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मंगलवार, 24 मार्च 2020

गुड़ी पड़वा / नव संवत्सर /युगादि !

                     फाल्गुन के जाने के बाद उल्लासित रूप से चैत्र मास का आगमन होता है। प्रकृति ने चारों और पीत  रंग बिखेर कर मन उल्लास से भर दिया होता है। मौसम भी दिन में अगर थोड़ी सी गर्मी लिए होता  तो सुबह और शाम में गुलाबी ठंडक मन को सुकून भी देती है।         
                   भारतीय संस्कृति में गुड़ी पड़वा को चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को विक्रम संवत के नए साल के रूप में मनाया जाता है। इस तिथि से पौराणिक व ऐतिहासिक दोनों प्रकार की ही मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। 
ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र प्रतिपदा से ही ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इसी तरह के उल्लेख अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण में भी मिलते हैं। इसी दिन चैत्र नवरात्रि भी प्रारंभ होती हैं।  यह आंध्र प्रदेश व महाराष्ट्र में तो विशेष रूप से लोकप्रिय पर्व है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही हिंदू नववर्ष का आरंभ भी माना जाता है। इसी दिन से संवत्सर का आरम्भ होता है।

 गुड़ी पड़वा:  गुड़ी पड़वा यदि शाब्दिक रूप से देखा जाये तो गुड़ी कहते हैं  , गुड़ी का अर्थ है विजय पताका तो वहीं पड़वा प्रतिपदा तिथि को कहा जाता है। इसीलिये इस दिन लोग घरों में गुड़ी फहराते हैं। आम के पत्तों की बंदनवार से घरों को सजाते हैं।

गुड़ी पड़वा कहानी   
गुड़ी पड़वा पर्व पर पौराणिक ग्रंथों में कई कहानियां मिलती हैं उनमें से प्रचलित कहानी है वह है भगवान श्री राम की बाली पर विजय की। मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री राम ने दक्षिण में लोगों को बाली के अत्याचारों व कुशासन से मुक्ति दिलाई थी। इसी खुशी में हर घर में गुड़ी यानि कि विजय पताका फहराई गई। यह परंपरा तभी से कई स्थानों पर आज तक जारी है।
                   इसी पर्व से जुड़ी एक और कहानी है जो शालिवाहन शक से भी जुड़ी हुई है। मान्यता है कि किसी जमाने में शालिवाहन नामक एक कुंभकार के पुत्र ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाई व पानी छिड़कर उस सेना में प्राण फूंक दिये। फिर इसी सेना की मदद से उसने शक्तिशाली शत्रुओं का नाश किया। शालिवाहन की शत्रुओं पर प्राप्त की गई इसी विजय के प्रतीक स्वरूप शालिवाहन शक का भी आरंभ हुआ। इसी विजय के उपलक्ष्य में गुड़ी पड़वा का यह पर्व भी मनाया जाता है। 

 कैसे मनाते हैं गुड़ी पड़वा पर्व? 
             हिंदू लोग इस दिन गुड़ी का पूजन तो करते ही हैं साथ ही घर के दरवाजे आम के पत्तों से बनी बंदनवार से सजाये जाते हैं। ऐसा करने के पीछे  यही मान्यता है कि बंदनवार घर में सुख-समृद्धि व खुशियां लेकर आती है। पर्व की खुशी में विभिन्न क्षेत्रों में विशेष प्रकार के व्यंजन भी तैयार किये जाते हैं। पूरनपोली नाम का मीठा व्यंजन इस पर्व की खासियत है। महाराष्ट्र में श्रीखंड भी विशेष रूप से बनाया जाता है। वहीं आंध्रा में पच्चड़ी को प्रसाद रूप मे बनाकर बांटने का प्रचलन भी गुड़ी पड़वा के पर्व पर है। बेहतर स्वास्थ्य की कामना के लिये नीम की कोपलों को गुड़ के साथ खाने की परंपरा भी है। मान्यता है कि इससे सेहत ही नहीं बल्कि संबंधों की कड़वाहट भी मिठास में बदल जाती है।

नव संवत्सर प्रारम्भ :    चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा 'वर्ष प्रतिपदा' कहलाती है। इस दिन से ही नया वर्ष प्रारंभ होता है। इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का निर्माण किया था। इसमें मुख्यतया ब्रह्माजी और उनकी निर्माण की हुई सृष्टि के मुख्य-मुख्य देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षस, गन्धर्वों, ऋषि-मुनियों, मनुष्यों, नदियों, पर्वतों, पशु-पक्षियों और कीटाणुओं का ही नहीं, रोगों और उनके उपचारों तक का पूजन किया जाता है।
                    संवत्सर अर्थात बारह महीने का कालविशेष। संवत्सर उसे कहते हैं, जिसमें सभी महीने पूर्णतः निवास करते हों।नवसंवत्सर का आरम्भ भी इसी दिन से होता है।  नववर्ष का आरम्भ होता है और हिन्दू पंचांग का आरम्भ इसी  दिन से होता है और इसको बड़े उत्सव की तरह ही मनाया जाता है।  चैत्र नवरात्रि का आरम्भ भी इसी दिन से होता है। 

चेटीचंड :      सिंधी समाज का नववर्ष के रूप में चैत्र की प्रतिपदा को ही  झूलेलाल जी के जन्मोत्सव के रूप में ही मनाया जाता है।

युगादि पर्व :  उगादी या युगादि  नव वर्ष की ख़ुशी में मनाया जाता है।जैसे की इस शब्द से प्रकट होता है युग आदि अर्थात युग या वर्ष का प्रारम्भ।   यह पर्व दक्षिण राज्यों में बहुत ही धूम धाम से मनाया जाता है। यह माना जाता है ब्रह्मा जिन्होंने इस सृष्टि की रचना की ,  उन्होंने इसी दिन इस ब्रह्माण्ड को बनाना शुरू किया था। इस दिन को कर्णाटक और आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में नव वर्ष की शुरुआत भी माना जाता है।
               इस दिन लोग अपने घरों और आस पास की अच्छे से साफ सफाई करते हैं और अपने घरों के प्रवेश द्वार में आम के पत्ते लगाते हैं। लोग इस दिन अपने लिए और अपने परिवार जनों के लिए सुन्दर कपडे खरीदते हैं। इस दिन सभी लोग सवेरे से उठते हैं और तिल के तेल को अपने सर और शारीर में लगाते हैं और उसके बाद वे मंदिर जाते हैं और प्रार्थना करते हैं।  लोग इस दिन बहुत ही स्वादिष्ट खाना और मिठाइयाँ बनाते हैं और अपने परिवार और आस पास के लोगों को बाँटते भी हैं। तेलंगाना में इस त्यौहार को 3 दिन तक लगातार मनाया जाता है   
             

सोमवार, 23 मार्च 2020

शहीद दिवस - 23 मार्च !

         



         
आज २३ मार्च उन तीन वीरों  भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव के बलिदान होने का दिन हैं,  जिन्होंने अंग्रेजी सरकार की चूलें हिला दी थीं। हम कुछ लोग नम आखों से उनको याद करते हैं  और उनकी क़ुर्बानी को नमन करते हैं।  बस हम कुछ संवेदनशील ही न - बाकी वे जो संसद में बैठे हें , जो विधान सभा में बैठे हें और वे जो बड़े बड़े मंत्रालयों को संभाल रहे हें उनके लिए ये दिन पता नहीं कैसा गुजरता होगा? उनके पास समय नहीं होगा इन वीरों को याद करने का क्योंकि अब वे बीते कल के नायक हो चुके हें और आज के नायक तो यही है हर स्याह और सफेद करने के लिए।
           ये पत्र पत्रिका में कुछ संवेदनशील लेखक और मीडिया इसको याद कर लेती है . हो सकता है कि हमारे सांसदों और विधायकों को ये पता भी न हो कि आज के दिन को शहीद दिवस कहा क्यों जाता है? आने वाले समय में हमारी भावी पीढ़ी इस बात को बिल्कुल ही याद नहीं कर पायेगी क्योंकि कभी स्कूलों में ऐसे दिन कोई याद करने जैसी बात तो होती ही नहीं है कि प्रारंभिक कक्षाओं में ही बच्चों को शिक्षक इन शहीदों के बलिदान दिवस पर कुछ मौखिक ही बता में भी कभी लघु कथा के रूप में और कभी पूरे पाठ के रूप में देश के इन शहीदों की कहानी होनी चाहिए। इस देश की स्वतंत्रता के इतिहास के ये नायक गुमनाम न रह जाएँ।
इन्होने किस जुल्म में अपने को फाँसी पर चढ़ा दिया ये भी तो बच्चों को पता होना चाहिए। कहीं ये सब कालातीत तो नहीं हो चुकी है । क्योंकि कहीं कहीं पाठ्यक्रम में इन्हें आतंकवादी भी उल्लिखित किया जा चुका है । ऐसा विचार मेरे मन में क्यों आया? ये भी मैं आप सबको बताती चलूँ- आज डॉ राम मनोहर लोहिया जी का भी जन्मदिन है , जिन्होंने इस समाज के लिए बहुत कुछ किया । समाजवादी विचारधारा के जनक उन्हीं को माना जाता है ।
           आज कोरोना के चलते सिर्फ मानव जाति को बचाने की जद्दोदहद में सब लगे हैं और हम शायद फुर्सत में हूँ और उन शहीदों को नमन करती हूँ , जो इस स्वतंत्र भारत के लिए न्योछावर हो गये थे ।

गुरुवार, 12 मार्च 2020

ईगो एक मनोविकार !

       अखबार में एक खबर पढ़ी थी - "पति ने "सॉरी" नहीं कहा तो गर्भवती ने आग लगा ली।" पढ़ा और उसकी तस्वीर भी देखी और फिर एक घटना समझ कर बंद कर दिया। आज ही पता चला कि वह मेरे एक करीबी रिश्तेदार की चचेरी बहन थी।

            जैसा कि समाचार में लिखा गया था, वाकई सत्यता वही थी। पति रेलवे में नौकरी करता था और अभी एक साल पहले ही शादी हुई थी। उसको अपने ऑफिस से आने में देर हो गयी और आने पर उसने पत्नी से "सॉरी" नहीं बोला और उसकी पत्नी के अहम् को इतनी चोट लगी कि उसने न आगा सोचा और न पीछा और जाकर मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा ली। उसे बुझाने में पति भी झुलस गया लेकिन उसको और उसके गर्भस्थ शिशु को नहीं बचाया जा सका।

       एक यही नहीं बल्कि अक्सर सुनते हैं कि माता-पिता , भाई या बहन के डाँटने पर फाँसी लगा ली । ये घटनाएं अक्सर किशोरावस्था के बच्चों के बीच होती हैं । बड़ी जल्दी इनकी इगो आहत हो जाती है।

क्या है इगो या अहम् ?

  ये है अहम् या इगो । कहते हैं वास्तव में एक मनोरोग है । यह व्यक्ति में अपने को अतिरिक्त गुणों से युक्त होने का भ्रम भी पैदा कर देता है। जिसके कारण ही वह विशेष व्यवहार की आशा करता हैं । ये इगो लड़कियों में आमतौर पर अधिक पायी जाती है। वे अपने को घर में सबसे खूबसूरत समझने पर , अधिक धनवान परिवार की होने पर, इकलौती संतान होने पर या फिर परिवार में उसको अधिक महत्व देने पर पैदा हो जाती है। ये मनुष्य के स्वभाव का एक सामान्य गुण नहीं है और तब तो बिल्कुल ही नहीं जब कि वह अपने आगे किसी को भी कुछ न समझती हो।

                  ऐसे गुण बच्चों में थोड़ा बड़े होते ही प्रस्फुटित होने लगते हैं। इस समय जरूरत होती है कि बच्चों को बहुत सावधानी से समझाया जाए और ये भी नहीं होना चाहिए कि माँ ने उसको समझाने का प्रयास किया और पिता या दादी और दादा ने उसको शह दे दी। ये आदतें  बचपन में बहुत अच्छी लगती हैं,  लेकिन बड़े होने पर वे इतने गहरे जड़ें जमा चुकी होती हैं कि वह जीवन में ऐसे निर्णय भी लेने में संकोच नहीं करती हैं ।

ईगो से मुक्ति या नियंत्रण कैसे हो ?

                 अगर इगो की ये समस्या पारिवारिक जीवन में या फिर वैवाहिक जीवन में सामंजस्य स्थापित करने में आड़े आने लगे तो मनोचिकित्सक से सलाह ली जा सकती है और उसको काउंसलिंग के द्वारा भी समझाया जा सकता है। वैवाहिक जीवन में दोनों में से किसी भी एक का अहमवादी होना दूसरे के जीवन को नरक बनाने में पूर्ण रूप से जिम्मेदार होता है।

कुछ लोग इस इगो को स्वाभिमान के रूप में परिभाषित करते हैं लेकिन ये गलत है, स्वाभिमान और अहम् दोनों ही अलग अलग मनोभाव होते हें। जहाँ स्वाभिमान सकारात्मक भाव है वहीं इगो नकारात्मक भाव है। स्वाभिमान के लिए व्यक्ति खुद को संयमित भी रखता है और उसके आहत होने पर वह विपरीत प्रतिक्रिया कम ही करता है , लेकिन इगो में वह संयमित नहीं होता है बल्कि उसके आहत होने पर कभी खुद को और कभी दूसरे को भी हानि पहुंचा सकता है। उसके लिए अहम् पर चोट पहुँचना जीवन मरण का प्रश्न बन जाता है ।

इस लेख के लिखने का मेरा तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि हम अपने घर में , अपने परिचितों के घर में अगर बच्चों में इस तरह की भावना को पलते हुए देखें तो उनको आगाह किया जा सके। ये काम घर में और स्कूल में दोनों ही जगह पर किया जा सकता है क्योंकि घर में फिर भी कम लेकिन स्कूल में बच्चे इस तरह के भावों का प्रदर्शन बहुत अधिक करते हें। कालेजों में छात्रों में होने वाले संघर्ष के पीछे कभी कभी ये भी भाव रहता है। जिसे हम वर्चस्व की लड़ाई कहते हें उसके पीछे काम करने वाली भावना यही अहम् या इ
ईगो होती है।

         अगर समय रहते इसको संयमित कर लिया गया तो घर और परिवार दोनों के लिए अच्छा होगा, नहीं तो बच्चे की ये ईगो माँ बाप , भाई , बहन या किसी भी पारिवारिक सदस्य के लिए कोई भी मुरव्वत नहीं करती है। वे ऐसे निर्णय ले बैठते हैं , जिससे कि एक और कभी कभी दो परिवार जीवन भर के लिए कष्ट पाते हैं।
           बचपन में ही अगर इस ईगो का पता चल जाता है तो काउंसलिंग के द्वारा उसको सामान्य स्तर पर लाया जा सकता है । किशोरावस्था में भी ईगो का शमन करने के लिए भी काउंसलिंग की जानी चाहिए। एकमात्र यहीं रास्ता हैं।