मिलता है। 

                      आज जो चलन है वह सदियों पहले नहीं था। साहित्य अकादमी पुरस्कार आरम्भ हुए १९५५ से और आज तक मिल रहे हैं। वे श्रेष्ठ सृजन के लिए ही दिए गए हैं, लेकिन धीरे धीरे साहित्य में हम भाषा के मानकों को पूर्ण करते आ रहे हैं ऐसा कह नहीं सकते हैं, हाँ इतना जरूर है कि जितना हम हिंदी में व्याकरण के साथ शिथिलता बरतने लगे हैं क्योंकि अब हमें सुविधा अधिक दिखलायी देती है और उसी के अनुरूप हम उसको स्वीकार करने लगे हैं।  रही सही कसर तो मोबाइल ने पूरी कर दी है क्योंकि उसके की पैड के अनुसार ही हमें शब्दों का सृजन उचित लगने लगा है। 

                    एक बार नहीं बल्कि हर बार देखती हूँ कि पत्रिका के विषय में हर बार लिखा जाता है कि वर्तनी सम्बन्धी त्रुटियों का विशेष ध्यान रखें। फिर भी हर जगह ये त्रुटियांँ नजर आ ही जाती हैं। हम लिखने वाले तो ये कर भी सकते हैं लेकिन क्या संपादक मंडल या विभाग इस बात को जरा सा भी तवज्जो नहीं देता है कि पत्रिका या पुरस्कृत पुस्तक में क्या जा रहा है? हम भी बढ़ चढ़ कर उसको सोशल मीडिया के जरिये स्व-प्रशस्ति में शामिल करके लोगों को अवगत कराते ही रहते हैं। अगर कभी प्रश्न उठता है तो इन त्रुटियों के पैरोकार कहने लगते हैं कि हमें शुद्ध हिंदी नहीं चाहिए कि 'रेल' को 'लौहपथगामिनी' लिखें। इसमें कोई शक नहीं है कि सर्वप्रचलित शब्द चाहे किसी भी भाषा के हों हम समय समय पर अपनाते रहते हैं , हम ही क्यों ? कैंब्रिज और ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी भी अन्य भाषाओं के वैकल्पिक शब्द न मिलने पर जस का तस अपना कर अपने शब्दों में शामिल कर लेते हैं। ये उचित भी है क्योंकि भाषा समृद्ध भी तभी होती हैं। हिंदी में हम कितने उर्दू, फारसी अंग्रेजी और अन्य देशी विदेशी भाषाओं के शब्द शामिल करते रहते हैं और आम आदमी उसको ही समझता है। भाषा की क्लिष्टता उसके विस्तार को अवरुद्ध कर सकती है इसीलिए इसमें औदार्य की आवश्यकता भी है। 

                      अगर सबसे अधिक त्रुटि हम पाते हैं तो वे हैं  - विरामादि चिन्हों को लेकर। लेखक की अपनी एक शैली होती हैं जैसा कि मैंने सुना है कि हम वाक्य का अंत किसी भी तरह से करें , हमारी मर्जी है। अवश्य है लेकिन हम जो लिखते हैं वह सिर्फ अपनी सुविधा और पढ़ने के  लिए नहीं लिखते है बल्कि उसके पाठक दूसरे ही होते हैं। किसी को वो गलत चिह्न खलते हो या नहीं मुझे बहुत खलते हैं और वही अगर पत्र -पत्रिकाओं द्वारा स्वीकृत कर लिए जाते हैं तो भाषा के साथ मजाक है। 

                          सम्पूर्ण कोई भी नहीं होता है और अक्सर हम अपनी त्रुटियों को खुद नहीं सँभाल या पकड़ पाते हैं, अगर पकड़ पाएं तो खुद ही ठीक कर लें लेकिन इसके लिए हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं और विद्वजन हैं  ही इसलिए कि अपने साथियों या नवोदित  कलमों को सही दिशा दे सकें। इसमें साहित्यिक संस्थाओं, साहित्यिक पत्र और पत्रिकाओं का दायित्व बनता है कि प्रकाशन से पूर्व स्वयं सम्पादित करवायें और इस विषय में लेखन को भी एक बार इंगित करें। 

                        ये बहुत बड़ा काम नहीं है लेकिन हिंदी के स्वरूप को देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी व्याकरणिक रूप से प्रस्तुत करने के लिए जरूरी है। अगर हम कुछ कम जानते हैं और कोई हमें सही करता है तो इसमें अपनी साख पर दाग नहीं समझना चाहिए बल्कि उसके प्रति शुक्रगुजार होना चाहिए कि एक त्रुटि के विषय में बताया और फिर ये निश्चित है कि वह त्रुटि हम दुबारा नहीं करेंगे।  अगर इसको प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेंगे तो आने वाले समय में हिंदी भाषा का स्वरूप न हिंदी का रहेगा और न ही अंग्रेजी का बल्कि ये सोशल मीडिया की भाषा या फिर हमारे बोल कर लिखेी जा रही सामग्री में आने वाली सभी त्रुटियों को भाषा का ही एक अंग मान लिया जाएगा। सिर्फ आकर्षित करने के लिए लिखी जा रही संक्षिप्त सामग्री ही आने वाली पीढ़ी की भाषा बन कर रह जायेगी।

शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

मौत के सौदागर !

 वह कथोक्ति है न कि जो दूसरों के लिए कुआँ खोदता है ईश्वर उनके लिए खाई खोद कर तैयार कर देता है, लेकिन  ये कहावतें त्रेता , द्वापर या सतयुग में चरितार्थ होती होंगी। अब तो दूसरों को मौत बेचने वाले किसी जेल में नहीं बल्कि मखमली सेजों पर सोते हैं । उनपर हाथ डालने की हिम्मत किसी नहीं है । बड़े बड़े व्यापारी, ठेकेदार , इंजीनियर , विधायक, सांसद और अब तो किसान, दूधवाले, गृहउद्योग वाले सभी इसमें शामिल हो चुके हैं।  


    खाने में जहर : 
                       आटा, दाल, मसाले कुछ ऐसे जिंस हैं, जिनके बिना चाहे गरीब हो या फिर अमीर जीवित रह ही नहीं सकता है। सरकार अपने स्तर से समय समय पर उनकी गुणवत्ता के लिए परीक्षण करवाती ही रहती है और होता भी ये हैं कि मामला अपने स्तर पर ही निबटा दिया जाता है और इसीलिए उनके मन बढ़ते ही रहते हैं। अभी दो दिन पहले ही कानपुर में नामी गिरामी मसाला कंपनियों के नमूनों को लिया गया और उनको खाने योग्य नहीं पाया गया। उनमें पेस्टीसाइड, और अन्य ऐसे कीटाणुरोधी केमिकल पाये गए, जो मानव जीवन के लिए घातक हैं , न तत्काल सही लेकिन धीरे धीरे शरीर के अंगों को क्षतिग्रस्त करते हुए किसी भयानक रोग के रूप में विस्फोट बन कर सामने आता है।  कैंसर, लिवर सिरोसिस, पक्षाघात ,हृदयाघात और किडनी के असाध्य रोग संज्ञान में आते हैं।

                 दूसरा सामने आया अलीगढ में पंचवटी के बैनर तले चलने वाली आते की बड़ी कंपनी। वहां पर आते के नाम पर उसमें सिलखड़ी मानक पदार्थ मिलाया जाता है। यहाँ पर नाम के आधार पर भी विश्वास स्थापित किया जाता है। एक दो नहीं सैकड़ों बोर सिलखड़ी वहां से बरामद की गयी। कब तक रहेगी या फिर ले दे कर अपना धंधा फिर शुरू कर देंगे। 

              ये मौत के सौदागर पेट के रास्ते ही सेंध नहीं लगाते हैं बल्कि और भी रास्ते हैं लेकिन ये यह क्यों भूल जाते है कि उनके अलावा भी और सौदागर हैं, जो आपके लिए माहौल तैयार करके बैठे हैं। कब तक बचते रहेंगे और किस किस से। आप पूर्व में बांटिए मौत और उत्तर में आपके के लिए भी मौत के कुएं तैयार हैं। अमर कोई भी नहीं है। 
             कुछ साल पहले  CSIR के एक अधिकारी की मृत्यु  लौकी का रस पीने से हो गयी । ये आयुर्वेद चिकित्सा की औषधि है और इसमें गलत कुछ भी नहीं है,  हाँ कुछ ऐसी मानसिकता वाले लोगों ने इसे दूषित करने की कसम खाई है। जो प्राकृतिक चिकित्सा की औषधियों को भी जहर बना रहे हैं। सब्जियों को समय से पहले पका कर बाजार में लेकर बेचना और मुनाफे की छह में किसान भी अब ऑक्सोटोसिन के इंजेक्शन लगा कर रातों रात फसल तैयार करते हैं और उसके दुष्प्रभाव से उनको कोई मतलब नहीं होता है।  तब सवाल उठा था आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धति पर।

                      कानपुर में गाँव से दूध वालों के डिब्बों  को पकड़ा गया तो सब डिब्बे  छोड़ कर भाग गए क्योंकि उस दूध में यूरिया, सर्फ और फार्मोलीन   मिला हुआ होता है, जो किसी विष से कम घातक नहीं है । ये भी मौत परोस रहे है। दूध वाले जानवरों को ऑक्सोटोसिन इंजेक्शन लगा कर दूध की एक एक बूँद निचोड़ लेते है तो क्या उस दूध को प्रयोग करने वाले  उस रसायन का दुष्प्रभाव से बचे रहेंगे ।

       हम सभी इस बात से वाकिफ हैं कि हरी सब्जियों में विशेष रूप से लौकी, तरोई , खीरा, तरबूज, और खरबूजे में किसान ऑक्सीटोसिन  के इंजेक्शन लगाकर रातोंरात बड़ा करके  बाजार में लाकर बेच लेते हैं। ये ऑक्सोटोसिन भी जहर ही है। हरी  और मुलायम सब्जियां सबको आकर्षित करती हैं और हम  सभी उस जहर को जज्ब करते रहते हैं और फिर एक दिन  -

*बहुत दिनों से पेट में दर्द की शिकायत थी , पता चला की कैंसर है।

*भूख नहीं लगती थी, पेट भारी रहता था लीवर सिरोसिस निकला।

*इसी से पीलिया, आँतों में सूजन और पता नहीं कितनी घातक बीमारियाँ एकदम प्रकट होती है. फिर
उनका अंजाम कुछ भी होता है ।
 
           फलों की बात करें त़ो केले , आम कार्बाइड से पका कर बेचने की जल्दी किसी के लिए मौत जल्दी बुला देते हैं । सेब को अधिक ताजा दिखाने के लिए मोम की परत चढ़ा कर चमकीला और ताजा दिखाया जाता है । उसको आम इंसान ही खाता है और फिर धीरे धीरे अपनी रोगों से लड़ने की क्षमता खोने लगता है । मैं स्वयं इसको देख चुकी हूँ - एक तरबूज लेकर आयी और घर में उसको काटा तो उसमें से लाल की बजाय सफेद पानी निकल रहा था और तरबूज से बदबू आ रही थी , इंसान तो क्या जानवर को भी देने लायक नहीं था?
                       वे जो ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन लगा कर जानवरों से दूध निकाल  रहे हैं या सब्जियां उगा रहे हैं , फलों को जल्दी बड़ा करके बाजार में ला रहे हैं। वे इस ख्याल में हैं कि  अपनी चीजों को प्रयोग नहीं करेंगे लेकिन यह भूल जाते हैं कि सारी वस्तुएं वे ही नहीं बना सकते हैं और उनके भाई बन्धु उनके लिए भी जहर परोस रहे हैं ,  जिसको  वे निगल रहे हैं। इस बात से अनजान  तो नहीं हो सकते हैं, फिर क्यों मानव जाति के दुश्मन अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए ये जहर  खा और खिला रहा है। वह क्या सोचते हैं कि  इस जहर से बच जायेंगे? क्या धनवान बनने से  वे दूसरों के खिलाये जा रहे जहर से ग्रसित होकर खून की उल्टियाँ नहीं करेंगे? क्या वे  कैंसर से ग्रसित नहीं होंगे? पक्षाघात या हृदयाघात का शिकार नहीं होंगे? हमारे बच्चे क्या इसकी पीड़ा नहीं झेलेंगे?
                      अगर वे इस बात से इनकार कर रहे हैं या अनजान हैं तो कोई बात नहीं. लेकिन ऐसा कोई भी चोर नहीं होता कि अपने किये अपराध की सजा न जानता हो. जब तक नजर से बचा हैं तो सफेदपोश और जिस दिन ये भ्रम टूट गया तो इससे बच वे भी नहीं सकते .हाँ ये हो सकता है कि पैसे के बल पर वे इन रोगों से लड़ सकते हैं लेकिन उस पीड़ा को उनकी तिजोरियों में रखा हुआ धन नहीं झेलेगा और क्या पता वह भी मौत से हार जाये और आप खुद अपने ही हाथों मौत परोस कर खुद ही उसके शिकार हो जाएँ.
                    इस जहर से कोई नहीं बच सकता है. अगर हम नहीं बचेंगे तो ये मौत के सौदागर भी नहीं बचेंगे.

बुधवार, 17 जुलाई 2024

महत्वपूर्ण क्या ? : करियर या जीवन !

                                      यहाँ हम यह बात एक महिला या लड़की के लिए कर रहे हैं क्योंकि अपनी सुरक्षा , आत्मनिर्भरता और एक  अच्छे जीवन को जीने का अधिकार इस समाज के अनुसार सिर्फ पुरुष को ही नहीं होता बल्कि ये उतना ही आवश्यक एक लड़की और महिला के लिए  होता है।

                                     आत्मनिर्भर होने का अर्थ - ये बिलकुल भी नहीं होता है कि उसे लड़की के अंदर संवेदनाएं , कोमल भावनाएं या फिर एक सुन्दर जीवन जीने की इच्छा नहीं होती हैं।  वह सब कुछ चाहती है - आत्मनिर्भर होने के लिए एक नौकरी , एक सुन्दर घर और उस घर में पति और उसके अपने बच्चे। ऐसा सोचना स्वाभाविक भी है क्योंकि वह सब कुछ करती ही इस लिए है कि वह एक सुखमय और शांतिपूर्ण जीवन जी सके। इसके बाद भी आज कुछ परेशानियों का सामना कर रही है  - कभी रोग से लड़ने की क्षमता की कमी , कभी सामंजस्य की समस्या तो कभी घर और नौकरी के बीच पिसती हुई । इससे पारिवारिक जीवन भी प्रभावित होता है ।

शादी  की बढ़ती उम्र !

                         करियर की तैयारी के लिए वह कई बार कई साल लगा लेती हैं और फिर अपने करियर बनाने के लिए इतना समय लगाने के कारण वह अपनी मंजिल पर पहुँचने के बाद उसको मजबूत भी करना चाहती है।  ऐसा नहीं है इस समय तक वह खुद भी शादी ले लिए तैयार नहीं  होती है , लेकिन घर वाले भी उसके लिए उचित वर खोजते रहते हैं।  इसी  जद्दोजहद में उसकी उम्र बढ़ती जाती है।  आज के समय के अनुसार जॉब के तनाव , अपने को ठीक से सेटल होने का तनाव, उसको ठीक से स्थिर नहीं होने देता है।  जब तक वो शादी करती हैं और फिर परिवार बढ़ाने के लिए प्रयास करती हैं।  तब तक शारीरिक स्थिति कई तरीके से हार्मोन असंतुलन का शिकार होने लगती  है। इससे शरीर में बहुत से परिवर्तन आने लगते हैं।  कई बार वह शरीर की समुचित देखभाल न होने  कारण भी कई समस्याओं में फँस जाती है।

माँ बनने में विलम्ब :-
                       देर से शादी करना और आज के चलन के अनुसार अभी तो जिंदगी शुरू हुई है , इस मानसिकता के अनुसार लड़कियां माँ बनने को दूसरे क्रम में रखती हैं और कभी कभी तो वे माँ बन कर अपनी जिंदगी को बाँटना या कहें उसकी मुसीबतें बढ़ाना नहीं चाहती है।   कई बार माँ  बनने में देर होने के कारण शुरू होता है डॉक्टर के यहाँ चक्कर लगाने का सिलसिला।  कई बार उन्हें आईबीएफ के जरिये माँ बनने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। ये आधुनिक चिकित्सा  प्रणाली हमें बहुत कुछ ऐसा दे रही है , जो अतीत में संभव नहीं था लेकिन नए नए शोध से जो हमें उपलब्धि हो रही है , वह भविष्य पर अधिक घातक प्रभाव भी डाल रही  है।  इसमें आज कल सबसे घातक रोग जो महिलाओं के लिए सामने आता जा रहा है वह है कैंसर।  

 कैंसर के संभावित कारण :- कामकाजी महिलाएँ यद्यपि प्रसव अवकाश में अपने बच्चे को पूर्ण संरक्षण देती हैं और कभी कभी तो वह और अधिक छुट्टी लेकर भी उनको स्तनपान करवाती हैं लेकिन जैसे  ही वह ऑफिस जाना शुरू कर देती हैं , उनका यह क्रम बिगड़ जाता है।  उनके सामने फिर एक विकल्प रह जाता  है कि वह बच्चे को स्तनपान कराना बंद कर दे।  इसके पीछे आज की आधुनिकता की माँग भी है कि वे अपने फिगर के प्रति इतनी अधिक सजग होती हैं कि  वह स्तनपान कराना बंद कर देती हैं।  लेकिन इससे उसमें दूध बनने की प्रक्रिया धीरे धीरे बंद जरूर हो जाती है और कभी कभी तो ऑपरेशन के बाद दी जाने वाली दवाओं के द्वारा माँ का दूध सुखा दिया जाता है।  यह कभी कभी एक घातक प्रभाव डालता है , इससे स्तन में गाँठ पड़ जाती है और उसके प्रति ऑफिस और घर की व्यस्तताओं के चलते ध्यान भी नहीं दिया जाता है।  यह लापरवाही या कहें कि  समयाभाव , जागरूकता का अभाव उनको एक मुसीबत में फँसा देता है।

माँ न बनने का निर्णय :-  
                                      
                        कई बार लड़कियां शादी भी विलम्ब से करेंगी और फिर माँ न बनने का निर्णय भी उनको बहुत सारी जिम्मेदारियों से मुक्त तो कर देता है लेकिन वह यह भूल जाती हैं कि प्रकृति ने जो शारीरिक संरचना बनाई है वो समय से अपने उपयोग के प्रति सक्रिय होती है और शरीर के हार्मोन्स अपने समय से संतुलन भी बनायें रखते हैं लेकिन यदि उनका समय से शरीर में उपयोग नहीं हो पाता है तो वह कभी कभी विपरीत प्रभाव भी डालते हैं और वह किस रूप में और किस अंग को प्रभावित करेंगे नहीं जानते है । इसलिए दुष्प्रभावोंं से बचने के लिए के लिए एक बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लेना बेहद जरूरी होती है। 

 सही समय पर सही निर्णय :-                   
 
                            जीवन सबसे महत्वपूर्ण है और इसके लिए परिवार, पति और स्वयं उसे अपने लिए एक समुचित और समयानुसार निर्णय ले लेना चाहिए ताकि जो जीवन मिला है उसको सुखपूर्वक जिया जा सके। सब महत्वपूर्ण है - अगर कोई लड़की अपने परिवार और बच्चों के लिए नौकरी से ब्रेक लेती है तो ये उसका निर्णय है और बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय है या वह नौकरी बिल्कुल ही छोड़ने का निर्णय लेती है तो ये भी वह अपनी क्षमता के अनुसार कार्य सम्पादित करने में वह अपने को तौल कर लेती है।  समाज या उसके परिवार वाले ये कहें कि इतनी पढाई बेकार कर दी या फिर दुनियां की महिलायें नौकरी कर रही हैं तो वह क्यों नहीं कर सकती है? उसके लिए एक विपरीत भाव पैदा करने वाली बात होगी।
 
                             हर इंसान की एक दूसरे से तुलना  नहीं की जा सकती है, हाँ ये अवश्य है कि आपकी या फिर घर वालों की टिप्पणियाँ उसको अवसाद या तनाव का शिकार भी बना सकती है। बेहतर है कि आप स्वयं ही बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लें और उससे खुश रहें।  एक सुखपूर्ण जीवन ही सबसे बड़ी उपलब्धि है।

मंगलवार, 11 जून 2024

विश्व बाल श्रमिक निषेध दिवस !

  विश्व बाल श्रमिक निषेध दिवस ! 


                        बच्चों को वैश्विक मुद्दा बनाये जाने का भी जन मानस के मन में जागती मानवीय भावनाओं और उनके प्रति संवेदनशीलता है और कितने एनजीओ इस दिशा में काम कर रहे हैं। हर बच्चे को स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा का अधिकार है और हर समाज का जीवन में बच्चों के लिए अवसरों का विस्तार करने का दायित्व भी है।  फिर भी दुनियां भर में लाखों बच्चों को किन्हीं कारणों से उचित अवसर नहीं मिल पाते हैं और वह बाल श्रम की जद में आते हैं।  पूरे विश्व में 160 मिलियन बच्चे बाल श्रम में लिप्त हैं।

 

          
                ये बचपन जो भूखा है और ये बचपन जिसकी भूख  किसी और को मिटानी चाहिए अपने नन्हें नन्हें हाथों से काम कर असहाय माता - पिता की  भूख मिटाने के लिए काम  कर रहे हैं और कहीं कहीं तो नाकारा बाप के अत्याचारों से तंग आकर उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी मजदूरी करने लगते हैं और कहीं कहीं माँ बाप के द्वारा ही बेच दिए जाते हैं।
                मैं अपनी बहन के यहाँ गयी तो उसकी सास ने कहा - कोई लड़की काम करने के लिए आपके जानकारी में हो तो बताना . घर में रखना है कोई तकलीफ नहीं होगी , घर वालों को हर महीने पैसे भेजती रहूंगी . क्या कहती उनसे ? उनकी बहू और बेटियां बहुत नाजुक है कि  वह अपने बच्चों को तक नहीं संभाल  सकती हैं और घर के काम के लिए उन्हें कोई बच्ची चाहिए क्योंकि उसको डरा धमका कर काम करवाया जा सकता है और अगर बाहर की होगी तो उसके कहीं जाने का सवाल भी नहीं रहेगा, स्थानीय होगी तो राज घर जायेगी तो सीमित समय तक ही काम करेगी। 
 
 
                ये घरेलू  काम करने वालों का हाल है . होटलों , ठेकों , भट्ठों और भवन निर्माण में ऐसे बच्चे काम करे हुए देखे जा सकते हैं और उनके नन्हे हाथ कितनी तेजी से काम करते हैं ? यहाँ मुफ्त शिक्षा भी क्यों नहीं ले पा  रहे हैं ये बच्चे ? क्योंकि माँ बाप को दो पैसे कमा कर लाने वाले बच्चे चाहिए जिससे खर्च में हाथ बँटा सके। माँ बीमार हो तो बेटी काम करके आएगी। स्कूल जाने पर क्या मिलेगा? 
 

                  इनके लिए सरकारी नीतियाँ तो हैं लेकिन उन नीतियों को लागू करवाने के लिए जिम्मेदार लोग शोषण करने वालों से ही पैसे खाकर सब कुछ नजर अन्दाज करके कागजों में खाना पूरी करते रहते हैं।  घर में काम करने वाली कम उम्र लड़कियाँ अक्सर यौन शोषण का शिकार होती हैं और वे अपनी मजबूरी के कारण  कुछ कह नहीं पाती हैं।  घर की मालकिन भी पति के डर से अपना मुँह बंद रखती हैं। 
 
           होटलों में मुँह अँधेरे से उठ कर काम करते हुए बच्चे और आधी रात  तक होटल बंद होने तक काम करते रहते हैं और खाने को क्या मिलता है ? बचा हुए खाना या नाश्ता। वहीं से वह कभी कभी अपराधों में भी लिप्त हो जाते हैं। ढाबे और सड़क किनारे बने हुए चाय के होटल तो ऐसे बच्चों को ही रखते हैं ताकि उन्हें कम पैसों में अधिक काम करने वाले हाथ मिल सकें। जहाँ पर दौड़ दौड़ कर काम करने वाले नौनिहाल होंगे वहाँ पर अत्याचार का शिकार भी होंगे। 
 

             
आज के दिन इन बच्चों को कोई छुट्टी देने वाला भी नहीं होगा। वे बिचारे क्या जाने इस लोकतान्त्रिक देश में उनको पढ़ने लिखने और और बच्चों की तरह से खेलने का पूरा अधिकार ही नहीं है बल्कि सरकारी तौर पर उनके लिए मुफ़्त शिक्षा और खाने पीने की व्यवस्था भी है। हम इस दिन को मना कर और कुछ लिख कर अपने दिल में तसल्ली कर लेते हैं कि  हमारा फर्ज पूरा हो गया लेकिन हम भी उतने ही दोषी है क्योंकि कहीं भी काम करते हुए बच्चों से काम लेने वालों को समझाने का काम करने का प्रयास तो कर ही सकते हैं। ये भी निश्चित है की जिन्हें ये मुफ्त में काम करने वाले मिले हैं, वह हमें 'भाषण और कहीं जाकर दीजिये।' कह कर वहाँ से चले जाने के लिए मजबूर कर देंगे। 
 
         अभी पिछले दिनों ही एनसीआर के एक स्लॉटर हाउस में कितने नाबालिग बच्चे काम करते हुए पकड़े गए। फिर आगे क्या होगा? इसके बारे में कोई भी जानकारी नहीं है। लेकिन अगर उनको कार्यस्थल से बाहर लाया गया है तो जरूर उनको वहाँ से मुक्ति मिलेगी। लेकिन ऐसे बच्चों की पारिवारिक और सामाजिक परिस्थियों का भी अध्ययन होना चाहिए।  सरकार द्वारा गरीबी रेखा से नीचे पाए जाने वाले परिवारों को वो सुविधाएँ दिलवाने का प्रयास हो ताकि इन बच्चों के भविष्य के बारे में कुछ सार्थक सोचा जा सके।
 
        सरकारी प्रयास कभी तो अच्छे अफसर पाकर सफल हो जाते हैं और कभी वे भी बिक़े होते हैं,  लेकिन हम प्रयास तो कर ही सकते हैं, और हो भी रहे हैं।  कहीं कोई एक बच्चा भी माँ बाप को  समझाने से, मालिक को  समझाने से, उसके बचपन को बचाने   में सफल हो सके तो आज का दिन सार्थक समझेंगे 
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*सभी चित्र गूगल के साभार 
 
 

बुधवार, 1 मई 2024

श्रमिक दिवस !

              

                                                          श्रमिक दिवस !

 

                    विश्व में सभी को एक दिन का सम्मान दिया जाता है , वह सम्मान चाहते हों या न हों ।​​ इसी क्रम में श्रमिक हमसे कभी भी अपनी आशाओं के लिए अपेक्षा नहीं करते , कभी हमारा बोझ अपने कन्धों पर उठाते हैं , कभी हमें रिक्शे में बैठा खुद सारथी बन कर मंजिल तक पहुँचाते हैं ।​​ आज उन्हें सम्मान देने वाला दिन है ।         

          आज विश्व श्रमिक दिवस है । मैं चिलचिलाती धूप में पसीने से लथपथ  खुद को काम में झोंके हुए उन सभी श्रमिकों को सलाम करती हूँ, जिन्हें हमने ये दिन दिया ।​ पर सिर्फ इस सम्मान के  समर्पण से ही हम उनके परिश्रम की कीमत का आकलन कर पाते हैं।​  हाथ ठेला गाड़ी में टनों लोहे को लादकर खींचते हुए - वे पूरे कार्य के लिए अपने क्षीण शरीर का उपयोग करते हैं , लेकिन हाथ की लकीरों में जरूर कुछ अंतर तो लेकर आते हैं। हम उन्हें हेय समझते हैं , फिर भी उनके फैले हुए हाथों पर कुछ न कुछ कभी तो रख ही देते हैं और उस पर भी मोल तोल लेते हैं कि यह इतना नहीं होता है, वे ज्यादा माँग रहे हैं । 
 
           ये उनके हक के पैसों खुद रख लेने या फिर जिस पैसे को बचाने की हमारी नीयत रहती है। हम उससे कुछ पीना चाहते हैं या फिर धुएँ में उड़ाते हैं, सब पर लागू नहीं होता है लेकिन अगर हम किसी को भाड़े पर लेकर सेवा करवा रहे हैं तो हम इतने सम्पन्न होने हैं कि उनके परिश्रम की पूरी कीमत अदा कर सकें। अगर आप चाहें तो शायद वे नमक के साथ रोटी खाने की जगह पर किसी भी सब्जी से खाने की सोच सकते हैं । 
   
              पूरी दुनिया की बात तो नहीं होती लेकिन अगर हम सिर्फ अपने नगर कानपुर की ही बात करें तो कभी भारत का मैनचेस्टर कहा जाता था ।​ आज से चालीस साल पहले यहाँ पर कपड़ों की कई मिलों का धुआँ आकाश में उड़ता था और लाखों की संख्या में मजदूर अपने परिवार पालते थे। वे दो दो पाली में काम करके अपने परिवार को आराम से पाल रहे थे।  
              धीरे -धीरे सब बंद हो गईं,  मिलों की बड़ी- बड़ी बिल्डिंगें आज भी खंडहर बन कर खड़ी हैं, लेकिन वे मजदूर आज भी आशा रखते हैं कि वे शायद चल पड़े और जो उस समय के युवा थे वे आज खत्म हो गए हैं और उनके नन्हे - मुन्ने बच्चे युवा हो गए हैं । उनके बच्चे भी श्रमिकों का ठप्पा लिए जगह - जगह घूम रहे हैं क्योंकि न तो उनके पास पढ़ने के लिए पैसे थे और न ही सरकार के पास उनके लिए कुछ सार्थक पहल थी , न है कि वे जीवनयापन के लिए कुछ कर सकें। सारी सरकारी घोषणाओं में सिर्फ कागजों में होती हैं, उनका क्रियान्वयन नहीं होता, अगर हुआ भी तो फ़ायदा कोई और उठाता है वे तो तब भी बिकते हैं। संगठित मजदूरों की कितनी संख्या है ? सभी असंठित मजदूर हैं और उनके बहते हुए पसीने की कमाई का सिर्फ कुछ प्रतिशत ही दे दें ।​​ सरकार की ओर से पंजीकृत कंपनी होने के बाद भी वे इस बात से सहमत नहीं हैं और वे जी तोड़ मेहनत करते हैं।  समय से पहले बूढ़े हो जाते हैं और कभी -कभी अशक्त हो जाते हैं और कभी-कभी किसी बीमारी का शिकार होकर एडियां रांगते हुए मर जाते हैं । वे पीढ़ी दर पीढ़ी श्रमिक बने ही रहते हैं । इनमें मिलने वाली सुविधाएँ तो कोई और खा रहा है । हम औरों तक क्यों जाएँ ?​ क्या हमने से किसी ने अगर आपके यहाँ कुछ काम करने वाले लोग हैं तो आज की  छुट्टी दे दी है , क्या हमने कुछ अच्छा खाने के लिए दिया है या आज के दिन के लिए कुछ अतिरिक्त पैसे दिए हैं ?

               शायद नहीं - हम इतना कर ही नहीं सकते ।​ हमारी सोच तो अपने से ऊपर किसी को देखती ही नहीं है  है ? फिर क्या फायदा इस दिन को सलाम का ? अरे कुछ सरकार ही ऐसे काम कर सकती हैं, जिससे आज का दिन विशेष बन जाएगा।​ हम भी तो कर सकते हैं अगर हम अपनी तरह से इंसान समझ कर कुछ कर सकें तो दिन सार्थक भी हो।​​​ आज तो चले गए आगे के लिए कुछ संकल्प कर लें कि हम उन्हें कुछ ऐसा देंगे कि वे भी अनुभव करें कि उनके लिए विश्व में कोई भी दिन है जिस दिन वे काम के बिना भी कुछ अलग व्यवहार प्राप्त कर सकते  तभी ये दिन उनके लिए सार्थक होगा ।

शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

मकर संक्रान्ति !

               मकर संक्रान्ति हिंदू धर्म में एक प्रमुख पर्व है।  पौष मास में जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है तभी यह पर्व मनाया जाता है। हिदू धर्म में एकमात्र मकर संक्रांति का पर्व ऐसा है, जो अंग्रेजी तारीख के अनुसार मनाया जाता है यह वह पर्व है जो अंग्रेजी माह जनवरी की दिनाँक  13 - 14 को ही पड़ता है लेकिन कभी कभी ग्रहों की गति या सूर्य के प्रवेश के समय में कुछ अंतर होने पर यह 15 जनवरी को भी पड़ती है  क्योंकि मकर संक्रान्ति के दिन से ही सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। इसलिये इस पर्व को उत्तरायणी भी कहा जाता है।  इसको उत्तरायणी गुजरात राज्य में ही कहा जाता है। मकर संक्रांति एकमात्र ऐसा पर्व है जिसका निश्चय सूर्य की गति की अनुसार होता है क्योंकि शेष सभी पर्व चन्द्रमा की गति के अनुसार निश्चित होते हैं।  इसका अपना पौराणिक महत्व माना  जाता है।

मकर संक्रांति से काल चक्र में परिवर्तन 
 वैज्ञानिकों का मानना है कि उत्तारायण में सूर्य के ताप शीत को कम करता है।14 जनवरी मकर संक्रांति के साथ ही ठंड के कम होने की शुरुआत मानी जाती है। हालांकि जलवायु परिवर्तन का असर मौसम पर भी पड़ा है। बता दें कि एक संक्रांति से दूसरे संक्रांति के बीच के समय को सौर मास कहते हैं। मकर संक्रांति के बाद जो सबसे पहले बदलाव आता है वह है दिन अवधि का बढ़ना और रात की अवधि का छोटा होना। मकर संक्रांति का  धार्मिक महत्व है उसके साथ साथ वैज्ञानिक महत्व भी  है। जैसी कि पौराणिक महत्व की बात करते हैं तो इसके साथ ही प्राकृतिक परिवर्तन के लिए भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।  

          
स्वास्थ्य के लिए मकर संक्रांति का महत्व
आयुर्वेद के अनुसार इस मौसम में चलने वाली सर्द हवाएँ  कई बीमारियों की कारण बन सकती हैं, इसलिए प्रसाद के तौर पर खिचड़ी, तिल और गुड़ से बनी हुई मिठाई खाने का प्रचलन है। तिल और गुड़ से बनी हुई मिठाई खाने से शरीर के अंदर रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। इन सभी चीजों के सेवन से शरीर के अंदर गर्मी भी बढ़ती है। मौसम के संक्रमण काल के चलते ये आहार शरीर के अनुकूल होते हैं।    खिचड़ी से पाचन क्रिया सुचारु रूप से चलने लगती है। इसके अलावा आगर खिचड़ी मटर और अदरक मिलाकर बनाएं तो शरीर के लिए काफी फायदेमंद होता है। यह शरीर के अंदर रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती है साथ ही बैक्टिरिया से भी लड़ने में मदद करती है। 
                   
मकर संक्रांति से जुडी पौराणिक आधार        
                       मकर संक्रांति एकमात्र ऐसा पर्व है जिसका निश्चय सूर्य की गति की अनुसार होता है क्योंकि शेष सभी पर्व चन्द्रमा की गति के अनुसार निश्चित होते हैं।  इसका अपना पौराणिक महत्व माना  जाता है।
पौराणिक सन्दर्भ में प्रमुख तीन घटनाओं को उल्लिखित किया गया है --

1 . ऐसी मान्यता है कि इस दिन सूर्यदेव अपने पुत्र शनिदेव से मिलने स्वयं उसके घर जाते हैं। चूँकि  शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं , इसी लिए सूर्य धनु राशि से मकर में प्रवेश करते है ,तभी इसको मकर संक्रान्ति कहा जाता है।

2 .  महाभारत काल में भीष्म पितामह सूर्य के दक्षिणायन होने के कारण शरशय्या पर रहे , जब तक कि  सूर्य उत्तरायण नहीं हुए और इसी दिन उन्होंने अपने प्राण त्यागे थे।

3 . मकर संक्रान्ति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर  कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर  में जाकर मिली थीं। 
               
 देश के विभिन्न भागों में संक्रांति का स्वरूप --

            संक्रांति हे एक ऐसा पर्व है जो सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है और अपने अपने रिवाजों के अनुरूप उसके स्वरूप को निश्चित कर लिया है।  एक दृष्टि देश के सभी राज्यों में मनाये जाने वाले ढंग पर डाले

पश्चिम  बंगाल -- बंगाल में इसको पौष माह के अन्तिम दिन पड़ने के कारण ही 'पौष पर्व ' नाम दिया गया है।  इसमें खजूर , खजूर के गुड़ को मिठाई बनाने में  प्रयोग  किया जाता है और माँ लक्ष्मी की पूजा की जाती है।  दार्जिलिंग में भगवान् शिव की पूजा होती है। इस पर्व पर स्नान के पश्चात तिल  दान करने की प्रथा है।

तमिलनाडु एवं आंध्र प्रदेश --   पोंगल - ये चार दिनों का त्यौहार होता है -- प्रथम  भोगी-पोंगल जिसमें दिवाली की तरह ही घर की सफाई करते हैं , दूसरा  सूर्य-पोंगल  मनाने के लिये स्नान करके खुले आँगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनायी जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है।इस दिन लक्ष्मी जी की पूजा भी की जाती है। तीसरा  मट्टू अथवा केनू-पोंगल  जिसमें पशुओं की पूजा की जाती है ,उसके बाद खीर को प्रसाद  के रूप में सभी ग्रहण करते हैं।,  और चौथे  दिन कन्या-पोंगल- इस दिन बेटी और जमाई  का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है।

 पंजाब --   लोहड़ी  १३ जनवरी को ही मनाया जाता है। इस दिन सुबह स्नान करके तिल के तेल का दीपक जलाते हैं ताकि  घर में खुशियां और समृद्धि आये।  इस दिन अँधेरा होते ही आग जलाकर अग्निदेव की पूजा करते हुए तिल , गुड़ और मूंगफली और भुने हुए मक्के (तिलचौली ) की आहुति दी जाती है। इसमें भाँगड़ा और गिद्धा  नृत्य की  विशेष रूप से धूम होती है।   लोग  तिल की बनी हुई गजक और रेवड़ियाँ आपस में बाँटकर खुशियाँ मनाते हैं। नई बहू और नवजात बच्चे के लिये लोहड़ी का विशेष महत्व होता है।

महाराष्ट्र --इस दिन सभी विवाहित महिलाएँ अपनी पहली संक्रान्ति पर कपास, तेल व नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं। तिल-गूल नामक हलवे के बाँटने की प्रथा भी है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं -'तिल गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो।' इस दिन महिलाएँ आपस में तिल, गुड़, और हल्दी कुमकुम बाँटती हैं।

उत्तराखण्ड -- यहाँ पर यह घुघूती या काले कौवा के नाम से जाना जाता है और इसको चिड़ियों के अन्यत्र प्रवास को ख़त्म होने का पर्व मनाया जाता है।  इसमें खिचड़ी और अन्य चीजें दान की जाती हैं।  जगह जगह मेले लगते हैं और मीठे व्यंजन बना कर चिड़ियों को खिलाये जाते हैं।  

कर्नाटक -- यहाँ पर इसे  कृषि से सम्बद्ध मानकर मनाया जाता है।  वे अपने घरों को रंगोली से सजाते हैं और अपने पशुओं को भी  सजाते हैं।  उनके सीगों को रंगों से सजाते हैं।  महिलायें एक दूसरे के यहाँ एक थाली में तिल , गुड़ , गन्ने और अन्य मिष्ठान भर कर आदान प्रदान करती  हैं।

गुजरात -- मकर संक्रांति या उत्तरायण गुजरात का प्रमुख त्योहार है। पहले दिन 14 जनवरी को  उत्तरायण  मुख्य रूप से पतंगबाजी के रूप में मनाया जाता है। पतंग उड़ाने प्रतियोगिताएं राज्य भर में आयोजित की जाती है. अगले दिन बासी  उत्तरायण कहा जाता है , इसमें सर्दियों में उपलब्ध सब्जियों और चिक्की, तिल के बीज, मूंगफली और गुड़ से बने का एक  विशेष व्यंजन तैयार करते है, जिसका प्रयोग इस अवसर का जश्न मनाने के लिए किया जाता है।

 बिहार व झारखण्ड -- बिहार / झारखंड में इसे सकरात  या खिचड़ी  कहते हैं। पहले दिन मकर संक्रांति के दिन, लोग तालाबों और नदियों में स्नान करते हैं और मीठे व्यंजनों में तिल गुड़ के लड्डू और चावल की लाई 
 के लड्डू भी बनाये जाते हैं। खाने में चिवड़ा और दही  को प्रमुख रूप प्रयोग करते हैं।  खिचड़ी और काले तिल का दान विशेष रूप से किया जाता है।  

हिमांचल प्रदेश -- इसको माघ साजी  कहा जाता है , साजी  संक्रांति का प्रतीक शब्द है।  शरद के समापन बसंत के आगमन पर मनाया जाता है।  इसमें पवित्र जल में स्नान करके मंदिरो  में जाते हैं।  गरीबों में खिचड़ी , मिठाई दान करते हैं।  आपस में भी खिचड़ी और गुड़ तिल की चिक्की का आदान प्रदान करते हैं और शाम को लोक नृत्य आदि का आयोजन होता है।  

आसाम --  आसाम में इसको बिहू कहा जाता है।  इसमें रात में ही बांस और सूखे पत्तों से झोपड़ी नुमा तैयार करते हैं और सुबह स्नान करके उस झोपड़ी को जलाते हैं फिर चावल की रोटी बनाते हैं पीठा बनाकर देवता को अर्पित करते हैं और फिर आपस में बाँटते हैं।  इसी के साथ अच्छी फसल की कामना करते हैं।  

राजस्थान -- इस पर्व पर सुहागन महिलाएँ अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। साथ ही महिलाएँ किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन एवं संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं।

 उत्तर प्रदेश -- यहाँ पर भी इसको संक्रांति या खिचड़ी के नाम से जाना जाता है , यह दो दिन मनाया जाता है - पहले दिन शाम दाल की नयी फसल आने के उपलक्ष में मूंग दाल के मगौड़े और उडद दाल के बड़े बनाये जाते हैं और दूसरे दिन सुबह लोग पवित्र नदी अगर उपलब्ध है तो उसमें स्नान करते हैं और फिर काले तिल और खिचड़ी का दान करते हैं।   उस दिन खाने में खिचड़ी ही खायी जाती है।  इसके साथ ही तिल के लड्डू के साथ साथ अन्य धान्य के लड्डू जैसे भुने चने के , लाइ के , रामदाना के का भी सेवन करते हैं और दान करते हैं।  इस पर्व पर संगम के साथ साथ गंगा , यमुना आदि नदियों में स्नान करने लाखों की संख्या में लोग आते है।

 कश्मीर घाटी -- में इसको नवजात शिशु या नववधू के आगमन पर उत्सव के रूप में मनाया जाता है और इसको शिशुर संक्रात  कहते हैं। 

                                भारत के अतिरिक्त यह पर्व अलग अलग नामों से बाहर भी मनाया जाता है।  इसमें पडोसी देशों में  --
नेपाल  --  मकर संक्रान्ति को माघे-संक्रान्ति, सूर्योत्तरायण  कहा जाता है। थारू समुदाय का यह सबसे प्रमुख त्यैाहार है। नेपाल के बाकी समुदाय भी तीर्थस्थल में स्नान करके दान-धर्मादि करते हैं और तिल, घी, शर्करा और कन्दमूल खाकर धूमधाम से मनाते हैं। वे नदियों के संगम पर लाखों की संख्या में नहाते हैं।
 बांग्ला देश -- शंकरेण / पौष सांगक्रान्ति
थाईलैंड  -- सोंगक्रान
लाओस  -- गड़बड़ी मा लाओ
म्यांमार -- थिंज्ञान
कंबोडिया  -- मोहां / सांगक्रान
 श्रीलंका  -- पोंगल / तिरुनल