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मेरा सरोकार

ये मेरा सरोकार है, इस समाज , देश और विश्व के साथ . जब भी और जहाँ भी ये अनुभव होता है कि इसको तो सबसे बांटने और पूछने का विषय है, सब में बाँट लेने से कुछ और ही परिणाम और हल मिल जाते हैं. एकस्वस्थ्य समाज कि परंपरा को निरंतर चलाते रहने में एक कण का क्या उपयोग हो सकता है ? ये तो मैं नहीं जानती लेकिन चुप नहीं रहा जा सकता है.

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शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

अक्षय तृतीया !

 अक्षय तृतीया का महत्व

                                                  

'न माधव समो मासो न कृतेन युगं समम्। न च वेद समं शास्त्रं न तीर्थ गंगयां समम्।।'
 
वैशाख के समान कोई मास नहीं है, सत्ययुग के समान कोई युग नहीं हैं, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं है और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। उसी तरह अक्षय तृतीया के समान कोई तिथि नहीं है।
 
  वैशाख मास की विशिष्टता इसमें आने वाली अक्षय तृतीया के कारण अक्षुण्ण हो जाती है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाए जाने वाले इस पर्व का उल्लेख विष्णु धर्म सूत्र, मत्स्य पुराण, नारदीय पुराण तथा भविष्य पुराण आदि में मिलता है।  इस दिन भगवान नर-नारायण सहित परशुराम और हयग्रीव का अवतार हुआ था।
* इसी दिन ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का जन्म भी हुआ था। कुबेर को
खजाना मिला था।
*
इसी दिन बद्रीनारायण के कपाट भी खुलते हैं। जगन्नाथ भगवान के सभी रथों
को बनाना प्रारम्भ किया जाता है।
 * इसी दिन भगीरथ जी के अथक प्रयासों के बाद शिव जी की जटाओं मां गंगा का पृथ्वी अवतरण भी हुआ था।
*इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया था कि आज
के दिन इसके नामानुसार संसार में किये गए आध्यात्मिक, सांसारिक और पुण्यात्मक कार्यों का अक्षय पुण्य प्राप्त होगा। 
*इसी दिन सुदामा भगवान कृष्ण से मिलने पहुंचे थे। 
*प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेवजी भगवान के 13 महीने का कठीन उपवास का पारणा इक्षु (गन्ने)
के रस से किया था।

*इसी दिन सतयुग और त्रैतायुग का प्रारंभ हुआ था और द्वापर युग का समापन
भी इसी हुआ।

 * अक्षय तृतीया के दिन से ही वेद व्यास और भगवान गणेश ने महाभारत ग्रंथ
लिखना शुरू किया था। आदि शंकराचार्य ने कनकधारा स्तोत्र की रचना की थी।

 * इसी दिन महाभारत की लड़ाई खत्म हुई थी।
 * अक्षय तृतीया के दिन ही वृंदावन के बांके बिहारी जी के मंदिर में श्री
विग्रह के चरणों के दर्शन होते हैं।

                  
           अक्षय तृतीया हम बचपन में तभी जानते थे जब माँ से सुनते आ रहे हैं कि ये बिना पूछे शादी की साइत होती है और कुछ दान पुण्य के काम भी समझ में आने लगते थे। तब हमें इन सब कामों से मतलब नहीं ही होता है और हम अपने मतलब की बात याद रखते थे और करते थे। 
              सबसे बड़ा काम हम दोस्तों के संग अपनी गुड़ियों का ब्याह रचाते थे। बाकायदा वरपक्ष में लडके और वधुपक्ष में लड़कियाँ  होती थीं. मुँह से बैंड की आवाज निकालते हुए बारात आती थी।  बारात का खाना पीना और फिर शादी के बाद विदाई तक का कार्यक्रम संपन्न होता था।
                            
                                 अब तो व्यापार और बाजारीकरण के इंटरनेट के साथ झलकती प्रभाव  से हम इसका सही अर्थ तो भूलते ही जा रहे हैं। बड़े अक्षरों में ज्वैलर्स के विज्ञापन, सोने और हीरे के जेवरातों में मिली छूट का आकर्षण लोगों को खींच लेता है। अक्षय का अर्थ शाब्दिक के साथ आर्थिक भी बन चुका है।  हो भी क्यों नही? इसी के लिए सोना खरीद तो बढ़ती ही रहेगी। दुकानदारों की चाँदी जरूर हो जाती है कि वह पूरे साल में ज्यादा से ज्यादा कमाई करते हैं, कम से कम पूरे साल की कमाई सिर्फ एक दिन में कमाई कर लेते हैं। 
               जब इसका वास्तविक अर्थ समझें तो ये है कि भौतिक वास्तु का क्षरण सुनिश्चित है फिर इस दिन दी गई वस्तु को अक्षय मान कैसे मान सकते हैं ? जीवन में हम कितना संग्रहण करके उसका सुख उठा सकते हैं। ये हमारे मन का भ्रम है कि हमने इतना संग्रह कर लिया कि हमारी चार पीढ़ियाँ बैठ कर खायेंगी। वास्तव में इस दिन यदि कोई व्यक्ति अच्छा काम करे तो वह पूरी तरह से और निश्चित रूप से अक्षय हो सकता है। इस समय भीषण गर्मी का मौसम आ चुका है और अगर करना है तो प्याऊ लगवाएं , गरीबों को सत्तू, शक्कर , छाता , पंखा , सुराही आदि दान करना चाहिए। वह देकर जो आत्मसंतोष आपको मिलेगा वह अक्षय होगा। गर्मी में चिड़ियों के लिए पानी के पात्र पेड़ पर टांगना,जानवरों के लिए पानी भरवाना वह अक्षय होगा। आत्मा सभी में होती है और उस आत्मा की संतुष्टि के लिए जो भी प्रयास किया जाय, वह अक्षय है और अक्षय तृतीया इसी का पर्याय है। इससे प्राप्त संतोष भी आपके लिए अक्षय ही होगा।
                    पुराणों में लिखा है कि इस दिन पिण्डदान करके भी अपने पितरों को संतुष्ट करना अक्षय फल प्रदान करता है। 
       इस दिन गंगा स्नान करने का भी विधान है, हमारी आस्था सदा से धर्म कर्म से जुडी है गंगा न उपलब्ध हों तो किसी भी पवित्र नदी , तालाब या पोखर में भी गंगा जी का स्मरण करते हुए स्नान करना भी अक्षय फल देने वाला होता है। इस दिन भगवन विष्णु और माँ लक्ष्मी का पूजन भी विशेष रूप से करने की बात सामने आती है।  इसलिए कहा जाता है कि भगवत पूजन से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस दिन किया गया जप, तप, हवन, स्वाध्याय और दान भी अक्षय हो जाता है।
 



 


प्रस्तुतकर्ता रेखा श्रीवास्तव पर 9:46 pm कोई टिप्पणी नहीं:

बुधवार, 22 मार्च 2023

विश्व जल दिवस!

 रहिमन पानी राखिये , बिन पानी सब सून,

पानी गए न ऊबरे मोती मानस चून।


रहीम जी ने वर्षों पहले ये लिखा था, शायद उन्हें आने वाले समय के बारे में ये अहसास था कि ये विश्व एक दिन इसी पानी के लिए विश्व युद्ध की कगार पर भी खड़ा हो सकता है।

इस एक दिन हम विश्व जल दिवस के रूप में मना लेते हें, कुछ भाषण दिए जाते हें। कुछ लेख लिखे जाते हें लेकिन आने वाले समय में जल विभीषिका के बारे में किसी ने सोचा ही नहीं है। ऐसा नहीं है कि आज इस पानी के लिए लोग तरस नहीं रहे हें ।

मैं किसी को दोष नहीं दे रही लेकिन वो हम ही हैं न कि सड़क पर लगे हुए सरकारी नलों की टोंटी तोड़ देते हें ताकि पानी पूरी रफ्तार से आ सके और फिर अपना पानी भर जाने पर उससे उसी तरह से बहता हुआ छोड़ देते हें। हमें किसी को दोष देने का अधिकार नहीं है लेकिन सबसे ये अनुरोध तो कर ही सकती हूँ कि पानी की एक एक बूँद में जीवन है - एक बूँद जीवन दे सकती है तो एक बूँद के न होने पर जीवन जा भी सकता है। ये प्राकृतिक वरदान है जिसे हम खुद नहीं बना सकते हें और हमारा विज्ञान भी इसको बना नहीं सकता है। हम अनुसन्धान करके खोज तो कर सकते हें लेकिन प्रकृतिदत्त वस्तुओं का निर्माण नहीं कर सकते हैं।

शहरों में सबमर्सिबल लगा कर हम पानी का गहराई से दोहन कर रहे हें और जल स्तर निरंतर गिरता चला जा रहा है। नदियों के किनारे बसे शहरों में भी आम आदमी बूँद - बूँद पानी के लिए जूझ रहा है। लेकिन ये नहीं है कि वह इसके लिए दोषी नहीं है बल्कि एक आम आदमी जो पानी के लिए परेशान है लेकिन पानी आने पर वह इस तरह से बर्बाद करने से नहीं चूकता है।

--घरों में नलों के ठीक न होने पर उनसे टपकता हुआ पानी सिर्फ और सिर्फ पानी की बर्बादी को दिखाता है जिसके लिए हम जिम्मेदार हैं। इस तरह से बहते हुए।

- आर ओ हम जीवन का अभिन्न अंग बना चुके हैं लेकिन उससे उत्सर्जित पानी को बहने के लिए छोड़ देते है। उसका उपयोग हो सकता है, कपड़े धोने में, गमलों में डालकर, घर की धुलाई में। 

   आज भी लोग मीलों दूर से पानी लाते हैं। बढ़ती आबादी के साथ खपत तो बढ़ती है लेकिन जल स्रोत नहीं। जो हैं उन्हें संरक्षित कीजिए और जल दिवस रोज मानकर चलिए।

प्रस्तुतकर्ता रेखा श्रीवास्तव पर 4:33 am 1 टिप्पणी:

गुरुवार, 4 अगस्त 2022

पागलपन !

 पागलपन !

              मनुष्य की एक दिमागी हालत जिसके लिए वह खुद जिम्मेदार नहीं होता है।  फिर जिम्मेदार कौन है ? उसकी मस्तिष्क संरचना. हालात या फिर उसका परिवेश (जिसमें परिवार भी शामिल है) मंदबुध्दि को लोग पागल करार दे देते हैं, बगैर जाने कि कारण क्या हो सकता है ? ऑटिज्म वाले लोगों को भी बगैर उसके मर्ज से वाकिफ हुए उसको आधा पागल बोलते रहते हैं और सीज़ोफ्रेनिया के मरीजों को तो पूरा पागल या भूत प्रेत का साया वाला कह कर उपेक्षा करते हैं, उससे दूर भागते हैं बजाय इसके। कि  उनकी समस्या के लिए मनोचिकित्सक से सलाह लें। कई लोग तो अवसाद या तनाव की स्थिति में अंतर्मुखी लोगों को अगर मनोचिकित्सक के पास ले जाने पर उसको पागल समझने लगते हैं।  यहाँ तक कि वह व्यक्ति भी उस स्थिति में कहने लगता है कि मैं कोई पागल हूँ, जो मनोचिकित्सक के पास जाऊँ ? आम लोगों की दृष्टि में मनोचिकित्सक पागलों का डॉक्टर होता है।  

               समस्या यहीं तक नहीं है बल्कि समाज की एक विकृत मानसिकता का शिकार होने वाली महिलायें, लड़कियाँ और बच्चे भी होते है। वे जिन्हें पागल समझकर घर से निकाल दिया जाता है और सड़कों पर घूमने के लिए छोड़ दिया जाता है , वे हवस का शिकार होती हैं, गर्भवती होती हैं और सड़क पर घूमती रहती हैं. बच्चों और बड़ों के पत्थरों का शिकार होती हैं।  उन्हें तो घर वाले ही पागलखाने में भर्ती कराने की जहमत तक नहीं उठाते हैं बल्कि उसकी पहचान तक अपने से नहीं जोड़ना चाहते हैं और न ही सामाजिक संस्थाएँ  क्योंकि हमारे संविधान के अनुसार पागल और दिवालिया कुछ अधिकारों से वंचित होते हैं।  उनका कोई आधार कार्ड, पेन कार्ड या फिर वोटर कार्ड नहीं होता है तो उनकी कोई पहचान नहीं होती हैं। वे किसी भी अस्पताल में भर्ती होने के अधिकारी नहीं होते हैं तभी तो सड़कों पर घूमा करते हैं। 

             वह परिवार वाले जिनमें ऐसे बच्चे जन्म लेते हैं या फिर बाद में मानसिक बीमारी का शिकार हो जाते हैं, उनके पास प्रमाण होते हैं उनके नागरिक होने के, माता-पिता के और स्थान के।  जन्म प्रमाणपत्र तो हैं ही न। अगर नहीं पालना है तो उसको पागलखाने में भर्ती कर दीजिये।  बहुत हैं तो सड़क पर मारी मारी घूमते फिरने से अच्छा है कि उन्हें आप ख़त्म कर दीजिये ? इस बात पर आपत्ति की जाएगी क्यों? दहेज़ के नाम पर मार देते हैं, भ्रूण हत्या कर दी जाती है , दुष्कर्म करके मार दी जाती है, ऑनर किलिंग के नाम पर भी मारी जाती है - वह तो पढ़ी-लिखी स्वस्थ कमाऊ भी होती है न।  तब कोई आपत्ति क्यों नहीं है?  वो कुछ दिनों का विरोध या प्रदर्शन किसी हत्या के प्रति न्याय नहीं है।   समाज से निकली हुई, परिवार से छोड़ी हुई महिलाओं या पुरुषों का बाहर सड़क पर नग्न या अर्धनग्नावस्था में घूमते हुए देख कर हमको शर्म नहीं आती क्योंकि हमारी शर्म के मायने बदल गए हैं।  जब होश वाले लोग, स्वस्थ लोग अर्ध्यनग्न या पूर्ण नग्नावस्था में अपने फोटोशूट करवाकर सार्वजनिक कर सकते हैं और पत्रिकाएं उनको प्रायोजित करके प्रकाशित कर सकती हैं तो उनका घूमना तो सिरफिरों या हवस के मारों के लिए एक सुनहरा अवसर बन जाता है।  कभी कभी तो परिवार वाले उनसे छुटकारा पाना ही चाहते हैं और अगर किसी संस्था द्वारा या पुलिस द्वारा उन्हें परिवार तक पहुँचा ही दिया गया तो वे अपनाने से साफ इंकार कर देते हैं।  

              सवाल इस बात का है कि पागलखाने में कौन रहता है ? वे कौन से पागल है, जिन्हें अस्पताल की सुविधाएँ प्राप्त होती हैं , जिन्हें घर वाले स्वयं छोड़ आते हैं या फिर छुटकारा पाना चाहते हैं, जिनके ठीक होने संभावना होती है तो फिर उनके ठीक होने की संभावनाओं पर बगैर परीक्षण के प्रश्नचिह्न क्यों लग जाता है? 

            यह मानवीय संवेदनाओं पर उभरता हुआ सवाल है और इसको मानवाधिकार के क्षेत्र में लाना चाहिए और इस पर भी उसी तरह से विचार करना चाहिए जैसे कि अन्य समस्याओं पर किया जाता है। इसका निदान कौन खोज सकता है ? सामूहिक प्रयासों से ही खोजा जा सकता है।  अगर इसका उत्तर हाँ में है तो फिर मिलकर खोजें न - व्यक्तिगत प्रयासों से तो ये संभव नहीं है, कोई एक धनाढ्य मिल सकता है कि सबको प्रायोजित करके संस्था आरम्भ करे लेकिन समग्र के लिए होना संभव नहीं है क्योंकि एक व्यक्ति की अपनी सीमाएँ होती हैं।  सरकारी प्रयासों की जरूरत है क्योंकि ढेरों योजनाओं की तरह से इनके लिए भी आवास, भोजन और देखरेख के लिए लोगों की भी जरूरत होगी। 

        जैसे आवारा जानवरों के लिए आश्रय स्थल बनाये गए हैं , गायों  गौशाला खोले गए हैं तो इन बेचारे को भी इस समाज में एक सुरक्षित शरण स्थल की दरकार है , भले जन्मदाता उन्हें छोड़ दें लेकिन मानवता के नाते इस मुद्दे पर भी विचार जरूरी है।  एक मुहिम ऐसी भी शुरू की जाय।

प्रस्तुतकर्ता रेखा श्रीवास्तव पर 5:32 am 5 टिप्‍पणियां:

मंगलवार, 28 जून 2022

शाश्वत धर्म!

 शाश्वत_धर्म !


                                   हम धर्म की परिभाषा पंथ में खोजने में लगे हैं और पंथ अपने अपने धार्मिक ग्रंथों की दिशा में जा रहे हैं। वे शाश्वत तभी है , जबकि वे हर तरह से निष्पक्ष विद्वजनों द्वारा स्वीकार किये जा रहे हों। धर्म को तो सनातन धर्म में अलग -अलग पृष्ठभूमि में व्याख्यायित किया गया है।  हिन्दू, इस्लाम , ईसाई , सिख, जैन , बौद्ध और पारसी धर्म नहीं हैं बल्कि ये तो पंथ हैं और सारे पंथों का एक ही धर्म होता है वह है सनातन धर्म। जिसकी परिभाषा  अवसरानुकूल नहीं बदलती है और हर पंथ के द्वारा स्वीकार की जाती है। 

मानव_धर्म :- 

                        यह सभी को स्वीकार है कि अगर हम पंथ कट्टरता से मुक्त है तो इसको कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता है। ये सम्पूर्ण मानव जाति के द्वारा सम्पूर्ण प्राणि जगत के प्रति निभाए जाने वाला धर्म है। जो धर्म राष्ट्र के प्रति , समाज के प्रति जो निष्काम भाव से निर्वाह किया जाता है, वही मानव धर्म है और ये तन, मन और धन तीनों ही तरीकों से निभाया जाता है। इस बात को हर पंथ स्वीकार करता है और यही सर्वोच्च धर्म है।


                       इस मानव धर्म के अंतर्गत ही आता है जीवन दर्शन के कुछ और धर्म , जिनसे किसी भी पंथ के द्वारा इंकार नहीं किया जा सकता है। 

                    मातृ_धर्म :-  माँ इस सृष्टि में सबसे महत्वपूर्ण  होती है और उसके बिना ये सृष्टि संभव ही नहीं है। गर्भाधान से लेकर प्रसव तक की क्रिया स्वाभाविक होती है और इसी कारण माँ का स्थान सर्वोच्च है। चाहे वह एकल हो , निर्धन हो , धनी हो लेकिन अपने बच्चों के पेट भरने लिए वह काम करती है , मजदूरी करती है या फिर घर घर जाकर काम करे या फिर अपने घर में रहकर काम करे। उसकी इस महानता के लिए उसके प्रति अपने धर्म को निभाना संतान का मातृ धर्म है और इसको सभी पंथ स्वीकार करते हैं। 

                   पितृ_धर्म :-  सृष्टि के निर्माण में मातृ और पितृ दोनों की भूमिका समान होती है , एक के बिना ये संभव ही नहीं है।  वह माँ की तरह ही घर से बाहर रहकर उसके जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए , उसके भविष्य को बनाने के लिए दिन रात परिश्रम करता है।  समाज के लिए एक अच्छा नागरिक बनाने के लिए सुसंस्कृत  सुसंस्कारित बनाने के लिए भी सम्पूर्ण प्रयास करता है।  एक सुरक्षित भविष्य देने के लिए अपने वर्तमान को गिरवी रख  देता है। इस धर्म को कोई भी पंथ नकार नहीं सकता।

                    संतति_धर्म :-  सारे धर्म में संतति धर्म भी उतना ही महत्वपूर्ण है।  खासतौर पर पुत्र धर्म लेकिन पुत्री भी इससे अछूती नहीं है।  अगर पुत्र  नहीं है तो पुत्री वह सारे कार्य पूर्ण करे जो पुत्र करेगा, अन्यथा जिस परिवार में वह अपने विवाह के बाद जायेगी, उसे परिवार में पुत्री या पुत्रवधू होने का धर्म पूर्ण करेगी

राष्ट_धर्म :-  

                      अगर माँ जन्मदात्री है तो मानव शरीर का निर्माण जिस  प्राकृतिक अंश से बना है , वह पृथ्वी है और इस पृथ्वी जिस पर रहते हैं वह किसी न किसी देश या राष्ट्र की होती है, अपने राष्ट्र के प्रति हर निवासी का एक धर्म होता है।  इसकी संपत्ति हमारी है , इसके जंगल , धरती , हवा और पानी सब से ही जीवन चलता है और इसकी रक्षा करना भी किसी भी पंथ का व्यक्ति हो, उसकी जिम्मेदारी है।  शाश्वत धर्म इसको आचरण में लाने के लिए बात करते हैं। 

     जीव_धर्मः-  

              सारे जीव जिनमें जीवन है जिनमें मानव सर्वश्रेष्ठ माना जाता है उसका धर्म है कि वह पशु, पक्षी, वृक्ष और जल के स्रोतों के प्रति मानवीय धर्म को पूरा करें। जिन्हें प्रकृति ने जीवन दिया है, वे आपका भी पोषण कर रहे हैं , उनहें उजाड़ो मत। उनका जीवन हरण मत करो अन्यथा हमारा जीवन दूभर हो जायेगा।

             ये सारे पंथ किसी भी रूप में उपरोक्त धर्मों से इंकार नहीं कर सकते हैं।  क्योंकि कोई भी पंथ मानव धर्म से परे नहीं है क्योंकि पंथ मानव के हित के लिए बने हैं उनके द्वारा किसी का अहित होता है तो वो पंथ अनुकरणीय नहीं है। खून खराबा, जीव, हत्या,अत्याचार , राष्ट्र की संपत्ति का विनाश किसी भी पथ में स्वीकार्य नहीं है।  

                    इन सबसे अलग एक शाश्वत धर्म ही हमको स्वीकार करना होगा , अन्यथा न कोई पंथ रहेगा और न धर्म।

प्रस्तुतकर्ता रेखा श्रीवास्तव पर 10:44 pm 2 टिप्‍पणियां:

बुधवार, 15 जून 2022

विश्व वयोवृद्ध दुर्व्यवहार निरोधक दिवस !

              हमारे देश  में तो संयुक्त  परिवार की अवधारणा  के कारण आज जो वृद्धावस्था में है अपने   परिवार में उन लोगों ने अपने बुजुर्गों  बहुत इज्जत दी होगी और उनके सामने तो घर की पूरी की पूरी  कमान बुजुर्गों के हाथ में ही रहती थी।  मैंने देखा है घर में दादी से पूछ कर सारे काम होते थे। खेती से मिली नकद राशि  उनके पास ही रहती थी।  लेकिन  उनके सम्मान से पैसे के होने न होने का  कोई सम्बन्ध नहीं था। 

  1 .   वृद्ध माँ  आँखों से भी कम दिखलाई  देता है , अपने पेट में एक बड़े फोड़े होने के कारण एक नीम हकीम डॉक्टर के पास जाकर उसको  ऑपरेट  करवाती है। उस समय  पास कोई अपना नहीं होता बल्कि पड़ोस में रहने वाली  होती है।  वह ही उसको अपने घर दो घंटे लिटा कर रखती है और फिर अपने बेटे के साथ हाथ  कर घर तक छोड़ देती है।

 
2 .   74 वर्षीय माँ घर में झाडू पौंछा करती है क्योंकि बहू के पैरों में दर्द रहता है तो वो नहीं कर सकती है।  उस घर में उनका बेटा , पोता  और पोती 3 सदस्य कमाने वाले हैं   किसी को भी उस महिला के काम करने पर कोई ऐतराज नहीं है।  एक मेट आराम से रखी जा सकती है लेकिन  ?????????? 
 
3.    बूढ़े माँ - बाप को एकलौता बेटा अकेला छोड़ कर दूसरी जगह मकान लेकर रहने लगा क्योंकि पत्नी को उसके माता - पिता पसंद नहीं थे और फिर जायदाद वह सिर पर रख कर तो नहीं ले जायेंगे . मरने पर मिलेगा तो हमीं को फिर क्यों जीते जी अपना जीवन नर्क बनायें। 
 
4 .  पिता अपने बनाये हुए  घर में अकेले रहते हैं क्योंकि माँ का निधन हो चुका है।  तीन बेटे उच्च पदाधिकारी , बेटी डॉक्टर।  एक बेटा उसी शहर में रहता है लेकिन अलग क्योंकि पत्नी को बाबूजी का तानाशाही स्वभाव पसंद नहीं है।  आखिर वह एक राजपत्रित अधिकारी की पत्नी है।

                            आज हम पश्चिमी संस्कृति के  जिस रूप के पीछे  भाग रहे हैं उसमें हम वह नहीं अपना रहे हैं जो हमें अपनाना चाहिए।  अपनी सुख और सुविधा के लिए अपने अनुरूप  बातों को अपना रहे हैं।  आज मैंने  में पढ़ा कि 24 शहरों  में वृद्ध दुर्व्यवहार के लिए मदुरै  सबसे ऊपर है और कानपुर दूसरे नंबर पर है।  कानपुर में हर दूसरा बुजुर्ग अपने ही घर में अत्याचार का  शिकार हैं।  एक गैर सरकारी संगठन  कराये गए सर्वे के अनुसार ये  परिणाम   हैं। 
 
                 हर घर में बुजुर्ग हैं और कुछ लोग तो समाज के डर  से उन्हें घर से बेघर नहीं कर  हैं, लेकिन कुछ  लोग ये भी  कर देते हैं। एक से अधिक संतान वाले बुजुर्गों के लिए अपना कोई घर नहीं होता है बल्कि कुछ दिन इधर  और कुछ दिन  उधर में जीवन गुजरता रहता है।  उस पर भी अगर उनके पास अपनी पेंशन या  संपत्ति है तो बच्चे ये आकलन  करते रहते हैं कि  कहीं दूसरे को तो  ज्यादा नहीं दिया है और अगर ऐसा है तो  उनका जीना दूभर कर देते हैं।  उनके प्रति अपशब्द , गालियाँ या कटाक्ष आम बात मानी जा सकती है। कहीं कहीं तो उनको मार पीट का शिकार भी होना पड़ता है। 
                      इसके कारणों को देखने की कोशिश की तो पाया कि  आर्थिक तौर पर बच्चों पर  निर्भर माता - पिता अधिक उत्पीड़ित होते हैं।  इसका सीधा सा कारण है कि उस समय के अनुसार आय बहुत अधिक नहीं होती थी और बच्चे 2 - 3 या फिर 3 से भी अधिक होते थे। अपनी  आय में अपने माता - पिता के साथ अपने बच्चों के भरण पोषण  में सब कुछ खर्च  देते थे।  खुद के लिए कुछ भी नहीं रखते थे।  घर में सुविधाओं की ओर भी ध्यान  देने का समय उनके पास नहीं होता था।  बच्चों की स्कूल यूनिफार्म के अतिरिक्त दो चार जोड़ कपडे ही हुआ करते थे।  किसी तरह से खर्च पूरा करते थे ,  पत्नी के लिए जेवर  और कपड़े बाद की बात होती थी।  घर में कोई नौकर या मेट नहीं हुआ करते थे, सारे  काम गृहिणी ही देखती थी। सरकारी नौकरी भी थी तो  बहुत कम पेंशन  मिल रही है और वह भी बच्चों को सौंपनी पड़ती है।  कुछ बुजुर्ग रिटायर्ड होने के बाद पैसे मकान  बनवाने में लगा देते हैं। बेटों में बराबर बराबर बाँट दिया।  फिर खुद एक एक पैसे के लिए मुहताज होते हैं और जरूरत पर माँगने पर बेइज्जत किये जाते हैं। 
                      आज जब कि  बच्चों की आय कई कई गुना बढ़ गयी है ( भले ही इस जगह तक पहुँचाने के लिए पिता ने अपना कुछ भी अर्पित  किया हो ) और ये उनकी पत्नी की मेहरबानी मानी जाती है।
-- आप के पास था क्या ? सब कुछ  हमने जुटाया है। 
-- अपने जिन्दगी भर सिर्फ  खाने और खिलाने में उडा  दिया।  
-- इतने बच्चे पैदा करने की जरूरत  क्या थी ? 
-- हम अपने बच्चों की जरूरतें पूरी  करें या फिर आपको देखें।
-- इनको तो सिर्फ दिन भर खाने को चाहिए , कहाँ से आएगा इतना ?
-- कुछ तो अपने बुढ़ापे के लिए सोचा होता , खाने , कपड़े से लेकर दवा दारू तक का खर्च हम कहाँ से पूरा करें ? 
-- बेटियां आ जायेंगी तो बीमार नहीं होती नहीं तो बीमार ही बनी रहती हैं।
-- पता नहीं कब तक हमारा खून पियेंगे  ये , शायद  हमें खा कर ही मरेंगे।  
                          
              अधिकतर घरों में अगर बेटियां हैं तो बहुओं को उनका आना जाना फूटी आँखों नहीं  सुहाता है। अपनी माँ - बाप  से मिलने आने के लिए भी उनको सोचना पड़ता है। 
                   बुजुर्गों का शिथिल  होता हुआ शरीर भी उनके लिए एक समस्या बन जाता है।  अगर वे उनके चार काम करने में सहायक हों तो बहुत  अच्छा,  नहीं तो पड़े रोटियां  तोड़ना उनके लिए राम नाम की तरह होता है।  जिसे बहू और बेटा  दुहराते रहते हैं।  अब जीवन स्तर बढ़ने के साथ साथ जरूरतें इतनी बढ़ चुकी हैं कि उनके बेटे पूरा नहीं कर पा  रहे हैं।  घर से बाहर  की सारी  खीज घर में अगर पत्नी पर तो उतर नहीं सकती है तो माँ -बाप मिलते हैं तो किसी न किसी  रूप में वह कुंठा उन पर ही उतर जाती है। 
 
                     वे फिर भी चुपचाप सब कुछ सहते रहते हैं , अपने ऊपर हो रहे दुर्व्यवहार की बात किसी से कम ही  उजागर करते हैं क्योंकि कहते हैं - "चाहे जो पैर उघाड़ो इज्जत तो अपनी ही जायेगी न।" फिर कहने से क्या  फायदा ? बल्कि कहने से अगर ये बात उनके पास तक पहुँच गयी तो स्थिति और बदतर हो जायेगी . हम चुपचाप सब सह लेते हैं कि घर में शांति बनी रहे।  ज्यादातर घरों में बहुओं की कहर अधिक होता है और फिर शाम को बेटे के घर आने पर कान भरने की दिनचर्या से माँ बाप के लिए और भी जीना दूभर कर देता है।  पता  नहीं क्यों बेटों की अपने दिमाग का इस्तेमाल करने की आदत क्यों ख़त्म हो चुकी है ? 
 
                       माता-पिता को बीमार होने  पर दिखाने  के लिए उनके पास छुट्टी नहीं होती है और वहीं पत्नी के लिए छुट्टी भी ली जाती है और फिर खाना भी बाहर से ही खा कर  आते हैं।  अगर घर में  रहने वाले को बनाना आता है तो बना कर खा ले नहीं तो भूखा पड़ा रहे  वह तो बीमार होती है।
 
                     हमारी संवेदनाएं कहाँ  गयीं हैं या फिर बिलकुल मर चुकी हैं।  कह नहीं सकती हूँ , लेकिन इतना तो है कि हमारी संस्कृति पूरी तरह से पश्चिमी संस्कृति हॉवी हो चुकी है। रिश्ते ढोए जा रहे हैं।  वे भी रहना नहीं चाहते हैं लेकिन उनकी मजबूरी है कि  उनके लिए कोई ठिकाना नहीं है। 
 
                    आज वृद्धाश्रम इसका विकल्प बनते जा रहे हैं लेकिन क्या हर वृद्ध वहाँ  इसलिए है क्योंकि वे अपने बच्चों के बोझ बन चुके हैं। हमें उनके ह्रदय में अपने बड़ों के लिए संवेदनशीलता रखें और अब तो बुज़ुर्गों के प्रति दुर्व्यवहार करने वालों के लिए दण्ड का प्राविधान हो चूका है लेकिन वयोवृद्ध बहुत मजबूर होकर ही क़ानून की शरण लेते हैं।                     
 
                      * सारे  मामले मेरे अपने देखे हुए हैं।

 

 

प्रस्तुतकर्ता रेखा श्रीवास्तव पर 1:42 am 1 टिप्पणी:

सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

पुरुष विमर्श - 3

 पुरुष विमर्श - 3 


निम्न मानसिकता 


              आज की कहानी का एक छोटा सा हिस्सा मेरे गिर्द भी घट रहा था और मैं निर्विकार उसको समझ रही थी । तब तो इसे लिखने के बारे में नहीं सोचा था।

                रमित चार भाई बहनोंं मेंं दूसरे स्थान पर था। अच्छी कम्पनी में मैनेजर था । सभी एक अच्छी लड़की की खोज में थे और एक रिश्तेदार ने उन्हें ये रिश्ता बताया ।

                इसमें कोई दो राय नहीं थी कि लड़की खूबसूरत थी और डॉक्टर भी थी। लड़के के परिवार में बड़ी बहन को छोड़ कर सभी इंजीनियर थे और वे सभी खूबसरत थे।  बड़े उत्साह से शादी की गई । करीब एक महीने दीपिका ने छुट्टी ली और ठीक से रही लेकिन आधा समय तो घूमने में गुजर गया और आधा इधर उधर जाने आने में ।

                  अब शुरू हुई उसकी सोच का दाँव पेंच में उतारना क्योंकि वह माँ बनने की स्थिति में आ चुकी थी और फिर बिस्तर से उठना गवारा नहीं था । सास ससुर, ननद और देवर को भी घर में आने वाले नन्हें मुन्ने के आने का उत्साह आ गया था । बहू और भाभी हाथों हाथ ली जा रही थी । वह तो सोच रही थी कि इसी समय कुछ लड़ने झगड़ने का मौका मिलेगा और वह यहाँ से भाग लेगी । उसकी नौकरी भी पति के नौकरी स्थल से कुछ घण्टे की दूरी पर थी ।

                  इस बीच उसने कई मौके खोजे , अपनी चीजों की चोरी का आरोप घर वालों पर लगाया लेकिन चीज बरामद होने पर गलत साबित हुई तो खिसियानी बिल्ली बन कर वह मायके चली गई । फिर वहीं पर बेटा हुआ और उसने घर आने से इंकार कर दिया तो सारे घर वाले मनाने पहुँच गये कि घर की पूजा वगैरह तो वहीं होंगी तो उसकी माँ ने भेजने से मना कर दिया ।

                  सब वापस लौट आये । रमित कुछ दिन वहीं रहा और घर वाले बच्चे के मोह में आते जाते रहे । एक दिन जब ये लोग पहुँचे तो घर में ताला बंद था और फोन भी बंद था। पता नहीं लग पाया । रमित ने पता किया तो उसने अपनी नौकरी ज्वाइन कर ली थी और बच्चे के लिए माँ को ले गई थी।

                  शनिवार और रविवार रमित वहाँ जाता रहता था कि कभी तो सही होगी, अब तो बच्चा भी हो गया है। वह छुट्टी में वहाँ जाने लगी । पाँच दिन अपनी नौकरी पर रहती । अपने घर का सपना पूरा करना चाह रही थी । ससुर पर दबाव डालने लगी कि मकान बेचकर आधा पैसा दो मैं अपना मकान लूँगी। ससुर ने मना कर दिया कि अभी मुझे अपनी बेटी और एक बेटे की शादी करनी है।

                 उसने पति को घर जाने से रोक दिया और जब भी गया उसने तमाशा खड़ा कर दिया। मैं और उसकी बहन एक साथ काम करते थे।  दिल्ली में हम लोग कांफ्रेंस के लिए गए , हम लोग एक ही रूम को शेयर कर रहे थे।  मैं सारी चीजों से वाकिफ थी।  वह मुझसे बोली कि मैं भैया से मिलने जा रही हूँ और लौट कर आयी तो वह मेरे गले लग कर फूट फूट कर रोयी। मैंने उसे चुप कराया और पूछा बात क्या हुई ? 

                  तब उसने बताया कि भैया मुझे घर नहीं ले गए बल्कि उन्होंने बताया कि जब मैं पिछली बार उनके घर गयी थी तो लौट कर उसने बहुत कहर बरपाया कि "तुम्हारी बहन मेरे घर में क्यों आयी थी ? इसी बैड पर बैठी होगी , उसने मेरे बेड को कैसे प्रयोग किया ? मेरी अनुपस्थिति में आने की जरूरत क्या थी ? आइंदा मेरे घर में आने की कोई जरूरत नहीं है।" 

                       मैंने उसे बहुत समझाया और उसकी काउंसलिंग करके ठीक किया।  भाभी उसकी शादी भी जहाँ बात चलती, गलत बातें फैला कर होने न देती बल्कि उसने चुनौती दे रखी थी कि बाकियों की मैं शादी न होने दूँगी। 

                     उसके रोज रोज के बढ़ते अत्याचारों से एक दिन पति ने आत्महत्या की कोशिश की , लेकिन डोज़ कुछ कम थी और वह तीन दिन बेहोश रहकर ठीक हो गया।  लेकिन अवसाद में इतना डूब चुका था कि उसने बगैर बताये होटल में कमरा लेकर रहने लगा।  उसके जीवन से ऑफिस वाले भी अवगत थे क्योंकि वह बहुत ही सुलझा हुआ इंसान था।  जब उसकी समस्या का कोई समाधान नहीं निकला तो उसने अपनी कंपनी में बात करके बाहर भेजने की बात की और कंपनी ने उसको बाहर भेज दिया।  फिर वह न भाई की शादी में आया और न ही बहन की शादी में। वह आज भी बाहर ही है। उन्होंने किसी को नहीं बताया कि वह कहाँ है ? सब यहाँ से वहीँ शिफ्ट हो गए।

प्रस्तुतकर्ता रेखा श्रीवास्तव पर 3:58 am 1 टिप्पणी:

बुधवार, 9 फ़रवरी 2022

झांसे का मनोविज्ञान !

 झाँसे का मनोविज्ञान !

 

                          झाँसा आज के युग में ही नहीं बल्कि ये प्राचीन काल से चला आ रहा है और इससे जुड़ा हुआ रहता कोई एक अपराध , जो कि इसका जनक होता है। कुछ सीधे सादे लोग और कुछ धूर्त और चालाक लोग इसका फायदा उठाने की नियत का शिकार हमेशा से होते रहे हैं। जब सत्य सामने आता है तो कोई न कोई सिर पीट कर रह जाता हैं या फिर क़ानून के लम्बे पचड़े में फँस कर घुट घुट कर जीने को मजबूर होते हैं। 

विश्वास की हत्या :--

                             ये झाँसा किसी बहुत अपने द्वारा दिया जाता रहा है , तभी तो जल्दी विश्वास कर लिया जाया है और उन्हें पता नहीं होता है कि उनके विश्वास की हत्या हो रही है। जो झाँसा देने वाला होता है, उसको पूरा विश्वास होता है कि सामने वाला उसके ऊपर पूरा विश्वास  करता है और उसके पास शक करने की कोई भी गुंजाइश नहीं है। हम कुछ भी कर सकते हैं। वह झाँसा देने में पूरी तरह से सफल होगा। अपने विश्वास को वह कई तरह से प्रयोग करता है - कभी बेटे और बेटी की शादी में - किसी भी तरह की कमी युक्त लड़के या लड़की का रिश्ता करवाना और असलियत को छिपा देना , नौकरी का झाँसा देकर रकम वसूल कर लेना , शादी का झाँसा देकर लड़की का दैहिक शोषण करते रहना , प्रमोशन के लिए लड़की या लडके को झाँसे में रख कर शोषण करना या फिर रुपये ऐंठना। कुल मिला कर विश्वास की हत्या ही होती है।

लालच की प्रवृत्ति :- 

                           इस झाँसे का शिकार हमेशा लालच की प्रवृत्ति रखने वाले लोग होते हैं। बगैर मेहनत के कुछ पा लेने का लालच - कम समय में पैसे का दुगुना मिलना , सरकारी नौकरी का लालच , शादी का लालच (विशेषतौर पर बॉस या किसी पैसे वाले लडके के साथ सम्बन्ध करने का लालच) , विदेश में नौकरी का लालच , बच्चे को शहर से बाहर अच्छे काम दिलवाने के लालच में आना। अपनी कमिओं को कोई भी नहीं समझना चाहता है और बगैर किसी मेहनत के बहुत कुछ पा  लेने का लालच की प्रवृत्ति ही इसके लिए जिम्मेदार होती है। असलियत से परिचित होने पर सिर्फ सिर पीट कर रह जाते हैं और कभी भी खोई हुई चीज वापस नहीं मिलती है।

पीड़ित खुद जिम्मेदार :- 

                              झाँसे के लिए पीड़ित खुद जिम्मेदार होता है क्योंकि वह अपने स्वार्थ के लिए स्वयं समझौता करता है।  वह समझौता चाहे पैसे का हो , रिश्ते का हो।  इस जगह कोई भी जबरदस्ती नहीं होती है बल्कि लड़कियों के मामले में चाहे गरीबी हो , बड़े घर में शादी का मामला हो , प्रमोशन का मामला या फिर नौकरी का मामला हो।  आपको कोई मजबूर नहीं कर सकता है , अगर आप खुद कहीं भी समझौता न करना चाहे तो ? आपको अच्छी नौकरी चहिए होती है, तो मालिक के झाँसे में आ सकते हैं , यह बात दोनों पक्षों पर लागू होती है। जो शिकायत लेकर आते हैं , वे खुद ही स्वार्थ में लिपटे हुए होते हैं और अगर आप सही रास्ते पर चलने वाले हों तो आपको कोई झाँसे में ले नहीं सकता है।

दण्ड का प्राविधान :-                

                            अगर झाँसे देने वालों के लिए दण्ड का प्राविधान है तो फिर झाँसे के लालच में लिप्त होने वाले के लिए भी दण्ड का प्राविधान होना चाहिए।  जब तक आपको अपने स्वार्थ सिद्धि की आशा रही आप शोषित होते रहे और जब सफल होते न दिखाई दिए तो क़ानून की सहायता लेने पहुँच गए , आखिर क्यों ? जब आप अपने स्वार्थ सिद्धि होते देख रहे थे तब तो आपने क़ानून से सलाह नहीं ली थी। आप दोषारोपण के लिए जब आते हैं तो उतने ही अपराधी होते हैं जितना कि दूसरा। 

                           झाँसे का मनोविज्ञान है यही कि कोई फायदा उठा है और कोई किसी फायदे को अपनी स्वार्थसिद्धि की बैशाखी बना कर प्रयोग करता है।  लालची हमेशा झाँसे में आने वाला होता।  इस मनोविज्ञान को समझ कर दोनों ही आपराधिक श्रेणी में रखा जाना चाहिए। पहले तो इस झाँसे में आने की प्रवृत्ति को  मन में पनपने  नहीं देना चाहिए।

 

प्रस्तुतकर्ता रेखा श्रीवास्तव पर 6:23 am 1 टिप्पणी:
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मैं अपने बारे में सिर्फ इतना ही कहूँगी कि २५ साल तक आई आई टी कानपुर में कंप्यूटर साइंस विभाग में प्रोजेक्ट एसोसिएट के पद पर रहते हुए हिंदी भाषा ही नहीं बल्कि लगभग सभी भारतीय भाषाओं को मशीन अनुवाद के द्वारा जन सामान्य के समक्ष लाने के उद्देश्य से कार्य करते हुए . अब सामाजिक कार्य, काउंसलिंग और लेखन कार्य ही मुख्य कार्य बन चुका है. मेरे लिए जीवन में सिद्धांत का बहुत बड़ी भूमिका रही है, अपने आदर्शों और सिद्धांतों के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया. अगर हो सका तो किसी सही और गलत का भान कराती रही यह बात और है कि उसको मेरी बात समझ आई या नहीं.
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